षोडशसंस्कारविमर्श भाग छः- सीमन्तोन्नयन संस्कार परिचय और प्रयोग

 

                      सीमन्तोन्नयन संस्कार परिचय

        

सृष्टि संरचना संस्कार क्रम में तृतीय संस्कार हैसीमन्तोन्नयनसंस्कार । सीमन्तोन्नयन दो पदों से बना हैसीमन्त और  उन्नयन। सिर के बालों की विभाजक रेखा को सीमन्त कहते हैं। इसे बाँटने की क्रिया—उन्नयन कहलाती है। यही वह स्थान है जहाँ विवाहकाल में वर द्वारा सिन्दूर-दान होता है। आगे पति के जीवनकाल तक इस विभाजक रेखा को सदा पवित्र सिन्दूर-पूरित रखे जाने की सनातनी परम्परा है। सिन्दूर धारण विवाहिता का सद्यः प्रमाण है, तो अखण्ड दाम्पत्य के लिए आभ्युदयिक भी है। आयुर्विज्ञान के अनुसार शरीर का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है ये, क्योंकि सिर में विभक्त हुयी पाँच कपालास्थि सन्धियाँ एक स्थान पर यहीं आकर मिलती हैं—पञ्च सन्धवः शिरसि विभक्ताः सीमन्ता नाम तत्रोन्मादभवचित्तनाशैर्मरणम्। (सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान ३-२७)। नवजात शिशु में स्पष्ट देखा जा सकता है कि ये स्थान कुछ महीनों तक पोला (रिक्त जैसा) होता है—ऊपर सिर्फ चमड़ी होती है, अस्थियाँ सम्पृक्त नहीं होती। इस स्थान पर यत्किंचित् आघात भी प्राणहर हो सकता है। अतः इसकी सम्यक् पुष्टि अत्यावश्यक है। योगशास्त्र की दृष्टि से ये स्थान और भी संवेदनशील है।

सीमन्तोन्नयन कर्म में पति द्वारा सीमन्तप्रदेश का संस्कार कराया जाता है। हाथ की पांचों अंगुलियों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के प्रतिनिधि) के सहयोग से केशविन्याश संवार (उन्नयन) कर, सिन्दूर पूरित किया जाता है। दोनों हथेलियों से जुड़ी अँजली में सुवासिनियों द्वारा हरिद्रारंजित अक्षत भर कर, अक्षताभिषेक (चुमावन) किया जाता है। वस्तुतः ये गर्भ और गर्भिणी का एकत्र आभ्युदयिक संस्कार है।

            सीमन्तोन्नयनसंस्कार के सम्बन्ध में ऋषि मतान्तर है—प्रत्येक गर्भ के समय या सिर्फ प्रथम गर्भ के समय। किन्तु आचार्य पारस्कर अपने गृह्यसूत्र १-१५-३ में—प्रथमगर्भे मासे षष्ठऽष्टमे वा—कहकर स्पष्ट कर देते हैं कि सिर्फ प्रथम गर्भकालिक कृत्य है ये।

 

सीमन्तोन्नयनसंस्कार का समय—

ध्यातव्य है गर्भस्थापन के तीसरे महीने में पुंसवनसंस्कार सम्पन्न किया जा चुका है। प्रारम्भ में दूसरा-तीसरा-चौथा और अन्त में छठा, सातवां, आठवां गर्भसुरक्षा की दृष्टि से अधिक संवेदनशील माना जाता है। यही कारण है कि इन मासों में शारीरिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से सुरक्षा का प्रबन्ध रखना पड़ता है। इस काल में गर्भाशयिक भार की अनवरत वृद्धि होते रहती है, अतः अन्तःबाह्य सुरक्षाकवच को भी सुदृढ़ रखने की आवश्यकता होती है। पूजा-अर्चना और आशीष बहुत बड़ा सम्बल हुआ करता है। मन-मस्तिष्क को अतिशय बल प्रदान करने की भी आवश्यकता होती है।  यही कारण है कि गर्भकाल के छठे या आठवें मास में इस संस्कार को सम्पन्न करने की बात कही जाती है।

वस्तुतः इस काल में गर्भ शिक्षणयोग्य होता है। अतः गर्भिणी को चाहिए कि स्वच्छ, शान्त, सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में सद्विचार युक्त समय व्यतीत करते हुए सत्साहित्य का यथासम्भव अध्ययन, मनन, चिन्तन, श्रवण किया करे।

