षोडशसंस्कारविमर्श भाग तीन--गर्भाधानसंस्कार परिचय और प्रयोग

 

                गर्भाधानसंस्कार परिचय

 

   सृष्टि के प्रारम्भ में सिर्फ दैवी एवं मानसी सृष्टि हुआ करती थी। किंचित् काल पश्चात् मैथुनीसृष्टि प्रारम्भ हुयी। हम सब मैथुनी सृष्टि से उत्भुत हैं। समस्त जीवधारियों में ये क्रिया सहज (प्राकृतिक) रूप से घटित होती है। तदर्थ परिवेश ही प्रशिक्षित कर देता है।  

वस्तुतः मैथुनीसृष्टि की प्रथम प्रक्रिया है गर्भाधान। गर्भ+आधान—गर्भ स्थापित करना, इसका सामान्य अर्थ है। पुरुष- बीज को स्त्री-क्षेत्र में वपन करना, गर्भाधान प्रक्रिया है।

सनातनी संस्कार-श्रृंखला में इसे सबसे पहला स्थान दिया गया है। ब्रह्मचर्चाश्रम के पश्चात् गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके, हमारा प्रथम व प्रशम कर्त्तव्य होता है— श्रेष्ठ-सुयोग्य-सबल सन्तानोत्पत्ति करके पितृऋण से मुक्त होना—वंशपरम्परा का निर्वरण करना। ब्रह्मा की मैथुनीसृष्टि में अपना योगदान देना।  

पितृऋण से मुक्ति की इच्छा गर्भाधानसंस्कार का आध्यात्मिक उद्देश्य है। इस सम्बन्ध में मनुस्मृति का वचन है— ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत् । याज्ञवल्क्यस्मृति आचाराध्याय १३ में कहा गया है—एवमेनः शमं याति बीजगर्भ समुद्भवम्। स्मृतिसंग्रह में गर्भाधानसंस्कार के फल को  किंचित् विस्तार से प्रतिपादित किया गया है— निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते । क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधान फलं स्मृतम्।। क्षेत्र और बीज दोनों की शुद्धि होती है इस संस्कार से और सबसे बड़ी बात ये है स्त्रीसमागम को पाशविकता की धरातल से ऊपर उठाकर, आध्यात्मिकता के शिखर पर ले जाना उद्देश्य है ऋषियों का। क्योंकि आहार निद्राभय मैथुनं च समानमेतद् पशुभिर्नराणाम् की उक्ति से विवेकशील मानव की भिन्नता भी तो लक्षित होनी चाहिए।

बृहदारण्यकोपनिषद् ६-४-१४ में गर्भाधान संस्कार के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। इसे सन्तानोत्पत्ति विज्ञान या पुत्रमन्थ कर्म कहा गया है— स य इच्छेत् पुत्रो में शुक्लो जायेत वेदमनुब्रवीत सर्वमायुरियादिति क्षीरौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै। सबल, शुक्लवर्ण, वेदाध्यायी, दीर्घायु उत्तम सन्तान की कामना से पति-पत्नी को चाहिए कि खीर बनाकर उसमें घृत मिश्रित कर सेवन करे। (आधुनिक कुतर्कियों को यहाँ पुत्र शब्द से आपत्ति नहीं होनी चाहिए।)

गर्भाधान क्रिया सम्बन्धी मन्त्रों के भाव बड़े महत्त्वपूर्ण हैं—गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि पृथुष्टुके । गर्भं ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ।। (उक्त ६-४-२१) यहीं आगे तेइसवें मन्त्र में सुखपूर्वक प्रसव के उपाय भी कहे गए हैं। अद्भुत है हमारी ऋषि परम्परा। अद्भुत है आर्यचिन्तन। 

 किन्तु खेद की बात है कि काम और कामना बहुल कलिकाल में फैमिली प्लानिंग और बेबी प्लान के सामने गर्भाधान संस्कार का भी महत्त्व है—इसे जानने-समझने को भी आज के समय में कोई राजी नहीं। गर्भाधान भी कोई धार्मिक संस्कार जनित कृत्य है—आधुनिक विचारकों को हास्यास्पद प्रतीत होगा।  

वैसे भी सन्तानेच्छुक होकर कोई दम्पति शायद ही समागम करते हों। काम के बेग में या कहें परिवार-नियोजन-साधनों और नियमों की चूक से अनजाने में, अवांछित रूप से सन्तानें गर्भ में अवस्थित हो जाती हैं। तिस पर भी विज्ञान की कृपा से लिंग परीक्षण के साथ-साथ गर्भ-मुक्ति की भी सहज सुविधा हो जहाँ, वहाँ गर्भाधान संस्कार को विसार देना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, जबकि वैदिक काल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था। 

