मगबन्धु(अखिल)
— पं.ब्रह्मदेव शास्त्री विशेषांक :: मेरी दृष्टि में
—कमलेश पुण्यार्क
सदा की भाँति इस बार भी बिलकुल समय
पर जून प्रथम सप्ताह में ही मगबन्धु(अखिल) का अद्यतन संयुक्तांक हस्तगत हो
गया था, किन्तु कार्यव्यस्ता से कहीं अधिक
स्वास्थ्यवाधा के कारण सम्यक् दृष्टिभोग करने में विलम्ब हुआ ।
मजे की बात है कि इस बार दरवाजे पर
डाकिये को दस्तक नहीं देनी पड़ी और न मग जागृति फाउण्डेशन को डाक-व्यय का अतिरिक्त
व्यय-बोझ ही झेलना पड़ा, क्योंकि मैंने स्वयं ही सम्पादक का द्वार खटखटा दिया ५
जून की दोपहरी में। और फिर क्या कहना, डॉ.सुधांशुजी के अविरल स्नेहोदधि में अवगाहन
करने का भरपूर अवसर मिला। मधुर मिष्टान्न और रसीसे रसाल के साथ-साथ पत्रिका की हाथोहाथ
प्राप्ति की अभूतपूर्व अनुभूति को शब्दों में पिरोना जरा कठिन प्रतीत हो रहा है, अतः
शब्दजाल में उलझने से कहीं अच्छा है कि विशेषांक के बावत ही कुछ कहूँ।
मगबन्धु के किसी भी अंक की तुलनात्मक
चर्चा सच मानिये तो निरर्थक है, क्योंकि प्रत्येक अंक की अपनी-अपनी विशेषता होती
है, जिसके कारण वह पठनीय ही नहीं, वल्कि संग्रहणीय हो जाता है। सत्रहवां वर्ष,
चौंतीसवाँ अंक— जनवरी-जून २०२२(संयुक्तांक) पं.ब्रह्मदेव शास्त्री विशेषांक
मगकुलभूषण मगध के महान स्वतन्त्रता सेनानी, कवि, कहानीकार, गद्यगीतकार, नाटककार,
चित्रकार, मूर्ति-शिल्पी के साथ-साथ उद्भट साधक के जीवनवृत्त पर आधारित होने के
कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस विशेषांक के अवलोकन के पश्चात् मुझे अपनी जानकारी
के बौनेपन का एहसास हुआ और दीपक तले अन्धकार की प्रतीति हुई। मैगरा (मगध प्रमण्डल)
ग्रामवासी पं.ब्रह्मदेव शास्त्रीजी के विषय में जितना मैं पहले से जानता था, उससे
कई गुना अधिक सामग्री संजोयी हुई है इस विशेषांक के लघु कलेवर में, जिसके सम्यक्
संकलन हेतु पत्रिका के कर्मठ सुयोग्य सम्पादक अतिशय साधुवाद के पात्र हैं, साथ ही उन सभी विद्वान-विदुषी लेखक-लेखिकाओं को
भी धन्यवाद देना चाहता हूँ, जिनकी लगनशीलता और सामयिक तत्परता के बगैर यह संकलन
अधूरा रह जाता। डॉ.मालारानी गुरु एवं अवन्तिका मिश्र (दुहिताद्वय) की यथेष्ट संकलनों
के साथ-साथ प्रो.शैलकुमारी मिश्र, डॉ.मृदुला मिश्र, श्रीमती लक्ष्मी मिश्र, श्रीमती
अनुपमा नाथ, श्री योगेश्वर शास्त्री, श्री सूर्यनाथ मिश्र, चि.राकेश कुमार आदि की
रचनाओं, संस्मरणों, समीक्षाओं से सुसज्जित अनुपम विशेषांक शास्त्रीजी के जीवनवृत्त
के साथ-साथ उनकी कालजयी कृत्तियों पर भी प्रचुर प्रकाश डालता है। विशेषांक के मूल
उद्देश्य से जरा हट कर, डॉ.अर्पणा शर्मा द्वारा ब्राह्मण विषयक उठाये गए प्रश्न और
दी गयी परिभाषा तथा पं. शंकरदेव पाठक द्वारा शाकद्वीप के मगद्विजों का विवरण, आचार्य
देवनाथ शास्त्रीजी का मगमार्ग दर्शन, पं. वसंत पाण्डेयजी का समय का मापकरण, आचार्य
यमुना पाठकजी के संस्कृत श्लोकों के पार्श्व से झांकती रचना मिश्र की निन्दारानी
बड़ी लुभावनी लगी। स्वनाम धन्य डॉ.अशोक प्रियदर्शी जी की पुस्तक-समीक्षा—नाम
में क्या रखा है—श्री महेशपाठकजी की अन्य पुस्तकों को पढ़ने की ललक जगा रही
है, तो डॉ.विजयप्रकाश शर्मा एवं शुभ्रांशु मिश्र की पुस्तक-समीक्षा ऐतिहासिक पुस्तक—मगतिलक
के प्रति नयी पीढ़ी के ध्यानाकर्षण हेतु यथेष्ट है। सदा की भाँति इस विशेषांक में
भी श्रद्धांजलियों का सिलसिला है। विगत छमाही में दिवंगत दिव्यात्मनों के प्रति मगमुखपत्र
के माध्यम से आभाराभिव्यक्ति एक स्वस्थ परम्परा है, जिसका निर्वहण सम्यक् रूप
से हो रहा है। मगसमाज के छिटपुट समाचारों और वर-वधू चयन में मार्गदर्शन की सुविधा
पत्रिका की उपादेयता में चार चांद लगा देती है।
इन विविध बहुआयामी कालजयी रचनाओं
के बीच मेरे क्षुद्र आलेख—कुण्डलीमिलान के औचित्य को समाहित करने हेतु
प्रिय सुधांशुजी को साशीष साधुवाद दिए बिना तो ये टिप्पणी ही अधूरी रह जाने जैसी
है। और अन्त में सम्पादक मण्डल को धन्यवाद देते हुए भुवनभास्कर से कामना करता हूँ
कि सम्पादन-प्रकाशन की ये सद्वृत्ति अनवरत गतिशील रहे, ताकि मगबन्धुओं का सम्यक्
मार्गदर्शन होता रहे। अस्तु।
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