संस्कार के दिन पौष्टिक सुपाच्य चरुपाक करके (सिर्फ दूध में पकाया हुआ चावल) पति एवं सुविसिनियों द्वारा गर्भिणी को आशीष स्वरुप खिलाया जाता है। (चरुपाकविधि आगे प्रयोगक्रम में देखें)

ज्योतिषीय मुहूर्त के सम्बन्ध में पिछले (पुंसवन) अध्याय में ही कहा जा चुका है कि पुंसवन और सीमन्त दोनों के लिए एक समान मुहूर्त निर्धारित हैं। (इसे पिछले अध्याय में देख लें)

             

                सीमन्तोन्नयनसंस्कार प्रयोग

      

प्रयोगक्रम में पुनः पूर्व नियमों का स्मरण दिलाता हूँ कि शुभ मुहूर्त विचार करके, नियत दिन प्रातः नित्यकृत्यादि से पति-पत्नी निवृत होकर योग्य आचार्य के सहयोग से सीमन्तोन्नयनसंस्कार की क्रिया सम्पन्न करें। संस्कारोपरान्त ही अन्नादि ग्रहण करना उचित है। विलम्बित भोजन से हानि हो सकती है। क्योंकि गर्भिणी के लिए अधिक देर उपोषित रहना उचित नहीं है। अतः फलाहार लिया जा सकता है।

            पूजास्थल में पत्नी को पति अपने दाहिनी ओर विठा ले। आचार्य या सुवासिनियों द्वारा ग्रन्थिबन्धन क्रिया सम्पन्न करके, सर्वप्रथम रक्षादीप प्रज्ज्वलित करे। तत्पश्चात् अन्य सामान्य कृत्यों की तरह यहाँ भी कलश, नवग्रह, गणेशाम्बिकादि पूजन करने का विधान है। पूर्व की भाँति यहाँ भी सिर्फ संक्षिप्त (मुख्य) संकल्प वाक्य दिए जा रहे हैं। शेष शब्दावली तो सर्वत्र समान ही होती है।

 

सीमन्तोन्नयनसंस्कार प्रयोग संकल्प—

 

ऊँ अद्येत्यादि......गोत्रः सपत्निकः.....शर्माऽहं ममास्या भार्यायाः गर्भावयवेभ्यस्तेजोवृद्ध्यर्थं क्षेत्रगर्भयोः संस्कारार्थं प्रतिगर्भ-समुद्भवैनोनिबर्हणेन बीजकोत्पस्यतिशयद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं सीमन्तोन्नयनसंस्कारकर्म करिष्ये। तत्पूर्वाङ्गत्वेन गणेशाम्बिका-पूजनं स्वस्तिपुण्याहवाचनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमन्त्रजपं साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीमुखश्राद्धं च करिष्ये।

( देख रहे हैं कि प्रत्येक संस्कारक्रम में आंगिक पूजन क्रियाओं की तरह नान्दीमुखश्राद्ध भी किया जा रहा है। वस्तुतः ये आभ्युदयिक श्राद्ध है। इससे संरक्षण और विकास का लाभ मिलता है। देवताओं की तरह पितरों (स्वर्गीय जनों) का आशीष भी उतना ही आवश्यक है। चुँकि ये आभ्युदयिकश्राद्ध है, इसलिए इसमें पिता के जीवित होने न होने का कोई प्रश्न नहीं है, जैसा कि इस विन्दु पर लोग भ्रमित हो जाते हैं।)

सीमन्तोन्नयनसंस्कार के मुख्य कृत्य—उक्त पूजनादि सम्पन्न हो जाने के पश्चात् उसी स्थान पर या सुविधानुसार बाह्यशाला में होमार्थ हस्तप्रमाण वालुका वेदी बनाये और हवनपद्धतियों में दिए गए नियमानुसार वेदी का पंचभूसंस्कार सम्पन्न करे। ध्यातव्य है अब से पूर्व किए गए दो संस्कारों—गर्भाधान एवं पुंसवन में वेदी की आवश्यकता नहीं पड़ी थी, किन्तु यहाँ चुँकि चरुपाक भी करना है, इसलिए वेदी अत्यावश्यक है।