सामान्यजन इन बातों पर ध्यान दें, न दें, किन्तु जिन्हें   सन्तानोत्पत्ति में बाधा है, उन्हें तो इस पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। सिर्फ गर्भाधान संस्कार ही नहीं, बल्कि संस्कार क्रम में प्रथम तीन—गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्त संस्कारों का विचारपूर्वक और विधिपूर्वक यथासम्भव पालन करना चाहिए। इससे विविध व्यवधानों का शमन होकर, मनोभिलषित कार्यसिद्धि की सम्भावना कई गुना अधिक हो जाती है। उत्तम सन्तति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार अवश्य करना चाहिए। इसके लिए माता-पिता को शारीरिक और मानसिक रुप से अपने आपको तैयार करना होता है, क्योंकि आने वाली सन्तान उनकी ही आत्मा का प्रतिरूप हैआत्मा वै जायते पुत्रः। तथाच— यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा । तस्यां आत्मनि तिष्ठन्त्यां कथं अन्यो धनं हरेत्। 

(नोट— पति-पत्नी की जन्मकुण्डली का विचार करके, बाधक ग्रहों का निवारण भी यथासम्भव अवश्य कर लेना चाहिए।)

                            

           गर्भाधानसंस्कार प्रयोग

 

 

हमारे मनीषियों ने प्रत्येक कार्य के लिए समय और मुहूर्त का विधान किया है। तदनुसार गर्भाधान हेतु भी मुहूर्त और विधि बतलायी गयी है। मुहूर्तचिन्तामणि आदि ग्रन्थों में, यहाँ तक कि पञ्चाङ्गों में भी इन कार्यों के लिए स्पष्ट निर्देश है। मुहूर्तचिन्तामणि संस्कार प्रकरण, श्लोक संख्या ५- में कहते हैं—

गण्डान्तं त्रिविधं त्यजेन्निधनजन्मर्क्षे च मूलान्तकं,

दास्रं पौष्णमघोपरागदिवसान् पातं तथा वैधृतिम्।

पित्रोः श्राद्धदिनं दिवा च परिघाद्यर्घं स्वपत्नीगमे,

भान्युत्पातहृतानि मृत्युभवनं जन्मर्क्षतः पापभम्।।

तथा च—

भद्राषष्ठीपर्वरिक्ताश्च सन्ध्याभौमार्कार्कीनाद्यरात्रीश्चतस्रः।

गर्भाधानं त्र्युत्तरेन्द्वर्कमैत्रब्राह्मस्वातीविष्णुवस्वम्बुपे सत्।।

अर्थात् तीनों प्रकार के गण्डान्त (नक्षत्र, राशि और तिथि ), जन्म नक्षत्र,

वधतारा, मूल, भरणी,अश्विनी, रेवती और मधा नक्षत्र, व्यतीपात और

वैधृतियोग, माता-पिता के निधन दिवस, दिन के समय, जन्मराशि से अष्टमलग्न, पापग्रहयुत निज जन्म लग्नादि, रविवार, मंगलवार, गुरुवार, शनिवार, चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी, षष्ठी, एकादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, आदि तिथि, सूर्य संक्रान्ति, सूर्य-चन्द्रग्रहण, भद्रादि तथा रजोदर्शन से चार रात्रियों की वर्जना करते हुए, शुभ संयोग में, तीनों उत्तरा, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रोहिणी, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषादि नक्षत्रों में गर्भाधान सम्पन्न करे।

            प्रसंगवश यहाँ तीनों गण्ड के बारे में स्पष्ट कर दूँ, कारण कि इसे लेकर वर्तमान कर्मकाण्डी और ज्योतिर्विद में मतभेद और थोड़ी नासमझी भी है। आगे दिए गए छः नक्षत्र गण्ड नक्षत्र तो हैं,,किन्तु गर्भाधान में निर्दिष्ट वर्जना और बालक के जन्म में निर्दिष्ट वर्जना में काफी अन्तर है। ज्येष्ठा, रेवती और श्लेषा नक्षत्रों के अन्त की दो घटी एवं मूल, मघा और अश्विनी नक्षत्रों के प्रारम्भ की दो घटी को गर्भाधान में नक्षत्रगण्ड कहा गया है। ध्यातव्य है कि ये छः नक्षत्र ही सतैशा (गण्ड) भी हैं, किन्तु वहाँ घटी प्रमाण भिन्न है। बालक के जन्म में जो सतैशा के नक्षत्रों का विचार करते हैं, वहाँ के लिए नियम है—

अश्विनी मघ मूलादौ त्रिवेदनौ नाडिका ।  

रेवती सर्प शक्रान्तौ मास रुद्र दिशस्तथा।। अर्थात् अश्विनी नक्षत्र के प्रारम्भ के त्रि (तीन), मघा नक्षत्र के प्रारम्भ के वेद (चार) एवं मूल नक्षत्र के प्रारम्भ के नौ (नौ) घटी प्रबल सतैशा दोष युक्त  हैं और नक्षत्रों के शेष भाग आंशिक दोषयुक्त हैं। इसी भाँति रेवती नक्षत्र के अन्त के मास (बारह) घटी, सर्प यानी श्लेषा नक्षत्र के अन्त के रुद्र (ग्यारह) घटी एवं शक्र यानी ज्येष्ठा नक्षत्र के अन्त के दिशा (दस) घटी तक प्रबल सतैशा दोष युक्त हैं और नक्षत्रों के शेष भाग आंशिक दोष युक्त हैं। शान्ति उपचार तो हर हाल में करना ही होता है।   

