हमीमून वाला गिफ्टचेक

 

हमीमून वाला गिफ्टचेक

            भुलेटनभगत आजकल अखबार खूब पढ़ रहे हैं, भले ही दावा करते हों कि अखबारों में पढ़ने लायक शायद ही कुछ हुआ करता है। नो नेगेटिव- मन्डे वाले दिन भी नेगेटिव हेडलाईने मजे से देखने को मिल जाती हैं। सवाल है कि—पॉजेटिव यदि नहीं मिलेगा तो क्या अखबार के पन्ने सादे छोड़ दिए जाएँ ! रॉकेट-सेटेलाइट वाली तेज-तरार दुनिया में पौजेटिव ढूंढ़ना गदहे के सिर पर सींग ढूढने से कहीं ज्यादा ज़ोखिम वाला मामला है।

भगतजी का साहचर्य मुझे भी कुछ-कुछ नेगेटिव थॉट वाला बना दिया है। बाल की खाल खींच कर बवाल खड़े करते रहने की पूरी जिम्मेवारी तो नेता लोग ले ही चुके हैं—पॉजेटिव को नेगेटिव बनाना उनके बायें हाथ का खेल है। तिल को ताड़ करने की कला भी कोई उनसे सीखे। और सबसे अहम बात ये है कि करने को कुछ अच्छा नहीं सूझेगा, तो बुरा करने में हर्ज ही क्या है ! सत्ता में रहो तो किए-अनकिए सारी अच्छाइयाँ गिनाते रहो और सत्ता से फिसल जाओ या ढकेल दिए जाओ तो अच्छाइयों को भी बुराई वाली चश्मे से देखो—यानी कि कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। वोट की चोट सही निशाने पर लगे—इसके लिए तो कुछ ना कुछ करना ही होगा न !  

खैर, मैं भी कहाँ बहक गया। बात ये है कि भगतजी मिर्ची खा-खाकर, तीखी-तीखी गालियाँ उगल रहे थे, जब मैं उनके पास दाखिल हुआ। मड़ई के बाहर पुराने अखबार विखरे हुए नज़र आए, जिन्हें चमरखानी जूता पहने पैरों से रौंदे जा रहे थे । हाथ में माचिस की तिल्ली भी थी। खैरियत यह कि बे-मौसमी बरसात के कारण डिबिया थोड़ी नमी सोख कर जलने के काबिल नहीं रह गयी थी, अन्यथा  पादमर्दन के बाद अग्नि-संस्कार भी हो ही गया होता अभागे अखबारों का।

मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि अखबार जलाने या पुतला फूँकने से क्या हो जाता है? किन्तु एक स्वार्थ निश्चित सधता है—अगले दिन के अखबार में फोटू-सोटू जरुर छप जाता है।  

अखबारों के साथ ये नाइन्साफी का वज़ह पूछने पर भगत जी मुझ पर ही नाराज़ हो गए । आँखें तरेर कर बोले—