प्रसंगवश यहाँ ये स्मरण दिलाना अति आवश्यक प्रतीत हो रहा है कि आधुनिक नासमझी और देखादेखी में लोग सीधे लोहे के बने हवन कुण्ड का प्रयोग कर देते हैं। आचार्यगण भी इस पर गम्भीर नहीं हैं। लौहकुण्ड में किसी प्रकार का पौष्टिककर्महोम करना अति अनिष्टकारक है। सही तरीका ये है कि  सुविधानुसार नयी ईंट, मिट्टी, वालु आदि के प्रयोग से वेदी बनाये। सीमेन्ट या टाईल के फर्श वाले कमरों में इसमें थोड़ी व्यावहारिक कठिनाई है। ऐसे में पीतल के परात में वालु भर कर काम लिया जाना चाहिए। सामान्य(लघु) होम के लिए मिट्टी की बनी कड़ाही का प्रयोग भी किया जा सकता है।  

 

वेदी का पंच भूसंस्कार—विधिवत वेदी निर्माण करने के बाद उसके कुछ आवश्यक संस्कार भी हैं। यथा—

१.      परिसमूहन—तीन कुशों के द्वारा दक्षिण से उत्तर की ओर वेदी पर सफाई का भाव करे और उस उपयोग किए गए कुशा को ईशानकोण में फेंक दें— (त्रिभिर्दभैः परिसमुह्य तान् कुशानैशान्यां परित्यज्य)।

२.       उपलेपन— गाय के गोबर और जल के मिश्रण का किंचित् छिड़काव वेदी पर करे।

३.       उल्लेखन— काष्ठ निर्मित स्रुवा (अभाव में आम्रडंठल में बंधा पल्लव) के मूल भाग (उल्टे तरफ से) वेदी के मध्यभाग में प्रादेशमात्र परिमाण लम्बी तीन रेखाएँ बनायें। (अँगूठे से तर्जनी के बीच की दूरी को प्रादेश कहते हैं) ये रेखाएँ क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर हथेली ले जाते हुए बनानी हैं। रेखांकन पश्चिम से पूरब होंगी—इस बात का भी ध्यान रहे।   

४.      उद्धरण— अब उन खींची गयी तीनों रेखाओं पर से एक-एक चुटकी वालुका (अनामिका और अँगुष्ठ के सहारे उठाकर)बायीं हथेली पर इकट्ठा करें और अन्त में उसे भी ईशान कोण की ओर फेंक कर हाथ धो लें। (अनामिकाङ्गुष्ठाभ्याम् मृदमुद्धृत्य)

५.      अभ्युक्षण व उल्मुखभ्रमण — गंगादि पवित्र जल अँजुलि में भरकर वेदी पर छिड़काव कर दें तथा थोड़ा सा कपूर अग्निकोण पर जलाकर, कुशा के सहयोग से, वेदी पर भ्रमण कराते हुए, ईशान की ओर फेंक दें।

(इस प्रकार पंचभूसंस्कार हो जाने पर वेदी पर अग्निस्थापन करें। अग्नि लाने के लिए किसी वालिका का चयन करना शास्त्र सम्मत है। उससे अग्रि ग्रहण करने के बाद समुचित दक्षिणा भी देनी चाहिए)

अग्निस्थापन— किसी कांस्य अथवा ताम्रपात्र में (अभाव में मिट्टी का सिकोरा) प्रज्ज्वलित अग्नि मंगाकर वेदी पर पात्र सहित अग्निकोण में रखे और इसमें से किंचित् क्रव्यादांश निकाल पर वेदी के नैऋत्य कोण में डाल दे। तत्पश्चात् अपनी ओर पात्र का मुख किए हुए अग्नि को वेदी पर मन्त्रोच्चारण पूर्वक स्थापित करे—   ऊँ मङ्गलनामाग्नये सुप्रतिष्ठितो वरदो भव। तत्पश्चात् ऊँ मङ्गनामाग्नये नमः – इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए गन्धपुष्पादि से पंचोपचार पूजन करे।

 

              अब एक कलश में चावल भर कर और एक कुशा में गांठबांध कर (मानवाकृतिस्वरूप) चावल में ऊपर से खोंस दें और वेदी के अग्निकोण और दक्षिण के ठीक बीच में स्थापित कर दें। ये इस सीमन्तोन्नयन यज्ञरक्षक ब्रह्मा हुए।

