षोडशसंस्कारविमर्श भाग सात- जातकर्म संस्कार - परिचय और प्रयोग

 

जातकर्म संस्कार परिचय

                      

संस्कारों के क्रम में अगला संस्कार है—जातकर्म संस्कार। वस्तुतः ये शिशु के भूमिष्ठ होने के बाद का पहला संस्कार है, तदनुसार इसकी महत्ता भी सर्वाधिक कही जा सकती है। ईश्वर की दी हुयी कच्ची मिट्टी की मूर्ति संसारार्णव में अवतरित हो चुकी है। अब अभिभावकों का कर्त्तव्य है कि उसे किस स्वरूप में ढालें।

इस सम्बन्ध में श्रीमार्कण्डेय पुराण वर्णित—राजा ऋतध्वज और रानी मदलसा का रोचक प्रसंग पुनः-पुनः द्रष्टव्य है— पुत्रजन्म के पश्चात् पिता ने बालक का नाम विक्रान्त रखा, जिससे सबलोग सन्तुष्ट हुए, किन्तु रानी मदालसा हँसने लगी। पूछे जाने पर किसी से कुछ बोली नहीं, किन्तु गोद में पड़े रोते हुए बालक को लक्ष्य करके गाने लगी—

शुद्धोसिऽरे तात न तेऽस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।

पञ्चात्मकं देहमिदं तवैतन्नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो:॥२५।११।।

हे तात ! तू तो बिलकुल शुद्ध है, तेरा कोई नाम नहीं है। चुँकि तूने पञ्चात्मक (पंचतत्त्वात्मक) देह धारण किया है, इसलिये तेरा नाम कल्पित किया गया है। तू रो क्यों रहा है?

तथाच—

शुद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोऽसि  संसारमाया परिवर्जितोऽसि ।

संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रां  मदालसा वाक्यमुपास्व पुत्र ।।

 

माता मदालसा इसी भाँति नित्य वैराग्यभावापन्न अनेक लोरियाँ सुनाती रहती। उक्त मार्कण्डेयपुराण में बीसवें से अठाइसवें अध्याय तक विस्तृत वर्णन है इस विषय का।  

लोरी के प्रभाव से बालक विरक्त होकर, मोक्षमार्गी हो गया। राजा ऋतध्वज के क्रमशः चार पुत्र हुए, जिनमें प्रथम तीन को तो लोरी सुना-सुनाकर विरक्त बना डाली, किन्तु राजा के अनुनय-विनय से, वंश-विस्तार हेतु चौथे पुत्र अलर्क को राजा को सौंप दी, एक गोपनीय ज्ञान सूत्र देकर।

            अभिप्राय ये है कि सचेष्ट रहकर हम अपनी सन्तान को कच्ची मिट्टी की भाँति मनोवांछित स्वरूप प्रदान कर सकते हैं। इस क्रम में सर्वप्रथम संस्कार है जातकर्म संस्कार।

            आधुनिक समय में कुछ लोग शुभमुहूर्त विचार कराकर, ऑपरेशन से बच्चे को गर्भ से बाहर लाते हैं, जबकि ये मदालसा जैसी ही हँसने वाली बात है। जन्म-मृत्यु जैसी अकाट्य और सुनिश्चित घटना को भी आधुनिक विज्ञान अपनी मुट्ठी में कैद करना चाहता है। परीक्षा के तौर पर मैंने अपने ज्योतिषीय अनुभव में कई बार पाया है कि बहुत सोच-विचार कर दिए गए मुहूर्त का भी पालन नहीं हो पाता। होता वही है, जो होना दैवाधीन है।

         इस संस्कार के मुख्य उद्देश्यमें कहा गया है कि गर्भस्थ शिशु, जिसका पोषण मातृरस पर अवलम्बित है, उसमें किंचित् आहारादि दोष संग्रहित हो जाते हैं, तत्शुद्ध्यर्थ ये संस्कार आवश्यक है—गर्भाम्बुपानजो दोषो जातात् सर्वोऽपि नश्यति। (स्मृतिसंग्रह) महर्षि पारस्कर कृत गृह्यसूत्र १-१६-३ में निर्दिष्ट है— जातस्य कुमारस्याच्छिन्नायां नाड्यां मेधाजननायुष्ये करोति । (उत्पन्न बालक के नालछेदन से पूर्व ही मेधाजनन एवं आयुष्यकर्म संस्कार किया जाता है।) ये संस्कार पिता का कर्म है, यानी पिता द्वारा ही होना चाहिए। अभाव में पितातुल्य अन्य व्यक्ति द्वारा सम्पन्न किया जाय। इन बातों का समर्थन महर्षि मनु भी करते हैं—प्राक् नाभिवर्द्धनात् पुंसो जातकर्म विधीयते।

