शपथ समारोह की नौटंकी

 शपथ समारोह की नौटंकी

 

भुलेटन भगत अपनी झोपड़ी के बाहर खुले आकाश के नीचे ताड़ की टुटही चटाई पर बैठे सुबह की कुनकुनी धूप सेंक रहे थे। उनका दाहिना हाथ गाल पर टिका था और बाएं हाथ से सामने खुले अखवार के पन्ने पलट रहे थे। अगल-बगल में ढेर सारी कूट की दफ्तियाँ बिखरी पड़ी थी, जिनपर नशा-विमुक्ति और शराब-बन्दी के पैगाम आड़े-तिरछे  हरूफ़ों में लिखे हुये थे। चेहरे पर डीजे-डिजीटल-लाइट की तरह तीखे विचारों की तरंगे तैर रही थी, जिसे कोई भी समझदार आदमी आसानी से भाँप सकता था। नासमझों के लिए तो दुनिया में विचारों का कोई मोल ही नहीं होता।

 

ये सब क्या है भगतजी—मैंने पूछा और पँवलग्गी करके, चटाई पर बैठ गया।

भगतजी ने अखबार मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा— ये देखो बचवा ! आज का ताज़ा खबर और ये सब देखो कूट-कागज की विलखती दफ्तियाँ, जिन्हें कल के ज़श्न-ए-जुलूश  में इस्तेमाल किया गया था। तुम्हें शायद पता हो, सिर्फ दफ्तियाँ ही नहीं इस्तेमाल हुयी थी, बल्कि शहर के सारे स्कूलों के बच्चे भी इस्तेमाल हुए थे—नशाबन्दी के इस्तेहार में। दफ्तियाँ तो जुलूश के बाद फेंक दी गयी कूड़े के ढेर पर, किन्तु हमारे नवनिहालों का क्या होगा, जिन्हें पढ़ने-लिखने के ख्याल से स्कूलों में भेजा जाता है, परन्तु सरकारी विज्ञापनों के लिए इस्तेमाल किया जाता है—जन-जागरूकता अभियान के नाम पर। सेलेब्रेटियों को तो पैसा मिलता है हर जरूरी-बे-जरूरी चीजों के इस्तेमाल के इस्तेहार के लिए, चाहे वो सामान समाज-राष्ट्र-मानवता के हित में हो या अनहित में। उन्हें सिर्फ दौलत-शोहरत से वास्ता होता है। हित-अनहित से क्या लेना-देना। परन्तु ये बच्चे ! इन्हें इस्तेहार का मोहरा बनाने का क्या तुक?

 

मैंने सिर हिलाते हुए हामी भरी— बिलकुल सही कह रहे हैं भगतजी । हमेशा कुछ न कुछ सरकारी नौटंकियाँ चलती रहती हैं। खासकर सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के अलावे बाकी के सब काम चलते रहता है। पिछले साल ही देखा था अपने गांव के हेडमास्टर साहब को बच्चों से घिरे हुए, डुगडुग्गी बजाकर जन-जागरूकता अभियान चलाते हुए। इस बार तो सुनते हैं कि सभी सरकारी दफ़्तरों में, यहाँ तक कि अदालतों में भी शपथ-ग्रहण समारोह हुआ— नशाविमुक्ति अभियान के तहत ।

 

आँखें तरेतते हुए भगतजी, जरा गम्भीर होकर बोले— मंत्रीजी से चूक हो गयी होगी। सलाहकार ने शायद सुझाया नहीं होगा उन्हें । क्या ही अच्छा होता— चकलों और कोठों पर भी शपथ-समारोह मनाये जाते— नशा-विमुक्ति के। लगना ही क्या है शपथ लेने में, इसी बहाने समाहोह का एक मौका तो मिला न। शपथ लेने वाला भलीभाँति जानता है और शपथ दिलाने वाला भी कि शपथ लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। देखते ही हो कि अदालतों की कारवाई शपथ-ग्रहण के साथ ही शुरु होती है। बिना कस़म के ग़वाही कबूली नहीं  जाती। जबकि जज साहब भी बखूबी वाकिफ़ हैं कि कस़म खाना और टॉफी खाना बिलकुल एक जैसी बात है। सच्चाई के कब्र पर सजा-धजा झूठ जितने बेखौफ होकर अदालतों में तहलका मचाता  है, उतना तो वेश्यालयों में भी झूठ का व्यापार नहीं चलता । छोटे-बड़े मानिन्दों को संविधान की शपथ दिलायी जाती है। बात-बात में पवित्र संविधान की दुहाई दी जाती है। किन्तु संविधान की कितनी इज्जत-मर्यादा का खयाल करते हैं हमारे ये रहनुमा, सभी वाकिफ़ हैं इससे। राजनैतिक सभाओं की तो बात ही दीगर है, लोकतन्त्र के पवित्र मन्दिर में भी आए दिन संविधान की मर्यादा तारतार होती है और हम खबरें देखने-सुनने-पढ़ने से ज्यादा और कुछ नहीं कर पाते।