               ब्रह्मा के स्थान के सम्बन्ध में  मतान्तर है। प्रायः लोग इन्हें ईशान में रख देते हैं- जैसा कि वास्तुमंडल में ईशान और पूर्व में स्थान है, तो कुछ लोग अग्निकोण में, कुछ लोग सीधे दक्षिण में। अतः प्रसंगवश इसका भ्रमनिवारण अत्यावश्यक प्रतीत हो रहा है। वास्तु मंडल, दिक्पालमंडल वा ग्रहमंडल में ब्रह्मा का स्थान निर्विवाद रुप से ईशान-पूर्व मध्य में ही है; किन्तु अग्निवेदी के साथ यह नियम मान्य नहीं है। अतः, प्रश्न उठता है कि क्या इसे अग्निकोण में रखें, जैसा कि सूक्ष्मपरख के अभाव में लोग रख दिया करते हैं या कि दक्षिण में ? इस सम्बन्ध में भारतीय विवाह पद्धति में एक रोचक प्रश्नोत्तर है, जिसे यहाँ उद्धृत किया जा रहा है—

प्रश्न— उत्तरे सर्वतीर्थानि, उत्तरे सर्व देवता, उत्तरे प्रोक्षणी प्रोक्ता, किमर्थं ब्रह्म दक्षिणे?

उत्तर— दक्षिणे दानवा प्रोक्ता, पिशाचाश्चैव राक्षसाः। तेषां संरक्षणार्थाय ब्रह्मस्थाप्य तु दक्षिणे।। यानी सभी तीर्थ, देवादि, प्रोक्षणी-प्रणीता जब उत्तर में है, तो ब्रह्मा को दक्षिण में क्यों? तदुत्तर में कहा गया कि दक्षिण में दानव, राक्षस, पिशाचादि वास करते हैं, अतः यज्ञ में इनसे रक्षार्थ ब्रह्मा को यहीं स्थान देना

चाहिए।

 

              उक्त प्रश्नोत्तर का थोड़ा और विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि अग्नि कोण में अग्निदेव का स्थान है, साथ ही ग्रहों में शुक्र का स्थान भी यहीं है। ये महाशय ही दानवादि के प्रिय गुरु हैं। आदरणीय यज्ञ-रक्षक पितामह ब्रह्माजी को इनके समीप ही कहीं स्थान देना उचित है, इस बात का ध्यान रखते हुए कि अग्नि और शुक्र दोनों का सामीप्य भी मिले, तथा यम के क्षेत्र में अतिक्रमण भी न हो। इस प्रकार सुनिश्चित स्थान पर चावल-हल्दीचूर्ण, कुमकुमादि से अष्टदल कमल बना कर, उस पर पीतरंजित चावल से परिपूर्ण एक कलश की स्थापना करे।

              इस ब्रह्मकलश के आकार और चावल की मात्रा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश है कि यजमान की मुट्ठी से दोसौछप्पन (२५६) मुट्ठी चावल होना चाहिए, जो कि करीब साढ़ेबारह किलो होता है। अज्ञान या अभाव में लोग एक छोटा सा कलश मात्र रख देते हैं। इस विशेष कलश पर पूर्णपात्र रखने का विधान नहीं है, प्रत्युत कुशा में गांठबांध कर (मानवाकृतिस्वरूप) ऊपर से खोंस देना चाहिए।

 

ब्रह्मावरण— अब यथोपलब्ध वस्त्र, द्रव्य, अक्षत, पुष्पादि वरण सामग्री लेकर, सुविधानुसार पूर्व पूजित ब्राह्मणों में से किसी को ब्रह्मा कलश के समीप आसन देकर बैठावे और संकल्प बोलकर ब्रह्मा नियुक्त करे— ऊँ अद्य कर्तव्यसीमन्तोन्नयनहोमकर्मणि कृता कृतावेक्षणरूपकर्मकर्तुम् ......गोत्र......शर्माणं ब्राह्मणमेभिः पुष्प चन्दनताम्बूलयज्ञोपवीत-वासोभिर्ब्रह्मत्वेन भवन्तमहं वृणे।  यहाँ उक्त ब्राह्मण का नामगोत्रादि उच्चारण करते हुए, वरणसामग्री उनके हाथ में सुपुर्द करके, हाथ जोड़कर प्रार्थना करे।

यजमान द्वारा दिए गए वरणसामग्री को ग्रहण करते हुए उक्त नियुक्त ब्रह्मा बोलें— वृतोऽस्मि।

यजमान बोलें— यथाविहितकर्म कुरु।

ब्रह्मा कहें—ऊँ यथाज्ञानं करवाणि।  

तदुपरि वेदी के दक्षिण भाग में कुशासन पर विराजते हुए ब्रह्मा से यजमान बोलें—— यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः। तथा त्वं अस्मन् सीमन्तोन्नयनहोमकर्मणि भवान् मे ब्रह्मा भव !

