रक्षाबन्धनःबदलता स्वरुप
भारतीय
संस्कृति में श्रावण पूर्णिमा को रक्षाबन्धन के रुप में मनाने का प्रचलन है। रक्षा
की आवश्यकता प्राणीमात्र को है । हर कोई स्वयं के साथ-साथ अपने प्रियजनों की रक्षा-सुरक्षा की कामना करता
है। किन्तु विशेषकर रक्षाबन्धन का त्योहार भाई-बहन के पावन त्योहार तक सिमट कर रह
गया है। हालाँकि कुछ समय पहले तक प्रायः देखा जाता था कि इस दिन ब्राह्मण अपने
यजमानों के यहाँ जाते थे और कच्चे सूत में रंगीन रुई को लपेट कर यजमान की कलाई पर
बाँध कर, ललाट पर हल्दी, दही, अक्षत, रोली आदि का मांगलिक तिलक लगाते थे। बदले में
यजमान यथाश्रद्धा अन्न, वस्त्र, द्रव्यादि प्रदान करता था।
समय
के प्रवाह में धीरे-धीरे स्थितियाँ बदलती गयी। फिल्मी दुनिया की छाप
रक्षाबन्धन पर भी भरपूर पड़ा । “ भैया मेरे राखी के
बन्धन को निभाना...”
के धुन पर भारतीय संस्कृति का पावन और कल्याणकारी पर्व – रक्षाबन्धन का नाम हो गया “ राखी” और
मूल उद्देश्य कहीं गुम हो गया।
व्यापार
कुशल वणिकों ने इसे भुनाना शुरु कर दिया। तरह-तरह के कृत्रिम सामानों से
रंग-बिरंगी राखियाँ बाजार में भर गयी और कच्चेसूत में आवेष्ठित रंगीन रुई की
महत्ता और रहस्य ही लुप्त हो गया।
प्रसंगवश
रक्षाबन्धन के भारतीय इतिहास की ओर जरा लिए चलता हूँ आपको— पुराण सम्मत है कि
देवासुर संग्राम हमेशा होते ही रहते हैं। कभी देवताओं की विजय होती है, तो कभी
पराजय । एक बार ऐसी ही विकट स्थिति आ गयी कि देवगण बिलकुल निस्सहाय हो गए थे।
दैत्यों से ऐसा घिरे कि कहीं निकल भागने की स्थिति भी नहीं बन पा रही थी। देवराज
इन्द्र ने अपनी व्यथा देवगुरु बृहस्पति से सुनायी और रक्षा का कोई उपाय पूछा ।
संयोग से ये बातें श्रावण मास की शुक्ल चतुर्दशी की रात्रि में हो रही थी।
देवराज
इन्द्र की बातें इन्द्राणी भी सुन रही थी। अपने पति की विकलता का उन्हें बड़ा
क्षोभ हुआ। थोड़े मनन-चिन्तन के बाद इन्द्राणी ने कहा कि संयोग से कल श्रावण मास
की पूर्णिमा तिथि है और देवगुरु हमारे यहाँ पधारे हुए हैं। ऋषियों ने रक्षाविधान
का जो सूत्र (विधि ) बतलाया है, उसे आपलोग प्रयोग में क्यों नहीं लाते ?
इन्द्राणि की बातों का गुरु बृहस्पति ने भी समर्थन किया। अगले दिन कपास की रुई को हल्दी से रंग कर, कच्चे सूते से लपेटकर, विधिवत प्राणप्रतिष्ठा-पूजन-स्वस्तिवाचनादि सम्पन्न कराकर, सभी देवों की दायीं कलाई पर और देवियों की बायीं कलाई पर— येन बद्धो बलीराजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ।। — इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक रक्षासूत्र बांध दिया गया । वृहस्पति ने आश्वासन दिया कि कोई भी आज के दिन इस तरह का प्रयोग करेगा, उसकी सर्वविध रक्षा होगी। परिणामतः असहाय देवों की अप्रत्याशित विजय हुयी ।
इस
प्रसंग से सिद्ध होता है कि श्रावण पूर्णिमा को विधिवत रक्षाविधान से पुरोहितों
द्वारा रक्षासूत्र का निर्माण करके यथाविधि धारण करना चाहिए, न कि बाजारु नकली-
आडम्बरी महंगी राखियाँ।
अब
एक और पौराणिक प्रसंग पर ध्यान दिलाता हूँ — शिशुपाल वध के समय सुदर्शनचक्र के घोर
घर्षण से श्रीकृष्ण की तर्जनी अँगुली से रक्तधार निकल पड़ा। संयोग से कृष्ण की सखी
द्रौपदी वहीं उपस्थित थी। अन्य लोग तो किंकर्त्तव्यविमूढ़ देखते रहे, किन्तु
द्रौपदी चटपट अपनी आँचल फाड़ कर रक्तप्रवाह को रोकने का प्रयत्न करने लगी । कृष्ण
ने प्रसन्न होकर द्रौपदी को कृष्णा कह कर सम्बोधित किया और वचन दिया कि आँचल के
टुकड़े के एक-एक सूत्र का शत-सहस्र गुणित ऋण चुकाऊँगा ।
ध्यातव्य
है कि इन्हीं बातों का स्मरण दिलाया था द्रौपदी ने हस्तिनापुर राजसभा में चीरहरण
के समय—
गोविन्द द्वारिकावासिन् कृष्ण
गोपीजनप्रिय ।
कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि
केशव । द्रौपदी
के इस करुण पुकार से द्वारकाधीश तत्काल वहाँ उपस्थित हो गए—कृष्ण रूप में नहीं,
वस्त्रावतार रूप में। सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ही वस्त्र रूप में अवतरित हो गए।
द्रौपदी
श्रीकृष्ण की सखी के रूप में जानी जाती है। वे उसे छोटी बहन मानते थे। कृष्ण की
बहन सुभद्रा चुंकि अर्जुन से व्याही गयी थी, इस नाते भी द्रौपदी बहन ही हुयी।
भाई-बहन के इस अटूट स्नेहपूर्ण बन्धन को याद दिलाने के लिए भी रक्षाबन्धन का
त्योहार मनाया जाता है।
अतः
उक्त शास्त्रीय बातों का ध्यान रखते हुए बाजारीकरण की अँधीदौड़ का हिस्सा न बनें ।
बनावटी महंगी राखियों से सिर्फ बाजारवाद को बढ़ावा मिल रहा है और भारतीय संस्कृति
के उद्देश्यों की अवहेलना हो रही है। विपरीत विचारधारा वालों का तर्क हो सकता है
कि हमारी अर्थव्यवस्था को बल मिल रहा है। बहुत लोगों को रोजगार मिल रहा है।
किन्तु
किसी को रोजगार देने और अर्थव्यवस्था के मददगार बनने के चक्कर में अपनी संस्कृति
को भूलें नहीं, नष्ट न करें। दूसरी बात ये कि कृत्रिम बाजारु राखियों से भाई-बहन
की मनोभावना की अभिव्यक्ति तो हो जा रही है, किन्तु रक्षाविधान के मांगलिक रहस्य
की पूर्ति कतई नहीं हो रही है।
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