-१६- निष्क्रमण,सूर्यावलोकन,भूम्योपवेशन,दोलारोहण परिचय
ज्ञातव्य है कि नवजात शिशु के अंग—विशेषकर
आँखें बहुत ही सुकुमार होती है, जिन्हें तीखी रौशनी, तेज हवा आदि से बचाने की
आवश्यकता होती है। इस कारण कमरे के अन्दर ही पर्याप्त सुरक्षा में रखा जाना
चाहिए। सूतिका का आंतरिक शरीर भी काफी
दुर्बल और अव्यवस्थित स्थिति में रहता है। जच्चा-बच्चा दोनों की सुरक्षा का ध्यान
रखना अपेक्षित है।
इनके लिए सामान्य शुभमुहूर्त का
यथासम्भव विचार करना चाहिए। शिशु जन्म के दशवें, बारहवें, सोलहवें, अठारहवें वा
बत्तीशवें दिन शुभ वारों में, मृदु, लघु, ध्रुवसंज्ञक नक्षत्रों में बालक को
हिंडोले पर बैठाना शुभ है। इन्हीं दिनों में निष्क्रमण भी हो सकता है। अथवा
सुदीर्घ प्रतीक्षा सम्भव हो तो चौथे महीने में पंचांग शुद्धि का विचार करते हुए
शिशु को सर्वप्रथम घर से बाहर निकालना चाहिए।
पारस्करगृह्यसूत्र १-१७-५,६ में
कहा गया है— चतुर्थे मास निष्क्रमणिका... । ... सूर्यमुदीक्षयति तच्चक्षुरिति...।
...पञ्चमे च तथा मासि भूमौ तमुपवेशयेत् । समय, स्थान और स्थिति को देखते
हुए इसे पहले भी किया जा सकता है। बृहस्पति निष्क्रमण की स्पष्टी करते हुए कहते
हैं— अथ निष्क्रमणं नाम गृहात्प्रथम निर्गमः। स्पष्ट है कि सोच-समझ कर
निष्क्रमण कर्म करे। भविष्यपुराण में उक्त बारहवें दिन ही निष्क्रमण का निर्देश
है। लोकाचारानुसार बारहवें दिन कई क्रियायें प्रायः सम्पन्न कर ली जाती हैं, जो
शास्त्रसम्मत हैं। भले ही आजकल जनमते ही विशेष तरह के पोशाक में बच्चे को लपेट
दिया जाता है, किन्तु विधिवत नूतन वस्त्र प्रदान करने के लिए छठी वा बरही पूजा का
दिन ही प्रशस्त है लोकरीति में।
शिशु को सीधे भूमि-स्पर्श से भी बचना
चाहिए। इसका यौगिक और वैज्ञानिक सुपुष्ट आधार है। नवजात शिशु सांसारिक दोषों से
निर्लिप्त होता है। उसके शरीर में स्वच्छ विद्युतधारा सदा प्रवाहित होते रहती है।
वैचारिक मलीनता का लेशमात्र भी उसमें नहीं होता। ध्यातव्य है कि पृथ्वी
विद्युतऊर्जा का सुचालक और कुचालक दोनों ही है। शिशु के कोमल शरीर पर इसका
दुष्प्रभाव पड़ सकता है, इस कारण सीधे जमीन के सम्पर्क में न आने दिया जाए।
चार-पांच महीनों बाद जब करवटें बदलने योग्य हो जाए, बैठने लगे, उस समय पुनः पंचांग
शुद्धि का विचार करते हुए, गोबर से पृथ्वी का लेपन करके (लीप-पोतकर) संक्षिप्त
विधि से भूमिपूजन करके, उस गोमय-शोधित भूमि पर थोड़ी देर के लिए शिशु को बैठावे।
बैठाने के क्रम में सबसे पहले उसके तलवों का स्पर्श करावे— ऊँ पृथ्विति०
इत्यादि मन्त्रों से। तत्पश्चात् भूम्योपवेशन करे।
शिशु के लिए नया झूला, पर्यंक आदि
बनवाया जाता है। अतः दोलारोहण,पर्यंकारोहणादि का भी विचार शास्त्रों में किया गया
है। यदि अलगसे इस कार्य को करते हैं, तो भी शुभ मुहूर्त का विचार और संक्षिप्त
रीति से गणेशाम्बिकादिपूजन तो करना ही चाहिए। मन्त्र और अधिष्ठात्री देवों की कृपा
से ही संसार में हमें सुखोपभोग मिलता है और इनकी असन्तुष्टि से ही कष्ट भी भोगने
