गतांश से आगे.....
पुंसवनसंस्कार परिचय
सृष्टिक्रम में संस्कारों में दूसरा
स्थान है— पुंसवनसंस्कार का। प्रथम संस्कारक्रम में सृष्टि हेतु क्षेत्र को
संस्कृत करके बीज वपन किया गया। अब इस द्वितीय संस्कार से वपित बीज के पोषण-पल्लवन
का प्रबन्ध किया जा रहा है। गर्भ और क्षेत्र दोनों के लिए ये संस्कार अनिवार्य है।
गर्भाधानसंस्कार के बारे में ऋषि मतैक्य नहीं हैं कि सिर्फ प्रथम गर्भाधान हेतु ही
किया जाए या प्रत्येक गर्भाधान के समय, किन्तु चुँकि पुंसवनसंस्कार वस्तुतः गर्भ
और क्षेत्र का संस्कार है, इसलिए प्रत्येक गर्भ के लिए होना चाहिए। धर्मसिन्धु का
यही मत है। आचार्य विज्ञानेश्वर इसे सिर्फ मातृक्षेत्र का संस्कार मानते हैं, अतः सिर्फ
मात्र प्रथम गर्भाधान के पश्चात् ही करने का सुझाव देते हैं। महर्षि देवल का भी
यही मत है— सकृच्च संस्कृता नारी सर्वगर्भेषु संस्कृता। यं यं गर्भ प्रसूयेत स
सर्वः संस्कृतो भवेत्।।
किन्तु
मेरे विचार से ये सभी संस्कार (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तादि) प्रत्येक गर्भ के लिए
किया जाना चाहिए।
‘सवन’ ‘स्पन्दन’ आदि पद (शब्द) गति अर्थ में प्रयुक्त हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं— पुंसः
सवनं स्पन्दनात्पुरा। चुँकि इस संस्कार से गर्भस्थ शरीर का पोषण होता है,
इसलिए इस नाम की सार्थकता सिद्ध है—पुमान् सूयते येन कर्मणा तदिदं पुंसवनम्। (जिस
कर्म से पुरुष का प्रसव हो- पुत्र का जन्म हो) अब यहाँ पुत्र शब्द से आपत्ति नहीं
होनी चाहिए। जैसे आयुर्वेद में एक औषधि है पुत्रजीविका (जीयापोता) इसका ये अर्थ
नहीं कि इसके सेवन से सिर्फ पुत्र ही होगा, पुत्री नहीं।
आयुर्विज्ञानियों एवं
धर्मशास्त्रियों का मत है कि गर्भ में स्पन्दन शुरु होने से पूर्व ये संस्कार हो
जाना चाहिए। तीन-चार मास तक गर्भ का लिंगभेद स्पष्ट नहीं रहता। हालाँकि सूक्ष्म लिंगनिर्णय
तो गर्भाधान के समय ही हो जाता है। आधुनिक विज्ञान का भी यही मत है, क्योंकि
लिंगनिर्धारण के लिए पुरुष-स्त्री के X-Y क्रोमोजोम
जिम्मेवार हैं। X+X=लड़की, X+Y=लड़का।
गर्भस्थ शिशु के शारीरिक एवं मानसिक
विकास की दृष्टि से इस संस्कार की आवश्यकता है। इस संस्कार को करने से हर प्रकार की
बाहरी बाधाओं (भूत-प्रेत,जादू-टोना आदि ) का भी शमन होता है। यही कारण है कि सन्तानोत्कर्ष
के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को मनीषियों ने अनिवार्य श्रेणी में रखा
है।
पुंसवनसंस्कार कब करें—इस निर्णय पर ऋषि मतान्तर
है—दूसरे, तीसरे, चौथे मास की बात करते हैं लोग। किन्तु व्यासस्मृति का स्पष्ट निर्देश
है कि पुंसवनसंस्कार को गर्भाधान के पश्चात् तीसरे महीने में ही करना चाहिए। हाँ
ये बात अलग है कि किसी कारणवश समय पर न सम्पन्न हो पाया हो तो, अगले संस्कार—सीमन्तसंस्कार
के साथ समाहित कर लिया जाना चाहिए। वीरमित्रोदय में आचार्य शौनक के वचन हैं— व्यक्ते
गर्भे तृतीये तु मासे पुंसवनं भवेत्। गर्भेऽव्यक्ततृतीये चेच्चतुर्थे मासि वा
