अव्यङ्ग धारण— मगों का एक विस्मृत कृत्य
कलिकाल दोषवासात् विविध संस्कारों के
साथ-साथ किंचित् अपरिहार्य कृत्यों का भी अनादर हो रहा है, फलतः लोप और विस्मृति तो
होनी ही है। अन्य वर्णों की भाँति दिव्य सूर्यांशी मगविप्र भी इस विस्मृति से अछूते
नहीं रह पाए हैं। मात्र सवा पाँच हजार वर्षों का जम्बूद्वीपीय प्रवास और परिवेश इतना
परिवर्तित कर दिया हमारे रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचारों को कि कविवर मैथिलीशरण
गुप्त की पंक्तियाँ शतशः चरितार्थ होने लगी — हम कौन थे, क्या हो गए और क्या
होंगे अभी....।
द्विज मात्र के लिए अपरिहार्य
यज्ञोपवीत अब मगों को भी बोझ प्रतीत होने लगा है। और यज्ञोपवीत ही जब निष्प्रयोज्य
हो गया है, फिर “अव्यङ्ग” धारण की अनिवार्यता का कोई अर्थ ही नहीं रह
जाता।
आसन्न स्थिति ये है कि इस शब्द से
भी हम अपरिचित हो गए हैं। परीक्षण के विचार से अनेक अनुभवी और ज्ञानवान मगविप्रों
से जिज्ञासा व्यक्त की, किन्तु निराशा ही हस्तगत हुई। ज्यादातर लोगों ने अभ्यङ्ग
को परिभाषित कर समझाने की चेष्टा की और मेरी अल्पज्ञता पर मन ही मन मुस्कुराए भी।
विदित हो कि अभ्यङ्ग धर्मशास्त्र का नहीं, प्रत्युत
आयुर्वेद शास्त्र का चर्चित शब्द है। तैलाभ्यङ्ग (तेल लगाना, मालिश करना) इसका
प्रचलित प्रयोग है। जबकि अव्यङ्ग को दूर-दूर से भी कोई सम्बन्ध नहीं अभ्यङ्ग
से।
इस अव्यङ्ग पद की संरचना इस प्रकार
है—अ+वि+अङ्ग=अव्यङ्ग। इकोयणचि संधिसूत्रानुसार अव्यङ्ग
शब्द में यण् सन्धि है—अ+व्+इ+अङ्ग=अव्यङ्ग।
वस्तुतः
यह एक अंग विशेष है, जो है भी और नहीं भी है। जो था कभी और अब नहीं है के अर्थ में
भी कह सकते हैं। विशेष का बोध कराने हेतु ‘वि’ का
प्रयोग हुआ और न के अर्थबोध हेतु ‘अ ’ का
प्रयोग हुआ शब्द-सिद्धि में।
इसे समझने
के लिए किंचित् पौराणिक कथाओं का अवलोकन अनिवार्य है।
शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के उद्भव,
विकास, जम्बूद्वीप आगमन और निवास सम्बन्धी सर्वाधिक प्रसंग साम्बपुराण और
भविष्यपुराण में उपलब्ध है। चुँकि अव्यङ्ग का सम्बन्ध शाकद्वीपीय विशिष्ट ब्राह्मण
से ही हैं, इस कारण भविष्यमहापुराण में अव्यङ्ग शब्द अनेक बार आया है। भविष्यपुराण
ब्राह्मपर्व के अध्याय ११० में अव्यङ्गसप्तमी की चर्चा है। इसे एक व्रत के रूप में
प्रतिष्ठित किया गया है। श्रावण शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि ही अव्यङ्ग सप्तमी के
नाम से प्रतिष्ठित है। यहीं १११वें अध्याय
में भी थोड़ी चर्चा है। इसी पुराण में आगे
पूरे १४२वें अध्याय में (कुल उनतीस श्लोकों में) अव्यङ्ग के उद्भव, महत्त्व ,
स्थापन और प्रयोग सम्बन्धी विस्तृत कथा है।
शाकद्वीपियों के यहाँ वर्ष की कुछ
तिथियाँ कुलदेवता पूजन के लिए प्रशस्त एवं अपरिहार्य कही गयी हैं। प्रायः अपने-अपने
कुलाचारानुसार
लोग
इस तिथि को कुलदेवतापूजा करते भी हैं। कुछ कुलों में फाल्गुन एवं चैत्र मास में भी
पूजा होती है। कहीं अन्य महीनों की भी परम्परा है। कहीं-कहीं तो सिर्फ विवाहादि
विशेष अवसरों पर ही कुलदेवतापूजा की परम्परा है, जिसे प्रमादालस्य ही कहा जाना
चाहिए। क्योंकि किसी परम्परा पर विवेकपूर्ण विचार हम नहीं कर पाते। ऐसे में
परिष्कार की बात ही कहाँ से आ सकती है !
विडम्बना ये है कि श्रावण शुक्ल सप्तमी
(अव्यङ्ग सप्तमी) के दिन लोग कुलदेवता की पूजा तो करते हैं, किन्तु मूल उद्देश्य
भूल गए हैं। जबकि स्पष्ट निर्देश है—
अव्यङ्गं
देवदेवस्य वर्षे वर्षे नियोजयेत्। सप्तम्यामन्नमेवाग्र्यं शुभं शुक्लं नवं तथा ।। भ.पु.
