अनाश्रितः
कर्मफलं
‘अनाश्रितः
कर्मफलं’ बड़ा ही गूढ़ संदेश है। वर्तमान
समय में साधु, सन्त, संन्यासिओं की बाढ़ आयी हुयी है। समाज का बहुत बड़ा वर्ग
पलायनवादी हो गया है, कर्त्तव्य-विमुख हो गया है।
बहुरूपिये
की तरह बाना बना लेना, घर-द्वार छोड़ देना, मठों में जा बसना, भिक्षाटन करना, धूनी
रमाना, शिववूटी के नाम पर भाँग-गाँजा का सेवन करना, तरह-तरह के मनमाने तप, यज्ञ,
साधनादि करना, वाह्याडम्बरपूर्ण दिखावे में जीवन व्यतीत करना सहज कृत्य हो गया है।
सम लोष्ठाश्म काञ्चनः के विपरीत
ऐश्वर्य-संग्रह में लिप्त रहकर, मोक्षमार्ग से भटककर, भोगमार्ग में प्रवृति हो गयी
है।
ये
कह कर साधु, सन्त, संन्यासी की निन्दा करना उद्देश्य नहीं है, क्योंकि इनकी महत्ता
और सामाजिक उपादेयता को कदापि नकारा नहीं जा सकता, किन्तु आन्तरिक तथ्यों पर
किंचित प्रकाश तो डालना ही होगा, अन्यथा विभ्रम-जाल और सघन होता चला जायेगा, जिससे
मानवता का भारी नुकसान होगा।
वस्तुतः
त्याग के नाम पर हम जिस वस्तु या क्रिया का त्याग करते हैं, उससे असली त्याग कदापि
नहीं हो पाता । पारिवारिक दायित्वों से पलायन करते हैं, किन्तु मन्दिर-मठ-आश्रम
आदि के दायित्वों में जकड़ जाते हैं। परिवार-रिश्तेदार से अलग हो जाते हैं,किन्तु
चेले-चेलियों की भीड़ जुटा लेते हैं। परिणीता पत्नी का मोह भले ही त्याग लें,
किन्तु अनेक नारी-नयनों का शिकार बन जाते हैं और आद्यशंकर का ये उपहास पूर्णतः
घटित होने लगता है—
जटिलो मुण्डी लुञ्चित केशः काषायाम्बर बहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि न च पश्यति मूढ़ः उदर निमित्तं बहुकृत वेषः ।।
वस्तुतः
इनके लिए धर्म का मर्म बहुत दूर छिटक चुका होता है और ऐसे में श्रीकृष्ण का वचन
समीचीन हो जाता है—
अनाश्रितः
कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स
संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।। ६-१।।
श्रीमद्भगवद्गीता का ये अद्भुत संदेश
बड़ा ही मननीय है। इसे श्रीकृष्ण ने ‘ आत्मसंयमयोग’ के
प्रसंग में युद्धभूमि में विकल, दिग्भ्रमित, कर्त्तव्यच्युत प्रिय सखा अर्जुन को कर्म
और त्याग के व्यावहारिक संशय का निवारण करने के क्रम में कहा है, क्योंकि इसके
पहले ही कर्मयोग विषयक तीसरे अध्याय में अर्जुन ने श्रीकृष्ण पर ये आरोप लगाया है कि आप भ्रामक संदेशों का प्रयोग कर रहे हैं—व्यामिश्रेणेव
वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे । (३-२ पूर्वार्द्ध)
सखा
तो अन्ततः सखा ही होता है—प्रियतम सा। जिस भाँति पत्नी को अधिकार है अपने प्रियतम से
हठ करने का, बच्चे को अधिकार है माता-पिता से हठ करने का, उसी भाँति सखा को भी
विशेषाधिकार प्राप्त है हठ का। ये विशेषाधिकार ही कभी-कभी उपहास वा उपालम्भ के रुप
में प्रकट हो जाता है। अर्जुन भी इसी अधिकार से कृष्ण को आरोपित किया है उक्त
प्रसंग में।
सुयोग्य
प्रियतम कोई आवश्यक नहीं कि तत्काल ही प्रत्युतर दे दे, प्रतिकार कर दे उपहास वा
उपालम्भ का। प्रायः वह समुचित अवसर की प्रतीक्षा करता है।
लम्बी
चर्चा के पश्चात यहाँ, तीसरे के वजाय छठे अध्याय में अर्जुन के उसी पुराने संशय का समाधान कर रहे हैं
श्रीकृष्ण। कर्म करने