अब गर्भाधान प्रसंग में लग्नशुद्धि पर विचार हेतु कहते हैं—केन्द्रत्रिकोणेषु शुभैश्च पापैस्त्र्यायारिगैः पुंग्रहदृष्टलग्ने। ओजांशगेऽब्जेऽपि च युग्मरात्रौ चित्रादितीज्याश्चिषु मध्यमं स्यात्।। ७।। ( शुभग्रह केन्द्रत्रिकोण में हों, ३,६,११ वें स्थान में पाप ग्रह हों, सूर्य, मंगल, गरु लग्न को देख रहे हों, ऐसे लग्न में, विषमराशि (मेष,मिथुन,सिंह,तुला,धनु और कुम्भ)के नवांश में चन्द्रमा हों तब सम राशियों— वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक और मकर, मीन राशियों में गर्भाधान श्रेष्ठ है। तथा चित्रा, पुनर्वसु, पुष्य और अश्विनी नक्षत्रों को मध्यम श्रेणी में कहा गया है।

 इस प्रकार ज्योतिषीय परामर्श के पश्चात् विधिवत कलशस्थापन सहित, नवग्रह-गणपत्यादि पूजन करे। तत्पश्चात् आभ्युदयिक (नान्दीमुख) श्राद्धकर्म करके, पितरों का आशीष ग्रहण करे।

प्रसंगवश यहाँ ये स्पष्ट कर दूँ कि श्राद्ध शब्द से प्रायः लोग ये समझ लेते हैं कि आभ्युदयिकश्राद्ध, जिसे लोग नान्दीमुख श्राद्ध भी कहते हैं—पितृजीवी को नहीं करना चाहिए। किन्तु ये बात बिलकुल अज्ञानपूर्ण है। आभ्युदयिकश्राद्ध (नान्दीमुखश्राद्ध) वह व्यक्ति भी कर सकता है, जिसके माता-पिता जीवित हों। सन्तानबाधा वाले दम्पति को तो इसे अवश्य करना चाहिए। पुनः सन्तान के उपनयन-विवाहादि संस्कारों के समय भी नान्दीमुख श्राद्ध करके पितरों (स्वर्गीय जनों) का आशीष लेने का शास्त्रीय विधान है ।

उक्त कर्मकाण्डीय विधि-निर्देशों के लिए किसी भी प्रचलित उपलब्ध नित्यकर्म प्रयोग पुस्तक का सहयोग लिया जा सकता है। चुँकि गर्भाधानसंस्कार की विस्तृत वा संक्षिप्त विधि सिर्फ संस्कार मयूष, संस्कार प्रकाश आदि ग्रन्थों में ही उपलब्ध हैं, अन्यत्र नहीं। अतः इसकी संक्षिप्त विधि यहाँ दी जा रही है।

स्त्री को चाहिए कि रजोदर्शनोपरान्त शुद्धि हो जाने पर प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर, नूतन वस्त्राभूणादि से सुसज्जित होकर, पति के साथ सूर्य के सम्मुख हाथ जोड़कर मन्त्रोच्चारण करते हुए नमस्कार करे—ऊँ आदित्यं गर्भ पयसा मसङ्धि सहस्रस्य प्रतिमां विश्वरूपम्। परि वृङ्धि हरसा माऽभि मᳫस्थाः शतायुषं कृणुहि चीयमानः।। (शुक्लयजुर्वेद १३-४१ )

तत्पश्चात् पूजास्थल पर आकर, पति के दाहिने पत्नी आसन ग्रहण करे। अन्य पूजाविधान की तरह यहाँ भी आंगिक क्रियायें—ग्रन्थिबन्धन, रक्षादीप स्थापनादि यथावत सम्पन्न होंगी। सुविधा के लिए यहाँ सिर्फ संकल्प के अन्तिम (मुख्य) निर्देश दिए जा रहे हैं। शेष मन्त्र व क्रियाएं तो अन्यान्य पूजापद्धतियों में उपलब्ध हैं ही।   

 

गर्भाधानसंस्कार पूजन संकल्प—

 

ऊँ अद्येत्यादि......गोत्रः सपत्निकः.....शर्माऽहं अस्या वध्वाः संस्कारातिशयद्वारा अस्यां जनिष्यमाणसर्वगर्भाणां बीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणद्वारा श्री परमेश्वरप्रीतये गर्भाधानसंस्कारं करिष्ये। तत्पूर्वाङ्गत्वेन गणेशाम्बिकापूजनं स्वस्तिपुण्याहवाचनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमन्त्रजपं साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीमुखश्राद्धं च करिष्ये।

ध्यातव्य है कि गर्भाधानसंस्कार के ये कृत्य विशेषकर विवाहोपरान्त प्रथम गर्भस्थापन हेतु आवश्यक है। किसी कारणवश यदि उस समय न किया जा सका हो, तो बाद में भी किया जा सकता है। वस्तुतः ये स्त्रीगर्भाशय शुद्धिकरण संस्कार है। जैसे नूतन भवन निर्माण के पश्चात् गृहप्रवेश का विधान है, बाद में तो वास्तुशान्तिकर्म होते हैं। उसी भाँति नवोढा बधुप्रवेश के पश्चात् योग्य काल विचार करके गर्भाधान संस्कार की विधि सम्पन्न करनी चाहिए। किन्तु किंचित् ऋषिमत ये भी है कि गर्भाशय की शुद्धि तो एक बार कर ली गयी, परन्तु प्रत्येक नवीन गर्भ का भी संस्कार होना ही चाहिए।

