षोडशसंस्कारविमर्श भाग आठ- षष्ठी पूजा एक अपरिहार्यकृत्य- परिचय और प्रयोग तथा राहुवेध एक लोककृत्य

 

                 षष्ठीपूजा—एक अपरिहार्य कर्म

हालाँकि षोडश संस्कारों में इसकी गणना नहीं है, क्योंकि जातकर्मसंस्कार के बाद, सीधे नामकरणसंस्कार की चर्चा है, किन्तु अपरिहार्य कृत्यों में इसे समाहित होना चाहिए। शिशु-जन्म के छठे दिन ये पूजा होती है। लौकिक रीति के अनुसार छठिहार के नाम से इसका काफी प्रचलन है। कुछ कुल परम्परा में छठिहार का चलन नहीं है, वहाँ बारहवें दिन ये क्रिया सम्पन्न की जाती है। कहीं-कहीं छठे और बारहवें यानी दोनों दिन किंचित् वैधिक रूपान्तर के साथ क्रिया सम्पन्न होती है।

इस क्रिया के मूल में जो तथ्य है उस पर ध्यान देने की जरुरत है। कुछलोग इसे जातकर्मसंस्कार का विलम्बित परिहार कहते हैं। यानी जन्म के तुरत बाद जातकर्म नहीं किया जा सका, तो छठिहार या बरही के नाम से किया जाता है। किन्तु बात ऐसी बिलकुल नहीं है। दोनों की क्रियाएं बिलकुल भिन्न हैं, औचित्य और महत्त्व भी अलग-अलग है।  

ध्यान रहे छठीहार बिलकुल अलग क्रिया है। बालक की रक्षा के लिए षष्ठीमाता (स्कन्दमाता) (कार्तिकेयमाता) की पूजा छठिहार में मुख्य क्रिया है।

षष्ठीदेवी के सम्बन्ध में देवीभागवत एवं ब्रह्मवैवर्तपुराण में कहा गया है कि ये शिशुओं की अधिष्ठात्री हैं। बालकों को दीर्घायु बनाना, भरण-पोषण करना, बालारिष्टों का निवारण कर, सर्वविध रक्षा करना इनका कार्य है। मूलप्रकृति के षष्ठम् अंश से इनकी उत्पत्ति हुई है, इस कारण इन्हें षष्ठीमाता कहते हैं। शिवपुत्र कार्तिकेय का रक्षण-पोषण भी इन्होंने ही किया था। ब्रह्मा की मानसपुत्री के रूप में भी इनकी मान्यता है, जहाँ ये देवसेना के नाम से ख्यात हैं। इन्हें विष्णुमाया या बालदा भी कहते हैं। षोडशमातृकाओं में भी ये परिगणित हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति, मिताक्षराटीका, प्रायश्चित्ताध्याय १९ में महर्षि मार्कण्डेयजी वचनों के साथ-साथ पारस्करगृह्यसूत्र, प्रथम काण्ड, कण्डिका १६ में कहा गया है—रक्षणीया तथा षष्ठी निशा तत्र विशेषतः। रात्रौ जागरणं कार्यं जन्मदानां तथा बलिः।। पुरुषाः शस्त्रहस्ताश्च नृत्यगीतैश्च योषितः। रात्रौ जागरणं कुर्युः दशम्यां चैव सूतके।।

 अतः नवजात शिशु को विभिन्न बाहरी बाधाओं से बचाने के लिए ये क्रिया अवश्य की जानी चाहिए। धर्मशास्त्रों की मान्यता है कि जन्म के दिन  और जन्म के बाद का छठा दिन सुरक्षा की दृष्टि से विशेष संवेदनशील होता है। इस सुरक्षा के उद्देश्य से ही षष्ठीदेवी की सम्यक् आराधना की जानी चाहिए। शिशुजन्म के पश्चात् ये आसपास नित्य-निरन्तर विद्यमान रहती हैं। मान्यता है कि शिशुओं को नींद की अवस्था में दुलारती-पुचकारती हैं। इनकी उपस्थिति से शिशु आनन्दित होता है।

यहाँ ये शंका हो सकती है कि नालच्छेदनोपरान्त तो सूतक लग गया, ऐसे में देवी की पूजा कैसे होगी ?

