-१८-
अन्नप्राशन संस्कार परिचय
संस्कारों के क्रम में अब बारी है— अन्नप्राशन संस्कार
का। आजकल पश्चिमी मतावलम्बी चिकित्सकों के मत से और अत्याधुनिका माताओं की आलस्य
और नादानी के कारण जन्म के थोड़े ही दिनों बाद तरह-तरह के बाजारु दूध या अन्यान्य
पेय पदार्थ, जिनमें गेहूँ, यव, मकई आदि अन्नों का मिश्रण होता है, लोग देना शुरु
कर देते हैं। कुछ नहीं तो दाल का पनीला भाग देने का सुझाव हर कोई दे देते हैं।
किन्तु ये बिलकुल ही शास्त्रसम्मत नहीं है। शिशुओं के लालन-पालन पर आधारित
कौमार्यभृत्य जैसे आयुर्वेद ग्रन्थों में भी अल्प वय शिशु को (पांच-छःमाह तक) किसी
तरह का तरल अन्न भी नहीं देना चाहिए।
अन्नप्राशनकाल
और उद्देश्य पर शास्त्र निर्देश इस प्रकार हैं—पारस्करगृह्यसूत्र १-१९-१ में कहा
गया है—षष्ठेमासेऽन्नप्राशनम्, व्यासस्मृति १-१८--षष्ठेमास्यन्नमश्नीयात्,
सुश्रुतशारीरस्थान १०-४९—षण्मासं चैनमन्नं प्राशयेल्लघु हितं च ।
किंचित् ऋषिमत से दसवें, ग्यारहवें,
बारहवें महीने की भी बात कही जाती है, किन्तु उक्त पारस्कर मत अधिक मान्य रहा है
पुराने लोकव्यवहार में। ज्योतिष शास्त्र में यहाँ तक कहा गया है कि पांचवें-छठे
महीने में यदि अन्नप्राशन संस्कार करते हैं, तो इस समय गुरु-शुक्रादि के उदयास्त,
बालत्व, प्रौढत्वादि कालदोष का भी विचार करना आवश्यक नहीं है। सिर्फ सामान्य
मुहूर्तविचार (पंचांगशुद्धि) करने से काम चल जाता है।
अन्नप्राशनसंस्कार क्यों करना चाहिए इस सम्बन्ध में
स्मृतिसंग्रह में कहा गया है— अन्नप्राशनान्मातृगर्भमलाशादपि शुद्ध्यति—
मातृगर्भवास जनित यत्किंचित् अशुद्धियाँ जो शेष रह जाती है, उसकी शुद्धि
अन्नप्राशनसंस्कार से होती है। अन्नप्राशन में मधुघृतयुक्त मिष्ट्ठान्न, हविष्यान्न
आदि का प्रथमतः प्राशन कराना प्रशस्त है। एकाएक नमकीन, चरपरे पदार्थों का सेवन
बालक को कदापि नहीं कराना चाहिए।
ध्यातव्य
है कि अब तक बालक मुख्यरूप से स्तनपान (आधुनिकाओं में बाहरी दूध आदि) पर निर्भर
है। छठा महीना आते-आते दांत निकलने शुरु हो जाते हैं, ये प्रकृति का अनमोल उपहार
है, जो संकेत देता है कि अब शनैःशनैः आहारक्रम में तरल से ठोस पदार्थों की ओर जाया
जा सकता है ।
अतः जन्म के पश्चात् पांचवें वा छठे
महीने में शुभ मुहूर्त का विचार करते हुए, पूर्व कथित रीति से संक्षिप्त रूप से
गौर्यादि पूजन करके, नैवेद्य स्वरूप खीर, हलवा आदि मधुर-मिष्टान्न से अन्नप्राशन
संस्कार सम्पन्न करना चाहिए। उससे पूर्व कदापि नहीं। पुनः स्पष्ट करते हैं कि
बालिकाओं का विषम मासों (पांचवें, सातवें, नौवें इत्यादि) में एवं बालकों का सम
मासों (छठे, आठवें, दसवें, बारहवें) में अन्नप्राशन करे।
मासगणना
सूर्यमास से करे, न कि चान्द्रमास से। यथा— बालकानां षष्ठमासादारभ्य सममासेषु ।
कन्यकानां पञ्चमासादारभ्य विषममासेषुकार्यम् । मासगणनासौरणात्राशनम् परिमितिज्ञेया
।
ध्यातव्य है विविध वैदिक संस्कार क्रम में
बालक-बालिका में (स्त्री-पुरुष लिंगानुसार) किंचित् भेद किया गया है। किन्तु
अन्यान्य सामान्य लोकव्यवहार में ऐसा नहीं होना चाहिए। मनुस्मृति में स्पष्ट है कि
सामान्य लोकव्यवहार में पुत्र-पुत्री का
भेद कदापि न करे, जैसा कि आजकल कन्या भूर्णहत्या का निसंकोच निर्दयता पूर्वक चलन
हो गया है। यथा— यथैवात्मा तथा पुत्रः
पुत्रेण दुहिता समा । तस्यामात्मनि
तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत् ।।९।१३०।।