 

योग्य कर्मकाण्डी के निर्देशन में दिन में विधिवत उक्त सभी कर्मकाण्ड सम्पन्न करे। तदुपरान्त सद्यः ऋतुस्नाता भार्या के साथ प्रफुल्ल मन से रात्रि के दूसरे प्रहर में सम्यक् समागम करे। प्रसंगवश यहाँ तत्सम्बन्धित कृत्यों की चर्चा की जा रही है—

 

नाभिस्पर्श एवं अभिमन्त्रण विधि—

ऊँ विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिᳫशतु आसिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते। पुरुष अपनी स्त्री की नाभिप्रदेश का अपने दाहिने हाथ से इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक स्पर्श करे। इस अवस्था में स्त्री का मुख पूरब या उत्तर की ओर हो। नाभिस्पर्शोपरान्त पुनः पत्नी के शरीर को इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित करे— ऊँ गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि पृथुष्टुके । गर्भं ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ।।

ध्यातव्य है कि शयन कक्ष को धूप, गुगुल, धूना आदि सुगन्धित पदार्थों से धूपित रहना चाहिए।  समागम से पूर्व बल-वीर्यवर्द्धक गोदुग्ध, पोस्तादाना आदि पदार्थों का सेवन करना विशेष

लाभदायक है।

गर्भाधान काल की भावना के सम्बन्ध में शरीरविज्ञानी महर्षि सुश्रुत कहते हैं— आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशीभिः समन्वितौ। स्त्रीपुंसौ समुपैयातां तयोः पुत्रोऽपि तादृशः।।  (शारीरस्थान २-४६) अर्थात् सहवासकाल में स्त्री-पुरुष की भावनाएँ, चेष्टाएँ, आहार और आचार जैसे होते हैं, इनकी सन्तानें भी तद्रूप होती हैं। इन्हीं बातों को आगे सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान ३-३५ में और स्पष्ट करते हैं—देवताब्राह्मणपराः शौचाचाररहिते रताः। महागुणान् प्रसूयन्ते विपरीतास्तु निर्गुणाम् ।। (जो माता-पिता देवता,ब्राह्मणादि का पूजा-सत्कार करते हैं,शौचाचार एवं सदाचार का पालन करते हैं, उनकी सन्तानें गुणवान होती हैं और इसके विपरीत आचरण वाले की सन्तानें भी गुणहीन होती है।) इन बातों की पुष्टि नारदपुराण २-२७-२९ में भी मिलती है— यादृशेन हि भावेन योनौ शुक्रं समुत्सृयेत् । तादृशेन हि भावेन सन्तानं सम्भवेदिति।। (जिस भाव से स्त्री-पुरुष का मिलन होता है, उसी भावयुक्त सन्तान होती है। )

 

वीर्यदान विधि— नाभिस्पर्शन और अभिमन्त्रणोपरान्त निम्नांकित दोनों वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करे, तत्पश्चात् सम्यक् समागम करे— ऊँ गायत्रेण त्वा छन्दसा परिगृह्णामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि जागतेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि। सूक्ष्मा चासि शिखा चासि स्योना चासि सुषदा चास्यूर्जस्वती चासि पयस्वती च। (शुक्लयजुर्वेद -२७)

एवं च— ऊँ रेतो मूत्रं वि जहाति योनिं प्रविशदिन्द्रियम्। गर्भो जरायुणाऽऽवृत उल्बं जहाति जन्मना। ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानᳫशुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु।। (शुक्लयजुर्वेद १९-७६)

अभिगमन के पश्चात् स्त्री शान्त चित्त पड़ी रहे एवं पुरुष उठकर आचमनादि शुद्धि करके (स्नान आवश्यक नहीं), स्त्री को वामभाग में बैठाकर, उसके दाहिने कन्धे से ऊपर हाथ ले जाकर उसके हृदयप्रदेश का स्पर्श करते हुए मन्त्रोच्चारण करे— ऊँ यत्ते सुसीमे हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्। वेदाहं तन्मां तद्विद्यात्पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतम्।। और प्रसन्नचित्त शयन करे। प्रातः काल स्नानादि से निवृत्त होकर समय पर ब्राह्मणभोजन करावे, भिक्षुओं को दान दे एवं पूर्व दिन में किए गए

मातृकाओं का विसर्जन करे। अस्तु।

 जिज्ञासुओं की सुविधा के लिए उक्त वैदिक मन्त्रों का सरलार्थ यहाँ प्रस्तुत है—(क) भगवान विष्णु तुम्हारी योनिको पुत्रोत्पत्ति में समर्थ बनावें। सवितादेव हम दोनों के पुत्र को दर्शनयोग्य बनावें। प्रजापति मेरे हृदय में स्थित होकर तुझमें वीर्य का आधान करें। धाता तुम्हारे गर्भ को पुष्ट करें।

