यज्ञोपवीत — धारण, नियम और मर्यादा

     यज्ञोपवीत — धारण, नियम और मर्यादा

 

विधिवत यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाने के पश्चात् त्रैवर्णिक वटुकों (द्विजों) को— ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य एवं वानप्रस्थ—तीनों आश्रमों में अखण्डरूप से आजीवन धारण किए रहने का शास्त्रीय विधान है।

ध्यातव्य है मृत्योपरान्त शव को स्नान कराकर, नवीन यज्ञोपवीत धारण कराते हैं, तत्पश्चात् घृत, चन्दनादि लेपन करते हैं। इससे स्पष्ट है कि एक बार संस्कार हो जाने पर शरीर के साथ ही यज्ञोपवीत को जल जाना है। बीच में इसका कभी पूर्णतः त्याग नहीं होना है, प्रत्युत परिवर्तन होता है—यानी नवीन ग्रहण करके, जीर्ण का परित्याग करना चाहिए।

किन्तु हाँ, विशेष परिस्थिति में वानप्रस्थाश्रम के बाद संन्यास दीक्षा के समय पुनः स-शिखा मुण्डन और यज्ञोपवीत परित्याग का विधान है। यानी ब्रह्मचर्यादि तीन आश्रमों में मर्यादा पूर्वक सम्यक् वहन करना ही है इसे।  

ब्रह्मचारी को एक एवं गृहस्थ तथा वानप्रस्थ को दो-दो जनेऊ धारण करना चाहिए। उत्तरीय (गमछा-चादर) के बिना भी शरीर अशुद्ध होता है, अतः इसके अभाव में अतिरिक्त ( तीन या चार जनेऊ) पहनना चाहिए। (इसे दूसरे अर्थों में भी ले सकते हैं—यदि अतिरिक्त जनेऊ पहने हुए हैं तो गमछे-चादर के बिना भी शुद्ध हैं।) यथा— उपवीतं वटोरेकं द्वे तथेतरयोः स्मृते। (देवलस्मृति) तथाच— यज्ञोपवीते द्वे धार्ये श्रौते स्मार्ते च कर्मणि । तृतीयमुत्तरीयार्थे वस्त्राभावे चतुर्थकम् ।। (विश्वामित्र)

 

यज्ञोपवीत का उपयोग—

मल-मूत्रत्याग के समय उसे क्रमशः दोनों कानों पर इस भाँति लपेटना होता है, ताकि बीच का कंठप्रदेश भी जनेऊ के बन्धन में आ जाए। शौचोपरान्त हस्तपादादि प्रक्षालन, आचमन इत्यादि सम्पन्न करके, कान से जनेऊ को उतार कर, पूर्ववत उसके निचले छोर को कमर में खोंस लेना चाहिए, ताकि नाभि के नीचे के भागों का स्पर्श न हो।

 

यज्ञोपवीत की स्थितियाँ—

धारित यज्ञोपवीत की तीन स्थितियाँ होती हैं — उपवीती, प्राचीनावीती और निवीती। इसे ही सव्य, अपसव्य और मघ्यस्थिति भी कहते हैं। सामान्य अवस्था में एवं देवपूजनादि शुभकार्यों में जनेऊ बाँयें कन्धे पर टिके हुए (आगे-पीछे से गुजरते हुए) दाहिने हाथ के नीचे, दाहिनी ओर होते हुए कटिप्रदेश तक गमन करता है। इसे ही सव्यावस्था कहते हैं। इसके विपरीत पितृकार्य—तर्पण, श्राद्धादि  (दक्षिणदिशा वाले कार्य) में यज्ञोपवीत की स्थिति बाँयें के वजाय दायें कन्धे पर आ जाती है, तदनुसार बायीं हाथ के नीचे से गुजर कर कमर तक लटकता है। इस अवस्था को अपसव्यावस्था कहते हैं। तीसरी अवस्था निवीती की है। सनकादि ऋषियों के तर्पण (उत्तराभिमुख कार्य) में जनेऊ को कंठीमाला की तरह दोहरा करके गले में लटका लेते हैं। शास्त्र कहते हैं कि दारकर्मणि मैथुन प्रसंग में यज्ञोपवीत की शुचिता और मर्यादा का ध्यान रखते हुए, दायें हाथ की ओर से निकालकर, दोहरा करके, कंठीमाला की तरह गले में ही रख छोड़ा जाना चाहिए। मैथुनोपरान्त आचमनादि करके, पुनः पूर्व स्थिति में धारण कर लेना चाहिए।  

