षोडशसंस्कारविमर्शःभाग नौ- नामकरणसंस्कार परिचय और प्रयोग

 

    


    

   
                  

 नामकरण संस्कार परिचय

                     

 चराचर जगत नामरूपात्मक है, यानी जो कुछ भी प्राणी-पदार्थ हैं, सबका कोई न कोई रूप है, तदनुसार उनका नाम भी है। लोकव्यवहार की दृष्टि से रूप के साथ-साथ नाम की भी आवश्यकता है। ये नाम ही है, जो अगुण-अगोचर के सगुण-साकार होने की सूचना हमें देता है। देवगुरु बृहस्पति कहते है कि नाम ही अखिल व्यवहार और मंगलकार्यों का हेतु है। नामकर्म अत्यन्त प्रशस्त है। वीरमित्रोदय संस्कार प्रकाश में कहा गया है—

नामाखिलस्य व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतुः।

नाम्नैव कीर्ति लभते मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म।। स्मृतिसंग्रह में नाम की महिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है—

आयुर्वर्चोऽभिवृद्धिश्च सिद्धिर्व्यवहृतेस्तथा ।

नामकर्मफलं त्वेतत् समुद्दिष्टं मनीषिभिः ।।

हालाँकि माता मदालसा के प्रसंग में इस तथाकथित मानव-प्रदत्त नाम की निरर्थकता सिद्ध की जा चुकी है— शुद्धोसिऽरे तात न तेऽस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।

फिर भी संस्कारों के क्रम में अगला संस्कार — नामकरण संस्कार को माना गया है। संसार में पदार्पण करने के बाद, जातिवाचक संज्ञा तो मिल ही जाती है, किन्तु व्यक्तिवाचक संज्ञा के वगैर व्यक्ति की पहचान कैसे होगी—इस उद्देश्य की पूर्ति, इस क्रिया की उपादेयता है।

नामकरण भी एक वैदिक संस्कार है—इस बात से आधुनिक लोग बिलकुल अनजान हैं। फलतः लोग इस पर गम्भीरता से विचार नहीं करते। व्यक्तिवाचक संज्ञाबोध हेतु हम कुत्ते, बिल्ली, घोड़े आदि पालतू पशुओं को भी नाम दे देते हैं। भवन, दुकान, संस्था  आदि का नामकरण भी करते हैं, किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि विदेशियों की देखादेखी अपने बच्चों के नाम के प्रति सतर्क और गम्भीर नहीं होते। जो जी में आया या कहीं सुन लिया, नाम रख दिया। मुहूर्त और संस्कार की बात तो दूर रही, शब्द और अर्थ का विचार भी नहीं करते । जबकि ये दोनों बातें अनिवार्य है।

सचपूछें तो माता-पिता, आचार्य-पुरोहितादि द्वारा प्रदत्त सोद्देश्य, सार्थक, सांसारिक नाम की अद्भुत महत्ता है। जिस नाम से हम जाने-पहचाने जाते हैं, जो संबोधन हमारे लिए बार-बार उच्चरित होता है, उसका गहन ज्योतीषीय प्रभाव पड़ता है हमारे व्यक्तित्व और कृतित्व पर। इसका किंचित् ज्ञान पश्चिम वालों ने पा लिया है और इसका प्रयोग अंकज्योतिष (न्यूमेरोलॉजी) के अनुसार नाम की वर्तनी में हेर-फेर करने का सुझाव देते रहते हैं, जो कि भारतीय ज्योतिष के मूल सिद्धान्तों से मेल नहीं खाता।

नाम के शब्द और अर्थ का विचार करते हुए कोई कह सकता है कि दीनदयाल नाम का व्यक्ति बहुत निर्दयी हो सकता है। लक्ष्मी कंगाल हो सकती है—यानी नाम के अनुसार गुण होना आवश्यक नहीं। किन्तु अपवाद से उत्सर्ग का खण्डन नहीं हो सकता। ऐसा भी नहीं कि कुत्ते-बिल्ली और बच्चे का नाम एक जैसा रख लिया जाए।

नाम का चयन कैसा हो—इस विषय पर ज्योतिषशास्त्रों और पुराणों में विस्तृत चर्चा है। नक्षत्र, नदी, पर्वत आदि के नाम का निषेध है, जबकि रेवती, रोहिणी, गंगा, नर्मदा, विन्ध्याचल आदि नाम काफी प्रचलित हैं।