वस्तुतः सूतक लग गया, किन्तु षष्ठीपूजा अपवाद स्वरूप है, यानी पूजा होगी, दान-दक्षिणा दिए जायेंगे, किन्तु ध्यान रहे विप्र-भोजन नहीं होगा। पारस्करगृह्यसूत्र पंचभाष्य १-१६ में स्पष्ट निर्देश है— जननाशौचमध्ये प्रथमषष्ठदशमदिनेषु दाने प्रतिग्रहे च न दोषः। अन्नं तु निषिद्धं। तथाच सूतिकावासनिलया जन्मदा नाम देवताः । तासां यागनिमित्तं तु शुद्धिर्जन्मनि कीर्तिता ।। प्रथमे दिवसे षष्ठे दशमे चैव सर्वदा। त्रिष्वेतेषु न कुर्वीत सूतकं पुत्रजन्मनि।।

कहीं-कहीं लौकिक परम्पराओं में स्त्रियाँ दीवार में या पीढ़े पर छः लकीरें पीले सिन्दूर से खींच कर उसमें षष्ठीदेवी का आवाहन पूजन करती हैं। इसमें कच्ची रसोई (भात, रोटी, सब्जी, दाल आदि) का नैवेद्य अर्पण करती हैं। शिशु को गोद में लेकर, कुल की सुवासिनियों द्वारा अक्षताभिषेक (चुमावन) होता है।

किंचित लोकरीति-भिन्नता से यही क्रिया बारहवें दिन भी सम्पन्न करने की परम्परा है कुछ कुलों में। अपनी परम्परा का निर्वाह करते हुए, मुख्य वैदिक तथ्य का ध्यान भी रखना चाहिए।

                     -------()---------

                                 -१२-

                             षष्ठीपूजा प्रयोग

    संस्कारग्रन्थों में षष्ठीपूजा का विस्तृत विधान निर्दिष्ट है। मुख्यतः ये निशीथकालिक क्रिया है। अज्ञानवश लोग दिन में भी सम्पन्न कर लेते हैं। किन्तु घोर निशीथ (रात्रि के दूसरे और तीसरे प्रहर) नहीं तो कम से कम निशाकाल की प्रतीक्षा तो अवश्य कर लेनी चाहिए।

सर्वप्रथम काष्ठपीठ पर गोमय द्वारा शक्ति सहित कार्तिकेय और प्रद्युम्न तथा षष्ठीदेवी की प्रतिमा बनावे। यहाँ षष्ठीमाता को मध्य में स्थापित करे। रिक्त स्थानों को चावल-जौ इत्यादि से चित्रित कर दे। देवी के कानों में दूर्वांकुर से कुण्डल भावित करे एवं पूरे शरीर में सोलह सीपी (कौड़ी) यथास्थान सजा दे तथा अन्य विधि से भी उन्हें यथासम्भव अलंकृत करदे। प्रतिमाओं के समक्ष आठ घृतदीप प्रज्वलित करे। (प्रदोषकाल से पूर्व पूजा प्रारम्भ न करे)।

शिशु का पिता समय पर स्नानादि से निवृत्त हो, पवित्र वस्त्र धारण कर, सुखासनासीन होकर, आचमन-प्राणायामादि प्रारम्भिक तैयारी करे। षष्ठीमहोत्सव के पूर्वांगस्वरूप सर्वप्रथम सूतिकागृह के द्वार पर (प्रवेश करते समय अपने से बायें) किसी पट्टिका पर क्रमशः सप्त द्वारमातृकाओं को मन्त्रोच्चारपूर्वक स्थापित करे (ध्यातव्य है कि ये श्रियादि सप्त घृतमात्रिकाएँ नहीं हैं, प्रत्युत कौमार्यादि सप्तद्वारमात्रिकाँ हैं )  —