(ख) हे सिनीवाली देवि ! एवं हे विस्तृत जघनोंवाली पृथुष्टुकादेवि ! आप इस स्त्री को गर्भधारण करने की सामर्थ्य दें और उसे पुष्ट करें। कमलों की माला से सुशोभित दोनों अश्विनीकुमार तेरे गर्भ को पुष्ट करें।

(ग) मैं तुम्हें गायत्री, त्रिष्टुभ तथा जगती छन्दके द्वारा ग्रहण करता हूँ। हे वेदभूमे ! तुम शोभना हो। तुम शान्त हो। तुम सुखस्वरूपा हो। तुम आनन्दसे बैठनेयोग्य हो। तुम अन्नवाली हो तुम जलवाली हो।

(घ)मनुष्य की जननेन्द्रिय योनिमें प्रविष्ट होकर उसमें वीर्यका आधान करती है,परन्तु वही अन्यत्र मूत्रका परित्याग करती है। इसी प्रकार जरायु से लिपटा गर्भ जन्म होने पर झिल्ली को छोड़ देता है। इस सत्य नियम से यही सत्य निकलता है कि उचित का साथ उचित का त्याग करता है,अतः शुद्ध करके पिया गया सोम इन्द्रियबल प्रदान करता है। वह दूध भी इन्द्र के लिए मधुर अमृतस्वरूप हो।

(ङ) हे सुन्दर सीमन्तवाली देवि ! मैं द्युलो,आकाश तथा चन्द्रमा में स्थित तुम्हारे हृदय को जानता हूँ,किन्तु वह हृदय (चित्त) इस समय मुझे पतिभाव वाला समझे। इस प्रकार सममनस्क होकर हम दोनों सौ वर्षोंतक देखें,सौ वर्षों तक जीवित रहे और सौ वर्षों तक सुनें।

नोट— कभी-कभी ऐसा भी होता है कि समागम के पश्चात् भी सम्यक् गर्भास्थापन नहीं हो पाता। आयुर्वेदादि ग्रन्थों में काफी उपचार सुझाये गए हैं। हमारी वैदिक परम्परा में कुछ अमोघ मन्त्रों की भी चर्चा है। पारस्करगृहसूत्रम् १-१३-१ में एक विधि बतलायी गयी है— सा यदि गर्भं न दधीत सिंह्या श्वेतपुष्प्या उपोष्य पुष्येण मूलमुत्थाय चतुर्थेऽनि स्नातायां निशायामुदपेषं पिष्ट्वा दक्षिणस्यां नासिकायामासिञ्चति। अर्थात् प्रातः स्नानोपरान्त, भोजन से पूर्व, पुष्य नक्षत्र में श्वेतपुष्प वाली कंटकारिका (भटकटैया- रेगनी) की जड़ उखाड़ लावे और जल के साथ चिकना पीस कर, स्वच्छ वस्त्र में रखकर, स्त्री की दाहिनी नासिका में दो-चार बून्द रस टपका दे इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए—  ऊँ इयमोषधी त्रायमाणा सहमाना सरस्वती । अस्था अहं वृहत्याः पुत्रः पितुरिव नाम जग्रभम्। (यह वृहती (कंटकारी) नामक औषधि व्याधियों को दूर करने वाली तथा रक्षा करने वाली है। यह उत्पन्न दोषों को दूर करनेवाली तथा वाणी का परिष्कार करने वाली है। इसका पुत्र पिता के समान ही गुणधर्म वाला हो।)

 

            

 

             गर्भाधानसंस्कार के पश्चात् कृत्य

 

गर्भाधानसंस्कार विधिवत सम्पन्न हो जाना सृष्टिकर्म का प्रथम पायदान तुल्य है। आगे की क्रियायें और सावधानियाँ तो अब शुरु होने वाली हैं, जिसके लिए सिर्फ गर्भिणी स्त्री ही नहीं, बल्कि उसके पति सहित परिवार के अन्य जन को भी  ध्यान रखना है। आयुर्विज्ञान के सिद्धान्तों के साथ-साथ पौराणिक कथाओं में भी इन नियमों और कृत्यों की विस्तृत चर्चा है। धर्मशास्त्र अपने ढंग से नियम सुझाते हैं,तो आधुनिक परिवेश के अनुसार डॉक्टर अपने हिसाब से औषधि-प्रयोग, सख्ती और परहेज सुझाते हैं और सनातनी व्यवस्था में निर्दिष्ट बातों पर ध्यान बिलकुल नहीं देते, जिसका दुष्परिणाम आए दिन लोग भुगत रहे हैं, फिर भी चेत नहीं रहे हैं।  

