गुरुतत्त्व विमर्श और विडम्बना

गुरुतत्त्व विमर्श और विडम्बना

सनातन संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोपरि है—गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुदेवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गरुवे नमः ।। अर्थात् त्रिदेव— ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी ऊपर है गुरुपद । गुरुपद की महत्ता और गरिमा इससे और अधिक स्पष्ट होती है —
अज्ञानातिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।। अर्थात् अज्ञान रूपी अन्धकार से अन्धे हो गए नेत्र को ज्ञानरूपी शलाका से खोल दे जो, उन गुरु को प्रणाम है। नास्ति तत्वं गुरोः परम्— से भी गुरु की गरिमा स्पष्ट होती है—गुरु से परम कोई अन्य तत्व नहीं है।
गुरु विषयक अनेक बातें विविध ग्रन्थों में मिलती हैं। सामान्य जन इन प्रशस्तियों में या तो उलझकर रह जाता है या सर्वभावेन स्वीकार कर लेता है या फिर परले सिरे से नकार देता है। पर्यायवाची शब्दों की भीड़ में प्रायः शिक्षक और गुरु का अभेद सिद्ध होता है लोकमानस में। जबकि सच्चाई ये है कि पर्यायवाची शब्द सिर्फ सामान्य समझ पैदा करने के लिए होते हैं—अर्थ और भाव के निकट पहुँचाने के लिए सिर्फ। वस्तुतः सभी शब्द (पद) स्वतन्त्र अस्तित्व वाले हैं, किंचित् भिन्न-भिन्न विशेषणों वाले।
आम सांसारिक दिनचर्या की इतिश्री शिक्षक से हो जा सकता है, क्योंकि बाह्य तल पर जानकारियों का हस्तान्तरण शिक्षक का कार्य है। यथा— गणित का शिक्षक गणित की अपनी जानकारियों को विद्यार्थी में हस्तान्तरित कर दे सकता है, इतिहास का शिक्षक इतिहास की जानकारियों को...। इस प्रकार स्थूल पुस्तकीय जानकारी को क्रमिक रूप से एक दूसरे को हस्तान्तरित करते हुए पठन-पाठन, अर्थोपार्जन, जीविकोपार्जन, तथाकथित सुखमय जीवनयापन तक का काम चल जाता है। क्योंकि आम सांसारिक जीवन का अथ और इति यहीं तक सिमटा रहता है।
किन्तु इससे भी आगे कुछ है, है तो क्या है, कहाँ है, कैसा है इत्यादि प्रश्नों का उत्तर कोई शिक्षक कदापि नहीं दे सकता। वह कार्य और दायित्व है गुरु का। स्पष्ट है कि शिक्षक सिर्फ जानकारियाँ दे सकता है। शिक्षक स्थूल जानकारियों का वाहक मात्र है और जानकारियाँ ‘ज्ञान’ कदापि नहीं है, ‘विज्ञान’ होने का तो प्रश्न ही नहीं।
अतः ज्ञान-विज्ञान हेतु गुरु ही नहीं ‘श्रीगुरु’ की आवश्यकता होती है। रुद्रयामलतन्त्रम् (उत्तरखण्ड) में श्रीगुरु नमस्कार स्तोत्र की विशद चर्चा है, जिसमें श्रीगुरु की अनन्त महिमा का गायन है। उन स्तोत्रों की गहराई में उतरने पर गुरु और श्रीगुरु के तत्वगत भेद का स्पष्ट संकेत भी मिलता है। वस्तुतः इस श्रीगुरु की कृपा से ही ज्ञानचक्षु का उन्मीलन हो सकता है, अन्यथा नहीं।
तत्वतः - तथ्यतः किसी बात को न समझ सकने के कारण ही कहीं के कहीं अटके रह जाते हैं। किसी सन्दर्भ को किसी अन्य सन्दर्भ में सम्पुटित कर लेते हैं। शिक्षक, गुरु, श्रीगुरु, परमगुरु, सद्गुरु सबको एक की खाँचे में रख देते हैं। परिणामतः अन्तर्जगत् में समुचित प्रवेश का द्वार सदा अवरुद्ध रह जाता है।
हमारे सनातन गुरुकुल लुप्तप्रायः हैं। गुरुपरम्परा का वर्तमान स्वरूप भी विद्रूप हो चुका है। भीड़ और अर्थ वहाँ भी हावी है। तथाकथित आश्रम भी मूलतः ‘मॉल’ हो चुके हैं। वस्तुतः वर्तमान समय में सुयोग्य शिक्षक का ही अभाव है। उत्तुंग अट्टालिकाओं में चलते शिक्षणसंस्थान मूलतः आकर्षक व्यापार केन्द्र हैं, जिसकी बाहरी चमक-दमक हमें खींच ले जाती है। ये शिक्षणसंस्थान हमें पैसे कमाने वाली मशीन बना सकते हैं, मनुष्य नहीं । सौभाग्य से ही विरले शिक्षक मिलते हैं, जो मनुष्य बनने की शिक्षा दे सकें। और ऐसे में जब शिक्षक मिलना ही दुर्लभ है, फिर गुरु की क्या बात ! और जब गुरु ही नहीं तो श्रीगुरु क्या...सद्गुरु क्या !
किन्तु चिन्ता की बात नहीं है। निराश होने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है सिर्फ भटकाव बन्द करने की। हम जहाँ हैं, जिस अवस्था में हैं, साहस, विश्वास, धैर्य और लगन के साथ तत्परता पूर्वक शबरी की तरह रास्ते को बुहारते रहें। उसकी रूक्षता को सींचते रहें। बाट जोहते रहें। प्रभु श्रीराम अवश्य पधारेंगे, क्योंकि— व्याधस्याचरणं ध्रुवस्य च वयो, विद्या गजेन्द्रस्य का, का जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुग्रस्य किं पौरुषम्। कुब्जायाः किमु नामरूपमधिकं किं तत्सुदाम्नोधनम्, भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणैर्भक्ति प्रियो माधवः।। (व्याध का आचरण क्या था, ध्रुव का वय क्या था, गजेन्द्र की विद्या क्या थी, विदुर की जाति क्या थी, उग्रशेन का पौरुष क्या था, कुब्जा का रूप कैसा था, सुदामा के पास धन कितना था???? अभिप्राय ये कि आचरण, वय, जाति, विद्या, पौरुष, रूप, धन ये सब निरर्थक हैं। सार्थक है — आपके अन्दर समर्पण कितना है, ललक कितनी है और भाव कितना है—ये विचारने-सुधारने वाली बात है। योग्य गुरु नहीं मिल रहे हैं— ये चिन्ता की बात
नहीं है। गुरुपिपाशा कितनी है, हमारे अन्दर ये महत्त्वपूर्ण है। जब भी समय मिले किसी वृक्षतले, घर के द्वार पर ही सही, शयनकक्ष में ही सही, शान्तचित्त
बैठ कर पगडंडी की ओर ध्यान टिकाये रहें—सुदूर पगडंडी पर गुरुपदचाप आपको अवश्य सुनाई देगा।
शनैःशनैः ‘चाप’ ‘थाप’ में परिणत हो जायेगा और फिर साक्षात् में। और तब सिर्फ एक काम करना होगा—उन श्रीचरणों में सर्वथाभावेन समर्पण— तस्मै श्रीगुरुवे नमः। अस्तु।

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