ये कैसी स्वतन्त्रता-ये कैसा गणतन्त्र ?

ये कैसी स्वतन्त्रता-ये कैसा गणतन्त्र ? 

        घुप्प-घने धुन्ध के बीच पीपल के पेड़ के नीचे, चिथड़े कम्बल में पूरे देह को लपेटे, भुलेटनभगत को गाल पर हाथ टिकाए बिलकुल मायूश़ बैठे हुए देखा, जब उधर से गुज़र रहा था। उनके आसपास ढेर सारे कागजी तिरंगे बिखरे पड़े थे। पँवलग्गी के साथ ही कुछ पूछना-जानना चाहा, किन्तु मेरा मुँह खुलने से पहले ही, अपनी पुरानी आदत के अनुसार भगत जी उचरने लगे— “ ऐसा मत सोच लेना कि स्वच्छता अभियान का तहेदिल से पालन करने वाले नगर निगम ने सड़कों पर इधर-उधर उड़ते-बिखरे-बिलखते तिरंगों को चुनचान कर यहाँ लाकर ‘डम्प’ कर दिया है...। ” 

            चुँकि भगतजी के हाव, भाव, स्वभाव से मैं पूरी तरह वाकिफ़ हूँ, इसलिए पूरे य़कीन के साथ कह सकता हूँ कि इन तिरंगों को स-सम्मान चुनकर यहाँ लाया गया है भगतजी द्वारा ही। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि हरबार राष्ट्रीयपर्वों के बाद बाजारवादियों की मूर्खतापूर्ण करतूत से इज़ाद इन तिरंगों को चुनकर इकट्ठे करना भगतजी की पुरानी आदत है। उनकी समझ और परिभाषा में ये भी राष्ट्रधर्म है। भगतजी अपने पुराने अन्दाज में बोलते रहे। मैं मौन स्रोता की भूमिका में खड़ा सुनता रहा— “...तुम्हें शायद पता न हो बबुआ ! तिरंगा बनाने से लेकर फहराने तक का नियम और प्रोटोकॉल है। बाकायदा इसे ‘ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्स’ द्वारा विनियमित किया जाता है । प्रयुक्त सामग्री, डाई, लम्बाई-चौड़ाई का अनुपात आदि हर पहलु को कड़े परीक्षण से गुज़रने के बाद BIM की हरी झंडी मिलने पर ही झंडे को बाजार में बेचा जा सकता है। तिरंगा बनाने के लिए सिर्फ और सिर्फ खादी, रेशम वा ऊन के ही प्रयोग का प्रावधान है। ऐसा नहीं कि जिसे मन में आए, जैसे-तैसे तिरंगा बनाकर, बाजर में उतार दे। किसी भी परिस्थिति में तिरंगा जमीन को न छुए, इसका उपयोग किसी अन्यान्य रुप में कदापि न किया जाए, तिरंगे को कभी भी उलटा न फहराया जाए, तिरंगे को किसी व्यक्ति, वस्तु या संस्था के सामने झुकाया न जाए—ये सब सख़्त नियम हैं तिरंगे के लिए। तिरंगा कब-कैसे-कहाँ फहराया जाए, कब-कैसे उतारा जाए, उतारने के बाद कैसे-कहाँ रखा जाए— इन सभी बातों का ध्यान रखने का नियम है। वाकायदा इसके लिए ‘भारतीय ध्वज संहिता’ है, जिसकी जानकारी गणतन्त्र द्रोहियों को भले न हो, प्रेमियों को तो होना ही चाहिए। हर नागरिक का ये कर्त्तव्य है कि इसे सम्मान दे। ” 