मत्स्यपुराण के सप्तम अध्याय में दैत्यमाता दिति एवं महर्षि कश्यप सम्वादक्रम में गर्भिणीचर्या पर विस्तृत चर्चा है। कथा रोचक और ज्ञानवर्द्धक है। यहाँ सिर्फ गर्भकाल के पालनीय नियमों की चर्चा करते हैं। यथा—  सन्ध्यायां नैव भोक्तव्यं गर्भिण्या वरवर्णिनि.... से संवाद शुरु होता है और ग्यारह श्लोकों में महर्षि बहुत कुछ कह जाते हैं, जिनपर आधुनिकाओं को अवश्य विचार करना चाहिए। हालाँकि बहुत सी बातें समयानुसार निरर्थक सिद्ध हो सकती हैं, फिर भी जितना पालनीय हो उसे तो करना ही चाहिए। पुरानी बातें कहकर विसार देना स्वयं पर दण्डप्रहार करने तुल्य है। संवाद के कुछ विशिष्ट अंशों की यहाँ चर्चा कर रहे हैं। गर्भिणीस्त्री को बहुत ही सावधान रहना चाहिए। सन्ध्याकाल में भोजन व शयन न करे। किसी वृक्ष के नीचे न जाए। घरेलू उपयोग की सामग्री—उखल, मुसल, चक्की आदि पर न बैठे। चौखट पर भी न बैठे। जल में घुसकर स्नान न करे। सुनसान घर में न जाए। मन को उद्विग्न करने वाले विचारों से बचे। नख अथवा किसी चीज से धरती पर न कुरेदे। कठिन परिश्रम न करे और हमेशा विश्राम में ही न रहे। शरीर को ऐंठे-मरोड़े नहीं(अंगड़ाई न ले)। बाल खुला न रखे। यथासम्भव शरीर और चित्त शैय्या और वस्त्र स्वच्छ और शुद्ध रखे। उत्तरदिशा में सिर करके कभी न सोए। अमंगल वाणी का प्रयोग न करे। जड़ी-बूटियों से युक्त ऋतु के अनुसार गरम या ठंढे जल से स्नान करे। लम्बे उपवास वाले व्रत न करे। जो गर्भिणी स्त्री इन नियमों का पालन करती है,उसे सुन्दर ,बलिष्ट, दीर्घायु सन्तान की प्राप्ति होती है।

सुश्रुतसंहिता शारीरस्थान ३-१६ एवं १०-३, तथा चरकसंहिता शारीरस्थान ४-१८ में गर्भिणीकृत्य की चर्चा है। यथा— तदा प्रभृति व्यवायं व्यायायाममतितर्पणमतिकर्शनं दिवास्वप्नं रात्रिजागरणं शोकं यानारोहणं भयमुत्कुटुकासनं चैकान्ततः स्नेहादिक्रियां शोणितमोक्षणं चाकाले वेगविधारणं च न सेवेत....।  ऋषि कहते हैं कि जिस समय से गर्भिणी के गर्भस्पष्ट हो जाए,उसी समय से व्यायाम, व्यवाय (मैथुन), अपतर्पण-अतिकर्षण (शरीर को घटाने-बढाने वाला आहार-विहार, उपचार), दिन में सोना, रात्रि में जागना, भय-शोकादि, रथादि सवारी, उत्कटासन(उकड़ूबैठना), असमय में स्नेहनादि कर्म, रक्तमोक्षण एवं मल-मूत्र-वेगधारण से यत्नपूर्वक परहेज करना चाहिए। गर्भवती को यथासम्भव प्रसन्नचित्त रहने का प्रयास करना चाहिए। स्तवन, भजन, स्वस्तिवाचन, स्वाध्याय, देवार्जनादि में चित्त को रमाना चाहिए। घृणा-भयोत्पादक दृश्यों से बचना चाहिए। खाली सुनसान स्थान में टहलना, सोना, बैठना नहीं चाहिए। शुष्क, नीरस, वासी, कुपथ्य अन्नादि का भक्षण नहीं करना चाहिए। बारबार तैलाभ्यंग और उत्सादन (उबटन) का प्रयोग नहीं करना चाहिए। शय्या, आसनादि कोमल सुखदायी हों। रूचिकर,प्रिय, मधुररसयुक्त, स्निग्ध, अग्निवर्धक, दीपनीय द्रव्यों का विशेष सेवन करना चाहिए। गुरु (जिसे पचने में विलम्ब हो), अतिउष्ण, अतितीक्ष्ण आहारों का सेवन एवं दारूण (कठिन) चेष्टाओं से बचना चाहिए। रक्त वस्त्र (लाल कपड़े) न पहने। मदकारक (नशा), मांसादि का सेवन कदापि न करे। अनुभवी स्त्रियों के निर्देशों का पालन करे। ये सारे नियम प्रारम्भ से प्रसूतिकाल पर्यन्त पालनीय हैं। इनका उलंघन करने पर गर्भोपघातक स्थिति उपस्थित हो सकती है।

उक्त पौराणिक और आयुर्वेदीय नियमों के बाद अब किंचित् धर्मशास्त्रीय नियमों का भी अवलोकन करलें। श्री कमलाकर भट्ट प्रणीत निर्णयसिन्धु धर्मशास्त्र विषयक अद्भुत संग्रह है। इसके तृतीयपरिच्छेद पूर्वाध में कहा गया है— सामिषमशनं यत्नात्प्रमदा परिवर्जयेदतः प्रभृति। स्पष्ट है मांसाहार की सख्त वर्जना है शास्त्रों में, जबकि पाश्चात्य मतानुरागियों को अंडे-मांस ही सर्वाधिक पौष्टिक नजर आते हैं।

