सुलभशौचालय / सर्वोच्चन्यायालय

 




                          सुलभशौचालय / सर्वोच्चन्यायालय

      सोढ़नदास जी बायें हाथ में पानी से भरा दो लीटर वाला एक गन्दा सा बोतल लिए सुप्रीमकोर्ट परिसर की ओर लपके चले जा रहे थे। दाहिने हाथ में एक कालीकलूटी पुस्तैनी लाठी थी, जिससे बीच-बीच में टेका भी ले ले रहे थे, जरा दम मारने के लिए। माथे की बार-बार ढीली हो रही पगड़ी की  परवाह नहीं थी, जो पछुआ हवा के झोंके से कभी दायें कभी बायें, कभी ऊपर कभी नीचे की तरफ उड़-उड़ कर निश्चिन्त चलने में बाधक बन रही थी।

   परिसर के बाहर सड़क पर ईकोफ्रैन्डली टोटोरिक्शा का इन्तजार करते खड़े, मुझसे नजर मिलते ही मेरी ओर आ लपके।  नजदीक आकर बोले— किधर की तैयारी में हो बचवा? सबलोग तो उस महापरिसर की ओर आँखें टिकाये हैं सुबह से ही। तुम उल्टी दिशा में क्यों जाने की सोच रहे हो? लोकतन्त्र की परिपाटी है — जिधर भीड़ ज्यादा हो उधर रूख करना चाहिए। भीड़ अच्छा-बुरा, सच-झूठ, न्याय-अन्याय पर विचार थोड़े जो करती है। यदि विचार करने की क्षमता या बुद्धि हो तो फिर भीड़ का हिस्सा बनने का क्या मतलब ?  

   सोढ़नूकाका की उम्र और स्वास्थ्य पर विचार करते हुए, मेरा ध्यान उस बोतल पर ही टिक गया। हालाँकि किसी उम्र वाले के लिए इतने गन्दे बोतल में पीने का पानी रखने का कोई तुक नहीं । अतः उनकी बातों का जबाब न देकर, बोतल पर इशारा किया—छीः इतना गन्दा बोतल...।

   काका मुस्कुराये कम, झल्लाये ज्यादा — अरे मूरख ! तूने क्या समझा, पश्चिम वालों की चलाई परम्परा— बोतली सभ्यता का मैं भी ब्लाइन्ड फॉलोअर हूँ ? मैं तो विसलरी वाले साफ-सुथरे बोतल के पानी का भी विरोधी हूँ। इस सड़ियल बोतल में पीने का पानी ढोकर चलूँगा? ”

तो फिर ?

  इस बार काका मुस्कुराये और धीरे से बोले — कमजोर हाज़मा है, कब कैसा तलब हो जाए। ये बोतल इमर्जेन्सी ड्यूटी के लिए, लिए जा रहा हूँ। जनता की परेशानी और सुविधा का ध्यान रखते हुए अब से कुछ दशकों पहले हमारे देश में जगह-जगह सुलभ शौचालय की व्यवस्था की गई थी। कुछ दिनों तक बिलकुल मुफ्त सेवा मिली लोगों को, फिर घालमेली सेवा का चलन हो गया। शौचालय के हैन्डवास प्रोडक्ट से ही घर-खर्चा चलने लगा। फिर बाकायदा  सशुल्क सेवा शुरू हो गयी। यानी शॉलिड-लिक्विड के लिए अलग-अलग शुल्क वसूले जाने लगे।

सुलभशौचालय के प्रचलन और व्यवस्था से अभी के ग्राउण्ड रिपोर्टिंग का कोई तालमेल न बैठता देख मैंने फिर टोका— ये तो समझ लिया कि आपका हाज़मा उम्र के हिसाब से कुछ कमजोर है, किन्तु यहाँ इस महापरिसर में तो पानी-वानी की पूरी व्यवस्था है। फिर ये बोतल ढोने की क्या जरुरत पड़ गयी?

काका झल्लाये — तुम्हारी समझदानी बहुत कमजोर है। मेरे हाज़मे से भी ज्यादा। पानी-वानी का बढ़िया इन्तज़ाम है, इसीलिए तो देश के कोने-कोने से लोग अपनी गुड़गुड़ाहट दूर करने, सीधे यहीं आना पसन्द करते हैं। विदेशियों का भी मन ललचते रहता है। नतीज़न आम आदमी की पहुँच से काफी दूर हो गया है ये महापरिसर । खाश़मखाशों की रेलमठेल है। अपने देश के हुक्मरानों के साथ-साथ हुक्मरानों के विदेशी खेवनहार भी मौका नहीं देते किसी आम आदमी को घुसने का। इन सबों से फुरसत मिले, तब न देशहित की बातें हों।

   काका की बातें अभी भी मेरी समझ से परे थी। अतः फिर टोका— आप कहना क्या चाहते हैं? सुप्रीमकोर्ट परिसर की ओर जाने और सुलभशौचालय की विधि-व्यवस्था — इन दोनों का क्या सम्बन्ध है ?

   लाठी को कमर से टिकाते हुए, काका ने अपना माथा ठोंका — मैं तुमसे पूछता हूँ - सुलभशौचालय और सुप्रीमकोर्ट में कुछ बुनियादी अन्तर है या दोनों एक समान हैं अपनी सेवा देने में?