नाम कैसा हो—इस सम्बन्ध में गृह्यसूत्रों एवं स्मृतिग्रन्थों में विस्तार से निर्देश है। पारस्करगृह्यसूत्र १-१७-२, ३  में कहा गया है— द्वयक्षरं चतुरक्षरं वा घोषवदाद्यन्तरन्तस्थम् । दीर्घाभिनिष्ठानं कृतं कुर्यान्त तद्धितम् । अयुजाक्षरमाकारान्तंस्त्रियै तद्धितम् ।। अर्थात् बालक का नाम दो या चार अक्षरों वाला हो, जिसका पहला अक्षर घोषवर्णयुक्त (कवर्गादि वर्गों का तीसरा, चौथा पांचवां वर्ण), मध्य में अन्तस्थवर्ण (य,र,ल,व आदि) और अन्त में दीर्घ एवं कृदन्त हो, तद्धितान्त न हो। तथा बालिका का नाम विषमवर्णी तीन या पाँच अक्षरयुक्त, दीर्घ वर्णान्त एवं तद्धितान्त होना चाहिए।

वीरमित्रोदय संस्कारप्रकाश में चार प्रकार के नामों का विधान है—तच्च नाम चतुर्विधम्—कुलदेवता सम्बद्धं, माससम्बद्धं, नक्षत्रसम्बद्धं व्यावहारिकं चेति— कुलदेवता सम्बन्धित, मासपति से सम्बन्धित, नक्षत्र से सम्बन्धित एवं व्यावहारिक।

धर्मसिन्धु में भी उक्त चार प्रकार ही कहे गए हैं। सुश्रुतसंहिता शारीरस्थान १०-२४ में संक्षिप्त संकेत है—यद् अभिप्रेतं नक्षत्र नाम वा (अर्थात् माता-पिता को जो इच्छा हो अथवा नक्षत्राधारित नाम रखे)। मानवमृह्यसूत्र १-१८-२ में भी इन्हीं बातों का निर्देश है—यशस्यं नामधेयं देवताश्रयं नक्षत्राश्रयं च (यशोवर्धक नाम देवता या नक्षत्राक्षर आश्रयी हों)।  

ध्यातव्य है कि सीधे नक्षत्रनाम—रोहिणी, रेवती आदि निषिद्ध हैं, किन्तु नक्षत्रों के स्वामियों के नाम का चयन किया जा सकता है। नक्षत्रों के चरणाक्षरों का प्रयोग किया जाना चाहिए। इस प्रकार नक्षत्र-स्वामियों और नक्षत्रों के चार चरणाक्षरों को नामाक्षर का आधार माना गया है। इसका ज्ञान पंचांगों में दिए गए अबकहडाचक्र से करना चाहिए।

यहाँ एक मुख्य बात का ध्यान रखना चाहिए कि नक्षत्र चरणाक्षरों पर आधारित नाम गोपनीय होना चाहिए, जो सिर्फ माता-पितादि तक ही सीमित रहे, अन्य उसे न जाने। इस सम्बन्ध में महर्षि चरक कहते हैं (शारीरस्थान ८-५०) — कुमारस्य पिता द्वे नामनी कारयेत् नाक्षत्रिकं नामाभिप्रायिकम् ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यावहारिक नाम (पुकार का नाम) अलग से चयनित होना चाहिए। इन दोनों नामों की अपनी महत्ता है। लोकव्यवहार में नक्षत्रनाम (चरणाक्षरनाम-राशिनाम) और पुकारनाम की उपयोगिता और महत्ता को स्पष्ट करते हुए शास्त्र कहते हैं— 