एतं ते देव सवितर्यज्ञं प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे। तेन यज्ञमव तेन यज्ञपतिं तेन मामव।। ऊँ भूर्भुवः स्वः द्वारमातरः इहागच्छन्तु इह तिष्ठन्तु सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु ।।

ध्यान मन्त्र— कुमारी धनदा नन्दा विपुला मङ्गलाचला। पद्मा चैव तु नाम्नोक्ताः सप्तैता द्वारमातरः ।। तदनन्तर ऊँ कुमार्यै नमः, ऊँ धनदायै नमः, ऊँ नन्दायै नमः, ऊँ विपुलायै नमः, ऊँ मङ्गलायै नमः, ऊँ अचलायै नमः, ऊँ पद्मायै नमः  — इन सातों नाम मन्त्रों से सप्तद्वारमातृकाओं का पंचोपचार पूजन करे।

तदनन्तर स्वस्तिवाचन करते हुए सूतिकागृह में प्रवेश करे। कक्ष के वायुकोण में (अनुकूल स्थान पर) विशेष प्रकार के धूप जलाये —मुराऽहिकृतिनिर्गुण्डीवचाः कुष्ठं च सर्षपाः । बिल्वपत्रमयो धूपः कुमारायुः प्रपोषकृत् ।। (मुरामांसी, सांप की केचुली, सिन्दुआर की पत्तियाँ, वच, कूठ, पीलासरसो एवं बिल्वपत्र—इन सात द्रव्यों का धूप बालकों की रक्षा करते हुए आयुवर्द्धक है। वस्तुतः ये सभी द्रव्य कृमिनाशक और भूत-प्रेतादि अपवारक और पवित्र हैं। वैष्णवमतावलम्बी यहाँ सांप की केचुलीको अपवित्र द्रव्य न माने। ध्यातव्य है गोरोचन, मृगचर्मादि ऐसे अनेक जांगमपदार्थों (जन्तुओं से प्राप्त होने वाले) को कार्य विशेष के लिए अति शुद्ध माना गया है।)

तदनन्तर गोमय लेपित अनुकूल स्थान पर आसन ग्रहण कर पुनः आचमन-प्राणायामादि सम्पन्न कर, हाथ में पुष्प, जलाक्षत लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य.....मम बालकस्य सर्वोपद्रवशान्तिपूर्वक-दीर्घायुरारोग्यावाप्तिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं षष्ठीमहोत्सवं करिष्ये, तत्पूर्वाङ्गत्वेन सर्वाभ्युदयप्राप्तये गणपतिसहित गौर्यादि-षोडशमातृकाणां पूजनं, स्वस्तिपुण्याहवाचनं, वसोर्धारापूजनं, साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीमुखश्राद्धं च करिष्ये ।  

(गणपत्यादिपूजन एवं अन्य विषय हेतु परिशिष्टखंड का सहयोग ले सकते हैं। ध्यातव्य है कि स्वस्तिवाचन करते हुए ही सूतिकागृह में प्रवेश किए हैं, किन्तु यहाँ पुनः स्वस्तिवाचन करना चाहिए। तदुपरान्त गणपत्यादि सभी आंगिक पूजन नान्दीश्राद्धादि सम्पन्न करना चाहिए।)

उक्त आंगिककार्य सम्पन्न करने के पश्चात् काष्ठपीठ पर बनायी गई गोमय प्रतिमाओं पर अग्रांकित मन्त्रोच्चारण करते हुए, अक्षत छिड़कर प्राणप्रतिष्ठा करे— एतं ते देव सचितर्यज्ञं प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे । तेन यज्ञमव तेन यज्ञपतिं तेन मामव ।। ऊँ भूर्भुवः स्वः गोमयप्रतिमयोः स्कन्ददेव तथा प्रद्युम्नदेव इहागच्छ इह तिष्टतं सुप्रतिष्ठितौ वरदौ भवेतम् ।