यज्ञोवपीत की भाँति ही गमछे (उत्तरीय) की स्थिति भी होनी चाहिए। अज्ञान या फैशन में लोग गमछे-चादर आदि को दाहिने कन्धे पर या मालाकार (गलेमें) लटका लेते हैं—ये भी शास्त्रविरुद्ध है। ध्यान रहे—दोनों ओर से उलट कर चादर की तरह ओढ़ लेने से मालाकार दोष खंडित हो जाता है। यानी निषिद्ध है लटकती स्थिति। इस नियम का सख्ती से पालन करें— पूजनादि शुभ कर्मों में या सामान्य स्थिति में भी यदि गमछा दाहिने कंधे पर है तो इसे महाअशुभ समझना चाहिए।

वैखानसधर्मसूत्र, शौचविधि-२-९-१, बोधायनगृह्यसूत्र ४-६-१, अग्निवेश्यगृह्यसूत्र, याज्ञवल्क्यस्मृति आचाराध्याय में कहा गया है— निवीती दक्षिणकर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा...पुरीषे विसृजेत् । यज्ञोपवीतं शिरसि दक्षिणकर्णे वा कृत्वा...कर्णस्थब्रह्मसूत्र उदङ्मुखः कुर्यान्मूत्रपुरीषे च...। कर्णस्थब्रह्मसूत्रो मूत्रपुरीषं विसृजति...। ऐसा इसलिए क्योंकि— आदित्या वसवो रुद्रा वायुरग्निश्च धर्मराट्। विप्रस्य दक्षिणे कर्णे नित्यं तिष्ठन्ति देवताः ।। यानी पवित्र ब्रह्मसूत्र की मर्यादा-रक्षण और शरीरशास्त्रीय नाडियों की सुरक्षा—दोनों उद्देश्य है यज्ञोपवीत धारण का। यज्ञोपवीत एक मर्यादित ब्रह्मसूत्र है। इसकी मर्यादा की रक्षा धारक का पुनीत कर्त्तव्य है। ये हमारी रक्षा करेगा, हम इसकी मर्यादा की रक्षा करें।

ध्यातव्य है समयानुसार इसके परिवर्तन की भी आवश्यकता होती है। जीर्ण, भग्न या अपवित्र यज्ञोपवीत को उतारने का भी नियम है। प्रायः लोग अज्ञानवश पहले पुराने जनेऊ को उतार देते हैं और तब नया पहनते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस बीच हमारा शरीर यज्ञोपवीत विहीन हो गया, जिससे यज्ञोपवीत संस्कार की मर्यादा का उलंघन हुआ।

 

नूतन यज्ञोपवीत का संस्कार एवं धारणविधि— ध्यातव्य है कि श्रावणीपर्व के समय पूरे वर्ष की आवश्यकतानुसार विधिवत यज्ञोपवीत स्थापन-पूजन कर लेना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया हो, तो ऐसी स्थिति में संक्षिप्त विधान से तात्कालिक अभिमन्त्रण अवश्य करना चाहिए। बिना अभिमन्त्रण के जनेऊ सामान्य सूत्रमात्र है, बिना प्राणप्रतिष्ठित देवमूर्ति की तरह है।

 

संस्कार की संक्षिप्त विधि— विधिवत तैयार किए गए ब्रह्मसूत्र (जनेऊ) को पवित्र जल से प्रक्षालित कर, हल्दी से रंग कर, पलाशपत्र पर स्थापित कर दें। अभाव में आम्रपत्र का भी प्रयोग कर सकते हैं। (पूरा न रंगना चाहें तो भी कम से कम ग्रन्थि को अवश्य रंग लें। इसके बिना अशुभ होता है। ध्यान रहे—मरणाशौच में दशगात्र के दिन जो जनेऊ बदलते हैं, उस दिन हल्दी नहीं लगाना है।)  