      विवाहे सर्वमाङ्गल्ये यात्रायां ग्रहगोचरे।

       जन्मराशिप्रधानत्वं नामराशिं न चिन्तयेत् ।।

              देशे ग्रामे गृहे युद्धे सेवायां व्यवहारके ।

              नामराशिप्रधानत्वं जन्मराशिं न चिन्तयेत् ।।

अर्थात्  विवाहादि सभी प्रकार के मांगलिक कार्यों में, यात्रादि मुहूर्त विचार करने में, ग्रह-गोचरविचार करने में जन्मराशि (चरणाक्षरनाम) की प्रधानता है, जबकि देश, ग्राम, सेवा तथा व्यावहारिक कार्यों में पुकार के नाम की राशि को आधार बनाना चाहिए। जैसे रमेश पटना में आवासीयगृह निर्माण करे या नहीं—इस पर विचार करने के लिए और के अनुसार विचार किया जाना चाहिए एवं रमेश रश्मि से विवाह करे या नहीं, इसमें  नामाक्षर को आधार न बनावे, बल्कि उन दोनों के जन्मसमय के नक्षत्रचरणाक्षर को आधार बनाना चाहिए। इस बात की बारीकी को  न समझने के कारण ही आजकल लोग सीधे नामाक्षरों से गणना मिलान कर देते हैं, जो बिलकलअनुचित है।

            नाम-चयन के सम्बन्ध में आजकल एक और नयी परिपाटी चल पड़ी है—जाति, धर्म, सम्प्रदाय को स्पष्ट न करने वाला नाम। वस्तुतः ये लोग निरपेक्षता प्रदर्शित करना चाहते हैं या कहें स्वयं को छिपाना चाहते हैं, जो बिलकुल बेतुका है। सही नाम वही है, जिसमें कुल, गोत्र, सम्प्रदाय सबकी स्पष्टी हो। हमारी भारतीय परम्परा रही है वर्णानुसार नाम की व्यवस्था की। जैसा कि पारस्करगृह्यसूत्र १-१७-४ में कहा गया है— शर्म ब्राह्मणस्य वर्म क्षत्रियस्य गुप्तेति वैश्यस्य। जिसकी पुष्टि विष्णुपुराण ३-१०-९ से भी होती है—  शर्मेति ब्रह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम् ।

गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः।।

मनस्मृति २-३१,३२ में कहा गया है—

            मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम् ।

            वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ।।

            शर्मवद् ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।

वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्।।

(मंगल और आनन्दसूचक शर्मायुक्त नाम ब्राह्मणों के होने चाहिए। क्षत्रिय का नाम रक्षा, बल और शासनक्षमता वाला होना चाहिए। वैश्य का नाम धन-ऐश्वर्यसूचक, पुष्टि और गुप्तयुक्त होना चाहिए तथा शूद्र का नाम सेवादि गुणयुक्त दासान्त होना चाहिए। )  

किसी कार्य में संकल्प करते समय इन विशिष्ट नामगोत्रादि के उच्चारण का विशेष उद्देश्य है। ब्राह्मण को सर्वविध कल्याणकारी होने के कारण शर्म (कल्याण), क्षत्रिय पर रक्षा के दायित्व का भार है, अतः वर्म (कवच) सूचक है, वैश्य धन-भोग-व्यवस्था का कर्ता-धर्ता माना गया है, अतः गुप्त संज्ञा दी गयी एवं शूद्र का कार्य सेवा है इसलिए दासान्त होने की बात कही गयी है। किन्तु छद्म निरपेक्षता की सामाजिक विकृत्ति ने नाम और कर्म को ही विकृत कर दिया है। नाम और उपाधियों का कोई मोल ही नहीं रहने दिया गया। जिसे जो मन बाजार से खरीदी गयी छतरी की तरह ओढ़ लिया कोई नाम, कोई उपाधि। इससे सामाजिक और वार्णिक व्यवस्था असन्तुलित हो रही है—ये ध्यान देने की बात है।

 

नामकरणसंस्कार कब

व्यवहारिक कठिनाई के कारण प्रारम्भ में जातकर्म संस्कार न हो पाया हो, तो नामकरण संस्कार के साथ इसे समेकित किया जा सकता है। अपनी कुल परम्परानुसार जन्म से दसवें, ग्यारहवें वा बारहवें दिन इसे किया जा सकता है। किन्तु दसवें दिन न करे तो अच्छा है, क्योंकि दसवें दिन मरण-अशौच की निवृत्ति होती है। यही कारण है कि जनन-अशौच में एक दिन पहले (नौंवें दिन) ही पुरुष क्षौरकर्म कर लेते हैं। स्त्रियाँ भी उसी दिन नाखून काट कर, सिर धो लेती हैं। इस प्रकार जनन-अशौच की पूरी शुद्धि (गोत्रवर्ग के लिए) नौंवें दिन ही हो जाती है। सिर्फ प्रसूता की पूर्ण शुद्धि बीसवें दिन होती है, जिसे वरुणपूजा (कूपपूजा) के साथ सम्पन्न करते हैं।

