पाठशाला वनाम मधुशाला

         पाठशाला वनाम मधुशाला

                 

 

आज के ताजा अखबार का कटिंग लिए भुलेटन भगत अपने ओसारे में ग़मगीन बैठे हुए नज़र आए, जब मैं सुबह-सुबह उनके पास पहुँचा। उनके होठ कुछ बुदबुदा रहे थे। नजदीक पहुँचने पर कविवर वच्चनजी की बहुचर्चित पुस्तक— मधुशाला की आँखें खोलने वाली पंक्तियाँ सुनाई पड़ी—

लड़वाते हैं मन्दिर मस्जिद, प्रेम कराती मधुशाला....।  ”

भले ही भगतजी कोई खास पढ़े-लिखे इन्सान नहीं हैं, किन्तु उनके बात-विचार-व्यवहार से ऐसा बिलकुल नहीं लगता। मधुशाला और कामायनी तो हिन्दीपट्टी की किताबें हैं, जबकि शेक्शपीयर के सोनेट भी फर्राटे से गुनगुनाते हैं भगतजी। मिल्टन, वर्ड्सवर्थ, शेली भी उनकी यादों के दायरे से बाहर नहीं हैं।  

वैसे भी आजकल क्या फर्क पड़ता है पढ़े और अनपढ़ में ! अनपढ़ से कहीं ज्यादा पढ़े-लिखे ही घास छील रहे हैं।  बाप-दादा की जोत-जमीन बेंच-खोंच कर बटोरी गयी बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ शीशे में मढ़ाकर बैठकखाने में लटकाकर, लड़कियों के बाप को बरगलाकर, दहेज ऐंठने के अलावे किसी और काम की नहीं । जाड़े में जलाकर  कनकनी भी नहीं मिटायी जा सकती इनसे। जुगाड़ के पैसों से डिग्री भले जुट जाए, अक्ल-योग्यता के लिए तो सिर खपाना पड़ता है, मिहनत करनी पड़ती है न। और कुछ हो चाहे नहीं, पढ़ने-लिखने से देह तो सुकवार हो ही जाता है न ! केवल हायर डिग्री देख कर अच्छी नौकरी मिलती नहीं कहीं और सुकवार देह से कठोर काम बनता नहीं। ऐसे में धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। हाँ ये बात दिगर है कि फूट डालो राज करो वालों की कृपा स्वरुप आरक्षण कोटे वाली सरकारी नौकरी मिल जाए तो फिर मौज़ ही मौज़ है।

 

बगल में बैठने के लिए इशारा करते हुए भगतजी ने अखबारी कटिंग मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा—   पढ़ो ये सिरफिरा फ़रमान। अभागे सरकारी मास्टर साहबों को एक और नयी ड्यूटी एलॉट हुयी है—शराबियों को चिन्हित कर, सरकार को सूचना देने की। तुम्हें  याद होगा, अभी कुछ साल पहले इसी तरह का एक फ़रमान जारी हुआ था बी.डि.ओ. साहबों के लिए—आसपास के इलाके में जाकर महुए के पेड़ों की गिनती और उनसे मिलने वाले फलों का हिसाब रखने को। इन सब तुगलकी फ़रमानों ने ही आज मधुशाला की याद दिला दी मुझे। क्या ही कमाल की बात लिखी है वच्चन ने— लड़वाते हैं मन्दिर मस्जिद, प्रेम कराती मधुशाला। ज़ाहिल लोगों को पूरी मधुशाला और उसका मर्म तो पता नहीं। वस उड़ चले चन्द पंक्तियों को सुन कर । हो सकता है कि किसी सेक्यूलरटाईप सलाहकार ने अपने प्रोमोशन के लोभ में सुझा दिया हो कि मस्जिद, गिरजे तोड़ने की बात की गयी है मधुशाला में—

       धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अन्तर की ज्वाला,

       मन्दिर,मस्जिद,गिरिजे,सब को तोड़ चुका जो मतवाला,              

       पंडित,मोमिन,पादरियों के फंदों को जो काट चुका, 

       कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला— और शायद इसी कारण मधुशाला विरोधी हो गयी है हमारी सरकार।  ”   

            मैंने सिर हिलाते हुए कहा— किन्तु भगतजी जहाँ तक मुझे जानकारी है, मधुशाला में तो कूटशैली में साधना पक्ष पर प्रकाश डाला गया है, न कि धर्मग्रन्थ जलाने और मन्दिर,  मस्जिद तोड़ने की बात की गयी है।

            मेरी बात पर भगतजी ने हामी भरी— हाँ बबुआ ! हाँ, बिलकुल यही बात है। हमें वैचारिक तलपर इतना ऊपर उठ जाना है योग-साधना करके कि इन सब दुनियादारी से कोई लगाव ही नहीं रह जाए। मन्दिर, मस्जिद, गिरजे तो एक प्रतीक भर हैं। दरअसल हमने धर्म के मर्म को जानने-समझने से ही इनकार कर दिया है। सही अर्थों में किसी ने समझने की कोशिश भी नहीं की है। सन्त महात्माओं द्वारा कहा-चेताया  गया, तो भी ध्यान नहीं दिया गया। क्या कृष्ण ने ये बात नहीं कही है—परमात्मा रुपी अथाह समुद्र को पा लोगे तो वेदादि धर्मग्रन्थ गड्ढे के जल की भाँति लगने लगेंगे— यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।

           तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।। (गीता -४६) किन्तु इन सब गूढ़ बातों से हमारे रहनुमाओं को क्या मतलब ! उन्हें बस जाति-धर्म की  राजनीति करनी है, अपना उल्लू सीधा करने के लिए। ये जाति-धर्म की गलत परिभाषा और विश्लेषण ही सारे अनर्थों की जड़ है। सेक्युलर शब्द का इज़ाद भी नेताओं द्वारा कपटी रवैये के तहत ही किया गया है।  

            मैंने सिर हिलाते हुए कहा—सो सब तो ठीक है, किन्तु इस फ़रमान के बावत आपका क्या ख़्याल है, आपकी चिन्ता का रूख किस ओर है?

            मेरी बात पर भगतजी जरा सा चवन्नियाँ मुस्कान निकाले और बोले—तुम सबकुछ जान-समझ कर भी हमारे मुँह से ही उगलवाते हो। क्या तुम्हें पता नहीं है कि हमारे सरकारी स्कूलों में कितना क्या होता है! अरे बबुआ ! सरकारी स्कूलों में यदि सही ढंग से पढ़ाई-लिखाई होती ही रहती या कहो सरकारी मास्टरों को सही ढंग से पढ़ाने का मौका ही दिया जाता, तो फिर ये कुकुरमुत्ते की तरह मैकाले के औलादों वाला कॉन्वेन्टी कैसे फलता-फूलता? हरामखोरों ने पहले तो सहस्राब्दियों से चली आ रही हमारी परम्परा— गुरुकुल व्यवस्था को ध्वस्त किया, अब रही-सही सरकारी स्कूलों का भी कब्र खोदने पर तुले हैं। दुनिया का सारा मलामत मास्टर साहब पर ही—डुगडुग्गी बजाकर शिक्षा का जनजागरण  कराना हो या मद्यनिषेध का, जनगणना कराना हो या परिवारनियोजन का विज्ञापन , सब कामों की ट्रेनिंग इन्हें ही है। अब ऊपर से ये शराबियों की रिपोर्टिंग भी मत्थे मढ़ी जा रही है। अरे वो गधे के दुम ! असली शराबी-जुआरी, लुच्चे-लफंगे तो तुम्हारे आसपास ही संसद-परिषद और सचिवालयों में भरे बैठे हैं। गधे की सींग की तरह उन्हें गली-कूचों और सड़कों पर ढूढ़ने के लिए क्यों परेशान कर रहे हो ? गांव-गिरांव में हैं भी यदि तो छुटभैये लोग, वो भी तुम्हारी प्रशासनिक-व्यवस्था की कृपा पर। अन्यथा किसी की क्या मज़ाल कि पत्ता भी हिले। भूमाफिया हो या बालूमाफिया या दारुमाफिया—ये कोई अदना किसान, मजदूर, गरीब-गुरबा नहीं है। कई सालों से ड्रामा चल रहा है—रोज दारु के खेप पकड़े जा रहे हैं, किन्तु कौन सी खेप —जरा ये भी बतलाओ। कितने मजे की बात है कि गोदामों में सील कर रखे गए खेपों को चूहे पी जा रहे हैं और उससे भी मजेदार बात ये है कि उनके बोतल और पाउज साहबों के बंगलों के पिछवाड़े मिल रहे हैं या पांच सितारा होटलों में बरामद हो रहे हैं।  

            मेरे पास कोई तर्क न था उनकी बातों को काटने के लिए। भगतजी पूरे तैश में बोले जा रहे थे— जिस काम के लिए जिसकी नियुक्ति होती है, जिस काम के लिए विशेषज्ञ है जो, ठीक उससे विषम स्थितियों में उसे ठेल दिया जाता है ज्यादातर। आधे से अधिक पुलिस महक़मा तो बॉडीगार्ड और दरवानी में उलझा हुआ है। अदनों काम में सेना को उलझा दिया जाता है। B.D.O.साहब महुआ का पेड़ गिनने चले जाते है, साथ में अमीन और तहसीलदारों को लिए हुए। भला हो उन मास्टरों का जिन्होंने हिम्मत करके तुगलकी फ़रमान की कॉपियाँ जलाने की हिम्मत जुटाई...।  

            वैसे आप जो कहें भगतजी, किन्तु जाँचने-बूझने वाली बात है कि  रेवले-रिजस्ट विरोधी भीड़ में आतंक मचाने वाले असली विद्यार्थी कितने प्रतिशत थे और सरकारी आदेश की प्रतियाँ जलाने वाले कितने प्रतिशत मास्टर साहब थे। मुझे तो लगता है कि इसमें भी गहरी राजनीति है। बिना राजनीतिक आँच के कोई खिचड़ी पकती कहाँ है?   

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