ब्रह्मा बोलें— ऊँ भवानि ।  

अब उक्त ब्रह्माकलश के समीप आसनासीन ब्रह्मा से गायत्र्यादि जप हेतु निवेदन करे।

 

कुशकण्डिका—

अब, अग्निवेदी के उत्तर भाग में प्रणीतापात्र (मिट्टी की प्याली) को रखकर, उसे जल पूरित करके, कुशा से ढक दे।

अब, अग्निवेदी के चारो तरफ कुशाच्छादन (कुशपरिस्तरण) करे। (यहाँ नियमतः इक्यासी  कुशा की आवश्यता होती है। अभाव में एक-एक कुशा का ही प्रयोग करे, किन्तु करें अवश्य। यदि ये भी सम्भव न हो तो ताजा दूर्वा भी ग्राह्य है) — अग्निकोण से ईशानकोण तक उत्तराग्र कुशा, फिर ब्रह्मा से अग्निकोण तक पूर्वाग्र कुशा, फिर नैऋत्यकोण से वायव्यकोण तक उत्तराग्र कुशा, फिर वायव्यकोण से ईशानकोण तक पूर्वाग्र कुशा क्रमशः रखें ।

 

पात्रासादन— अब, हवनकार्य में प्रयोग होने वाले सभी सामग्रियों को वेदी से उत्तर या पूर्व की ओर रख दें।

आवश्यक सामग्री— जड़सहित तीन कुश, बीच वाली सींक निकाली हुयी दो कुशपत्र- पवित्रक बनाने हेतु, प्रणीता और प्रोक्षणीपात्र (मिट्टी का सकोरा), आज्यस्थाली (घृतपात्र), घृत, होमार्थ स्रुवा (अभाव में आम्र डंठल में मौली से बंधा हुआ आम्रपत्र), पाँच सम्मार्जनकुशा, सात उपयमन कुशा, तीन यज्ञीयसमिधाएँ (प्रादेश मात्र लम्बी—आम की लकड़ी) (प्रादेश कहते हैं- अंगुष्ठ से तर्जनी पर्यन्त हथेली के फैलाव को) , पलाशादि अन्य यज्ञीयकाष्ठ, गूलर की पत्तियों और फल से युक्त डाली, २५६ मुट्ठी चावलों से भरा मिट्टी वा धातु का कलश, चरुपाक हेतु चावल, तिल और मूंग, प्रादेश मात्र पीपल काष्ठ की कील, शल्लकीकाँटा (साही एक ग्राम्यजन्तु है, जिसके शरीर पर रोंए के स्थान पर कठोर काँटे होते हैं), पीत सूत वेष्टित तकुआ, सुवर्णशलाका (पतला तार), बिल्वफल-पत्र, शमीपत्र, आम्रपल्लव, रंगीन सुगन्धित पुष्प, रोली, चन्दनादि अन्यान्य पूजन सामग्री।

 

प्रोक्षणीपात्रसंस्कार— अब, प्रोक्षणी पात्र का संस्कार करे— प्रोक्षणी को अपने सामने पूर्वाग्र रखे। प्रणीता में रखे गए जल के आधे भाग को आचमनी वा पल्लव से प्रोक्षणीपात्र में तीन बार डाले। अब, कुशा के अग्रभाग को बायें हाथ की अनामिका और अंगुष्ठ से पकड़कर, उसके मध्य भाग से प्रोक्षणी के जल का तीन बार उत्प्लवन करे (उछाले) और पवित्रक (कुश) को प्रोक्षणीपात्र पर पूर्वाग्र रख दें एवं प्रोक्षणीपात्र को बायें हाथ में उठाकर, पुनः पवित्रक के द्वारा प्रणीता के जल से प्रोक्षणी को प्रोक्षित करें तथा इसी प्रोक्षणीजल से आज्यस्थाली, स्रुवा इत्यादि सामग्रियों पर भी प्रोक्षण करें (जल के छींटे डाले)। तत्पश्चात् प्रोक्षणीपात्र