अन्नप्राशन
मुहूर्त—मुहूर्तचिन्तामणि संस्कार
प्रकरण १७-१८ में का निर्देश किया गया है। यथा—
रिक्तानन्दाष्टदर्शं
हरिदिवसमथो सौरिभौमार्कवारान् ,
लग्नं
जन्मर्क्षलग्नाष्टमगृहलवगं मीनमेषालिकं च ।
हित्वा षष्ठात्
समे मास्यथ हि मृगदृशां पञ्चमादोजमासे,
नक्षत्रैः स्यात्
स्थिराख्यैः समृदुलघुचरैर्बालकाऽन्नपाशनं सत्।।
केन्द्रत्रिकोणसहजेषु
शुभैः खशुद्धे,
लग्ने त्रिलाभरिपुगैश्च
वदन्ति पापैः।
लग्नाष्टषष्ठरहितं
शशिनं प्रशस्तं,
मैत्राम्बुपानिलजनुर्भमसच्च केचित् ।।
विविध पंचांगों में
भी आवश्यक मुहूर्त निर्दिष्ट हैं। यथा—
रोहिणी, तीनों
उत्तरा, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्ता, पुष्य, अश्विनी, अभिजित, पुनर्वसु,
श्रवण, धनिष्ठा, स्वाती एवं शतभिषा नक्षत्र तथा २, ३, ७, १०, १३ एवं १५ तिथियाँ,
तथा सोम, बुध, गुरु एवं शुक्रवार अन्नप्राशन हेतु शुभ हैं। किन्तु जन्मराशि एवं
जन्मलग्न से अष्टम लग्न के अतिरिक्त मीन, मेष और वृश्चिक लग्नों एवं उनके नवांशों को
भी अन्नप्राशनसंस्कार हेतु ग्रहण न करे। ध्यातव्य है कि किंचित आचार्यों ने
अनुराधा, शतभिषा और स्वाती को ग्रहण नहीं किया है।
अन्नप्राशनसंस्कार का ही उपांग है
जीविकाविज्ञान विचार। तदन्तर्गत अन्नप्राशनसंस्कार सम्पन्न हो जाने के पश्चात्
बालक के समक्ष पुस्तक, माला, देवमूर्ति, वस्त्र, शस्त्र, क्रीड़ासामग्री, अन्नादि विविध
सामग्रियों को रखते हैं एवं माता की गोद से उतार कर बालक को उन वस्तुओं के समीप ले
जाते हैं। इस क्रम में ये निरीक्षण करते हैं कि बालक की अभिरूचि किस पदार्थ की ओर
है। तदनुसार ही उसकी भावी अभिरूचि का अनुमान लगाया जाता है। एक सीमा तक इस परीक्षण
को उचित कहा जा सकता है। इस सम्बन्ध में पारस्करगृह्यसूत्र १-१९-१३ में कहा गया है—
कृतप्राशनमुत्सङ्गाद्धात्री बालं समुत्सृजेत् ।
कार्यं तस्य परिज्ञातं जीविकाया अनन्तरम्।
देवताग्रेऽथ विन्यस्य
शिल्पभाण्डानि सर्वशः ।
शास्त्राणि चैव शस्त्राणि ततः पश्येत्तु लक्षणम् ।।
प्रथमं
यत्स्पर्शेद्बालस्ततो भाण्डं स्वयं तदा ।
जीविका तस्य बालस्य तेनैवेति भविष्यति।। अस्तु।
-१९-
अन्नप्राशन
संस्कार प्रयोग
विहित मुहूर्तादि का विचार करके,
शुचित वस्त्रालंकृत बालक और उसके माता-पिता गोमय लेपित शुद्ध स्थान पर पूर्वाभिमुख
आसन ग्रहण करके, आचमनप्राणायामादि पूर्वांग कृत्य सम्पन्न करें। तत्पशात् अन्नप्राशन
संस्कार प्रयोगक्रम में स्वस्तिवाचन, गणेशाम्बिकादि पूजन, अग्निस्थापनादि हेतु
संकल्प करें।
संकल्प वाक्य संक्षिप्त रूप से यहाँ दिया जा रहा है। विस्तृत
पूजनविधि एवं वेदीसंस्कारादि हेतु नित्यकर्मप्रयोग वा इस पुस्तक के परिशिष्ट खण्ड
का अवलोकन करना श्रेयस्कर होगा।
संकल्प— ऊँ
अद्य...गोत्रः सपत्नीकः....शर्माऽहं ममास्य शिशोर्मातृगर्भमलप्राशनविशुद्ध्यर्थं अन्नाद्यब्रह्मवर्चस्तेजायुर्बलेन्द्रियलक्षण-फलसिद्धिपूर्वकबीजगर्भसमुद्भवैनोनिर्बहणद्वाराश्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थमन्नप्राश-नाख्यं
कर्म करिष्ये, तदङ्गत्वेन स्वस्ति-पुण्याहवाचनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनमायुष्यमन्त्रजपं
साङ्कल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये, तत्रादौ निर्विघ्नता-सिद्ध्यर्थं गणेशाम्बिकयोः पूजनं
करिष्ये।
संकल्पित सभी देवों का आवाहन पूजन करने के बाद सवा हाथ
की वालुका वेदी बनाकर (इस पुस्तक के परिशिष्ट खण्ड में निर्दिष्ट विधि से )