अब  पुनः उस पर आचमनी से जल छिड़के—ऊँ अपवित्रः पवित्रो वा....मन्त्र बोलते हुए। तत्पश्चात्  नौ तन्तुओं और सभी ग्रन्थियों में भावना करते हुए अक्षत वा रंगीन फूल क्रमशः एक-एक मन्त्रोच्चारण के साथ छिड़ते जाएं। यथा— प्रथमतन्तौ ऊँ ऊँकारमावाहयामि। द्वितीयतन्तौ ऊँ अग्निमावाहयामि। तृतीयतन्तौ ऊँ सर्पानावाहयामि। चतुर्थतन्तौ ऊँ सोममावाहयामि। पञ्चमतन्तौ ऊँ पितृनावाहयामि। षष्ठतन्तौ ऊँ प्रजापतिमावाहयामि । सप्तमतन्तौ ऊँ अनिलमावाहयामि। अष्टमतन्तौ ऊँ सूर्यमावाहयामि। नवमतन्तौ ऊँ विश्वान् देवानावाहयामि। प्रथमग्रन्थौ ऊँ ब्रह्मणे नमः ब्रह्माणमावाहयामि। द्वितीयग्रन्थौ ऊँ विष्णवे नमः विष्णुमावाहयामि। तृतीयग्रन्थौ ऊँ रुद्राय नमः रुद्रमावाहयामि।

 

तदुपरान्त प्रणवाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः यथास्थानं न्यसामि —मन्त्रोच्चारण पूर्वक पुष्प-चन्दनादि अर्पित करें। तत्पश्चात् बायीं हथेली में जनेऊ को रखकर, दाहिनी हथेली से ढक कर, मानसिक रूप से ग्यारह बार गायत्री मन्त्र का उच्चारण करें। अब ये यज्ञोपवीत धारण योग्य हो गया। धारण करते समय पुनः ध्यान रहे—गृहस्थ दो जनेऊ पहन रहे हैं, उन्हें बारी-बारी से पहने, न कि एक ही बार। यानी धारण हेतु विनियोग तो एक ही करें, किन्तु धारण मन्त्र दो बार उच्चारण करें। यथा— यज्ञोपवीतयेकैकं प्रतिमन्त्रेण धारयेत् । आचम्य प्रतिसंकल्पं धारयेन्मनुरब्रवीत् । । (परासर, आचारभूषण)

 

नूतन यज्ञोपवीत धारण और जीर्ण के परित्याग की विधि—

पूर्वाभिमुख आसन ग्रहण कर, दाहिनी हथेली में जल लेकर विनियोग करें—ऊँ यज्ञोपवीतमिति मन्त्रस्य परमेष्ठी ऋषिः लिङ्गोक्तादेवताः त्रिष्टुप छन्दः यज्ञोपवीत धारणे विनियोगः।। तत्पश्चात् दोनों हाथ के अँगूठे में खुले ढंग से नूतन जनेऊ को ग्रहण कर धारण मन्त्र का उच्चारण करेंगे—ऊँ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।। ऊँ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।। — इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए यज्ञोपवीत धारण करें। धारण करने के बाद ऊँ केशवाय नमः इत्यादि हरिस्मरण करते हुए, तीन बार आचमन करे।

नूतन यज्ञोपवीत धारणोपरान्त जीर्ण यज्ञोपवीत को कंठी की तरह करके, सिर से पीठ की ओर ले जाते हुए, शरीर से अलग करेंगे और फिर चतुर्गुणित मोड़ कर दोनों हाथों से पकड़कर, ललाट का स्पर्श करते हुए इस मन्त्र का उच्चारण करें— एतावद्दिनपर्यन्तं ब्रह्मत्वं धारितं मया। जीर्णत्वात् त्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथासुखम्।। यहाँ भाव ये है कि अब तक मेरे शरीर से जो ऊर्जायें इस ब्रह्मसूत्र में संगृहित हुयी, उन्हें हम पुनः अपने शरीर में संरक्षित कर लिए। तत्पश्चात् आदर पूर्वक पुराने जनेऊ को कहीं विसर्जित दें। मनुपरासरादि ऋषियों के स्पष्ट निर्देश हैं—मन्त्रेण धारणं कार्यं मन्त्रेण च विसर्जनम् । कर्तव्यं च सदा सद्भिर्नात्र कार्या विचारणा।।  

