भक्त भक्ति और भगवान

 

भक्त भक्ति और भगवान

  भक्त, भक्ति और भगवान—ये बड़े प्यारे-न्यारे शब्द हैं। इन्हीं तीनों के बारे में सोचता-विचारता शाम की हवाखोरी करने पड़ोस के अति प्राचीन पितामहेश्वर मन्दिर-सरोवर-तट की ओर जा निकला, जो अभी हाल में ही शहर-सौन्दर्यीकरण योजना के तहत नवजीवन पाया है, कई करोड़ के सरकारी बजट से। राजा-महाराजाओं की देखा-देखी, हमारी सरकारों की भी कभी-कभी खुमारी टूटती है और सौभाग्य से भाई-भतीजावाद से थोड़ा उबर कर, कोई छोटी तोंद वालाठेकेदार मिल जाता है, तो आम जनता के साथ-साथ धार्मिक-स्थलों का भी उद्धार हो जाता है। गयाधाम के पितामहेश्वरघाट को भी इसी कृपा-प्रसाद का लाभ मिला है, कुछ दिनों पहले। शहर के इस दिव्य मन्दिर और सरोवर का बिलकुल कायाकल्प हो गया है।

इससे पहले की स्थिति तो ये थी कि झपट कर नदी की ओर हल्का होने के चक्कर में जाते, जुलाब लिए आदमी का भी पैखाना रूक जाता इसके आसपास के इलाके में आते ही और शरीरी हवा का दबाव नीचे के बजाय ऊपर का हो जाता। उबकाई आना लाज़मी था। परन्तु अब ऐसा नहीं होता—बड़ी खुशी की बात है।  

संयोग से पीछे वाला विशाल फाटक खुला था, जिससे सरोवर तटपर सीधा पहुँचना आसान हुआ। अन्दर घुसते ही पहली सीढ़ी पर बैठे सोढ़नदासजी नजर आए। लपक कर उनकी ओर बढ़ा, ये सोचते हुए कि विजयादशमी की बधाई भी लगे हाथ देकर निश्चिन्त हो जाऊँ। किन्तु पास पहुँचने पर बधाई वाले शब्द मुँह में ही छटपटाते रह गए, उन्हें गलहथिया दिए, गमगीन बैठा देख कर।

पूछना पड़ा—क्या हुआ सोढ़नुकाकू ! आज दशहरे के दिन आप इतना दुःखी क्यों दीख रहे हैं?

मेरे सवाल का ओवर टैलेन्ट स्टू डेन्ट वाली अन्दाज़ में, सरोवर की ओर हाथ उठाकर उन्होंने जवाब दिया— दुःखी न होऊँ तो क्या होऊँ? देख रहे हो न इस सुन्दर सरोवर की दुर्दशा। कल तक ऐसी थी कि पानी में मुँह लटकाओं तो तटछट का नजारा दीख जाए और आज हाल ये है कि चारों ओर नवरत्रि के विलखते कलश और फूल-मालाएँ सिसक रही हैं। जली-अधजली हवन सामग्रियाँ, ताजे-सूखे फूल शत्रु की लाशों की तरह रौंदा रहे हैं घाट पर। शहर के भक्तों ने सरोवर का बन्टाढार कर दिया चन्द घंटों में ही। हजारों भक्तों के विसर्जन-कार्यक्रम यहीं सम्पन्न हुए।

नदी-तालाबों में ही तो मूर्ति या पूजन-सामग्रियाँ विसर्जन की परम्परा है न काकू?

सोढ़नूकाकू के तेवर अचानक बदल गए मेरी बात सुनकर। गम की कालिमा पर क्रोध से तमतमाती लालिमा छा गयी। दाँत पीसते हुए बोले— भाँड़ में जाए तुम्हारी परम्परा। भक्तों की इस नासमझी ने ही भगवान को धर्मस्थलों से दूर खदेड़ दिया है। मैं तो कहता हूँ कि भक्तों के भय से भगवान मन्दिर छोड़कर भाग चुके हैं, जैसे भस्मासुर के भय से भोलेनाथ कैलाश छोड़कर भागे थे। ये कैसी भक्ति है भाई! जो भगवान के अस्तित्व और कृतित्व को ही नहीं जाना-समझा। भक्ति की आधी-अधूरी बातें कहीं से सुन-जान ली और भक्त होने के स्वयंभू प्रमाणपत्र-धारक बन बैठे? भक्ति बड़ी उच्चकोटि की चीज होती है। जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य-प्रताप से ईश्वर की कृपा होती है, तब कहीं भक्ति उतर पाती है मन-मन्दिर में। तब ये भिखारियों वाला भाव तिरोहित हो जाता है और सर्व समर्पण वाला भाव उदित होता है। बाकी समय तो लालसाएँ और कामनाएँ रग-रग में रसी-बसी रहती हैं। भगवान के लिए भक्ति हम करते कहाँ हैं? करते हैं, जो भी वो देखा-देखी-दिखावे के लिए। रंगे-रंगाये चोले, रंग-बिरंगी मूर्तियाँ, सजी-धजी पंडालों के कर्कश ध्वनिप्रदूषण में कहीं भक्तिरस का लेशमात्र भी नहीं है इसे जान लो बबुआ! भक्ति दिखावे की चीज नहीं है, बल्कि प्रेमी-प्रेमिका के बीच हुए गुप्त संवादों की तरह है—मन ही राख्यो गोय—विरह और उल्लास दोनों को गोने की जरुरत है । भक्ति के विषय में बड़ी गूढ़ बात कही गयी है, इसे कान खोलकर सुन लो और गुनों इन संकेतों को—