अब पुष्पाक्षत लेकर ध्यान करे — वराभयकरः साक्षाद् द्विभुजः शिखिवाहनः । किरीटी कुण्डली देवो दिव्याभरण-भूषितः। तथाच प्रद्युम्नस्तु चतुर्बाहुः शङ्खचक्रगदाधरः । चक्रं दक्षिणहस्तेऽस्य वामहस्ते धनुस्तथा।। शङ्खं च दक्षिणे दद्याद् गदां वामे प्रदापयेत् । प्रद्युम्नं कारयेद्देवं सर्वलक्षणसंयुतम्।। (अर्थात् श्रीस्कन्द श्रेष्ठ मयूरासीन हैं। उनकी दो भुजायें क्रमशः वरद और अभय मुद्रा वाली हैं। सिर पर मुकुट,कानों में कुण्डल सहित दिव्य अलंकारों से वे विभूषित हैं। श्री प्रद्युम्न चार भुजाओं वाले हैं। शंख,चक्र,गदा और धनुष धारण किए हुए हैं। वे सभी प्रकार के शुभ लक्षणों से सम्पन्न हैं।)

उक्त ध्यानोपरान्त ऊँ सशक्तिकाभ्यां स्कन्दप्रद्युम्नाभ्यां नमः — इस नाममन्त्र से यथोपलब्ध सामग्री से विधिवत पूजन करे, तदन्तर पुष्पाक्षत लेकर स्कन्द की प्रार्थना करे—

ऊँ नमः कुमाराय महाप्रभाय स्कन्दाय ते स्कन्दितदानवाय । नवार्कबिम्बद्युतये नमोऽस्तु नमोऽस्त्वमोघोद्यतशक्तिपाणये।।

नमो विशालाय विचारणेऽस्तु नमोऽस्तु ते षण्मुख कामरूपिणे ।

गुहाय गूढाभरणाय धर्त्रे नमोऽस्तु ते दानवधारणाय ।।

नमोऽस्तु तेऽर्कप्रतिमप्रभाय नमोऽस्तु गुह्याय गुहाय तुभ्यम् ।

नमोऽस्तु ते लोकभयापहाय नमोऽस्तु ते बालपराक्रमाय ।।

नमो विशालायतलोचनाय नमो विशालाय महाव्रताय ।

नमो नमस्तेऽस्तु मनोरमाय नमो नमस्तेऽस्तु करोत्कटाय।।

नमो मयूरोज्ज्वलवाहनाय नमो धृतोदग्रपताकिनेऽस्तु ।

नमोऽस्तु केयूरधराय तुभ्यं नमः प्रभावप्रणताय तुभ्यम् ।।

सेनानये पावकिने नमोऽस्तु क्रियापरीतामलदिव्यमूर्तये।

कृपामयो यज्ञ इवामलस्त्वं नमोऽस्तु षष्ठीश नमो नमस्ते।।

उक्त प्रार्थना के बाद निम्न मन्त्र से प्रतिमा पर दूर्वा समर्पित करे—

ऊँ काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ति परुषः परुषस्परि । एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च।।  

तदन्तर पुष्पाक्षत लेकर प्रद्युम्न की प्रार्थना करे—

भोः पद्युम्न महाबाहो लक्ष्मीहृदयनन्दन ।

कुमार रक्ष मे भीतेः पद्युम्नाय नमो नमः।।

त्रैलोक्यपूजितः श्रीमान्सदा विजयवर्धनः।

शान्तिं कुरु गदापाणे प्रद्युम्नाय नमो नमः।।

        इन दोनों के पूजन और प्रार्थना के पश्चात् अब षट् कृत्तिकाओं का आवाहन, पूजन, प्रार्थना करेंगे। वस्तुतः ये कार्तिकेय की पालनकर्ती माताएँ हैं। किसी काष्ठपीठ पर श्वेतवस्त्र विछाकर दधि-अक्षत पुंजों पर नाममन्त्रोच्चारण करते हुए, इनकी स्थापना करेंगे एवं पंचोपचार पूजन सम्पन्न करें। यथा— ऊँ शिवायै नमः । ऊँ सम्भूत्यै नमः । ऊँ सन्नत्यै नमः । ऊँ प्रीत्यै नमः । ऊँ अनसूयायै नमः । ऊँ क्षमायै नमः ।