 

नूतन यज्ञोपवीत धारण की स्थितियाँ—

 

१.   असावधानीवश यदि कपड़े उतारते समय, स्नान करते समय शरीर से अलग हो जाए, जीर्ण होकर सूत्र खण्डित हो जाए, तो ऐसी स्थिति में उसका परित्याग करके, नूतन यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए—वामहस्ते व्यतीते तु तत् त्यक्त्वा धारयेत् नवम्। (आचारेन्दु)

२.  मलमूत्र त्याग करते समय असावधानीवश कान पर जनेऊ लपेटना भूल जाएँ या लपेटने के बाद भी सरक कर कान से नीचे आ गिरे, तो भी स्नान करके, नूतन यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में आचारेन्दु के वचन हैंमलमूत्र त्यजेद् विप्रो विस्मृत्यैवोपवीतधृक् । उपवीतं तदुत्सृज्य धार्यमन्यन्नवं तदा।। पतितं त्रुटितं वापि ब्रह्मसूत्रं यदा भवेत् । नूतनं धारयेद्विप्रः स्नात्वा संकल्पपूर्वकम्।।

३.  यज्ञोपवीत का परिवर्तन (नूतनधारण) किन परिस्थितियों में करें , इस पर महर्ष गोभिल द्वारा आचार भूषण में कहा गया है कि घारण करने के तीन-चार महीने बाद शारीरिक मलादि से दूषित (गन्दा) हो जाने पर, अभिमन्त्रित-पूजित नूतन यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। यथा  धारणात् ब्रह्मसूत्रस्य गते मासचतुष्टये।

     त्यक्त्वा तान्यपि जीर्णानि नवान्यन्यानि धारयेत् ।।

४.   ज्योतिषार्णव, नारायणसंग्रहादि ग्रन्थों में अन्य स्थितियों की भी चर्चा है, जब यज्ञोपवीत परिवर्तन करना चाहिए। वार्षिक कृत्य-उपाकर्म (श्रावणीपर्व), जननाशौच, मरणाशौच, श्राद्धकर्म, सूर्य-चन्द्रग्रहणशुद्धिस्नान, अस्पृश्यास्पर्श आदि में पुराने यज्ञोपवीत को उतार कर, नूतन प्रतिष्ठित यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। यथा—सूतके मृतके क्षौरे चाण्डालस्पर्शने तथा।  रजस्वलाशवस्पर्शे धार्यमन्यन्नवं तदा।।

किंचित् यही निर्देश आश्वलायन के भी हैं—

         चितिकाष्ठं चितेर्धूमं चण्डालं च रजस्वलाम्।

        शवं च सूतिकां स्पृट्वा सचैलो जलमाविशेत् ।

ज्योतिषार्णव के निर्देश —

उपाकर्मणि चोत्सर्गे सूतकद्वितये तथा।

श्राद्धकर्मणि यज्ञादौ शशिसूर्यग्रहेऽपि च।

नवयज्ञोपवीतानि धृत्वा जीर्णानि च त्यजेत् ।।

पहले लोग नियमित नापित के सम्पर्क में नहीं जाते थे। नापित के घर पर

 जाकर क्षौरकर्म निषिद्ध कहा गया है। अपने घर बुला कर क्षौरकर्म कराते थे

 लोग।  किन्तु आजकल बाजार में नापित की दुकानें खुली हुयी हैं। वस्तुतः

 वह नापितगृह तुल्य ही है। सैलून, व्यूटीपार्लर बन गये हैं। पुरुष-स्त्री सभी

 सौन्दर्यप्रशाधनों के दीवाने हो गए हैं। नियमित नित्य या साप्ताहिक क्षौर

 कराने (दाढ़ी मूछ बनाने) का चलन हो गया है। तीन-चार माह पर सिर के

 बाल भी कटवाते हैं। ऐसे में नित्य या साप्ताहिक तो नहीं, किन्तु सिर के बाल

 कटवाने की स्थिति में नूतन यज्ञोपवीत अवश्य धारण कर लेना चाहिए।

 अस्तु। 

Comments