पड़ते हैं। अतः भारतीय सनातन परम्परा का यथासम्भव निर्वहण होना चाहिए।
यूँ तो किसी भी व्यक्ति केलिए
शयन-शैय्यादि की दिशा का ध्यान रखना आवश्यक है, किन्तु शिशु के लिए विशेष ध्यान
देना चाहिए। शिशु को कभी भी उत्तर सिर करके न सुलावे। सिरहाने के विचार स पूर्व, दक्षिण
प्रथम श्रेणी में हैं एवं पश्चिम द्वितीय श्रेणी में। कक्ष का आन्तरिक वास्तु भी
यथासम्भव विचारणीय और पालनीय है। आजकल लोग इन बातों पर ध्यान नहीं देते, जिसका
दुष्परिणाम जाने-अनजाने भुगतते रहते हैं।
गोदुग्धपान
भी उक्त संस्कारों का ही उपांग है। ध्यातव्य है कि माता का स्तनपान तो विधिवत
जातकर्मसंस्कार के समय ही (जन्म के थोड़ी देर बाद ही) करा दिया गया, किन्तु बाहरी
दूध के लिए पुनः अनुकूल समय का विचार किया जाना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र में गोदुग्ध को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।
स्वादिष्ट, शीतल, मृदु, स्निग्ध, बहल, श्लक्ष्ण, पिच्छिल, गुरु, मन्द एवं प्रसन्न—ये
दस गुण कहे हैं गोदुग्ध के। प्रवरं जीवनीयानां क्षीरमुक्तं रसायनम्। तथा जीवनं
बृहणं सात्म्यं स्नेहनं मानुषं पयः— उक्तियों से चरकसंहिता सूत्रस्थान २७-२१८,२२४
में माता के दूध और गोदुग्ध की प्रशंसा की गयी है।
-१७-
निष्क्रमण,सूर्यावलोकन,भूम्योपवेशन,दोलारोहण
प्रयोग
नामकरणसंस्कार के साथ-साथ यदि उक्त निष्क्रमणादिकर्म सम्पन्न करना है, वैसी स्थिति में सिर्फ संकल्पवाक्य में परिवर्द्धन कर काम करना चाहिए। यदि दीर्घ अन्तराल के बाद कर रहे हैं, वैसी स्थिति में भी पूर्व संस्कारों की भाँति विशेष कर्मकाण्डीय उलझन में पड़ने की आवश्यकता तो नहीं है, फिर भी संक्षिप्त रीति से स्वस्तिवाचन, गणेशाम्बिकादि आंगिक पूजा कर्म तो होने ही चाहिए। यहाँ निष्क्रमणादि सम्बन्धित संक्षिप्त संकल्प दिया जा रहा है—
ऊँ अद्य...गोत्रः सपत्नीकः... शर्माऽहं ममास्य बालकस्य
करिष्यमाणनिष्क्रमणि सर्वारिष्टनिवृत्तये जले दिगीशानां दिशां चन्द्रस्य अर्कस्य
वासुदेवस्य गगनस्य च पूर्वांगत्वेन पूजनं करिष्ये।
गणेशाम्बिकादि
का संक्षिप्त पूजन सम्पन्न करने के पश्चात् किसी प्रशस्तमुख पात्र (फैले मुँह वाला
वरतन) में जल भर कर रख ले और दाहिने हाथ में पर्याप्त अक्षत लेकर मन्त्रोच्चारण
करते हुए धीरे-धीरे छोड़ता जाए—ऊँ भूर्भुवःस्वः जले दिगीशादिदेवा गगनपर्यन्ता
आगच्छन्तु तिष्ठन्तु सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु । इस प्रकार आवाहन करने के बाद
पुनः मन्त्र बोलते हुए जल में आवाहित देवों का गन्धपुष्पादि से पंचोपचार पूजन करे—ऊँ
दीगीशेभ्यो नमः, ऊँ दिग्भ्यो नमः, ऊँ चन्द्राय नमः, ऊँ अर्काय नमः, ऊँ वासुदेवाय
नमः, ऊँ गगनाय नमः ।
ऊँ चन्द्रार्कयोर्दिगीशानां दिशां च गगनस्य च।
निक्षेपार्थमिमं दद्मि ते मे रक्षन्तु बालकम्।।
अप्रमत्तं प्रमत्तं वा दिवा त्रावथापि वा।
रक्षन्तु सततं सर्वे देवाः शक्रपुरोगमाः ।।
ऊँ पद्मासनः पद्मकरो द्विबाहुः पद्मद्युतिः सप्ततुरङ्गवाहः ।
दिवाकरो लोकगुरुः किरीटी मयि प्रसादं
विदधातु देवः ।।