भवेत्।। इनके वचन से समय सीमा को लेकर कोई संशय नहीं होना चाहिए।
पुंसवनसंस्कार प्रयोग
विदित हो कि इन सभी संस्कारों के
लिए शुभ मुहूर्त का विचार आवश्यक है। अतः
विहित मुहूर्तों की चर्चा प्रासंगिक है।
चुँकि दूसरे और तीसरे संस्कार—पुंसवन
और सीमन्त के लिए चयनित मुहूर्त एक समान हैं, अन्तर सिर्फ संस्कार-काल यानी महीनों
का है, इसलिए मुहूर्तों की एकत्र चर्चा की जा रही है। मुहूर्तचिन्तामणि, संस्कार प्रकरण श्लोक संख्या
८, ९, १० में एकत्र रूप से सीमन्त और पुंसवन के विषय में कहा गया है—
जीवार्कारदिने
मृगेज्यनिर्ऋतिश्रोत्रादितिब्रध्नभैः,
रिक्तामार्करसाष्टवर्ज्यतिथिभिर्मासाधिपे
पीवरे।
सीमन्तोऽष्टमषष्ठमासि
शुभदैः केन्द्रत्रिकोणे खलै-
र्लाभारित्रिषु वा
ध्रुवान्त्यसदहे लग्ने च पुंमांशके।। ८।।
मासेश्वराः
सित-कुजेज्य-रवीन्दु-सौरि-
चन्द्रात्मजास्तनुष-चन्द्र-दिवाकराः
स्युः।
स्त्रीणां
विधोर्बलमुशन्ति विवाह-गर्भ-
संस्कारयोरितरकर्मसु
भर्तुरेव ।। ९।।
पूर्वोदितैः पुंसवनं
विधेयं मासे तृतीये त्वथ विष्णुपूजा।
मासेऽष्टमेविष्णुविदातृजीवैर्लग्नेशुभेमृत्युगृहेचशुद्धे।१०।।
अर्थात् वृहस्पति, रवि, मंगल वार (सोम,
बुध, शुक्र भी ग्राह्य); मृगशिरा,
पुष्य, मूल, श्रवण, पुनर्वसु, हस्तादि, रेवती नक्षत्रों में; चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी, अमावस्या,
द्वादशी, अष्टमी, षष्ठी तिथियों से भिन्न तिथियों में; शुभग्रह
केन्द्र-त्रिकोण में और पापग्रह ३, ६, ११ स्थान
में स्थित हों;
मासेश
(महीनों के स्वामी) की पुष्टि का विचार करते हुए गर्भाधान से छठे या आठवें महीने
में सीमन्तसंस्कार करना चाहिए। एवं वहीं आगे दशवें श्लोक में उक्त बातों की
पुनरावृति करते हुए कहते हैं कि सीमन्त वाले मुहूर्तों में ही पुंसवन संस्कार
करना चाहिए।
प्रसंगवश
यहाँ एक और बात भी स्पष्ट किया जा रहा है कि विवाह और गर्भसंस्कार में स्त्रियों
का चन्द्रबल विचार करना चाहिए एवं इससे भिन्न अन्य संस्कारों में पुरुष (पति) का
चन्द्रबल विचार करना चाहिए।
ध्यातव्य
है सूर्य और विष्णु में भेद नहीं है। यथा—.....अस्तमाने स्वयं
विष्णुस्त्रिमूर्तिश्च दिवाकरः। (आदित्यहृदय)
पूजास्थल
में पत्नी को पति अपने दाहिनी ओर विठा ले। आचार्य या सुवासिनियों द्वारा ग्रन्थिबन्धन
क्रिया सम्पन्न करके, सर्वप्रथम रक्षादीप प्रज्ज्वलित करे। तत्पश्चात् अन्य
सामान्य कृत्यों की तरह यहाँ भी कलश, नवग्रह, गणेशाम्बिकादि पूजन करने का विधान
है। यहाँ सिर्फ संक्षिप्त (मुख्य) संकल्प वाक्य दिए जा रहे हैं। शेष शब्दावली तो
सर्वत्र समान ही होती है।
पुंसवनसंस्कार प्रयोग संकल्प—
ऊँ
अद्येत्यादि......गोत्रः सपत्निकः.....शर्माऽहं ममास्या भार्यायां
विद्यमानगर्भपुंस्त्वप्रतिपादनबीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणद्वारा पुंरूपतोदयप्रतिरोधककर्मपरिहारद्वारा
च श्री परमेश्वरप्रीतये पुंसवनाख्यसंस्कारकर्म करिष्ये। तत्पूर्वाङ्गत्वेन