(जातकर्मसंस्कार चुँकि सद्यःजात शिशु के नालछेदन-पूर्व की क्रिया है, इस कारण इसके लिए किसी विशेष मुहूर्त या शुद्धि-अशुद्धि के विचार की आवश्यकता नहीं है। )

विदित है कि भूमिष्ठ शिशु मातृगर्भ से तो बाहर आ जाता है, किन्तु कमलनाल से उसका सम्बन्ध जुड़ा रहता है। इस नाडी सम्बन्ध विच्छेद की क्रिया को ही नालछेदन-कर्म कहते हैं।

नालछेदन में बहुत अधिक विलम्ब नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसका दुष्प्रभाव शिशु पर पड़ता है। सुश्रुतसंहिता के दसवें अध्याय,  चरकसंहिता शारीरस्थान के आठवें अध्याय,  प्रसूतितन्त्रम् एवं कौमार्यभृत्यादि आयुर्वेदग्रन्थों में नवजातशिशु के बालग्रह उपद्रव-लक्षण, नालछेदनादि के सम्बन्ध में पर्याप्त वर्णन मिलता है। निर्णयात्मक निर्देश ये है कि अधिकतम बारह से सोलह घटी (चार से छः घंटे ) प्रतीक्षा की जा सकती है। इस संकेतानुसार इतना समय पर्याप्त है, यदि हम तत्पर रहें जातकर्मसंस्कार हेतु।

प्रसंगवश यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ—किसी को संशय हो सकता है कि जननाशौच और मरणाशौच दोनों को शास्त्रों ने किंचित् अन्तर के साथ समान रूप से स्वीकारा है। ऐसे में प्रसूतिकागृह जैसे दूषित (अपवित्र) स्थान पर,जनन जनित अशौच की स्थिति में ये गौरी-गणेशादि पूजन कैसे?

ध्यातव्य है जातकर्मसंस्कार की क्रिया नालछेदन से पूर्व का विधान है, क्योंकि नालछेदन के पश्चात् ही जननाशौच जनित दोष लगता है। वीरमित्रोदय- संस्कारप्रकाश में महर्षि जैमिनी के वचन से भी इस शंका का समाधान मिलता है—     

  यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्।

       छिन्ने नाले ततः पश्चात्सूतकं तु विधीयते।। (जबतक नालछेदन नहीं होता, तबतक जननाशौच मान्य नहीं)। 

 ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि सन्तानोत्पत्ति होने पर पितृगण स देवगण उस परिसर में हर्षित-प्रफ्फुलित विचरण करते हैं। विशेषकर पितरगण विशेष आशान्वित रहते हैं—अपने कुल में नये सदस्य के अवतरण से। इस कारण वह दिन पुण्यकाल की तरह होता है। अतः यथाशक्ति गो, भूमि, सुवर्णादि दान करना चाहिए और यथोक्त देवी-देवताओं का पूजन करके, उत्सव मनाना चाहिए। इस सम्बन्ध में वृद्धयाज्ञवल्क्यजी के वचन हैं— कुमारजन्मदिवसं विप्रैः कार्यः प्रतिग्रहः। (पुत्रजन्म के दिन ब्राह्मणों को दान देना चाहिए।) पिता को चाहिए कि सन्तान्नोत्पत्ति का सुसंवाद पाते ही अपने कुलदेवता एवं पूज्यजनों को प्रणाम करे। तत्पश्चात् शिशु का मुखावलोकन करे। मूलादि अशुभ योगों में, जहाँ पिता द्वारा बालक का मुख देखना वर्जित है, वैसी स्थिति में बिना मुंह देखे ही, उत्तराभिमुख सवस्त्र स्नान करे। तथाच महर्षि व्यास के वचन हैं— पुत्रजन्मनि यात्रायां शर्वर्यां दत्तमक्षयम्। (शर्वरी=रात्रि) स्नानदानादि के समर्थन में और भी वचन हैं— रात्रौ स्नानं न कुर्वीत दानं चैव विशेषतः । नैमित्तकं तु कुर्वीत स्नानं दानं च रात्रिषु।। यहाँ ध्यान देने योग्य बात ये है कि सामान्यस्थिति में रात्रि स्नान वर्जित है, विशेषकर निशीथकाल (रात्रि के मध्य दो प्रहरों में), किन्तु ग्रहणसूतकादि तथा अन्य नैमित्तिक स्नान की वर्जना नहीं है। इस सम्बन्ध में महर्षि संवर्त के वचन हैं— जाते पुत्रे पितुः स्नानं सचैलं तु विधीयते । माता शुद्धेद्दशाहेन स्नानात्तु स्पर्शनं पितुः ।। ( माता तो दशवें दिन शुद्ध होगी, किन्तु पिता सद्यः स्नान से शुद्ध हो जायेगा।) ध्यातव्य है कि यहाँ ये अर्थ न लगा लिया जाए कि पिता पूर्णतया शुद्ध हो गया। नालछेदनोपरान्त शुरु होने वाला जननाशौच से पूर्ण निवृत्ति तो दसवें दिन (लोकाचार में नौवें दिन) ही होगी।

जननाशौच में दूसरे-तीसरे दिन ही प्रसूतिकास्नान के पश्चात् आंशिक शुद्धि हो जाती है। पुनः छठे दिन (छठीहार)  किंचित् और शुद्धि हो जाती है। पुनः नौवें दिन थोड़ी और शुद्धि हो जाती है और बारहवें दिन (बरही) तक तो सगोत्र शुद्धि मिल जाती है। सिर्फ प्रसूता के लिए बीस दिन ( बिसौर) का आंशिक अशौच रह जाता है।

 

            यहाँ एक और बात स्पष्ट करना समीचीन है कि पुरानी लोकरीति में धाय (चमारिन) और आधुनिक परम्परा में अस्पताल की सेविका (नर्स) ये काम करती है, किन्तु वस्तुतः नालछेदनकर्म पिता द्वारा ही होना चाहिए। हालाँकि इसे जान कर सामान्यजन को घोर आपत्ति और अविश्वास हो सकता है। ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे दाहसंस्कार में अन्त्यज (डोम) से अग्नि लेने की गलत परम्परा चल पड़ी है, जिसके लिए रानी शैव्या और राजा हरिश्चन्द्र वाले प्रसंग का उदाहरण दे दिया जाता है, जबकि शास्त्रों का स्पष्ट (कठोर) निर्देश है कि शव का स्पर्श भी गैरगोत्रियों से वर्जित है।

 

अब इस संस्कार के व्यावहारिक पक्ष पर जरा विचार कर लें। उक्त जातकर्मसंस्कार हेतु व्यावहारिक कठिनाइयाँ हो सकती है। पहले की भाँति आजकल घरों में प्रसूतिकागृह की व्यवस्था तो कहीं होती ही नहीं । अब तो भवन, प्रासाद वा गृह का ही अभाव है। आधुनिक म्लेच्छबहुल सभ्यता आपार्टमेंटी हो गयी है। किंचित् अपवादों को छोड़कर प्रायः प्रसव अस्पतालों में ही होते है। ऐसे में वहाँ विधिवत जातकर्मसंस्कार सम्पन्न करने में व्यावहारिक रूप से परेशानियाँ ही परेशानियाँ हैं।

अतः परिहार स्वरूप इसे अगले संस्कार के साथ जोड़ा जा सकता है।

 

हालाँकि किसी नियम-संयम के औचित्य और महत्त्व को समझने की आवश्यकता है। यदि हम सनातनी विधि-विधानों का निष्ठा से पालन करना चाहें तो कोई विशेष कठिनाई नहीं होगी। चाहने वाला मार्ग ढूढ़ेगा और न चाहने वाला सिर्फ कठिनाइयों का रोना रोयेगा। किन्तु चाहने वाले को कोई न कोई राह मिल ही जायेगा। गुरुकुल परम्परा वाली आधुनिक संस्थायें, जहाँ संस्कार विद्यालय से लेकर आधुनिक तकनीकि वाले सुव्यवस्थित समृद्ध औषधालय की भी व्यवस्था है, योग्य वैदिक कर्मकाण्डी भी नियुक्त किए जा सकते हैं और प्रसूतिकागृह में ये सुविधाएँ दी जा सकती हैं।