          मेरी आँखें विस्फारित थी। कान कुत्ते की तरह खड़े थे। सिर गिरगिट की तरह ‘हामी’ भर रहा था। भगतजी कहे जा रहे थे— “ मगर अफसोस ! प्रायः कोरम़ पूरा करने में य़कीन रखते हैं। ‘भेजा भरना’ कहें तो ज्यादा अच्छा। इने-गिने राष्ट्रीयपर्वों के दिन उलटे-सीधे किसी तरह झंडोत्तोलन कर लिए, देशभक्ति के कुछ गीत गा-बजा लिए, राष्ट्रीयता के पाठ पढ़ाने वाले भाषण दे लिए—आधिकारिक कोरम पूरा हो गया। और कुछ लोग दो-चार जगह घूम-घाम कर, मक्खियाँ भिनभिननाती जलेबियाँ खाकर कुरते में हाथ पोंछते घर चले जाते हैं। कुछ ऐसे भी धुरन्धर होते हैं, जो मौसम के मिज़ाज़ को देखते हुए, घर से बाहर निकलने की ज़हमत उठाना भी पसन्द नहीं करते। उन्हें भला कौन समझाये कि माइनस 10-20 डिग्री टैम्प्रेचर में भी इस तिरंगे की मान-मर्यादा की रक्षा हेतु सीमा पर दिन-रात चौकसी चल रही है, चन्द सपूतों द्वारा, जिनके बदौलत ही हम चैन का लिहाफ़ ओढ़े पड़े हैं, अन्यथा ‘ड्रैगनों’ की वक्र दृष्टि का शिकार होते देर कितनी लगनी है, जबकि अपने आस्तीनों में ही असंख्य अज़गर भरे पड़े हैं । अब तुम ही जरा बताओ न बबुआ ! ये कौन सा राष्ट्रवाद हुआ ? दरअसल धर्म और जाति के नाम पर ऊँचे-ऊँचे मंचों पर वगुला मार्का पायज़ामा-कुरता झाड़कर, गैंडे से गर्दन में गेंदे का फूल लादे, माइक में घुसने की असफल कोशिशों के साथ जनता को राष्ट्रवाद के ‘लेटेस्टवर्जन’ का ‘रिहर्सल’ कराने वाले राष्ट्रभक्ति के ठेकेदारों की समझ में तो राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति का अर्थ ही कुछ और है। जितने भक्त, उतने विचार, उतने वाद—एकदम से शास्त्रीय संगीत की अनन्त राग-रागनियों की तरह विचारधाराएँ, जिनमें यदि डुबकी लगाकर देखो तो एक ही रस मिलेगा—‘वोटानन्दरस’ वो भी ‘सत्ताश्लेषालंकार’ और ‘छन्दविद्रोही’ वाला। हमें लगता है कि पुराने साहित्य मर्मज्ञों से भारी चूक हो गयी है या उन्हें इसका ज्ञान ही नहीं रहा होगा। तभी तो इतने दुर्लभ रस, छन्द, अलंकार का वर्णन छूट गया है ‘साहित्यदर्पण’ में लिखने से...। ‘’ 

        भगतजी की रसतरंगिनी पर मैंने अपने सवाल का कंकड़ मारा — मैं समझा नहीं, आप कहना क्या चाहते हैं। मैंने तो साहित्यदर्पण कभी पढ़ा नहीं। रस-छन्द-अलंकार का कुछ अतापता नहीं। भगतजी को बीच में टोक-टाक जरा भी पसन्द नहीं। मेरे सवाल पर एकदम से झल्लाते हुए बोले— “अच्छा एक बात बतलाओ — स्वतन्त्रता और गणतन्त्रता का ढिंढोरा पीटा जा रहा है आजादी का अमृतमहोत्सव और गणतन्त्रता की 73वीं वर्षगाँठ बड़े जोश़ के साथ मना रहे हैं। मनाना भी चाहिए। सागर की अतल गहराई से सुदूर अन्तरिक्ष तक हमारी तूती बोलने लगी है अब। चपटी नाकें और भूरी आँखें भी सहमी-सहमी सी हैं हमरा रूतबा देख कर। सोने की नुची-चुँथी चिड़िया के बदन पर फिर कुछ मांस इकट्ठे होने लगे हैं। नये रंग-बिरंगे पंख उगने लगे हैं । उन सुन्दर रंगीन पंखों को देखकर मन-मयूर नाच उठता है, किन्तु ज्यूँ ही पैरों की ओर नज़र जाती है, थिरकन का मज़ा किरकिरा हो जाता है। आतंक मचाने और करोड़ों-करोड़ की राष्ट्रीय सम्पदा फूँकने के लिए भी गणतन्त्रदिवस का ही इन्तज़ार किया जाता है। ये कैसी गणतन्त्रता है, जो राष्ट्राध्यक्ष को भी सहमा देता है? ये कैसी गणतन्त्रता है, जहाँ घंटों गाड़ी में बैठे, अंगरक्षकों से घिरे, प्रधानसेवक को दांतों तले उँगलियाँ दबानी पड़ती हैं ? ये कैसा गणतन्त्र है, जहाँ राष्ट्रीय सम्मानों को असम्मानित करने की परम्परा बनती जा रही है? ये कैसी स्वतन्त्रता है, जहाँ सालों-साल तक राजमार्ग निजी स्वार्थ के लिए अवरूद्ध रखा जाता है ? ये कैसी स्वतन्त्रता है जहाँ ‘सेक्यूलरिज़्म ’ और ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के नाम पर रोज नये-नये हथकंडे अपनाए जाते हैं? मैकाले के वंशजों का ये कैसा शैक्षणिक-बौद्धिक विकास है, जहाँ ईंजिनियरिंग और एम.बी.ए. के डिग्रीधारी क्लास सी और डी के लिए भी लाइन में लगे हैं? ” मैं सोचने लगा—भगतजी ठीक ही तो कह रहे हैं। क्या सही मायने में अन्नदाता किसान अपना खेती-बारी छोड़-छाड़ कर वर्षों तक सड़क जाम किए बैठा रह सकता है? क्या विद्यादेवी का उपासक विद्यार्थी ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का घिनौना नारा लगा सकता है? लूट-पाट, तोड़-फोड़, आगज़नी कर सकता है? मन मानता नहीं इसे मानने को। माना कि एन्फ्रास्ट्रक्चर का अभाव है। जनसंख्या की बढ़ती बोझ की तुलना में जरूरत भर रोजगार की भीषण कमी है। किन्तु विचारणीय बात है कि परमात्मा के द्वारा एक पेट दो हाथ-पैर के साथ मिलता है। उसके साथ बुद्धि-विवेक से भरा दिमाग भी होता है। अब यदि हाथ-पैर ईमानदारी से मिहनत करना न चाहे, बुद्धि गलत संगति में पड़कर दिग्भ्रमित हो जाए, सरस्वती का मन्दिर कुत्सित-घृणित राजनीति के भेंट चढ़ जाए, नेता-अभिनेता-प्रणेता, धर्मगुरु, शिक्षागुरु सबके सब कदाचार-भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाएँ—तो राष्ट्र का क्या होगा ? सरकारी नौकरी आखिर हमें क्यों चाहिए ? इसीलिए न कि वहाँ काम करने की आज़ादी है और वेतन के साथ-साथ उपरी आमदनी की भरपूर गुँजायश है और छिपी हुयी बात ये है कि गैर-सरकारी नौकरियों के लिए हम सही मायने में योग्य ही नहीं हैं। डोनेशन और तिकड़म वाली डिग्रियाँ ज्यादा तर सरकारी नौकरी ही तलाशेंगी। ऐसे में काकाहाथरसी की पंक्तियाँ याद आती हैं— ‘रिश्वत लेते पकड़े जाओ तो रिश्वत देकर छूटो...।’ थानेदार की कुर्सी जहाँ 12-15 लाख में बिकती हो, वहाँ सुरक्षा और न्याय की भला क्या उम्मीद! मुखिया का प्रत्याशी जहाँ करोड़ों का पासा फेंकने को आतुर हो, वहाँ जनकल्याण की भला क्या उम्मीद ! ‘भष्टतन्त्र का ककहरा’ तो यहीं से शुरू होता है न ! किसी अदने थानेदार की बेटी के दहेज में करोड़ों की नगदी भेंट दी जाती है, विश्वविद्यालय के वी.सी. के पास अकूत ज़ायदाद, जेवर और नगदी बरामद होते हैं—ऐसे लोकतान्त्रिक-गणतान्त्रिक गणराज्य में कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं । 