गणेशाम्बिकापूजनं स्वस्तिपुण्याहवाचनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमन्त्रजपं
साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीमुखश्राद्धं च करिष्ये।
( देख रहे हैं कि प्रत्येक संस्कारक्रम
में आंगिक पूजन क्रियाओं की तरह नान्दीमुखश्राद्ध भी किया जा रहा है। वस्तुतः ये
आभ्युदयिक श्राद्ध है। इससे संरक्षण और विकास का लाभ मिलता है। देवताओं की तरह
पितरों (स्वर्गीय जनों) का आशीष भी उतना ही आवश्यक है। चुँकि ये आभ्युदयिकश्राद्ध
है, इसलिए इसमें पिता के जीवित होने न होने का कोई प्रश्न नहीं है, जैसा कि इस
विन्दु पर लोग भ्रमित हो जाते हैं।)
पुंसवनसंस्कार के मुख्य कृत्य—
पुंसवनसंस्कार का मुख्यकर्म है आसेचन
और इसका ही पूरककर्म ( उपांगकर्म) है अनवलोभन (गर्भरक्षण कर्म) । अतः साथ
में इसे भी कर ही लेना चाहिए। इसकी व्युत्पत्ति में कहते हैं—येन कर्मणा जातो
गर्भो नावलुप्यते तदनवलोभनम्। इन दोनों
की क्रिया बहुत सरल है।
मातृकादिपूजन
सम्पन्न हो जाने के पश्चात् पति द्वारा वट के निचले भाग में उत्पन्न एवं शाखाओं के
उपरी भाग में उत्पन्न नूतन पल्लवों के बीच के अंकुर तथा कुशामूल को लाकर स्वच्छ जल
से पीस कर, महीन वस्त्र से छानकर थोड़ा रस संचित कर लें किसी पात्र में और
निम्नांकित दोनों मन्त्रो का उच्चारण करते हुए गर्भिणी पत्नी की दाहिनी
नासिकाछिद्र में कुछ बून्दें टपका दे।
आसेचन
मन्त्र— ऊँ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार
पृथ्वीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम । अद्भ्यः सम्भूतः पृथिव्यै रसाच्च
विश्वकर्मणः समवर्तताग्रे तस्य त्वष्टा विदधद् रूपमेति तन्मर्त्यस्य
देवत्वमाजानमग्रे।।
अनवलोभन
की विधि भी ऐसी ही है। अन्तर सिर्फ इतना है कि उसमें कुशामूल और वटांकुर के स्थान
पर श्वेतदूर्वा रस का प्रयोग करते हैं। ध्यातव्य है कि इसे करने के लिए दुबारा
मातृकादि पूजन आवश्यक नहीं है। यथा—
सामान्य
ज्योतिषीय विचार करके इसे सम्पन्न किया जाता है। पुष्यादि पुरुष नक्षत्रों में जब
चन्द्रमा का संचरण हो तो ये क्रिया करनी चाहिए। गर्भिणी का पति ताजा श्वेतदूर्वा
लाकर किंचित् जल सहयोग से सम्यक् पिष्ट
करके, गर्भिणी के दक्षिण नासापुट में कुछ बून्दें अपने अंगूठे के अग्रभाग से टपका
दे और पत्नी के हृदयदेश का स्पर्श करे। चरक-सुश्रुतादि ने भी इस क्रिया का समर्थन
किया है। आयुर्वेदीय मतानुसार दूर्वा रक्तस्तम्भक है। श्वेतदूर्वा हरितदूर्वा की
तुलना में अधिक गुणकारी है (तन्त्रमत से)। इसका आगे भी चिकित्सार्थ प्रयोग किया जा
सकता है। संस्कारभास्कर में ईश्वरभट्टी ने गुडूची (गिलोय) एवं ब्राह्मी को भी इस
कार्य के लिए ग्रहण किया है। जब कि कात्यायनश्रौतसूत्र में उल्लेख है—सोमाभावे
पूतिका पूतिकाभावे दूर्वा। सोमलता एक दुर्लभ लता है। पूतिका का प्रचलित नाम
पोईसाग है। इसकी पत्तियों का साग बनाकर खाया जाता है। पूतिका का एक नाम निपूती
भी है, जिसका साकभक्षण सन्तानेच्छु स्त्रियों के लिए निषेध किया है पुराणों ने। यहाँ भक्षण नहीं, बल्कि रसासेचन है