मैंने कहा — एकदम से ट्रन्च सोने की तरह खरी-खरी बात कह रहे है भगतजी। दरअसल शपथ के शब्द तो होंठ बुदबुदाते हैं न, दिल-व-दिमाग को उसकी कोई खबर नहीं होती। उन तक उन्हें पहुँचने ही नहीं दिया जाता। शपथ-वाक्य और गरिमा को गुटके की पीक की तरह, पिच्च  से फेंक दिया जाता है, क्योंकि गलती से भीतर चला गया यदि, तो भारी बेचैनी पैदा कर देगा। हालाँकि ऐसे भी धुरन्धर होते हैं, जो कड़ा से कड़ा गुटका हलक से नीचे भेज कर, पचा भी जाते हैं।

भगतजी ने हामी भरी—   सही कहा तुमने। संदेश हो या आदेश,  अनुनय हो या आग्रह, बिलकुल ऊपर-ऊपर निकल जाता है। ज़ेहन में कुछ घुसने की गुँजाइश हो तब न। हित-अनहित की बात सोचने-विचारने का समय हो तब न। गम्भीर से गम्भीर बातें भी यूँ ही निकल जाती हैं। तुम ये न समझो कि इस शपथ-समारोह की आलोचना करके, शराब-बन्दी और नशा-विमुक्ति अभियान के खिलाफ़त में हूँ। शराब कोई अच्छी चीज तो है नहीं। लोग शराब पीकर गम भुलाने की बात करते हैं, किन्तु हम भुलाने की कवायद है शराब। एक गैर जिम्मेदाराना हरकत है शराब पीना। इससे व्यक्ति और समाज का नुकशान ही नुकशान है ।

किन्तु सोचने वाली बात है कि हर बात के लिए हमें नियम-कानून का ही सहारा क्यों लेना पड़ता है ? शपथ की वैशाखी क्यों टेकने की जरुरत पड़ती है? और सबसे हास्यास्पद और सोचनीय बात तो ये है कि नियम-कानून और शपथ की अवहेलना होती है। इनकी मर्यादा भंग होती है। इससे आम समझ वालों  के लिए यही संदेश जाता है कि कानून सिर्फ तोड़ने के लिए होता है। कसम सिर्फ खाने के लिए होता है।

कहने को तो शराब-वन्दी कानून वर्षों पहले लागू हो गया था सूबे में। किन्तु क्या हस्र हुआ सभी जानते हैं। टैक्स-हानि के रूप में सरकारी खजाने को भले ही खामियाज़ा उठाना पड़ा इस कानून से, किन्तु शराबी और शराब के कारोबार में कुछ खास फ़र्क नहीं आया। सीमा पार का कारोबार शुरु हो गया। नदी के दियारों और जंगल-पहाड़ों में नयी-नयी भट्टियाँ खुल गयी। हुक्मरानों और थानेदारों की चाँदी कटने लगी।

सोचने वाली बात है कि गाय पालने के लिए कोई खास सहयोग नहीं मिलता, जबकि मुर्गी,सूअर,मछली पालन के लिए प्रोत्साहन और सब्सीडी मिलता है।  चिखना का इन्तज़ाम रहेगा जबतक ठर्रे तो चलेंगे ही तबतक। गोरस को बढ़ावा नहीं मिलेगा जबतक, महुआरस तो चलेगा ही तबतक। इसे रोकने में कोई क़वायद कामयाब नहीं हो सकता।  

हम ट्रेन में टिकट इसलिए लेकर चलते हैं कि टी.टी.ई. का डर होता है। हेलमेट इसलिए पहनते हैं कि ट्रैफिक पुलिस का डर होता है... ऐसी सोच जबतक रहेगी, तब तक कुछ खास होने से रहा। गाड़ी यदि खटारा है तो भला टायर या ड्राईवर बदलने से क्या होने को है !

सच्चाई ये है कि मानवता का बोध जब तक नहीं होगा, नैतिकता की समझ जब तक नहीं होगी, लोकहित और राष्ट्रहित की भावना का सूरज जबतक अन्तर्मन में उदित नहीं होगा  तब तक विशेष परिवर्तन नहीं हो सकता । अतः उचित है कि इस दिशा में हम और हमारी सरकारें कुछ सोचें-विचारे-करें।

भगतजी की टुटही चटाई पर बैठा मैं सोचने लगा—काश ! इस बौड़म से इन्सान वाली सोच हम सबकी हो जाती। 

Comments