 

                                जातकर्म संस्कार प्रयोग

              देश-काल-पात्र को ध्यान में रखते हुए, यथापूर्व विस्तृत विधान की सम्पन्नता हो सके तो अति उत्तम, अन्यथा जातकर्म संस्कार हेतु अति संक्षिप्त रीति से अन्य संस्कारों में किए जाने वाले कर्मकाण्डों को करने का भी निर्देश है। इसके लिए एक थाली में पहले से गौरी-गणेश, कलशादि सजा कर पहले से ही रख लेना चाहिए। शिशु के प्रथम रूदन के तत्काल बाद, सामान्य साफ-सफाई करके, माता के गोद में देकर, पिता द्वारा जातकर्मसंस्कार की क्रिया सम्पन्न करनी चाहिए। स्वस्तिवाचन, गणेशगौर्यादि पूजनोपरान्त स्वर्णशलाका में थोड़ा सा मधु लगाकर (लेखनी की तरह प्रयोग करते हुए) शिशु की जिह्वा को सावधानी पूर्वक पकड़ कर, कुल परम्परानुसार बीज मन्त्र का लेखन कर देना चाहिए। तत्पश्चात् नालछेदन की क्रिया सम्पन्न होनी चाहिए। संस्कारमयूषादि ग्रन्थों में जातकर्मसंस्कार की विस्तृत विधि का उल्लेख है। यथासम्भव इनका पालन होना चाहिए।

अब शिशु के स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र में लपेटकर, पुनः माता की गोद में दे दे। माता की अँजुलि को अक्षतपूरित करके सुवासिनियों द्वारा और चुमावन (अक्षताभिषेक) की क्रिया सम्पन्न करे। पिता अथवा आचार्य द्वारा अभिषेक के वैदिक वा पौराणिक मन्त्रों का सस्वर पाठ साथ-साथ होते रहे। इस प्रकार जातकर्मसंस्कार का विधान पूरा होना चाहिए।

नोट— ध्यातव्य है कि सन्तानोत्पत्ति का मुहूर्त-विचार नहीं होता, क्योंकि ऐसा नियम नहीं है कि इस मुहूर्त में बालक जन्म ले और इस मुहूर्त में जन्म न ले। जन्म और मृत्यु पूर्व सुनिश्चित है। अतः जातकर्मसंस्कार के लिए सामान्य पञ्चाङ्गशुद्धिविचार की भी आवश्यकता नहीं है, भले ही इसके बाद के कर्म – सूतिका का प्रथम स्नान, अन्नादि पथ्य-सेवन इत्यादि कार्यों के लिए  यथासम्भव शुभ मुहूर्त का विचार करना चाहिए। सामान्य पंचांगों से भी इन नियमों की जानकारी ली जा सकती है।

जातकर्मसंस्कार का विस्तृत प्रयोगविधि— सन्तानोत्पत्ति का सुसंवाद मिलते ही कुलेदवता, गुरुजनादि को प्रणाम करने के पश्चात् पिता को सन्तान का मुखदर्शन करके (मूलादि नक्षत्रों में मुख देखे वगैर ही), सवस्त्र स्नान करे। तदनन्तर स्वच्छ वस्त्र धारण करके, सूतिकागृह में जल-गोमयादि से शुद्ध भूमिपर पूर्वाभिमुख आसन लगाकर, शिखाबन्धन, तिलकधारण, आचमन इत्यादि के पश्चात् सर्वप्रथम घृतदीप प्रज्वलित करे तथा सभी पूजनसामग्रियों को सुव्यवस्थित कर स्वस्तिवाचन, संकल्पादि सम्पन्न करे। यहाँ सुविधा के लिए तात्कालिक संक्षिप्त संकल्पवाक्य दिए जा रहे हैं। (विशेष के लिए पुस्तक के परिशिष्टखण्ड का अवलोकन करें)—