सिर्फ।
उक्त
क्रियाओं की सम्पन्नता के पश्चात् वीर्यवान सन्तान प्राप्ति कामना से एक और प्रयोग
करना चाहिए। जलपूर्ण घट को गर्भिणीस्त्री की गोद में रख दे और पति द्वारा अपनी
अनामिका अँगुली से स्त्री के गर्भाशयिक प्रान्त का स्पर्श करते हुए मन्त्रोच्चारण
करे— ऊँ सुपर्णोऽसि गरुत्मांस्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रं चक्षुर्बृहद्रथन्तरे
पक्षौ। स्तोम आत्मा छन्दाँ स्यङ्गानि यजूँसि नाम । साम ते तनूर्वामदेव्यं
यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः । सुपर्णोऽसि गरुत्मान् दिवं गच्छ स्वः पत।।
तदुपरान्त
जलाक्षतपुष्पादि लेकर संकल्प करे— ऊँ
अद्य यथोक्तगुणविशिष्टतिथ्यादौ....गोत्र....शर्माऽहं कृतस्यास्य पुंसवनाख्य कर्णः साद्गुण्यार्थमिमां
दक्षिणां ब्राह्मणेभ्यो विभज्य दास्ये। यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये च।
तदुपरान्त
आचार्य द्वारा पूजनार्थ स्थापित जल से शुक्ल यजुर्वेद ९-३० वर्णित निम्नांकित अभिषेक
मन्त्रों का उच्चारण करते हुए यथोचित रीति से अभिषेक करना चाहिए तथा सुवासिनियों
द्वारा गर्भिणी के आँचल में मौसमी विविध प्रकार के फल, अक्षत हरिद्रादि मांगलिक
वस्तुएं देकर, उसी अक्षत से अक्षताभिषेक भी करना चाहिए। लौकिक रीति में इसे ही
चुमावन कहते हैं।
अभिषेक
मन्त्र— ऊँ पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पयस्वतीः
प्रदिशः सन्तु मह्यम् । ऊँ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्त्रोतसः । सरस्वती तु
पञ्चधा सो देशेऽभवत्सरित्। ऊँ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो
वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमा सीद। ऊँ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः ।
पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा। ऊँ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां
पूष्णो हस्ताभ्याम् । सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिये दधामि बृहस्पतेष्ट्वा
साम्राज्येनाभिषिञ्चाम्यसौ।।
तत्पश्चात्
अनेन पुंसवनाख्येन कर्मणा भगवान् श्रीपरमेश्वर प्रीयताम्— बोलते हुए भगवान्
को निवेदित करके, सपरिवार भोजनादि कर्म सम्पन्न करें। अस्तु।
नोट— आधुनिक
समय में किसी-किसी समाज में आधुनिक रीति से
इन संस्कारों (पुंसवन एवं सीमन्त) की क्रियायें एकत्र रूप से सम्पन्न की
जाती है, जिसे गोदभराई के नाम से जाना जाता है। किन्तु खेद की बात है कि सनातन
कर्मकाण्डीय विधियों और मुहूर्तों की अवहेलना की जाती है। तामझाम और दिखावा तो खूब
हो जाता है, कुछ उपहार भी मिल जाते हैं, किन्तु उससे न तो गर्भ की रक्षा हो पाती
है और न गर्भिणी की। अतः उचित है कि आडम्बर और दिखावे से बचते हुए, सही समय पर
सनातन नियमों का पालन करते हुए गर्भ और गर्भिणी की सम्यक् रक्षा का उपाय किया जाए।
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