को प्रणीतापात्र तथा अग्निवेदी के मध्य स्थापित कर दे।

चरुपाक विधि— अब घी को आज्यस्थाली में निकाल कर, वेदी के दक्षिणभाग में अग्नि पर रख दे। पहले से शुद्ध किए गए चावल, तिल और मूंग को पुनः प्रणीतापात्रजल से तीन बार प्रोक्षित कर (शुद्ध करे), किसी पात्र में यथेष्ट जल भर कर, उसमें प्रोक्षित चावल, तिल और मूंग को डाल दे। तत्पश्चात् यजमान उस चरुपात्र को हाथ में लेकर, वेदीस्थित अग्नि के उत्तर भाग में रखे, तथा ब्रह्मा से घृत ग्रहण कर, दक्षिणभाग में रखे। थोड़ी देर में चरुसिद्ध हो जाने (पकजाने) पर एक जलती हुयी लकड़ी लेकर, ईशान से प्रारम्भ कर ईशान पर्यन्त दक्षिणावर्त घुमा कर, पुनः अग्नि में डाल दे। एवं बायें हाथ को बायीं ओर से घुमाते हुए ईशान पर्यन्त ले जाये। इस क्रिया को पर्यग्निकरण कहते हैं।

स्रुवा सम्मार्जन और प्रतपन —अब दायें हाथ में स्रुवा को पूर्वाग्र,अधोमुख रखते हुए अग्नि में किंचित् तपाये। अब स्रुवा को बायें हाथ में पूर्वाग्र, ऊर्ध्वमुख रखते हुए दायें हाथ से सम्मार्जन कुश के अग्रभाग से स्रुवा के अग्रभाग को, मध्यभाग से मध्य भाग को एवं मूल भाग से मूल भाग का स्पर्श करे। तत्पश्चात् उस कुश को अग्नि में डाल दे। पुनः अधोमुख रखते हुए स्रुवा को अग्नि में तपाये और दाहिनी ओर किसी पात्र या कुश पर स्थापित कर दे।

            पूर्व में स्थापित घृतपात्र को अग्नि से उतारकर चरु के पश्चिम भाग से होते हुए, पूर्व की ओर परिक्रमा करके वेदी के पश्चिम भाग में किंचित् उत्तर की ओर रख दें। तदनन्तर चरुपात्र को भी अग्नि से उतारकर वेदी के उत्तर रखी हुयी आज्यस्थाली के पश्चिम से ले जाकर, उत्तर भाग में रख दे।

            अब, घृतपात्र को सामने रखकर, प्रोक्षणी पर रखी गयी  पवित्री को लेकर, मूलभाग को दाहिने हाथ के अंगुष्ठ-अनामिका से, तथा बायें हाथ के अंगुष्ठ-अनामिका से अग्रभाग को पकड़कर पात्रस्थित घृत को तीन बार उछाले, घृत का अवलोकन करे, कुछ विजातीय वस्तु हो तो बाहर निकाल फेंके। पुनः प्रोक्षणी के जल को तीन बार उछाले और पुनः पवित्री को यथास्थान प्रोक्षणीपात्र पर रख दे। अब स्रुवा से थोड़ा घृत लेकर, चरु में डाल दे।

            अब, ब्रह्मा का स्पर्श करते हुए, बायें हाथ में सात उपयमन कुशा लेकर, हृदयस्थल पर बायाँ हाथ रखते हुए, तीन समिधाओं को घी में डुबोकर, प्रजापतिदेवता का मानसिक ध्यान करते हुए, खड़े होकर, मौन रूप से  समिधाओं को अग्नि में डाले। तदनन्तर बैठ कर पवित्रक सहित प्रोक्षणीपात्र के जलको दाहिने हाथ की अंजलि में लेकर अग्नि के ईशानकोण से ईशानकोण पर्यन्त (प्रदक्षिणक्रम से) जलधारा गिराये। अब, पवित्रक को बायें हाथ में लेकर, फिर दाहिने खाली हाथ को उलटेक्रम से (ईशानकोण से उत्तर होते हुए ईशानकोण तक) ले आए और पवित्रक को दायें हाथ में लेकर, प्रणीता में पूर्वाग्र रखदे। इस क्रिया को इतरधावृत्ति कहते हैं।

 