ऊँ अद्येत्यादि...मम जातस्य पुत्रस्य जरायुजटितविविधोच्चावचमातृचर्चितान्नविषमार्तिकगर्भाम्बुपानजनितसकलदोषनिर्बहणपूर्वकं श्रीपरमेश्वरप्रीतिद्वारा आयुमेधाभिवृद्धिबीजगर्भ-समुद्भवैनोनिर्बहणार्थं जातकर्माख्यसंस्कारं करिष्ये। तत्पूर्वाङ्गतया स्वस्तिपुण्याहवाचनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनं आयुष्यमन्त्रजपं सांकल्पिकेन विधिना नान्दीमुखश्राद्धं च करिष्ये।

            अब संकल्पवाक्य में कहे गए सभी आंगिककर्मों को यथाक्रम सम्पन्न करने के पश्चात् जातकर्मसंस्कार के मुख्य कर्मों को करना चाहिए। इस मुख्य कर्म के भी षोडश (१६) आंगिक कर्म हैं, जिनका निर्देश आगे क्रमिक रूप से किया जा रहा है—

१.       मेधाजननकर्म—  इसके अन्तर्गत असमान मात्रा में घृत और मधु मिलाकर सुवर्णशलाका (अभाव में अनामिका अँगुली) से शिशु की जिह्वा पर— ऊँ भूस्त्वयि दधामि । ऊँ भुवस्त्वयि दधामि। ऊँ स्वस्त्वयि दधामि। ऊँ भूर्भुवः स्वः सर्वं त्वयि दधामि। तथाच पारम्परिक कुलबीज मन्त्र का भी लेखन कर दे। (घृत और मधु समान मात्रा में विषवत होता है, जबकि असमानमात्रा अमृतवत होती है। अतः किसी भी प्रयोग में मात्रा की असमानता का ध्यान रखना चाहिए)

२.      आयुष्यकरणकर्म— अब पिता (अयोग्य की स्थिति में आचार्य) नवजात के दाहिने कान अथवा नाभि के पास मुँह ले जाकर, अग्रांकित  वेदमन्त्रों का एक या तीन बार उच्चारण करे—

१.       ऊँ अग्निरायुष्मान् स वनस्पतिभिरायुष्माँस्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि।

२.       ऊँ सोम आयुष्मान् स ओषधीभिरायुष्माँस्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि।

३.       ऊँ ब्रह्मायुष्मत्तद् ब्राह्मणैरायुष्मत्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि।

४.      ऊँ देवा आयुष्मन्तस्तेऽमृतेनायुष्मन्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि।

५.      ऊँ ऋषय आयुष्मन्तस्ते व्रतैरायुष्मन्तस्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि।

६.      ऊँ पितर आयुष्मन्तस्ते स्वधाभिरायुष्मन्तस्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि।

७.      ऊँ यज्ञ आयुष्मान् स दक्षिणाभिरायुष्माँस्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि।

८.      ऊँ समुद्र आयुष्मान् स स्रवन्तीभिरायुष्माँस्तेन त्वाऽऽयुषाऽऽयुष्मन्तं करोमि।

९.      ऊँ त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्। यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्।।

३.      आयुष्यमन्त्रों द्वारा शिशु का अभिमर्षण— तत्पश्चात् पिता (अयोग्यस्थिति में आचार्य) नवजात शिशु की दीर्घायुकामना से उसके शरीर का अपनी हथेली से स्पर्श करते हुए निम्नांकित ग्यारह (शुक्लयजुर्वेद १२ । १८ से २८ तक) मन्त्रों का वाचन करे—

१.      ऊँ दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्निरस्मद् द्वितीयं परि। जातवेदाः। तृतीयमप्सु नृमणा अजस्रमिन्धान एनं जरते स्वाधीः।।

२.      ऊँ विद्या ते अग्ने त्रेधा त्रयाणि विद्या ते धाम विभृता पुरुत्रा। विद्या ते नाम परमं गुहा यद्विद्या तमुत्सं यत आजगन्ध।।

३.      ऊँ समुद्रे त्वा नृमणा अप्स्वन्तर्नृचक्षा ईधे दिवो अग्न ऊधन्। तृतीये त्वा रजसि  तस्थिवा ᳭᳴ समपामुपस्थे महिषा अवर्धम्।।