नामकरणसंस्कार कब करें? इस सम्बन्ध में पारस्कर गृह्यसूत्र १-१७-१ में तीन बातों पर ध्यान दिलाया गया है— (क) ये संस्कार दसवें दिनकी रात्रि व्यतीत हो जाने पर (यानी अशौच निवृत्ति के पश्चात्) ग्यारहवें दिन होना चाहिए। (ख) संस्कार से पूर्व तीन ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। (ग) ये संस्कार पिता (अभाव में तत्तुल्य अन्य) द्वारा होना चाहिए।

पौराणिक परम्पराओं में हम पाते हैं कि कुलगुरु या आचार्य द्वारा ये संस्कार सम्पन्न कराया जाता है। व्यासस्मृति १-१८ में एकादशेह्नि नाम... कहकर उक्त काल की पुष्टि की गयी है। शंखस्मृति भी इन्हीं बातों की पुष्टि करता है कि अशौचे तु व्यतिक्रान्ते नामकर्म विधीयते।  याज्ञवल्क्यस्मृति आचाराध्याय १२ में अहन्येकादशे नाम कहा गया है। सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान १०-२४ में और भी स्पष्ट किया गया है— ततो दशमेऽहनि मातापितरौ कृतमङ्गलकौतुकौस्वस्तिवाचनं कृत्वा नाम कुर्यातां यदभिप्रेतं नक्षत्र नाम वा।।

इसी सन्दर्भ में आगे कहा गया है कि यदि किसी कारणवश समय पर नामकरणसंस्कार नहीं हो पाया हो तो आगे अठारहवें, उन्नीसवें वा सौंवे दिन अथवा अयनान्त में (दक्षिणायन-उत्तरायण) में ये संस्कार होना चाहिए। ध्यातव्य है कि भद्रा, व्यतीपात, सूर्य-चन्द्रग्रहण, अमावस्या या श्राद्ध के दिनों में नामकरण संस्कार न करे। नियत समय पर संस्कार करने पर गुरु-शुक्र के अस्त एवं अधिकमासादि का विचार करने की भी आवश्यकता नहीं है, यानी ये निषिद्ध नहीं हैं।

इस प्रकार ये स्पष्ट है कि जातकर्म, छठिहार, नहटुंगी, बरही आदि के लिए मुहूर्तविचार की आवश्यकता नहीं है, किन्तु उसके आगे नामकरण संस्कार के लिए मुहूर्त का विचार करना चाहिए। श्रीरामदवैज्ञ अपनी पुस्तक—मुहूर्तचिन्तामणि, संस्कार प्रकरण में समुचित निर्देश दिए हैं—

    तज्जातकर्मादि शिशोर्विधेयं पर्वाख्यरिक्तोनतिथौ शुभेऽह्नि।

    एकादशे द्वादशकेऽपि घस्रे मृदुध्रुवक्षिप्रचरोडुषु स्यात् ।।११।।

                                              -१५-

                             नामकरण संस्कार प्रयोग

                   

 नामकरण संस्कार एक विस्तृत विधान है। यहाँ पहले संक्षिप्त क्रिया की चर्चा करते है। पुनः विस्तृत विधान पर बातें होंगी। आंगिककर्म—गौरी-गणेश, कलश-नवग्रहादि पूजन, शिशु को माता की गोद में रखते हुए  करे। काष्ठपीठिका या फूल की थाली में रोली-कुमकुम आदि से पूर्व चयनित सुन्दर-सार्थक-सुरूचिपूर्ण नाम का लेखन करे। उस लेखित नाम का विधिवत संस्कारात्मक पंचोपचार पूजन करे। तत्पश्चात् गुरु-आचार्च, कुल के प्रबुद्ध जन या पिता द्वारा शिशु के कान में धीरे से उच्चरित करे। नामोच्चारण और घोषणा के पश्चात् शिशु को माता की गोद में देकर, आचार्य एवं सुवासिनियों द्वारा माता और शिशु का अक्षताभिषेक करे। इस प्रकार नामकरण संस्कार की क्रिया सम्पन्न होती है।