१११-३ ।।
तथाच अव्यङ्गे विधिवच्छक्त्या
कृत्वा ब्राह्मणभोजनम्।। (उक्त १११-५ उत्तरार्द्ध।
प्रसंगवश पहले इसकी उत्पत्ति कथा का रसास्वादन कर लें—
विदित हो कि देवता, ऋषि, नाग, गन्धर्व, अप्सरा,
यक्ष, राक्षसादि ऋतुक्रम से सूर्य के रथ के साथ रहते हैं। यह रथ वासुकि नामक नाग
से वेष्ठित है।
हम जानते हैं कि सर्पो और नागों के
शरीर का ऊपरी आवरण समय-समय पर बदलते रहता है, यानी पूर्व का त्याग और नवीन का सृजन
होते रहता है।
एक समय की बात है कि वासुकिनाग का
कंचुक (केचुली) उतरकर गिर पड़ा। सूर्य ने उसे आदर पूर्वक उठाकर, सुवर्ण-रत्नों से
अलंकृत कर अपने मध्य भाग में धारण कर लिया। उसी समय सूर्य ने घोषणा की कि जो मेरा
भक्त (भोजक) इसे धारण करेगा, उसपर मेरा विशेष अनुग्रह रहेगा। जिस प्रकार नाग अपनी
केचुली प्रतिवर्ष परिवर्तित करता है, उसी भाँति भोजकों को भी प्रतिवर्ष नूतन
अव्यङ्ग हमारी पूजा में प्रदान करना चाहिए और विधिवत स्थापित-पूजित अव्यङ्ग स्वयं
भी धारण करना चाहिए। ये घटना चुँकि श्रावणमास शुक्लपक्ष की सप्तमीतिथि को घटित हुई
है, इसलिए इसे अव्यङ्गसप्तमी के नाम से जाना जाना चाहिए।
ये
कथा श्रीभविष्यमहापुराण ब्राह्मपर्व, सप्तमीकल्प में अव्यङ्गसप्तमी वर्णन नामक १४२वें
अध्याय में है। यहाँ अव्यङ्ग निर्माण और महत्त्व की बात भी बतलायी गई है। इससे
पूर्व अध्याय में साम्बोपाख्यान क्रम में भोजक जाति का वर्णन है।
जिस
प्रकार सर्पकंचुक (केचुली) नलिका की भाँति होती है, यानी भीतर से पोला होता है, उसी
भाँति पवित्र कर्पाससूत्र से अव्यङ्ग निर्माण करना चाहिए।
सूत का परिमाण बतलाते हुए ऋषि कहते
हैं—
एकवर्णः
स कर्तव्यः कार्यसिद्धिकरस्तथा ।
प्रमाणेनांगुलानां
तु शताद्धि शतमुत्तरम् ।। १० ।।
उत्कृष्टोयं
प्रमाणेन मध्यमो विंशदुत्तरः।
शतमष्टोत्तरं ह्रस्वो न तु ह्रस्वतरस्ततः ।।११।।
(कपास
सूत से बना हुआ अव्यङ्ग दो सौ अंगुल का उत्तम, एकसौबीस अंगुल का मध्यम और एकसौआठ
अंगुल का कनिष्ठ श्रेणी का होता है।)
इसी प्रसंग में आगे कहा गया है कि
भोजकों अर्थात् शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के लिए एक विशिष्ट संस्कार है अव्यङ्ग धारण।
नियमतः यज्ञोपवीत संस्कार के साथ ही, आठवें वर्ष में ये संस्कार हो जाना चाहिए। इसे
धारण करने से बटुक सभी वैदिक क्रियाओं का अधिकारी हो जाता है। यज्ञोपवीत की भाँति
ही इसमें सभी देवों, सभी वेदों, सभी लोकों, सभी भूतों का निवास माना गया है। इसके
मूल में विष्णु, मध्य में ब्रह्मा और अन्त में शशांकशेखर शिव निवास करते हैं। यहीं
इनके साथ क्रमशः तीनों वेद हैं और चतुर्थ वेद—अथर्ववेद ग्रन्थिमूल में अवस्थित
हैं। अव्यङ्ग सूत्र में सातों लोक और पृथिव्यादि पाँचों महाभूत समाहित हैं। भोजक
सूर्यभक्तों को इसे कभी अपने शरीर से विलग नहीं करना चाहिए। क्योंकि यज्ञोपवीत की
भाँति ही ये भी अत्यावश्यक संस्कार या कहें अधिकार है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि
श्रावणशुक्ल सप्तमी को कच्चे सूत से निर्दिष्ट परिमाण वाला अव्यंङ्ग-निर्माण करे।
गौरी-गणेश-नवग्रहादि आंगिक पूजा के पश्चात् निर्मित अव्यङ्ग की विधिवत
प्राणप्रतिष्ठा-पंचोपचार पूजनादि सम्पन्न करे, तत्पश्चात् कटिप्रदेश में धारण
करले।
स्पष्ट शास्त्रीय प्रमाण तो उपलब्ध
नहीं है, किन्तु लोकाचार में पाया जाने वाला यज्ञोपवीत संस्कार के पूर्व दिन कच्चे
सूत का एक जनेऊनुमा सूत्र गायत्रीमन्त्रोचारण पूर्वक बटुक को आचार्य द्वारा धारण
करा दिया जाता है, जिसे लोग गोबर जनेऊ कहते हैं। अगले दिन मुख्य यज्ञोपवीत संस्कार
हो जाने पर, इस गोबरजनेऊ को उतार कर कहीं सुरक्षित रख देते हैं। सम्भवतः यह उसी
अव्यङ्गसंस्कार का ही विस्मृत लोकाचार है। अस्तु।
Comments
Post a Comment