प्रार्थना— (यहाँ पहले कृत्तिकाओं की प्रार्थना करने के बाद कार्तिकेय और प्रद्युम्न की पुनः प्रार्थना करेंगे। तीनों प्रार्थनाएँ एकत्र दी जा रही हैं) —

जगन्मातर्जगद्धात्रि जगदानन्दकारिणि ।

नमस्ते देवि कल्याणि प्रसीद मम कृत्तिके ।।

कार्तिकेय महाबाहो गौरीहृदयनन्दन।

कुमारं रक्ष में भीते कार्तिकेय नमोऽस्तु ते ।।

त्रैलोक्यपूजितः श्रीमान्सदा विजयवर्धनः।

शान्तिं कुरु गदापाणे प्रद्युम्नाय नमो नमः।।

अब काष्ठपीठ पर गोमय निर्मित, मध्य में स्थापित मूल देवी (षष्ठीमाता) की प्रतिष्ठा पुष्पाक्षत लेकर निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक करेंगे— ऊँ एतं ते देव सवितर्यज्ञं प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे । तेन यज्ञमव तेन यज्ञपतिं तेन मामव। ऊँ भूर्भुवः स्वः गोमयप्रतिमायां षष्ठीदेवि इहागच्छ इह तिष्ठ सुप्रतिष्ठिता वरदा भव। ऊँ आँ ह्रीं क्रीं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ क्षँ हंसः सोऽहं षष्ठीदेव्याः प्राणा इह प्राणा इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु, जीव इह तिष्ठन्तु, सर्वेन्द्रियाणीह तिष्ठन्तु।।  

तदन्तर निम्नांकित मन्त्रों से अपने अंगों में न्यास सहित देवीके उन-उन अंगों में भी अक्षत छिड़ककर न्यास करें— ऊँ षां हृदयाय नमः । ऊँ षीं शिरसे स्वाहा । ऊँ षूँ शिखायै वषट् । ऊँ षँ कवचाय हुम्। ऊँ षौं नेत्रत्रयाय वौषट् । ऊँ षः अस्त्राय फट् ।

न्यासोपरान्त पुष्पाक्षत लेकर षष्टीदेवी का ध्यान करें—

चतुर्भुजां महादेवीं तुङ्गपीनस्तनीं शिवाम् ।

मयूरवरमारूढ़ां रक्तवस्त्रधरां शुभाम् ।।

शूलशक्तिवराभीतिहस्तां ध्यायेन्महेश्वरीम्।

प्रफुल्लपद्मवदनामर्धपद्मासनस्थिताम् ।।

सर्वांगभूषितां देवीं पीनोन्नतपयोधराम्।

स्रवत्पीयूषवदनां पीतकौशेयवाससाम् ।।

चतुर्भुजां दक्षिणेन धृतमन्धानवंशकाम् ।

नीलोत्पलं तु वामेन स्कन्दं तु दधतीं तथा।।

अधःस्थितकराभ्यां तु महाषष्ठीं विचिन्तयेत् ।।

ऊँ षष्ठीदेव्यै नमः ध्यानार्थे पुष्पाणि समर्पयामि—कहकर पुष्प छोड़ दे और पुनः दूसरा पुष्प लेकर आवाहन मन्त्र बोले— आयाहि पूज्यसे देवि महाषष्ठीति विश्रुते । शक्तिरूपेण मे बालं रक्ष जागरवासरे।।

