रक्षाबन्धनःसमय संशय

 

रक्षाबन्धनःसमय संशय

कलिकालवशात् पूर्णतः शुद्ध तिथि-नक्षत्र-मुहुर्तादि का अभाव होते जा रहा है। फलतः आए दिन प्रायः प्रत्येक व्रत-त्योहारों में समय और मुहूर्त को लेकर संशय की स्थिति बनी रहती है। ऐसे में विभिन्न मत-मतान्तर और पञ्चांगों के पचरे में आम आदमी बिलकुल दिग्भ्रमित होकर रह जाता है। क्या करें, क्या करना चाहिए—का समुचित समाधान नहीं मिल पाता। और अन्त में, लोग क्या कर रहे हैं, यानी देखादेखी का नकलची बन कर रह जाता है।

ये ठीक है कि प्राचीन ऋषियों में भी काफी मतभेद है। किन्तु तथ्यतः (मूल में) अभेद की स्थिति है। बाह्यतल पर जो मतान्तर प्रतीत हो रहा है, वह स्थिति और अवस्था जनित है।

रक्षाबन्धन का पावन त्योहार भी इस संशय से अछूता नहीं है। अतः इस सम्बन्ध में कुछ मूल बातों (नियमों) पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ।

विभिन्न ऋषिमत का संग्रह—निर्णयसिन्धु, धर्मसिन्धु आदि में इसके सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश है—...अथ रक्षाबन्धनमस्यामेव पूर्णिमायां भद्रारहितायां त्रिमुहूर्त्ताधिकोदयव्यापिन्यामपराह्ने प्रदोषे वा कार्यम्। उदये त्रिमुहूर्त न्यूनत्वे पूर्वद्युर्भद्रारहिते  प्रदोषादिकाले कार्यम् । ( श्रावण शुक्ल पूर्णिमा तिथि को सूर्योदय से तीन मुहूर्त से अधिक व्याप्त तिथि में, भद्रा रहित अपराह्न या प्रदोषकाल में रक्षाबन्धन कार्य करना चाहिए। यदि सूर्योदय काल में पूर्णिमा तिथि तीन मुहूर्त से कम हो तो पूर्वदिन भद्रारहित प्रदोष काल में रक्षाबन्धन करना चाहिए।) तत्सत्वे तु रात्रावपि तदन्ते कुर्यादिति निर्णामृते। इदं प्रतिपद्युतायां न कार्यम् । ( विशेष परिस्थिति में रक्षाबन्धन का कृत्य रात्रि में भी किया जा सकता है, परन्तु प्रतिपदा में कदापि नहीं करना चाहिए।)

अब, इस बार यानी विक्रमाब्द २०७९ (ई.सन् २०२२) की श्रावणी के सम्बन्ध में विचार करें। गुरुवार दिनांक ११ अगस्त २०२२ को विष्णुनगरी गया समयानुसार दिन में ९ बजकर २७ मिनट तक चतुर्दशी तिथि है, तदुपरान्त पूर्णिमा तिथि का प्रवेश हो रहा है। अगले दिन यानी शुक्रवार १२ अगस्त २०२२ को गया समयानुसार प्रातः ७ बजकर ८ मिनट तक ही पूर्णिमा तिथि का भोगकाल है। उस दिन गया नगर में सूर्योदयकाल प्रातः ५ बजकर २२ मिनट है यानी पूर्व कथित सिद्धान्तानुसार तीन मुहूर्त से कम है।

ज्ञातव्य है कि मुहूर्त सनातन परम्परा की काल मापन इकाई है, जो करीब २ घटी यानी ४८ मिनट का होता है। ध्यातव्य है कि शुक्रवार १२ अगस्त को पूर्णिमा तिथि सूर्योदय के बाद मात्र १०६ मिनट ही है, जबकि तीन मुहूर्त यानी १४४ मिनट की न्यूनतम मान्यता है रक्षाबन्धन हेतु। इस प्रकार ये स्पष्ट है कि रक्षाबन्धन का कृत्य पूर्व दिन यानी गुरुवार ११ अगस्त को ही अपराह्न वा प्रदोषकाल में मनाना चाहिए।