 

गर्भिणी के पति हेतु वर्जना—

धर्मशास्त्रों में सिर्फ गर्भिणी ही नहीं, प्रत्युत उसके पति के लिए भी कई तरह के विधि-निषेधपरक संयम-नियम सुझाए गए हैं। हेमाद्रि के चतुर्वर्गचिन्तामणि में आचार्य कौण्डिन्य के निर्देश हैं कि गर्भिणीस्त्री के पति को मुण्डन, पिण्डदान, प्रेतक्रिया, शवयात्रा आदि नहीं करने चाहिए। यथा— मुण्डनं पिण्डदानं च प्रेतकर्मं च सर्वशः। न जीवत्पितृकः कुर्याद् गुर्विणीपतिरेव च ।। (यहाँ गुर्विणी शब्द गर्भिणी का पर्याय है)

रत्नसंग्रह नामक ग्रन्थ में ऋषि गालव के वचन भी उक्त वर्जनाओं के समतुल्य हैं। यहाँ पर्वतारोहण और नौकाविहार का भी निषेध किया है — दहनं वपनं चैव चौलं च गिरिरोहणम्। नावश्चारोहणं चैव वर्जयेद् गर्भिणीपतिः ।।

याज्ञवल्क्यस्मृति में कहा गया है—उदन्वतोऽम्भसि स्नानं नखकेशादिकर्तनम्। अन्तर्वत्न्याः पतिः कुर्वन्न प्रजा जायते ध्रुवम्।। (समुद्रस्नान, नख-केशादि कर्तन से गर्भस्थ सन्तान की हानि होती है।)

महर्षि आश्वलायन के वचन भी उक्त ऋषिसम्मत ही हैं— वपनं मैथुनं तीर्थं वर्जयेत् गर्भिणीपतिः । श्राद्धं च सप्तमा-सान्मासादूर्ध्वं चान्यत्र वेदवित् ।।

प्रयोगपारिजात में निषेधों को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि दुर्भाग्यवश माता-पिता का श्राद्ध करना पड़े तो करे, अन्यथा अन्य श्राद्धकर्म, यहाँ तक कि श्राद्धभोजन से भी बचे। श्राद्धीयपरिसर में भी न जाए गर्भिणी व उसका पति।

कालविधान और मुहूर्तदीपिका में भी उक्त सभी विधि-निषेधों की सहमति है— क्षौरं शवानुगमनं नखकृन्तनं च युद्धादिवास्तुकरणं त्वतिदूरयानम् । उद्वाहमौपनयनं जलधेश्च गाहमायुः क्षयार्थमिति गर्भिणिकापतिनाम् ।।

 

दौहृदनी (दोहद) विचार (गर्भिणी की अभिलाषा) —

उक्त विधि-निषेधों की चर्चा के पश्चात् गर्भिणी की इच्छा पर विचार करते हैं। ज्योतिषीय यात्राप्रकरण में दोहद शब्द आया है, जो भिन्न अर्थबोधक है। दोहद शब्द आयुर्वेदादि ग्रन्थों में इच्छा के लिए प्रयुक्त हुआ है। महर्षि सुश्रुत कहते हैं कि दो हृदयवाली होने के कारण दौहृदनी संज्ञा हुई गर्भिणीस्त्री की।  गर्भ जब चार मास का हो जाए तब उसकी स्वतन्त्र इच्छाएं भी होने लगती है, जिसे प्रकृति माता के माध्यम से ही व्यक्त करती है। आधुनिक विचारक इसे अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का प्रभाव कहते हैं। प्रारम्भ में अनिच्छा होती है और बाद में तरह-तरह की इच्छाएं होने लगती हैं गर्भिणी को। अतः इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। क्योंकि इसका दुष्प्रभाव गर्भ पर पड़ना निश्चित है। किन्तु इसका ये अर्थ नहीं कि आधुनिकाओं को पिज्जा, वर्गर, फास्टफुड, मांस, मदिरा की इच्छा होने लगे तो उसे महर्षि वचन का संदर्भ देकर पूरा किया जाए।

सुश्रुतसंहिता ३-१८ एवं चरकसंहिता ४-१७ दोनों ग्रन्थों के शारीरस्थान में दोनों ऋषियों के लगभग एक से वचन हैं—

सा यद्यदिच्छेत्तत्तस्यै दापयेत् लब्धदौहृदा हि वीर्यवन्तं चिरायुषं च पुत्रं जनयति।  एवं सा यद्यदिच्छेत्तत्तदस्यै दद्यादन्यत्र गर्भोपधातकरेभ्यो भावेभ्यः।  