नामकरणसंस्कार चुँकि सूतिका-निवृत्ति—अशौच समाप्ति के बाद का कर्म है, इसलिए इस दिन सर्वप्रथम संस्काराधिकार प्राप्ति हेतु ब्राह्मण-भोजन संकल्प करना चाहिए। त्रिदेवों के निमित्त तीन ब्राह्मणों का भोजन आवश्यक है। पहले इसके लिए पुष्पाक्षत लेकर संकल्प करले, फिर संस्कार सम्पन्न करे। अन्त में भोजन करावे।

दूसरी बात जो नामकरणसंस्कार में ध्यान रखने योग्य है कि अन्यान्य आंगिकपूजन के साथ-साथ इसमें पञ्चगव्यहोम और पञ्चगव्यप्राशन का विधान है। आंगिक कर्म— स्वस्तिवाचन, गणेशाम्बिकादि पूजन, पंचभूसंस्कार, होमादि हेतु नित्यकर्मपद्धति या इस पुस्तक के परिशिष्ट खण्ड का सहयोग लें। विस्तार एवं पुनरूक्ति से बचते हुए, यहाँ सिर्फ आंशिक संकल्प विशिष्ट एवं पंञ्चगव्यविधान की चर्चा करते हैं।

 

संक्षिप्तसंकल्प— ऊँ अद्य...शर्माऽहं मम अस्य कुमारस्य बीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणेनबलायुर्बर्चोऽभिवृद्धिव्यवहारसिद्धिद्वारा श्री परमेश्वरप्रीत्यर्थं नामकरणसंस्कारं करिष्ये। तस्य पूर्वाङ्गतया स्वस्तिवाचनपुण्याहवाचनं निर्विघ्नतासिद्ध्यर्थं गणेशाम्बिकापूजनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनमायुष्यमन्त्रजपं साङ्कल्पिकेन नान्दीश्राद्धं च करिष्ये। तथाच विहितान् त्रीन् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। एवं नामकरणकर्मणि पञ्चगव्यादिहोमार्थं पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं विधिनामानमग्निस्थापनं च करिष्ये।

(ध्यातव्य है अलग-अलग कार्यों में आहूत किए जाने वाले अग्नि का नाम भिन्न-भिन्न होता है। यहाँ विधि नामक अग्नि को आहूत किया जाता है। तदनुसार अग्नि के आवाहनपूजन का मन्त्र होगा—ऊँ भूर्भुवः स्वः विधिनामाग्ने इहागच्छ इह तिष्ठ सुप्रतिष्ठितो वरदो भव। ऊँ विधिनामाग्नये नमः । )

 

पञ्चगव्य निर्माण विधि—

पंचगव्य में पांच द्रव्य होते हैं—गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत । अतिरिक्त द्रव्य के रूप में कुशोदक भी मिलाने का विधान है। इन्हें मिलाने की विशेष विधि है। क्रम, मात्रा और मन्त्र भी है। ऐसा नहीं कि जैसे-तैसे मिला दिया जाए। विधिवत तैयार पञ्चगव्य बहुत ही महत्वपूर्ण—रोगशोकनाशक है। अद्भुत शुद्धिकरण होता है इसके प्राशन से। पंचगव्य में व्यवहृत द्रव्यों की मात्रा के सम्बन्ध में कहा गया है— मूत्रस्यैकपलं दद्यात्तदर्धं गोमयं स्मृतम्। क्षीरं सप्तपलं दद्याद्दधि त्रिपलमुच्यते। आज्यस्यैकपलं दद्यात्पलमैकं कुशोदकम्।। (परासरस्मृति)