  तुमलोग को तो इन सबसे कोई मतलब नहीं । मजबूत दिल-व-दिमाग वाले ठहरे। खबर देख-सुन-पढ़-जान लिए, बात खतम हो गयी। खबरों को दरकिनार कर, अपनी फिक़रमन्द भाग-दौड़ की दुनिया में खो गए।  किन्तु मैं जरा ठहरा मूरख टाइप आदमी। बात-बात में पुराना खून उबाल लेने लगता है। तुम भी सोचो जरा—हमारे माँ-बाप कुम्हार के घड़े की तरह ठोंक-पीटकर, हर बातों की गहरी छान-बीन करके, बाल-बच्चों की शादियाँ करते थे। एक छत के नीचे पुस्त-दर-पुस्त रसे-बसे होते थे। दुःख-सुख में घर, परिवार, कुटुम्ब, टोला-मुहल्ला सबका जुटान हो जाता था। अमन-चैन की जिन्दगी हुआ करती थी। और अब ! 2 BHK की अपार्मेन्टी सभ्यता चल पड़ी है—जहाँ न धरती है अपनी, न आसमान। बस सिकुड़े रहो कमरों में और जुड़े रहो इन्टर्नेटी दुनिया से। क्या ही तरक्की किया है हमने पिछले चन्द दशकों में। हाईब्रीड वाले अनुसन्धानों के दौर में आदमी भी धीरे-धीरे हाईब्रीड होता जा रहा है। हाईप्रोफाइल तभी होओगे जब क्रॉशब्रीड होगा। पुराने लोग इसे दोगला कहते थे। बहुत अपमान जनक सम्बोधन था ये। किन्तु विकासवाद के दौर में ये सबसे सम्मान जनक हो गया है—हिन्दी में बोलोगे तो गाली कहलायेगी, पर अंग्रेजी में बोलने पर हाईप्रोफाइल वाले समझे जाओगे— खून में जितनी मिलावट उतना बड़ा आदमी। ब्लडी-बॉस्टर्ड अब गालियों की श्रेणी में नहीं आता, क्योंकि हम हाईप्रोफाइल-फैमिली में इन्टर कर गए हैं। गर्व से कहते हैं—हम जाति-पाती नहीं मानते...ये सब मनुवादी विचार हैं...हम मॉर्डेन टेस्टामेंट वाले हैं। मजे की बात है कि वोटभूखुओं की नापाक ज़मात वाकायदा अन्तरजातीय विवाहों को पुरस्कृत कर रही हैं गिफ्टचेक और सरकारी नौकरियाँ देकर। एक ओर जाति प्रमाणपत्र निर्गत हो रहे हैं। जाति के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं तो दूसरी ओर जाति मिटाओ - समाज सुधारो का बिगुल फूँका जा रहा है। इन सिरफिरों को भला कौन समझाये—जातियाँ रह ही कहाँ गयी हैं इस होटली सभ्यता में ? अब भला सतुआ-आँटा बाँध कर कौन बेवकूफ चलता है? कदम-कदम पर लाइन-बे-लाईन होटलें हैं—मनपसन्द खाने-पीने, सोने-सुलाने सबकी व्यवस्था है जहाँ। पहले  वेटी-रोटीसम्बन्ध के लिए जात-विरादरी का ख्याल रखा जाता था।  किन्तु अब पानी पीओ छान के, बेटी विआहो जान के वाली कहावत बहुत पुरानी हो गयी है। रोटी कहीं भी बेझिझक खा लेते हैं। भिखारियों की तरह थाली थामे बन्दरों की तरह उछल-कूद कवायद करते बफेडीनर करने में जो आनन्द आता है, वो भला पंगत लगा, पालथी मारकर भोजन करने में कहाँ रह गया है ! दरअसल पहले हम भोजन करते थे और अबखाना खाते हैं। भोजन और खाना में फर्क समझ रहे हो न बबुआ ! ”

मैंने सकारात्मक सिर हिलाया। मेरी स्वीकृति से आश्वस्त होकर, भगतजी कहने लगे— और जब अन्नाहुति का विचार ही तिरोहित हो गया, फिर मन का क्या ठिकाना, जिधर हुआ आँख मार लिए।  अरेन्जमैरेज का गला घोंट दिया लवमैरेजने। विवाह की वैदिक परम्परा पर घोर अ-वैदिक तलाक की मुहरें लग रही हैं। सोचने वाली बात है कि जो ज्वायनिंग ऑथोरिटी ही नहीं है, वोडिस्चार्जिंग ऑथोरिटी का काम कैसे कर सकता है? कोर्टमैरेज का डायवोर्स  हो सकता है, किन्तु वैदिक विवाह का तलाक कैसे हो सकता है—सोचने वाली बात है। अदालत को भी अपने दायरे में रहने की समझ होनी चाहिए। किन्तु दोष दूं किसे ? गिलास के पानी में भाँग पड़ी हो तो उसे फेंक कर दूसरा पानी लिया जा सकता है, किन्तु यहाँ तो  कुएँ में ही भाँग की बोरी उढेली हुयी है। नेता भी मस्त, जनता भी मस्त। सब मस्त हैं एकही कुएँ का पानी पी-पीकर—विकासवाद वाला भाँग, सुशासन वाला भाँग, समाज सुधार वाला भाँग। मन करे तो तुम भी चढ़ा लो एकाध बोतल । मिज़ाज़ मस्त हो जायेगा बहुआ। सरकारी नौकरी भी मिल जायेगी और मनमाफिक छोकरी भी। ऊपर से हनीमून वाला गिफ्टचेक भी।

भगतजी के तीखे तेवर को देखते हुए कुछ कह नहीं पाया, जबकि कहने को जुबान चटपटया— इसी जात-पात के चक्कर में तो कुँआरे निठल्ले रह गए। अब से भी गैरविरादरी में नज़रें दौड़ायें। सरकारी नौकरी की तो वयस निकल गयी, किन्तु कहीं कोई मिल जाए संयोग से तो हनीमून वाला गिफ्टचेक आपको भी जरुर नसीब हो जाएगा।

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