छल से छलके परशुराम (अक्षयतृतीया के अवसर पर विशेष आलेख)




 छल से छलके परशुराम

         (अक्षयतृतीया के अवसर पर विशेष आलेख)

                  

कल-बल-छल की साक्षात् प्रतिमूर्ति—कलियुग में यदि इन दुर्गुणों का बाहुल्य दीख पड़ता है तो किंचित् मात्र भी आश्चर्य की बात नहीं। किन्तु अब से दो युग पूर्व भी घोरातिघोर छल घटित हो चुका है, इसे जान कर कलियुगी छल-प्रेमियों को तुष्टि मिलेगी और छल-पोषकों को अंगुली उठाने का अवसर। परन्तु क्षत्रियकुल-विध्वंसक भगवान परशुराम को याद करने के साथ ही उनके जन्म की विडम्बनापूर्ण घटना को कदापि विस्मृत नहीं किया जा सकता। 

वैशाख शुक्ल तृतीया त्रेतायुग का अवतरण-दिवस है। इसे महर्षि भृगु प्रपौत्र, ऋषीक पौत्र, जमदग्निनन्दन परशुराम के जन्मोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है।  इनके जन्म की कथा बड़ी रोचक है, जिसकी भूमिका भगवान दत्तात्रेयावतार के समय ही रच दी गयी थी— 

    एतद् बाहुद्वयं यत्ते मृधे मम कृतेऽनघ ।

        शतानि दश बाहूनां भविष्यन्ति न संशयः।। (महाभारत हरिवंशपर्व ४१-१०९) अर्थात् हयहयवंशीय राजा कार्तवीर्य (सहस्रार्जुन) को दत्तात्रेय ने वर दिया था कि युद्ध भूमि में तुम्हारी ये दो भुजाएँ सहस्रभुजाओं में परिणत हो जायेगी।

कालान्तर में सहस्रार्जुन की अहंकारी विभीक्षिका ने ही क्षत्रिय संहार के निमित्त लोकपालक विष्णु को परशुरामावतार का अवसर दिया।

कन्नौज के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती का विवाह महर्षि भृगुपुत्र ऋषीक से हुआ था। नवोढा सत्यवती पर प्रसन्न भृगु ने जब पुत्रवती होने का आशीष दिया, तब उसने अपनी माता हेतु भी एक योग्य पुत्र की याजना की। प्रसन्नचित्त भृगु ने पुत्रबधु और उसकी माता के निमित्त दो अभिमन्त्रित यज्ञचरु प्रदान किया और ग्रहण-विधि का निर्देश दिया। किन्तु गाधिपत्नी के मन में पाप जागृत हुआ। उसे लगा कि महर्षि ने अपनी बहू के लिए उत्तम सन्तानदायी चरू प्रदान किया होगा और समधन (बहू की माता) के लिए अपेक्षाकृत न्यून शक्तिशाली सन्तानदायी। मायाग्रस्त मूढ़ माता को इतनी भी समझ न आयी कि उत्तम ही होगा तो भी तो उसका दौहित्र (नाती) ही होगा।  अवसर पाकर उसने चरु परिवर्तित कर दिया, यानी पुत्री के निमित्त निर्मित चरु स्वयं ग्रहण कर ली और अपना चरु पुत्री को दे दी।

माता के छल-कपट से अनजान सत्यवती तो निश्चिन्त रही और भावी योग्य पुत्र-प्राप्ति कामना से अभिभूत रही, किन्तु महर्षि के ज्ञानचक्षु से ये कपट-क्रीड़ा छिपी न रह सकी। उन्होंने इसका परिणाम स्पष्ट कर दिया—तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण होकर भी प्रचंड क्षत्रिय होगा और तुम्हारी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर ब्राह्मणोचित गुणों वाला होगा।

वेचारी सत्यवती कांप उठी अपने पुत्र के ब्रह्मत्वविमुखता की कल्पना से ही और श्वसुर से प्रार्थना करने लगी इसके निवारण का। भृगु ने होनी को नष्ट न हो सकने की विवशता जताते हुए कहा कि मैं इतना कर सकता हूँ कि तुम्हारा पुत्र बाह्याभ्यन्तर ब्राह्मण होगा, किन्तु इस चरु का प्रभाव तुम्हारे पौत्र पर अवश्य रहेगा।

समय पर उक्त परिवर्तित चरु प्रभाव से गाधीपत्नी को पुत्र प्राप्ति हुई, जो विख्यात विश्वामित्र ऋषि हुए और इधर ऋषीक पत्नी सत्यवती को महर्षि जमदग्नि प्राप्त हुए पुत्र रूप में। इन्हीं जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका के गर्भ से समयानुसार परशुराम का जन्म हुआ।

ध्यातव्य है उस समय तक कार्तवीर्य सहस्रार्जुन के दुराचार से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई थी। इस दुष्ट ने ही परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि की हत्या ध्यानावस्था में कर दी थी, जिससे कुपित होकर परशुराम ने क्षत्रियकुल के संहार का ही संकल्प ले लिया।

वर्तमान कलिमल ग्रसित विवेकहीन पुरुष या कहें सड़कछाप नेतागिरी करने वाले लोग इस कथा को अपने काले रंगीन चश्मे से देखेंगे और कहेंगे कि ब्राह्मण तो क्षत्रियों के शत्रु हुआ करते थे। पूरी पटकथा पढ़ने-गुनने-समझने की तो उनकी औकात नहीं। उन्हें ये जान लेना चाहिए कि असंख्य निर्दोषों के हत्यारे, निरंकुश, हैवान हो रहे हयहयवंशीय क्षत्रियों का नाश किया एक ब्राह्मण ने अपने शौर्य से।

शासन-व्यवस्था के लिए योग्य तो सिर्फ क्षत्रिय ही हो सकता है, किन्तु क्षत्रिय जब निरंकुश दुराचारी हो जाए तो उसे दण्डित करने का अधिकार और कर्त्तव्य ब्राह्मण को ही है। ब्राह्मण राजा नहीं हो सकता—ये वचन भी उसी भगवान परशुराम के हैं। 

परशुराम ने जब सभी क्षत्रियों का विनाश करके पूरी पृथ्वी को अपने अधीन कर लिया, तब हत्या-दोष-निवारण हेतु अश्वमेघयज्ञ किया और उसकी दक्षिणास्वरूप पूरी पृथ्वी मरीचिनन्दन महर्षि कश्यप को दान कर दिया— तस्मिन् यज्ञे महादाने दक्षिणां भृगुनन्दनः।

  मारीचाय ददौ प्रीतः कश्यपाय वसुंधराम्।। (उक्त ११७)

स्पष्ट है कि छलोदधि से छलक कर ऊपर आए, ज्ञानोदधि से आप्लावित शौर्यशिखर पर प्रतिष्ठित भगवान परशुराम के जीवन से हमें अपने कर्त्तव्य और पुरुषार्थ की प्रेरणा लेनी चाहिए—हम क्यों आए हैं यहाँ, क्या हमें करना है और क्या नहीं करना है—ऐसी विवेकवती वुद्धि होनी चाहिए। इस विवेकवती वुद्धि का ही नाम पण्डा है और इसे जो लब्ध कर लेता है वही सच्चे अर्थों में पण्डित है।  अस्तु। 

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