४.     ऊँ अक्रन्ददग्नि स्तनयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद्वीरुधः समञ्जन् । सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धो अख्यदा गेदसी भानुना भात्यन्तः।।

५.      ऊँ श्रीणामुदारो धरुणो रयीणां मनीषाणां प्रार्पणः सोमपोपाः । वसुः सूनुः सहसो अप्सु राजा वि भात्यग्र उषसामिधानः ।।

६.     ऊँ विश्वस्य केतुर्भवनस्य गर्भ आ रोदसी अपृणाज्जायमानः । वीडुं चिदद्रिमभिनत् परायञ्जना यदग्निमयजन्त पञ्च।।

७.     ऊँ उशिक् पावको अरतिः सुमेधा मर्तेष्वग्निरमृतो नि धायि । इयर्त्ति धूममरुषं भरिभ्रदुच्छुकेण शोचिषा द्यामिनक्षन्।।

८.      ऊँ दृशानो रुक्म उर्वा व्यद्यौद्दुर्मषमायुः श्रिये रुचानः। अग्निरमृतो अभवद्वयोभिर्यदेनं द्यौरजनयत्सुरेताः।।

९.      ऊँ यस्ते अद्य कृणवद्भद्रशोचेऽपूपं देव घृतवन्तमग्ने । प्र तं नय प्रतरं वस्यो अच्छाभि सुम्नं देवभक्तं यविष्ठ।।

१०.  ऊँ आ तं भज सौश्रवसेष्वग्न उक्थ उक्थ आ भज शस्यमाने । प्रियः सूर्ये प्रियो अग्ना भवात्युज्जातेन भिनदुज्जनित्वैः।।

११.  ऊँ त्वामग्ने यजमाना अनु द्यून् विश्वा वसु दधिरे वार्याणि । त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः।।

 

४.     अनुप्राणन— तत्पश्चात् नवजात शिशु के चारो ओर (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण) एक-एक ब्राह्मण को बैठा दे तथा बीच में अथवा नैर्ऋत्यकोण में पाँचवें ब्राह्मण को ऊर्ध्वदृष्टि रखते हुए (ऊपर देखते हुए) बैठावे। यदि पाँच ब्राह्मण तत्काल सम्भव न हों तो शिशु का पिता ही बारी-बारी से पाँचो स्थानों पर जा-जाकर मन्त्रोच्चारण करे (अर्थात् स्वयं का और ब्राह्मण का वाक्य स्वयं ही बोले)। यथा—

पूर्वमें — पिता—ऊँ इममनुप्राणित। ब्राह्मण—प्राणेति। दक्षिण में—पिता—ऊँ इममनुप्राणित। ब्राह्मण—व्यानेति ।

पश्चिम में—पिता—ऊँ इममनुप्राणित। ब्राह्मण—अपानेति।

उत्तर में—पिता—ऊँ इममनुप्राणित। ब्राह्मण— उदानेति।

बीच में—पिता—ऊँ इममनुप्राणित। ब्राह्मण—समानेति।

 

५.      जन्मभूमि अभिमन्त्रण— तत्पश्चात् शिशु जहाँ भूमिष्ट हुआ है, उस स्थान पर पिता अपने दाहिने हाथ की अनामिका अँगुलि का स्पर्श करते हुए बोले—ऊँ वेद ते भूमिहृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रियम् । वेदाहं तन्मां तद्विद्यात्पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रृणुयाम शरदः शतम्।।

 

६.     शिशु-स्पर्श—तत्पश्चात् पिता शिशु का स्पर्श अपनी हथेली से करे इस मन्त्र को बोलते हुए— ऊँ अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमास्रुतं भव। आत्मा वै पुत्रनामासि त्वं जीव शरदः शतम्।।

 

७.     माता का अभिमन्त्रण— तत्पश्चात् शिशु की माता की ओर देखते हुए, पिता इस मन्त्र का उच्चारण करे— इडासि मैत्रावरुणी वीरे वीरमजीजनथाः। सा त्वं वीरवती भव याऽस्मान् वीरवतोऽकरत् ।।

 