तदन्तर ऊँ षष्ठीदेव्यै नमः इस नाम मन्त्र से क्रमशः आसन, पाद्यादि समर्पित करते हुए षोडशोपचार पूजन करे। किन्तु नैवेद्य अर्पण से पूर्व  एक विशेष बात का ध्यान रखना है— इसकी व्यवस्था पहले से कर लेनी चाहिए।  एक बकरा और उड़द का बना हुआ, बिना दही में भिगोए आठ बड़ों को माला की तरह सूत्र में गूँथ कर, बकरे को गले में पहना दें और सूतिकागृह के बाहर ही रखते हुए, उसका दाहिना कान पकड़ कर जोर से खींचे, ताकि वो में-में करने लगे। बकरे की इस ध्वनि से भूतप्रेतादि को तुष्टि मिलती है, फलतः वे सूतिकास्थान पर बाधा नहीं पहुँचाते।  

उक्त क्रिया के पश्चात् षोडशोपचार की शेष क्रियाएं—नैवेद्यादि अर्पण कर्म सम्पन्न करें। नैवेद्य में भी यहाँ विशेष नैवेद्य की बात है—मोदक (लड्डु), चावल, दही, पूआ-पूडी, विविध पक्वान्नादि षष्ठीदेवी को प्रिय हैं। यथा—

        मोदकानि विचित्राणि शुक्लतण्डुलकं दधि।

        विचित्रपक्वान्नयुतं तथाऽपूपसमन्वितम् ।।

        फेणिकाघृतपूराढ्यं नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् । 

        ऊँ षष्ठीदेव्यै नमः नैवेद्यं समर्पयामि ।।  

तदन्तर करोद्वर्तन हेतु गन्ध-पुष्प प्रदान करे एवं नीराजन (आरती) करे। तत्पश्चात् पुष्पाक्षत लेकर प्रार्थना करे—    