ध्यातव्य है कि एक पल का मान तीन तोला, चार मासा  होता है, जो आधुनिक माप के अनुसार करीब चालीस ग्राम होता है। इस हिसाब से गोमूत्र की मात्रा से आधा गोबर लेना चाहिए (बीसग्राम)। गोदुग्ध की मात्रा गोमूत्र से सात गुना होगी (दो सौ अस्सी ग्राम)। दधि की मात्रा तीन पल (एक सौ बीस ग्राम) एवं गोघृत की मात्रा एक पल (चालीस ग्राम) तथा इतना ही कुशोदक (कुश का धोअन) मिलावे। इन्हें बारी-बारी से एक-एक मन्त्रवाचन करते हुए, ताम्रपात्र, पलाशपुटक वा मृत्तिका पात्र में रखता जाए। यथा—  

१.       ऊँ भूर्भुवःस्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्— (वरुणदेव का ध्यान करते हुए गायत्री मन्त्र से पात्र में गोमूत्र डाले।

२.       गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् । ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्वये श्रियम्। (अग्निदेव का ध्यान करते हुए गोबर डाले)

३.       आप्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम् । भवा वाजस्य सङ्गथे। (चन्द्रमा का ध्यान करते हुए गोदुग्ध डाले)

४.      दधिक्राव्यो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः । सुरभि नो मुखा करत्प्रण आयूषिंतारिषत् । ( वायुदेव का ध्यान करते हुए दधि डाले)।

५.      ऊँ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि धामनामसि प्रियं देवानाममनाधृष्टं देवयजनमसि। (सूर्यदेव का ध्यान करते हुए गोघृत डाले)

६.      देवस्यत्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । (विष्णु का ध्यान करते हुए कुश-जल डाले)

अब, सभी द्रव्यों का मिश्रण हो जाने पर हरित कुश से इस मन्त्र के वाचन सहित आलोड़न करे (चलावे)— ऊँ आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन  महे रणाय चक्षसे ।।

 

नोट— इस प्रकार विधिवत तैयार पञ्चगव्य को सुरक्षित रख लें। इसका प्रयोग आगे आंगिक पूजा के पश्चात् करना है। सर्वप्रथम परिशिष्ट खण्ड में निर्दिष्ट विधि के अनुसार संकल्प की गयी स्वस्तिवाचन, गणेशाम्बिकादि पूजन सहित सभी क्रियाओं को सम्पन्न करना है। वालुकावेदी निर्माण कर पंचभूसंस्कार, ब्रह्मादि वरण करने के बाद पञ्चगव्य होम करना है। विस्तृत रूप से वेदीसंस्कार हेतु परिशिष्टखण्ड का सहयोग लें)।

 

होम विधि —

स्रुवा में घृत लेकर निम्नांकित मन्त्रों से आधार एवं आज्यभाग की चार आहुतियाँ प्रदान करें। इस बीच नियुक्त ब्रह्मा कुशा से हवनकर्ता का स्पर्श किए रहें। प्रत्येक आहुति के बाद शेष घृत प्रोक्षणीपात्र में छिड़के जाए।

१.       ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।

२.       ऊँ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।

३.       ऊँ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये न मम।

४.      ऊँ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।

तदन्तर अनन्वारब्ध व्याहृति होम करे। ब्रह्मा द्वारा कुशा से होता का स्पर्श एवं हुतशेष घृत का प्रोक्षणकार्य पूर्ववत यहाँ भी होगा— ऊँ भूः स्वाहा, इदमग्ने न मम। ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम। ऊँ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।

अब हरित कुशों का स्रुवा की तरह प्रयोग करते हुए अग्रांकित छः मन्त्रों का उच्चारण करते हुए पञ्चगव्य से आहुति प्रदान करें—

१.       ऊँ इरावती धेनुमती हि भूतं सूयवसिनी मनवे दशस्या। व्यस्कभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभइतो मयूखैः स्वाहा। इमं विष्णवे न मम।

२.       ऊँ इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पांसुरे स्वाहा । इदं विष्णवे न मम।

३.       ऊँ मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः। मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे स्वाहा । इदं रुद्राय न मम। (इस आहुति के बाद जल का स्पर्श कर ले)

४.      ऊँ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये । शं योरभि स्रवन्तु नः स्वाहा । इदमद्भ्यो न मम।

५.      ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा । इदं सवित्रे न मम।

६.      ऊँ प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयँ स्याम पतयो रयीणाम् स्वाहा । इदं प्रजापतये न मम।

 