ऋषि कहते हैं कि दौहृदिनी जिन-जिन वस्तुओं की इच्छा करे, उसे देना चाहिए। इच्छा पूर्ति होने पर सन्तान वीर्यशाली और दीर्घजीवी होती है। ध्यातव्य है वह जिस प्रकार की कामना करती है, तदनुसार ही (पदार्थानुसार) सन्तान का शरीर और स्वभाव होता है। पूर्व जन्म  के कर्मानुसार ही बालक का शरीर बनता है। दैवयोग से ही ये इच्छाएँ भी जगती है, जो पूर्व के साथ-साथ भावी का भी संकेत हैं। गर्भस्पन्दन के साथ ही ये इच्छाएं बनने लगती हैं। माता के हृदय से बालक का हृदय रसवाही नाडियों द्वारा संपृक्त होता है, जिसके प्रभावस्वरूप ये लक्षण प्रकट होते हैं। अतः इसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। प्रिय और हितकारी वस्तुओं से गर्भिणी की परिचर्या होनी चाहिए। ताकि गर्भ की सम्यक्  पुष्टि हो। अतः अभिभावकों को चाहिए कि गर्भघातक पदार्थों से परहेज करते हुए इच्छा पूर्ति का प्रबन्ध करे। गर्भिणी की अभिलाषा-पूर्ति का समर्थन महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा भी भी किया गया है—

दौर्हृदस्याप्रदानेन गर्भो दोषमवाप्नुयात् । वैरूप्यं मरणं वापि तस्मात् कार्यं प्रियं स्त्रियाः ।। (या. स्मृ. प्रायश्चित प्रकरण ७९)  

प्रसंगवश यहाँ कुछ और भी अत्यावश्यक बातों की चर्चा अपेक्षित है, जिनपर आधुनिकों का ध्यान नहीं जाता, या कहें जिनकी महत्ता नहीं समझी जाती। 

सबसे बड़ी चूक है— जीवनशैली का आमूलचूल परिवर्तन। पश्चिमी ठंढे प्रदेशों  की देखादेखी विवाहकाल में अप्राकृतिक विलम्ब। नौ से ग्यारह वर्ष के आसपास हमारे यहाँ किशोरियों का रजोदर्शन हो जा रहा है। सरकारी परिपक्वता की अवधि अठारह वर्ष है, जबकि विवाह की चेतना पचीस-तीस के बाद ही जगती है समाज में। जीवन सुव्यवस्थित होने की मारामारी, दहेज-कुप्रथा, नाना सामाजिक विसंगतियों में जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ हो जाता है। प्राकृतिक रूप से शरीर इतना परिपुष्ट हो जाता है कि सम्यक् गर्भाधान होने में कठिनाई होने लगती है। आधुनिक डॉक्टर अपने हिसाब से निदान और उपचार सुझाते हैं। उनकी समझ में वेडरेस्ट ही गर्भिणी के लिए सर्वोत्तम सुरक्षा है और इस मूर्खतापूर्ण सुझाव का परिणाम ये होता है कि शायद ही कोई सामान्य सुख-प्रसव (बिना सर्जरी के) सम्भव होता हो।

अतः उचित ये है कि यथासम्भव भारतीय जीवन-शैली को अपनाने का प्रयास करें। गर्भाधान के पश्चात् की जीवनशैली विशेष ध्यातव्य है। शारीरिक श्रम इतना न हो कि थकान होने लगे, सांस फूलने लगे, पसीने निकल आएं और इतना आराम भी न हो कि चौबीस घंटे विस्तर की शोभा बढ़ाते रहें। आहार-विहार  पूर्ण सात्त्विक और स्वास्थ्यवर्द्धक हो। अद्यतन मनोरंजन के सुलभ साधन—टी.वी. और मोबाइल से जितनी दूरी बन सके, अच्छी बात है। गर्भिणी को चाहिए कि अपनी दिनचर्या में इष्टदेवता की पूजा और धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन-मनन अवश्य शामिल करे। राम-कृष्ण आदि की बाललीलाओं से सम्बन्धित कथाओं और चित्रों पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। आधुनिक मनोविज्ञान भी इन तथ्यों को अब स्वीकारने लगा है। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु की चक्रव्यूहभेदन का अधूरा ज्ञान मनोवैज्ञानिकों और कायचिकित्सकों को नूतन शोध के लिए प्रेरित और आकर्षित करने लगे हैं। हमें चाहिए कि ऋषिप्रणीत ज्ञान-परम्परा का यथासम्भव हृदयंगम करें और जीवन में उतारें, ताकि मनोवांछित सन्तानसुख लब्ध हो सके। हम ईश्वर नहीं हैं, किन्तु ईश्वरकृपा से हमें बहुत कुछ ऐसा प्राप्त है, जिसपर हमारा ध्यान नहीं जाता। हम अपनी भावी सन्तति को देवता बनाना चाहते हैं या दैत्य या राक्षस—ये माता-पिता पर काफी हद तक निर्भर है। प्रत्येक माता-पिता की आकांक्षा होगी (होनी भी चाहिए) कि देवता बने न बने, कम से कम सम्पूर्ण रूप से मनुष्य तो बन ही जाए और इस पुनीत कार्य का शुभारम्भ गर्भावस्था में हो जाता है। यही कारण है कि गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्त संस्कारों पर हमारे मनीषियों ने इतना जोर दिया है।

आगे क्रमशः इनकी चर्चा की जा रही है। अस्तु।

     

 

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