        षष्ठिदेवि नमस्तुभ्यं सूतिकागृहशालिनि।

        पूजिता परमा भक्त्या दीर्घमायुः प्रयच्छ मे।।

        जननी सर्वसौख्यानां वर्धिनीधनसम्पदाम्।

        साधनी सर्वभूतानां जन्मदे  त्वां नता वयम्।।

        गौरीपुत्रो यथा स्कन्दः शिशुत्वे रक्षितः पुरा।

        तथा ममाप्यमुं बालं षष्ठिके रक्ष ते नमः।।

        रक्षितौ पूतनादिभ्यो नन्दगोपसुतौ यथा ।

        तथा मे बालकं पाहि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते।।

सर्वविघ्नानपाकृत्य सर्वसौख्यप्रदायिनि।

          जीवन्तिके जगन्मातः पाहि नः परमेश्वरि।।   

        जय देवि जगन्मातर्जगदानन्दकारिणि ।

        प्रसीद मम कल्याणि महाषष्ठि नमोऽस्तु ते।।

        देवानां च ऋषीणां च मनुष्याणां च वत्सले।

        अमुं मम सुतं रक्ष षष्ठि देवि नमोऽस्तु ते।।

        पुरा देवैः पूजिताऽस्मि ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः।

        आवाभ्यामपि देवि त्वं पूज्यसे भक्तिपूर्वकम्।।

        देह्यस्य बालकस्यायुर्दीर्घ तुभ्यं नमोऽस्तु ते।

        तव प्रसादात्तनयस्य वक्त्रं दृष्टं मया देवि नमोऽस्तु ते।।

        सौभाग्यमारोग्यमभीष्टसिद्धिं देहि प्रजायाश्चिरजीवितञ्च।

        गौर्य्याः पुत्रो यथा स्कन्दः शिशुः संरक्षितस्त्वया।

        तथा ममाप्यं बालो रक्ष्यतां षष्ठिके नमः ।।

        षष्ठि देवि नमस्तुभ्यं सूतिकागृहवासिनि ।

        पूजितासि मया भक्त्या सबालां रक्ष सूतिकाम्।।

        जननी सर्वसौख्यानां वर्धनी कुलसम्पदाम् ।

        साधनी सर्वसिद्धीनां जन्मदे त्वां नता वयम्।।

        त्वमेव वैष्णवी देवी ब्रह्माणी च व्यवस्थिता ।

        रुद्रशक्तिस्समाख्याता महाषष्ठि नमोऽस्तु ते।।

        धात्री त्वं कार्तिकेयस्य स्त्रीरूपं मदनस्य च ।

        त्वत्प्रसादादविघ्नेन चिरं जीवतु मे सुतः ।।

षष्ठिदेवी की उक्त प्रार्थना के पश्चात् बालक का पिता पत्नी की गोद से बालक को अपने गोद में लेकर क्षणभर के लिए भूमिपर बैठाए और उसके शरीर पर हाथ फेरते हुए निम्नांकित रक्षामन्त्रों का वाचन करे—   

           यद्वलं वासुदेवस्य विष्णोरमिततेजसः ।

        भीमस्य ब्रह्मणश्चैव सर्वं भवतु मे सुते।।

        चन्द्रार्कयोर्दिगीशानां यमस्य वरुणस्य च ।

        निक्षेपार्थं मया दत्तं ते मे रक्षन्तु बालकम्।।

        अप्रमत्तं प्रमत्तं वा दिवा रात्रावथापि वा ।

        रक्षन्तु सर्वदा सर्वे देवाः शक्रपुरोगमाः ।।

        रक्ष त्वं वसुधे देवि सन्ध्ये च जगतः प्रिये।

        आयुष्प्रमाणं सकलं देहि देवि नमोऽस्तु ते।

        अन्तरा ह्यायुषस्तस्य ये केचित्परिपन्थिनः ।

        विद्यारोग्यस्य वित्तानां निर्हणस्वाचिरेण तान् ।।

उक्त रक्षाविधानोपरान्त बालक को गोद में लेकर, यथोपलब्ध नूतन वस्त्र एवं कंकणादि आभूषणों से अलंकृत करे। तत्पश्चात् उपस्थित आचार्य को सपत्निक यथोपलब्ध वस्त्रालंकार से पूजित करे। ज्ञाताज्ञात न्यूनातिरिक्त दोषनिवार्णार्थ भूयसी दक्षिणा दे एवं आशीष ग्रहण करे। आवाहित देवों का विधिवत विसर्जन भी कर दे। अस्तु।

                               

                   

                             -१३-

                      राहुवेधन—लोकाचार कृत्य  

                                

          षष्ठीदेवी की पूजा के पश्चात् उसी अवसर पर थोड़ी और रात्रि व्यतीत हो जाने पर (अर्धरात्रि में) राहुवेधनकर्म की भी परम्परा है। अपने लोकाचार के अनुसार इसे कर लेना अच्छा है। सूतिकागृह जनित विभिन्न उपद्रवों का इस क्रिया से शमन होता है। आधुनिक मतावलम्बी बाहरी साफ-सफाई-सुरक्षा एवं पाश्चात्य नियम-संयम पर तो खूब ध्यान देते हैं, किन्तु सनातनी परम्परा वाली आन्तरिक सुरक्षा-व्यवस्था पर न तो ध्यान जाता है और न विश्वास ही होता है, जिसका दुष्परिणाम जाने-अनजाने भुगतना पड़ता है। भारतीय परिवेश में रसे-बसे अनेक टोने-टोटके मूलतः तन्त्र की कसौटी पर बिलकुल खरे हैं। हाँ, ये भी सत्य है कि समयानुसार उनके असली जानकार लुप्त होते गए और अल्पज्ञों की भरमार होते गयी। मान्त्रिक और मन्त्र लुप्त होते गए, जानी-अनजानी क्रियाओं की लाश ढोते चले आ रहे हैं। परिवेश और परिस्थिति में बदलाव के कारण बहुत से नियम-तरीके व्यावहारिक रूप से असंगत लगने लगे हैं। लकड़ी के मोटे-मोटे धरण-बड़ेरी पर वांस की पट्टियों और खपरैल की छावनी वाले मकान तेजी से गायब हो रहे हैं। सरिया-कंकरीट की उत्तुंग अट्टालिकाएँ खड़ी हो रही हैं, जहाँ हवा और रौशनी का सर्वथा अभाव है। वास्तुशास्त्र के नियमों की धज्जियाँ उड़ रही हैं। उन मकानों में न ग्रहों का समुचित स्थान है और न लोकपालों का और न पंचतत्त्वों का ही विचार किया जा रहा है। अब तो राहुकी पोटली पंखे के हुक में ही लटकानी पड़ेगी न !