के अधिकार पर बल देते हुए, फलाकांक्षा के त्याग के विषय में पहले ही बता चुके हैं—कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन। (२-४९ पूर्वार्द्ध)
श्रीकृष्ण
के काल में भी किंचित आडम्बरों का समावेश था। धर्म-कर्म की परिभाषा और नियम लोग
अपनी सुविधानुसार गढ़ लिए थे। अतः उन आडम्बरों और क्षेपकों को निरस्त करने का
समुचित प्रयास किया श्रीकृष्ण ने। टेढ़े-मेढ़े मन (विचार) वाला अर्जुन उस दिग्भ्रम
का मूर्तिमान स्वरुप है। उस भ्रम-मूर्ति का नाश ही सखा कृष्ण का कर्त्तव्य बन गया,
जो हमें श्रीमद्भगवद्गीता के रुप में उपलब्ध है।
युद्ध
करना क्षत्रिय-धर्म है। पारिवारिक दायित्वों का समुचित पालन गृहस्थ-धर्म है। किन्तु विडम्बना ये है कि ‘हम
घर-परिवार त्याग चुके हैं, हम केवल फलाहार करते हैं, हम अग्नि का त्याग करते हैं, पका
हुआ अन्न नहीं लेते, हम नंगे रहते हैं, हम
बारह वर्षों से एक पैर पर खड़े हैं, हम आँखे मूंद कर ध्यान मग्न रहते हैं....’ इत्यादि
तरह-तरह के नियम-संयम ओढ़े हुए लोग हैं।
ध्यातव्य
है कि सूक्ष्म जीव-जन्तुओं से लेकर उत्कृष्ट मानव पर्यन्त, भूलोक से लेकर
ब्रह्मलोक पर्यन्त समस्त संसार कर्मफल मात्र है। संसार— वस्तु, व्यक्ति और क्रिया
का समन्वित स्वरुप है। वस्तुमात्र की प्राप्ति-अप्राप्ति होती है। व्यक्तिमात्र का
संयोग-वियोग होता है और क्रियामात्र का आरम्भ-अन्त सुनिश्चित है। इसीलिए उक्त
श्लोक में श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि जो वस्तु, व्यक्ति और क्रिया—इन तीनों के
आश्रय का त्याग करते हुए, प्राप्त कर्त्तव्य का सम्यक् पालन करता है, वही सच्चा
संन्यासी और योगी है। जिसने कर्मफल का त्याग कर दिया है , वही असली सांख्ययोगी और
कर्मयोगी है। स्पष्ट है कि लौकिक तो लौकिक, पारलौकिक कामनाएँ भी पूर्णत्व में बाधक
हैं। गहरे अर्थों में हम कह सकते हैं कि भोग या कि मोक्ष-कामना में बहुत ज्यादा
अन्तर नहीं है।
यहाँ
ये रहस्य भी गुप्त है कि ‘योगश्चित्तवृत्ति
निरोधः’—(पातञ्जल योगसूत्र) चित्तवृत्तियों का निरोध करने मात्र
से योगी नहीं हो सकता, यथेष्ट सिद्धियाँ भले ही प्राप्त कर ले। असली योगी तो
कर्मफल-त्यागी ही है। अर्जुन को वैसा ही
योगी बनने का सुझाव या कहें आदेश दे रहे हैं श्रीकृष्ण।
स्पष्ट
है कि संन्यास जटा-जूट, चीवर-चिमटा, टीक-टीका
नहीं है। परमात्मा के अनमोल उपहार—मानव शरीर को अनावश्यक पीड़ित करना तपश्चर्या
नहीं है। आश्रम-मठादि संचालन साधुता नहीं है। कन्दरओं में जा छिपना सन्तत्व नहीं है।
संसार
में रहते हुए, विहित कर्त्तव्य-कर्मों का सम्यक् निर्वहन करते हुए, प्राणीमात्र के
कल्याण की भावना से, फलेस्पृहा रहित, निर्लिप्त भाव से, निर्विकार रुप से जीवनयापन
ही असली संन्यास है।
संन्यास-धर्म
कोई चादर नहीं है, जिसे ‘कनफूकवा गुरु’
की ‘दीक्षा-दुकान’ से लेकर ओढ़ लिया जाए। हठात घटित हो जाने वाली घटना भी
नहीं है। सम्यक् रुप से ‘स्व में न्यस्त’ हो जाने की प्रक्रिया है संन्यास, जिसके लिए अनवरत प्रयत्नशील
रहना होता है। सतत सजग रहना होता है। कायशुद्धि से लेकर, विचार-शुद्धि और
भावशुद्धि तक की लम्बी प्रक्रिया है संन्यास। ये सतत- सुदीर्घ अभ्यास का विषय है। निरन्तर
लगे रहने की आवश्यकता है, जब जितना सध जाए। अस्तु।
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