ऊँ आदित्याय नमः कहते हुए जल में अक्षत छोड़े। तदन्तर उक्त नाममन्त्रोच्चारण
करते हुए यथोपलब्ध सामग्री से सूर्यदेव का पूजन करे एवं अर्ध्य प्रदान करे। पूजन
के पश्चात् प्रार्थना करे—
ऊँ आ
कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति
भुवनानि पश्यन्।।
सूर्यार्घ्य
मन्त्र— एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या
गृहार्घ्यं दिवाकर।। एषोऽर्घ्यः ब्रह्मस्वरूपिणे श्री सूर्यनारायणाय नमः ।।
तदुपरान्त
अपने स्थान पर ही सात बार दक्षिणावर्त घूमकर प्रदक्षिणा करे—यानि कानि च पापानि
जन्मान्तरकृतानि च। तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिण पदे पदे।।
तदन्तर
ऊँ जपाकुसुमसङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम् । ध्वान्तारिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि
दिवाकरम्।। — बोलते हुए पुष्पाक्षत लेकर सूर्य को प्रणाम करे।
भूम्युपवेशनकर्म— ध्यातव्य है कि शिशु को पहली बार भूमि का स्पर्श कराया
जा रहा है। इसके लिए पहले से तैयारी कर ले। हालाँकि आजकल कच्ची मिट्टी के घर-आँगन
का सर्वथा अभाव होता जा रहा है। मिट्टी मिट्टी है। सीमेन्ट, कंकरीट, टाइल्स, मार्बल
इसकी शुचिता और महत्ता को कभी नहीं पा सकते। मिट्टी की भूमि न हो, वैसी स्थिति में
पवित्र मिट्टी से ही गोलाकार मण्डल निर्माण करे। उस पर ऊँ पृथिव्यै नमः
कहते हुए आवाहन करके, पंचोपचार पूजन करे, साथ ही पृथ्वि का उद्धार करने वाले भगवान
वराह की भी पूजा करे—ऊँ पृथिव्यै नमः, ऊँ वाराहाय नमः, ऊँ कुलदेवतायै नमः
इत्यादि उच्चारण करते हुए।
पूजनोपरान्त
पुनः शंख-घंटादि मांगलिक ध्वनि करते हुए शिशु को कुछ देर के लिए उस पूजित-कल्पित
भूमि पर बैठावे।
ध्यान रहे—बालक का
पहले दाहिना पैर व बालिका का पहले बायां पैर भूमि का स्पर्श करे। इसके विपरीत
कदापि नहीं। माता के सहारे भूमि पर बैठे हुए शिशु को गुरुजन आशीष प्रदान करें।
तत्पश्चात् कक्ष के भीतर आकर पिता एक पीठिका पर सप्त मातृकाओं का उनके संक्षिप्त
नाममन्त्र से आवाहन पूजन करे व घृतधारा प्रदान करे।
ध्यातव्य
है कि ये वसोर्धारा (सप्तघृतमात्रिकाएँ पूर्व कथित मातृकाओं से भिन्न नाम वाली
हैं। यथा— कल्याणी,भद्रा, मंगला, पुण्या, पुण्यमुखी, जया एवं विजया।
भूयसीदक्षिणा,
विप्रभोजन— ऊँ अद्य...कृतस्य नामकरणसूर्याद्यव-लोकनपूर्वकनिष्क्रमणसंस्कारस्य
साङ्गताप्रतिष्ठासंसिद्ध्यर्थं यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् सदक्षिणाद्रव्यं भोजयिष्ये
।
विसर्जन— यान्तु
देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्।
इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ।
।। ऊँ विष्णवे नमः ऊँ विष्णवे नमः ऊँ
विष्णवे नमः ।।
इन क्रियायों के
सम्पन्न हो जाने के पश्चात् माता द्वारा सुसज्जित दोला, पर्यंक आदि का ऊँ
दोलायै नमः पर्यंकायै नमः कहते हुए पंचोपचार पूजन करे एवं वस्त्रालंकृत शिशु
को उस पर सुला दे।
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क्रमशः जारी......
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