उक्त पञ्चगव्य होम के पश्चात् पञ्चवारूणहोम (प्रायश्चित्तहोम) करे। इसमें प्रत्येक हुतशेष घृत को प्रोक्षणी में छिड़कते रहे—

१.      ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः । यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्र मुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

२.      ऊँ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुणँरराणो वीहि मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा । इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

३.      ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभइशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषजँ स्वाहा। इदमग्नयेऽयसे न मम।

४.     ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः । तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।

५.      ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमँश्रधाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा । इदं वरुणायादित्यायादितये न मम ।

६.     तदनन्तर प्रजापति देवता का ध्यान करते हुए निम्नांकित मन्त्र का मानसिक उच्चारण करते हुए आहुति प्रदान करे— ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।

 

अब स्विष्टकृत् आहुति प्रदान करे। यहाँ भी ब्रह्मा द्वारा कुशास्पर्श होता रहे होता (होमकर्ता) का — ऊँ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।

 

संस्रवप्राशन—होम पूरा हो जाने पर प्रोक्षणीपात्र में छिड़के गए घृत का यत्किंचित् पान करे। हाथ धोकर, आचमन करे।

तत्पश्चात् वेदी के समीप स्थापित प्रणीतापात्र से कुशा द्वारा जल लेकर सिर पर मार्जन करे— ऊँ सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु।

इस मन्त्र से जल को नीचे छिड़के— ऊँ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्यान् द्वेष्टियं च वयं द्विष्मः।

 

अब पवित्रक को अग्नि में छोड़ दे एवं पुष्पाक्षतजल लेकर स्थापित पूर्णपात्र दान हेतु संकल्प बोले— ऊँ अद्य नामकरण-संस्कारहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थ मिदं वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं पूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतं...गोत्राय....शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे।

पूर्णपात्र को यजमान के हाथ से ग्रहण करते हुए ब्रह्मा स्वस्ति बोलें।

 

प्रणीताविमोक एवं मार्जन — अब, प्रणीतापात्र को ईशानकोण में उलटकर रख दे और उपयमनकुशा द्वारा उस जल से सिर पर मार्जन करे, इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक— ऊँ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। ( मार्जनोपरान्त उस कुशा को अग्नि में छोड़ दे।) 

 

बर्हिहोम— अव अग्निवेदी के चारो ओर जिस क्रम से कुशाओं को बिछाये थे, उसी क्रम से उठा-उठाकर, घृत में डुबोकर, इस मन्त्र के उच्चारण पूर्वक अग्नि में डाल दे— ऊँ देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित मनसस्पत इमं देव यज्ञ ᳭᳴᳴ स्वाहा वाते धाः स्वाहा ।

 

तत्पश्चात् सूतिका (शिशु की माता)  पञ्चगव्य का पान करे एवं शिशु का पिता या आचार्य पंचगव्य छिड़क कर सूतिकागृह की शुद्धि का कार्य करे।  तदनन्तर  शिशु को गोद में लेकर माता अग्नि की प्रदक्षिणा करे एवं पूजित देवों को प्रणाम करके, पति के समीप बामभाग में आ बैठे।

अब पीपल के पत्ते अथवा शुभ्रवस्त पर कुमकुमादि से चयनित नामों को अंकित कर— ऊँ भूर्भुवःस्वः बालकनामानि सुप्रतिष्ठितानि भवन्तु—ऐसा कहकर पंचोपचार पूजन करे। तत्पश्चात् पिता या आचार्य हाथ में शंख लेकर, उसी के माध्यम से, यानी शंख को शिशु के कान के समीप लेजाकर, चयनित नाम के आगे दीर्घायुभव कहते हुए, तीन बार उच्चारण करे, साथ ही ऊँ अङ्गादङ्गात्सम्भवसि हृदयादधिजायसे। आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम्।। —  का उच्चारण करे। शंखघोष करे। गुरुजनों को प्रणाम करे। अस्तु।  

नोट— आगे के निष्क्रमणादि संस्कार यदि साथ में  करने हों तो कर ले, अन्यथा आवाहित-पूजित सभी देवों का यथाविधि विसर्जन कर दे।

विसर्जन—  यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्।

                 इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ।

       ।। ऊँ विष्णवे नमः ऊँ विष्णवे नमः ऊँ विष्णवे नमः ।।

 

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