८.      दक्षिणस्तन्यपान— तत्पश्चात् सूतिका के (शिशुमाता) के दाहिने स्तन को स्वच्छजल से अच्छी तरह धुलवाये, चुचुक को कोमलता से मसलकर स्वच्छ करे, तदुपरान्त शिशु को स्तनपान कराये। इस क्रम में ये मन्त्रोच्चारण करता रहे—ऊँ इमं स्तनमूर्जस्वन्तं धयायां प्रपीनमग्ने सरिरस्य मध्ये । उत्सं जुषस्व मधुमन्तमर्वन्त्समुद्रियंसदनमा विशस्व।

९.      वामस्तन्यपान— तत्पश्चात् सूतिका(शिशुमाता) के वामस्तन को स्वच्छजल से अच्छी तरह धुलवाये, चुचुक को कोमलता से मसलकर स्वच्छ करे, तदुपरान्त शिशु को स्तनपान कराये। इस क्रम में ये मन्त्रोच्चारण करता रहे— ऊँ यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः । येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवेऽकः।। ऊँ इमं स्तनमूर्जस्वन्तं धयापां प्रपीनमग्ने सरिरस्य मध्ये। उत्सं जुषस्व मधुमन्तमर्वन्त्समुद्रियंसदनमा विशस्व।

१०.  विविध वस्तु दान— तदुपरान्त यथाशक्ति अन्न, वस्त्र, गो, भूमि, सुवर्ण, तिल, मधु, घृत, गुड़ आदि विविध वस्तुओं का दान करे।

११.  शैय्यासन्निकट कलशस्थापन— अब रक्षानिमित्त सूतिका के सिरहाने भूमिपर जलपूर्ण घट स्थापित करे अग्रांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक, जो आगामी नौ दिनों (लोकाचार में दस) तक, यानी सूतक निवृत्ति पर्यन्त स्थापित रहेगा— ऊँ आपो देवेषु जाग्रथ यथा देवेषु जाग्रथ एवमस्यां सूतिकायां सपुत्रिकायां जाग्रथ।।

१२.  सूतिकाग्निहोम— तदुपरान्त सूतिकागृह के द्वारदेश में बालुकावेदी पर अग्निस्थापन करे, जो सूतकनिवृत्ति पर्यन्त रक्षित रहना चाहिए। (ध्यातव्य है कि हवनवेदी की भाँति इस अग्निवेदी का भी पंचभूसंस्कार होना चाहिए। अन्तर इतना ही है कि यहाँ ब्रह्मकलश, प्रणीता और प्रोक्षणी की स्थापना नहीं होगी। )

         वेदी संस्कारोपरान्त पुष्पाक्षतजलादि लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य....जातकर्मानुष्ठानसिद्धिद्वारा सूतिकागृह द्वारे प्रगल्भनामाग्नि-स्थापनं करिष्ये।

अग्निस्थापन मन्त्र— ऊँ अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुपब्रुवे । देवाँ आ सादयादिह।।

अग्निस्थापन के बाद कुशपरिस्तरण करे और अग्नि को प्रज्वलित करके, पंचोपचार पूजन करे—ऊँ प्रगल्भाग्नये नमः मन्त्र से।  

इसके बाद धान की भूसी, चावल की कनी, गेहूँ का चोकर (आटा छानने के बाद का अवशिष्ट) और पीली सरसो इत्यादि के मिश्रण से दो आहुति प्रदान करे, अग्रांकित मन्त्रो से— ऊँ शण्डामर्का उपवीरः शौण्डिकेय उलूखलः । मलिम्लुचो द्रोणासश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा।। इदमग्नये न मम। ऊँ आलिखन्न निमिषः किं वदन्त उपश्रुतिर्हर्यक्षः कुम्भीशत्रुः पात्रपाणिर्नृमणिर्हन्त्रीमुखः सर्षपारुणश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा। इदमग्नये न मम।

नोट— उक्त दोनों मन्त्रों से नौ (दस) दिनों तक नित्य प्रातः-सायं दो-दो आहुतियाँ दी जानी चाहिए। इस प्रकार दस दिनों में कुल चालीस आहुतियाँ प्रदान करनी है। जहाँ लोकाचार में नौ दिनों का ही अशौच माना जाता हो, वहाँ अन्तिम दिन शेष अतिरिक्त आहुति प्रदान कर,चालीस की संख्या पूरी कर देनी चाहिए। ध्यातव्य है वर्तमान परिवेश में जहाँ घरों में प्रसूतिकागृह के प्रचलन का नितांत अभाव है और अस्पतालों में प्रसव की व्यवस्था है, नौ-दस दिनों के लिए कलशस्थापन और अग्निस्थापन असम्भव है। ऐसे में सूतिका के घर वापसी के पश्चात् ये क्रिया घर में भी सम्पन्न की जा सकती है ।