अब मुझे पूरा य़कीन हो आया कि बुड़ऊँ एकदम से सठिया गए हैं। देश के सर्वोच्च न्यायालय की सुलभशौचालय से तुलना कर रहे हैं। हालाँकि बात थोड़ी गौर करने वाली, विचार करने वाली तो है—आँखिर काका ऐसा क्यों कह रहे हैं ! किन्तु उनकी बातों का  क्या जबाब दूँ, कुछ समझ न पाया। अतः चुप रहने में ही भलाई समझा।

    हालाँकि शास्त्र कहते हैं कि सही जगह पर, सही बातें  न कहना, चुप्पी साध लेना बहुत बड़ा अपराध है। भीष्म और द्रोण जैसे लोगों को भी इस चुप्पी की सजा भुगतनी पड़ी थी और सही समय पर सही बातें खरीखोटी सुनाने के कारण ही विदुर इस अपराध के भागी नहीं बने थे, भले ही परिणाम कुछ भी न हुआ हो। किन्तु सोढ़नुकाका के सामने खड़ा मैं, अभी भीष्म-द्रोण की तरफदारी करूँ या विदुर की तरह चीखूँ-चिल्लाऊँ—समझ नहीं पा रहा था।

  मन ही मन सोच रहा था— शेर की दहाड़ वाली कलम जब कुत्ते सी दुम हिलाने वाली हो जाए तो फिर क्या होगा उस राष्ट्र का? क्या होगा वहाँ के वासिन्दों का ? बन्दूक की गोली से भी कहीं अधिक असरदार मानी जाने वाली बोली से जब चापलूशी का बदबूदार रस रिसने लगे, तब क्या नतीज़ा होगा?

     मेरी चुप्पी काका को खलने लगी। क्रोध में लाठी पटकते हुए बोले— सुलभशौचालय का दरवाजा हमेशा खुला रहना चाहिए, क्योंकि मिज़ाज़ गड़बड़ाने का कोई निश्चित समय नहीं होता और एक मूसरचंड वहाँ हमेशा डटे रहना चाहिए, जो लोगों से  सेवाशुल्क की वसूली कर सके। उसके दायें-बायें कुछ सहयोगी भी होने चाहिए, जो मौके-बेमौके उसकी मदद कर सकें। सबकी वेशभूषा लगभग एकसी होनी चाहिए। हमारे महान्यायालय की भी लगभग वही दशा है। इसके खुलने और बन्द रहने का घोषित समय सिर्फ असली न्याय-व्यवस्था के लिए है, जिसका नतीज़ा है कि धूल खाती फाइलों की गिनती नहीं की जा सकती। तारीख पर तारीख के लिए हमारी न्याय-व्यवस्था महान मानी जाती है। इसका कोई तोड़ नहीं। झूठ-फ़रेब का जितना बड़ा जाल यहाँ बिछा है उतना तो कहीं और ढूढ़ना मुश्किल है। सेफ्टीटैंक में इकट्ठे सड़ते-बजबजाते मलों की तरह, ये सारे झूठ, सारे फ़रेब यहाँ इसलिए रच-पच जाते हैं, पानी बन कर      आउटलेट से निकल जाते हैं, क्योंकि इसकी बनावट ही ऐसी है। शंकरसेफ्टी की गोल-गोल टंकियों में जिस तरह चक्करघिन्नी खाता मल बहुत आसानी से तरल घोल बन कर आउटलेट से बाहर हो जाता है, वही हस्र यहाँ सत्य और न्याय का होता है।

इतना कह कर काका जरा रुके। लाल-लाल आँखें तरेरते हुए पूछने लगे—क्या तुम अब भी मेरी बात को ठीक से समझे या नहीं? ख़ामी या कहो ख़ूबी पाखाने की उस टंकी में है, जो मल को गोल-गोल घुमाता है केवल। ये गोल-मटोल पूरी न्याय-व्यवस्था जो चल रही है, वो उस घिनौनी सेफ्टीटैंक की बदौलत चल रही है, जिसका इज़ाद ही इस ख़्याल से किया गया है कि हमें कभी सही न्याय मिले ही नहीं। हम कभी अमन-चैन हास़िल ही न कर सकें। अब इत्तफाक से कभी बबूल के नीचे आम गिरा मिल जाए तो इसे आम का पेड़ न समझ लेना। कांटों से भरा बबूल कभी आम नहीं हो सकता और न मधुर-सुस्वादु फल ही दे सकता है। भारतीय संस्कृति जंगलों-पहाड़ों और नदियों वाली संस्कृति है, प्रकृति की गोद में इठलाने वाली संस्कृति । ये सेफ्टीटैंक तो पश्चिम वालों का इज़ाद है। हमारे यहाँ मल संचय करने की परम्परा नहीं रही है। वाद-विवाद ढोने की परम्परा नहीं रही है। एक राजा और अनेक दरबारी पल दो पल में न्याय देते हैं हमारी परम्परा में।  पक्ष-विपक्ष की बातें सुनी जाती हैं। पक्षधर दलाल की जरुरत ही नहीं समझी जाती। ये दलालों के मॉर्डेनमॉल जबतक बन्द नहीं होंगे सत्य और न्याय की यही दुर्दशा होती रहेगी। अतः न्यायालय और शौचालय में बहुत फ़र्क न समझो।

    सोढ़नूकाका की बातों में दम तो है। अतः हमें भी बेदम हो जाना चाहिए। बेदम- बिना दम वाला नहीं। चिन्तित वाला। परेशान वाला। विचार वाला। साथ ही समाधान वाला भी। बहुत दिन सेफ्टीटैंक का मज़ा ले लिए। अब अपनी पुरानी व्यवस्था वाली नयी व्यवस्था की सोचें। तभी शान्ति और सुकून मिल सकता है, अन्यथा नहीं। 

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