          जो भी हो यथासम्भव राहुबेध की संक्षिप्त क्रिया सम्पन्न कर ली जाए तो अति उत्तम। क्योंकि इससे बालारिष्टों का शमन होता है और शिशु की सर्वविध रक्षा होती है।

          सर्वप्रथम हरी बांस की पतली कमाची में काला सूता बाँध कर पिता अपने अँगुल से अठारह अँगुल का एक छोटा सा धनुष बनावे और बारह अँगुल की कमाची से बाण भी बनावे। एक नूतन वस्त्र में हल्दी की गाँठ, द्रव्य, सुपारी, पीली सरसो, दुर्वा, पुष्प आदि बाँध कर एक पोटली बनाकर काष्ठपीठिका पर रख ले। तत्पश्चात् पुष्पाक्षत-जलादि लेकर संकल्प करे (यहाँ संक्षिप्त संकल्पवाक्य ही दिए जा रहे हैं। विस्तृत के लिए परिशिष्ट का अवलोकन करें)—

ऊँ अद्येत्यादि... शर्माऽहं... राशे मम पुत्रस्य षष्ठीमहोत्सवकर्मणः उत्तराङ्गत्वेन एतस्य बालकस्य परिरक्षार्थं आयुर्वृद्धये सर्वोपद्रवशान्त्यर्थं च राहोर्वेधनं करिष्ये, तदङ्गत्वेन धनुर्बाणयोः पूजनं करिष्ये।

        पोटली को राहु का प्रतीक मानते हुए नाममन्त्र से आवाहन, प्राणप्रतिष्ठा करके पंचोपचार पूजन करे। तत्पश्चात् छप्पर वाले घर में धरण में (अभाव में छत की कुंडी में) मजबूती से बाँध दे।

 धनुषपूजन का मन्त्र—धृतं कृष्णेन रक्षार्थं संहारार्थं हरेण च।

 त्रयीमूर्तिगतं दिव्यं धनुः शस्त्रं नमाम्यहम्।। ऊँ धनुषे नमः ।

बाणपूजन का मन्त्र— कामदेवस्य ये बाणाः सफलाश्चार्जुनस्य च।

रामस्य च यथा बाणास्तथास्माकं भवन्त्विह ।। ऊँ बाणाय नमः।

 (दोनों मन्त्रों को एक साथ पढ़कर एकतन्त्र से ऊँ धनुषबाणायनमः चतुर्थ्यन्त मन्त्रोच्चारण करते हुए पंचोपचार पूजन करे)

 तदन्तर बालक को गोद में बैठाकर पिता धनुष-बाण अपने हाथ में ले ले। उपस्थित अन्य गण शंखनाद करें और पिता धनुष पर बाण चढ़ाकर ऊपर टांगे गए राहुपोटलिका पर तीन बार प्रहार करे।

          अब सूतिकागृह के बाहर द्वार पर आकर पीलासरसो, सेंधा नमक, नीम के पत्ते और घृत से पूर्वदिन स्थापित अग्नि में पाँच आहुतियाँ डाले।

इसके अलावे द्वार देश पर मूसल आदि अन्य आयुध भी स्थापित कर दे।  अस्तु।

                        -----------()()()---------- 

                          

Comments