१३.  दक्षिणासंकल्प— ऊँ अद्य....जातस्य पुत्रस्य कृतैतज्जात-कर्माख्यसंस्कारकर्मणः साङ्गतासिद्धये साद्गुण्यार्थं च इमां दक्षिणां नानानामगोत्रेभ्यो ब्रह्मणेभ्यो विभज्य दास्ये यथाशक्ति ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। (यहाँ द्रव्य दक्षिणा सहित भोजनार्थ अतिरिक्त द्रव्य भी प्रदान कर ही देना उचित है। अथवा सूतिकानिवृत्ति के बाद दसवें दिन भोजन करावे) क्यों कि अब अगला कर्म नालच्छेदन का है और इसके साथ ही सूतिकादोष लागू हो जायेगा।

१४. मातृकादि विसर्जन— पुष्पाक्षत लेकर आवाहित देवों का विसर्जन करे— यान्तु मातृगणाः सर्वे स्वशक्त्या पूजिता मया। इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ।।

१५.  नालच्छेदन— तदुपरान्त मोटे धागे से नाभिदेश से आठ अंगुल छोड़कर नाभि से लगे नाल का तेज धारदार छुरिका से छेदन करना चाहिए। ध्यातव्य है कि ये कार्य पिता द्वारा ही सम्पन्न किया जाना चाहिए। क्योंकि ये धायकर्म नहीं है।

१६. भगवत्स्मरण— हस्त प्रक्षालन एवं आचमन करके, भगवत्स्मरण करे। यहाँ इस बात का संशय न हो कि नालच्छेदनोपरान्त सूतिकादोष (अशौच) लागू हो गया, ऐसे में भगवत्समरण कैसे? भगवत्पूजन और स्मरण में पर्याप्त भेद है। स्मरण तो जननाशौच और मरणाशौच में भी किया ही जा सकता है।

 

 प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। स्मरणादेव तद् विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः।। यस्यस्मृत्वा च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ।। यत्पादपङ्गजस्मरणाद् यस्य नामजपादपि । न्यूनं कर्म भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम् ।। ऊँ विष्णवे नमः, ऊँ विष्णवे नमः, ऊँ विष्णवे नमः ।। ऊँ साम्बशिवाय नमः, ऊँ साम्बशिवाय नमः, ऊँ साम्बशिवाय नमः।

 

१७. पूतनादि बालग्रहजनित व्याधिशमनार्थ अभिमर्शनकर्म — नौ-दस दिनों के सूतककाल में शिशु को किसी प्रकार की पीड़ा (परेशानी) हो जैसे— अकारण रोता हो, सुस्त रहता हो, चिंउँक कर जग जाता हो, शरीर की समुचित गति न करता हो, ऐसी स्थिति में पिता शिशु को गोद में लेकर निम्नांकित चार मन्त्रों का उच्चारण करते हुए अभिमर्शन कर्म करे यानी शिशु के शरीर पर अपना हाथ फेरे—

१.      कूर्कुरः सुकूर्कुरः कूर्कुरो बालबन्धनः । चेच्चेच्छुनक सृज नमस्ते अस्तु सीसरो लपेतापह्वर तत्सत्यम् ।

२.      यत्ते देवा वरमद्दुः स त्वं कुमारमेव वा वृणीधाः।। चेच्चेच्छुनक सृज नमस्ते अस्तु सीसरो लपेतापह्वर तत्सत्यम् ।

३.      यत्ते सरमा माता सीसरः पिता श्यामशबलौ भ्रातरौ चेच्चेच्छुनक सृज नमस्ते अस्तु सीसरो लपेतापह्वर तत्सत्यम्।

४.     न नामयति न रुदति न हृष्यति न ग्लायति यत्र वयं वदामो यत्र चाभिमृशामसि।

             

                 00000000  क्रमशः जारी 0000000000

              

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