अब इस त्योहार के संशय के दूसरे पक्ष पर विचार करें। दूसरा पक्ष (नियम) है भद्रा रहित पूर्णिमा तिथि का होना। शुक्लेपूर्वाद्धेऽष्टमीपञ्चदश्योर्भद्रैकादश्यां चतुर्थ्यां परार्धे—मुहूर्तचिन्तामणि के इस श्लोक से स्पष्ट है कि शुक्लपक्ष में अष्टमी और पूर्णिमा तिथि के पूर्वार्द्ध में तथा चतुर्थी और एकादशी तिथि को परार्द्ध में भद्रा होता ही है। अतः भद्रारहित समय का चयन रक्षाबन्धन ( या अन्य किसी कार्य ) हेतु करना चाहिए।

भद्रा के सम्बन्ध में और एक-दो बातें जानने योग्य हैं। पहली बात ये कि मेषादि बारह राशियों के अनुसार क्रमशः भद्रा का वास स्वर्गलोक, भूलोक और पाताललोक में हुआ करता है। भद्रा के प्रभाव का नियम है कि जहाँ वास होता है, वहीं उसका प्रभाव भी होता है, अन्यत्र नहीं। भद्रावाससूत्र है— कुम्भकर्कद्वये मर्त्ये स्वर्गेऽब्जेऽजात्त्रयेऽलिगे। स्त्रीधनुर्जूकनक्रेऽधो भद्रा तत्रैव तत्फलम्।। ( अर्थात् कुम्भ, मीन, कर्क, सिंह में चन्द्रमा हों तो भद्रा का वास मृत्युलोक (पृथ्वीपर) होता है। मेष ,वृष, मिथुन और वृश्चिक के चन्द्रमा रहने पर स्वर्गलोक में वास होता है, तथा कन्या, धनु, तुला और मकर के चन्द्रमा रहने पर पाताललोक में वास होता है। भद्रा का फल स्थानवत होता है। इसके साथ ही स्वर्गे भद्रा शुभं कुर्यात् भी कहा गया है, अर्थात् स्वर्गलोक में यदि भद्रा का वास हो तो विशेष शुभद है।

विशेष परिस्थितियों में यानी भद्रा का सही परिहार यदि नहीं मिल रहा हो और कार्य करना आवश्यक हो, वैसी स्थिति में भद्रा के मुख-पुच्छ-विचार का भी नियम है। तिथिमान का बारहवाँ भाग मुख होता है और बीसवाँ भाग पुच्छ कहा गया है। मुखभाग की वर्जना करके, पुच्छ भाग में कार्य किया जा सकता है। ध्यातव्य है कि अलग-अलग तिथियों में ये मुख-पुच्छ भाग बदलते रहता है। यथा— चतुर्थी तिथि में पांचवां प्रहर, अष्टमी तिथि में दूसरा प्रहर, एकादशी तिथि में सातवां प्रहर और पूर्णिमा तिथि में चौथा प्रहर मुखभाग होता है। सामान्यतया (स्थूल गणना से) तीन घंटे का प्रहर कह दिया जाता है, किन्तु वस्तुतः प्रहर का सूक्ष्म परिमाण तिथि का अष्टमांश माना गया है।

भद्रा परिहार के सम्बन्ध में एक और बात शास्त्रसम्मत है—कि रात्रि में प्रारम्भ होकर भद्रा का भोग अगले दिन समाप्त होता हो या दिन में प्रारम्भ होकर भद्रा का भोग रात्रि में समाप्त होता हो, तो ऐसे में भद्रा दोषपूर्ण नहीं मानी मानी जाती—विष्टिस्तिथ्यपरार्धजा शुभकरी रात्रौ तु पूर्वार्धजा।  किन्तु ये अति विशेष परिस्थिति के लिए कहा गया है। 

ध्यातव्य है कि गुरुवार ११ अगस्त को चन्द्रमा मकर राशि पर हैं, इस कारण भद्रा का वास पाताललोक में होना निश्चित है। इसलिए मुख-पुच्छ विचार की भी आवश्यकता नहीं है और न भद्राकाल की वर्जना का ही कोई औचित्य है। अतः अपनी सुविधानुसार अपराह्न से प्रदोषकाल (गोधुलि बेला) पर्यन्त कभी भी रक्षाबन्धन कार्य सम्पन्न किया जा सकता है। अस्तु।

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