हवन विधि— होम क्रम में सर्वप्रथम प्रजापतिदेवता के निमित्त आहुति दी जाती है। तदनन्तर इन्द्र, अग्नि, सोमादि के निमित्त आहुति का विधान है। इन चार आहुतियों में प्रथम दो को आधारभाग और अन्तिम दो को आज्यभाग कहा  जाता है। ये चारों आहुतियाँ सिर्फ घी से ही दी जानी चाहिए, न कि तिलादि शाकल्य से। इन आहुतियों को प्रदान करते समय नियुक्त ब्रह्मा द्वारा होमकर्ता के दाहिने हाथ को कुश से स्पर्श किए रहना चाहिए। इस क्रिया को ब्रह्मणान्वारब्ध कहते हैं। होम के समय दाहिना घुटना पृथ्वी पर टिका रहे, स्रुवा में घी लेकर, प्रजापतिदेव का ध्यान करते हुए निम्नांकित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए आहुतियाँ प्रदान करें— ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। ऊँ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम। ऊँ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये न मम। ऊँ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम। (ध्यान रहे कि वेदी के मध्यभाग में आहुति प्रदान करना चाहिए और स्रुवा में शेष घी की बून्दों को प्रोक्षणीपात्र में छिड़क देना चाहिए। ये क्रिया आगे की तीन आहुतियों में भी करें )

            तदुपरान्त स्थालीपाक (तिल, चावल, मूंग वाला चरुपाक) में घृत मिश्रित कर, पूर्ववत स्रुवा में लेकर, निम्नांकित मन्त्रोच्चारणपूर्वक नव आहितियाँ प्रदान करें एवं स्रुवाशेष सामग्री को पूर्ववत प्रोक्षणीपात्र में छिड़कता जाए।

 

नवाहुति मन्त्र—

१.      ऊँ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम।

२.      ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम।

३.      ऊँ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।

४.     ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वाद्वेषा ᳭᳴᳴ सि प्रमुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

५.      ऊँ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुण ᳭᳴᳴रराणो वीहि मृडीक  ᳭᳴ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

६.     ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भैषज  ᳭᳴᳴ स्वाहा। इदमग्नये अयसे न मम।

७.     ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो  मरुद्भ्यः सव्रर्केभ्यश्च न मम।

८.      ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यम ᳭᳴᳴  श्रधाय । अथा वयमादित्य  व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं वरुणायादित्यायादितये न मम।

९.      ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। (यहाँ प्रजापति देवता का मानसिक ध्यान कर, आहुति डाले)

स्विष्टकृत आहुति— तदनन्तर घृत-चरु मिश्रित, ब्रह्मा द्वारा कुशस्पर्शित (ब्रह्मणान्वारब्ध) निम्न मन्त्र से स्विष्टकृताहुति दे—  ऊँ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।

संस्रवप्राशन— होम पूर्ण होने पर प्रोक्षणीपात्र प्रक्षेपित घृत को दाहिने हाथ से ग्रहण कर, यत्किंचित् पान करे। तदनन्तर आचमन करके, निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक प्रणीतापात्र के जल से अपने सिर पर मार्जन करे— ऊँ सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु । तदनन्तर ऊँ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्वष्पः मन्त्रोच्चारण पूर्वक जल नीचे छिड़के।

 

अब पवित्रक को अग्नि में छोड़ दे और पूर्व स्थापित ब्रह्मापूर्णपात्र में दक्षिणाद्रव्य रखकर संकल्प करे— ऊँ अद्य सीमन्तोन्नयनहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूप ब्रह्मकर्म प्रतिष्ठार्थमिदं वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं पूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे ।

नियुक्त ब्रह्मा स्वति कहकर उस पूर्णपात्र को ग्रहण करें।

 

प्रणीताविमोक एवं मार्जन — अब, प्रणीतापात्र को ईशानकोण में उलटकर रख दे और उपयमनकुशा द्वारा उस जल से सिर पर मार्जन करे, इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक— ऊँ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। ( मार्जनोपरान्त उस कुशा को अग्नि में छोड़ दे।)  

 

बर्हिहोम— अव अग्निवेदी के चारो ओर जिस क्रम से कुशाओं को बिछाये थे, उसी क्रम से उठा-उठाकर, घृत में डुबोकर, इस मन्त्र के उच्चारण पूर्वक अग्नि में डाल दे— ऊँ देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित मनसस्पत इमं देव यज्ञ ᳭᳴᳴ स्वाहा वाते धाः स्वाहा ।

 

सीमन्तोन्नयनसंस्कार की अगली प्रक्रिया—

अब नूतन वस्त्रालंकृता गर्भिणी को हवनवेदी के पश्चिमी भाग में आसन पर बैठाये और शल्लकीकंटक (साही का कांटा), पीपल के डंठल, पीतसूत्रवेष्ठित तकुआ, तीन कुश और गूलर की फलयुक्त डाली—इन पांच पदार्थों से गर्भिणीपति पत्नी के बालों को ललाट से ऊपर सिरके पिछले भाग तक अलग करे ( बालों को दो भाग करते हुए माँग सीधा करे) इन मन्त्रों के उच्चारण पूर्वक — ऊँ भूर्विनयामि । ऊँ भुवर्विनयामि । ऊँ स्वर्विनयामि ।