        व्याधस्याचरणं ध्रुवस्य च वयो, विद्या गजेन्द्रस्य का,

        का जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुग्रस्य किं पौरुषम्।

         कुब्जायाः किमु नामरूपमधिकं किं तत्सुदाम्नोधनम्,

      भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणैर्भक्ति प्रियो माधवः।। 

जरा सोचो उस निकृष्टकर्मी व्याध का आचरण कैसा था, ध्रुव की अवस्था क्या थी, गजेन्द्र की विद्या कितनी थी, विदुर की जाति क्या थी, उग्रसेन का पौरुष कितना था, कुब्जा का रूप कैसा था, सुदामा का धन कितना था?   नहीं था न ? भगवान इन सबके भूखे नहीं होते। उन्हें केवल कामनारहित सम्पूर्ण समर्पित भाव से भक्ति की आकाँक्षा रहती है, यानी भक्ति के लिए भक्ति।

बात तो बिलकुल सही कहा आपने काकू ! भक्ति का पहला और आखिरी शर्त है—कुछ माँगना नहीं, कुछ चाहना नहीं। भगवान के साथ ये सौदेबाजी खतम हो जाए, फिर क्या कहना—दुनिया ही बदल जाए। किन्तु मेरा सवाल है कि इन मूर्तियों, कलशों और अवशिष्टों का क्या करूँ ?

काका ने सिर हिलाते हुए कहा— सोचने की कोशिश करोगे तो रास्ता जरुर निकलेगा। नहीं समझोगे तो कुतर्कों के भँवजाल में भटकते रहोगे। ये ठीक है कि अवशेषों के विसर्जन की बात कही गयी है प्रवाहित जल में। अप्रवाह वाले सरोवरों में नहीं या फल्गु जैसी सीता-शापित नदियों में भी नहीं। दूसरी बात जो सबसे अहम है, वो ये कि जिन दिन की ये बातें हैं, उन दिनों पृथ्वी जनबोझ से त्रस्त नहीं थी। प्रकृति स्वतन्त्रता पूर्वक अपना काम कर लेती थी। अब तो विकास और विज्ञान के नाम पर कृत्रिमता और मूर्खता का बोलबाला है । नदियों का कलेवर अतिक्रमण और प्रदूषण को भेंट चढ़ गया है। जल में विसर्जन की पुरानी बात तो सबको पता है, किन्तु इसे जानने-मानने की कोई जरुरत नहीं लगी कि नदी को स्वच्छ रखना भी शास्त्रों में ही कहा गया है। नदी में मूत्र-पुरीष भी वर्जित है। मजे की बात ये है कि गंगा, यमुना, फल्गु की आरती तो हम करते हैं, किन्तु नाले भी उसी में बहाते हैं।  ये कौन सी आरती है भक्तों—जरा हमें तो समझाओ। मैं ये नहीं कहता कि नवरात्र में कलश मत रखो, किन्तु ये जरुर कहूँगा कि कलश क्या है, इसके रहस्य को समझो। मिट्टी के कलश के बजाय तांबें-पीतल-कांसे के कलश भी रख सकते हो। बारबार उसका उपयोग कर सकते हो। एक बार का खरीदा गया कलश जीवन पार लगा देगा। पूजा के बाद उसके पवित्र जल को तुलसी छोड़कर, किसी अन्य गमले में डाल सकते हो। जली-अधजली हवनसामग्रियों और निर्माल्य फूलों को सूखने, सड़ने के लिए कहीं कोने में रख सकते हो। वैसे भी तो बड़े-बड़े भवनों में चौथाई जगह तो कबाड़ों से ही भरे रहते हो, थोड़ा ये भी सही। थोड़े दिनों बाद ये सूखे फूल भी गमलों की खाद के काम आ सकते हैं, यदि अकल लगाओ।

हाँ काकू ! मुझे भी याद आया—सुनते हैं कि बड़े-बड़े मन्दिरों से निकलने वाले टनों निर्माल्यों को रिसायकलिंग करके, अगरबत्तियाँ बनाने की योजना बन रही है।

काका ने हामी भरी—  ठीक कहा तुमने। सिरफिरों ने ये योजना भी बनाई है। मन्दिरों से निकले फूलों से अगरबत्तियाँ बनेगी और फिर वे ही अगरबत्तियाँ उन्हीं मन्दिरों में, उन्हीं देवताओं के आगे सुगन्ध बिखेरेगी, जैसे नाली का पानी साफ करके बोतलों में भर दिया जाता है। इन मूरख वैज्ञानिकों को भला कौन समझाये कि प्रकृति का  रिसायकलिंग और तुम्हारे रिसायकलिंग में आसमान-जमीन का फर्क है और इसके जेनेटिक ईन्जीनियरिंग को समझने में तुम्हें एक शताब्दी और लग सकते हैं। कोरोना काल ने स्ट्रेलाईजेशन की लत लगा दी सबको, किन्तु ये वैज्ञानिक शुद्धिकरण भले हो सकता है, धार्मिक रूप से तो अशुद्धिकरण ही है। अलकोहल से हाथ धोकर मन्दिरों में घुसने का क्या तुक—कभी सोचा तुमने?

काका के तर्क के सामने मैं निरस्त हो गया। सिर झुकाकर सोचने लगा।

काका ने मेरी पीठ थपथपायी—जाओ बबुआ! घर जाओ। इत्मीनान से सोचना मेरी बातों पर। मैं भी चला फल्गु स्नान करने। सुना है कि शहर में दुनिया का सर्वश्रेष्ठ रबरडैम बना है। मैं भी जरा डुबकी लगा लूँ—कायाकल्प फल्गु में।

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