          भगतजी की आँखें अँगारे उगल रही थी। किन्तु ज़ुबान से वेदना टपक रही थी — ‘’ तुम नयी पीढ़ी वाले हो बबुआ ! तुमसे कुछ कह-बतियाकर मन जरा हल्का हो जाता है। सोचो जरा भारत के भविष्य के बारे में। राष्ट्रीयपर्वों के पैरेड और नुमाइश देखकर सिर्फ थिरको मत, बल्कि एक नयी आज़ादी के लिए खुद को तैयार करो। वो आज़ादी जो पहली वाली आज़ादी से कहीं ज्यादा कठिन है। एक ऐसी सरकार बनाओ, जिसके पास भरपूर इच्छा-शक्ति हो। राष्ट्रसेवा की भावना और ज़ज्बा हो जिसमें। एक ऐसे चुनावआयोग का गठन करो जो सरकारी तन्त्र की कठपुतली न हो। जो हिम्मत पूर्वक किसी दागी-बागी, विचाराधीन, सज़ायाफ़्ता को चुनाव मैदान में कूदने की कतई इज़ाज़त न दे। ध्यान रखो—ये सबसे जरुरी संकल्प है। एक ऐसी व्यवस्था बनाओ जहाँ ‘तोता’ खुल कर उड़ सके, मोर खुल कर राष्ट्रगान के धुन पर नाच सके। भगत-आज़ाद-बिस्मिल जैसी ऐसी टोली तैयार करो और ऐसी बीन बजाओ कि आस्तीन के सारे साँप बिलबिलाकर बाहर आ जाएँ। हो सके तो सरेआम गोली मार दो उन्हें। ‘रेपिस्टों’ का न्याय ’पीड़िता’ पर छोड़ दो — द्रौपदी ‘जयद्रथ’ की माँग मुड़वायेगी या ’कीचक’ का वध करायेगी...। किसी न्यायिक व्यवस्था का इन्तज़ार मत करो। ये मत भूलो कि आज भी लगभग वैसी ही न्याय-व्यवस्था है, जिसने भारतमाता के अमर सपूतों को फाँसी पर लटकाने का फ़रमान जारी किया था। गाँधारी की आँखों की पट्टी खुलेगी भी तो सिर्फ दुर्योधन को वज्रांग बनाने के लिए। अभिमन्यु तो तब भी अकेला ही रहेगा चक्रब्यूह में। जयहिन्द ! वन्देमातरम् ! ! ”

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