तदनन्तर अग्रलिखित मन्त्रोच्चारण पूर्वक गूलर फलपत्रादि सहित पीत सूत्र से गर्भिणी की चोटी में बाँध दे— ऊँ अयमूर्जावतो वृक्ष उर्जीव फलिनी भव। ( तुम इस ऊर्जस्वल उदुम्बर वृक्षके समान ऊर्जस्वला बनो)  

 

तदनन्तर सुवासिनी (सौभाग्यवती स्त्रियों) द्वारा आशीर्वाद और अक्षताभिषेक होना चाहिए तथा ये मन्त्रोच्चार भी होना चाहिए—सोम एव नो राजेमा मानुषीः प्रजाः अविमुक्तचक्रे आसीरंस्तीरे तुभ्यमसौ।

तदुपरान्त गर्भिणी द्वारा नदियों का नामोच्चारण कराना चाहिए। यथा— गंगायै नमः, यमुनायै नमः, सरस्वत्यै नमः, नर्मदायै नमः, गोदावर्यै नमः, कावेर्य्यै नमः इत्यादि।

तदनन्तर स्रुवा से हवनवेदी के ईशानकोण से किंचित् भस्म लेकर अनामिका अँगुली से अपने अंगों में लगावे। (स्त्री ललाट में न लगावे, किन्तु पुरुष सर्वांगों में लगावे)। यथा— ऊँ त्रायुषं जमदग्नेः (ललाट में),  ऊँ कश्यपस्य त्र्यायुषम् (गले में), ऊँ यद्देवेषु त्र्यायुषम् (दक्षिण बाहु मूल में), ऊँ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम् (हृदय में)।

 

दक्षिणादान एवं ब्राह्मणभोजन संकल्प—

ऊँ अद्य...गोत्र...शर्माऽहं सीमन्तोन्नयनकर्मनिमित्तकहोमकर्मणः साङ्गफलप्राप्तये साद्गुण्याय च अग्निदैवत्वं सुवर्णं सुवर्णनिष्क्रयभूतद्रव्यं वा आचार्याय ब्रह्मणे अन्येभ्यः भूयसीं दक्षिणां च सम्प्रददे  तथा च यथासंख्याकान् ब्राह्मणांश्च भोजयिष्ये।

 

विसर्जन—तदनन्तर पुष्पाक्षत लेकर, आवाहित देवों के विसर्जन निमित्त मन्त्रोच्चारण करके, यथास्थान छोड़ दे—गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर । यत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्र गच्छ हुताशन ।। यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय

मामकीम् । इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ।।  

 

भगवत्समरण— पुनः पुष्पाक्षत लेकर निम्नांकित मन्त्रोच्चारण करे— प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत् । स्मरणादेव तद् विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ।। यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।। यत्पादपङ्कजस्मरणाद् यस्य नामजपादपि । न्यूनं कर्म भवेत् पूर्णं  वन्दे साम्बमीश्वरम् ।। ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ विष्णवे नमः। ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ साम्बसदाशिवाय नमः । साम्बसदाशिवाय नमः । साम्बसदाशिवाय नमः ।

 

                               नोट—ध्यातव्य है कि आठवाँ महीना अत्यन्त संवेदनशील होता है। आयुर्वेदशास्त्रों में कहा गया है कि इस मास में ओज का क्षण-क्षण संचरण होते रहता है—परस्पर माता और गर्भगत शिशु के शरीर से। ओज की गति कभी माता की ओर होती है, तो कभी गर्भ की ओर। अतः विशेष सावधान रहते हुए आठवें महीने में विधिवत विष्णु की पूजा अवश्य करनी चाहिए। श्रीमद्भागवतोक्त नारायणकवच का नियमित पाठ करना (वा सुनना) चाहिए। यथासम्भव यात्रादि से बचना चाहिए। आपातस्थिति में यात्रा करनी ही पड़े तो, सुखद वाहन द्वारा यात्रा करे।

            इस प्रकार गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्तोन्नयनसंस्कारों से गर्भ और गर्भिणी की रक्षा के परिणामस्वरूप, समय पर  सुखमय प्रसव सम्पन्न हो जाने पर आगे के संस्कारों का विधान है।


क्रमशः जारी......

 

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