पंचभूसंस्कार करना चाहिए।
ध्यातव्य
है प्रत्येक कार्य में होमार्थ अग्नि की भिन्न-भिन्न संज्ञा होती है। आहुति की मूल
प्रक्रिया तो वही होती है, किन्तु आहुति द्रव्य एवं मन्त्र भेद होता है। अतः उन
बातों की संक्षिप्त चर्चा यहाँ कर दी जा रही है।
अन्नप्राशनसंस्कार
में शुचि नामाग्नि को आहूत किया जाता है। अतः ऊँ शुचिनामाग्नये सुप्रतिष्ठितो
वरदो भव। ऊँ शुचिनामाग्नये नमः।। इसी मन्त्र से आवाहन करे और इसी नाममन्त्र से
यथोपलब्ध सामग्री से पूजन सम्पन्न करे।
कुशकण्डिकोपरान्त
सर्वप्रथम आधार-आज्यभागसंज्ञक होम करना चाहिए—
१. ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं
प्रजापतये न मम।
२. ऊँ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय
न मम।
३. ऊँ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये
न मम।
४. ऊँ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय
न मम।
तत्पश्चात्
निम्नांकित मन्त्रों से अनन्वारब्ध पूर्वक तीन बार घृताहुतियाँ डाले—
१.ऊँ देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा । इदं वाचे न मम।
( आगे पुनः इसी मन्त्र का उच्चारण करना है)
२.(क) ऊँ देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो
वदन्ति। सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा ।
(ख) ऊँ वाजो नो
अद्य प्र सुवानि दानं वाजो देवाँ ऋतुभिः कल्पयाति । वाजो हि मा सर्ववीरं जजान
विश्वा आशा वाजपतिर्जयेयँ स्वाहा । इदं वाचे वाजाय न मम।
अब थोड़ा घृत
मिश्रित करके, पायस (चरु) से आहूति प्रदान करें। ध्यातव्य है इसी चरु (हविष्यान्न)
का प्राशन बालक को कराना है। अतः सुविधानुसार सीधे अग्निवेदी पर ही हविष्य निर्माण
कर ले, या मिट्टी के चूल्हे पर अन्यत्र बना ले।
आजकल गैस
या बिजली के चूल्हे का चलन हो गया है। किसी भी धार्मिक कार्य में ऐसे चूल्हे का
उपयोग सर्वथा वर्जित है। अतः गोबर के उपले और आम की लकड़ी का ही प्रयोग पूजनादि
शुभकार्यों में करना उचित है।
१.
ऊँ प्राणेनान्नमशीय
स्वाहा । इदं प्राणाय न मम।
२.
ऊँ आपानेन
गन्धानशीय स्वाहा। इदमपानाय न मम।
३.
ऊँ
चक्षुषा रूपाण्यशीय स्वाहा । इदं चक्षुषे न मम।
४.
ऊँ
श्रोत्रेण यशोऽयशीय स्वाहा । इदं श्रोत्राय न मम।
तत्पश्चात्
भूरादि नौ आहुतियाँ घृत से प्रदान करें (स्रुवा में शेष घृत को प्रोक्षणी में
छिड़कते जायें)—
१.
ऊँ भूः स्वाहा,
इदमग्नये न मम।
२.
ऊँ भुवः
स्वाहा, इदं वायवे न मम।
३.
ऊँ स्व
स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।
४.
ऊँ त्वं
नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः । यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो
विश्वा द्वेषाँसि प्र मुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
५.
ऊँ स त्वं
नो अग्नेऽवसो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुणँरराणो वीहि
मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
६.
ऊँ
अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यभित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि
भेषजँ स्वाहा। इदमग्नयेऽयसे न मम।
७.
ऊँ ये ते
शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः तेभिर्नोऽअद्य सवितोत
विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा ।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे
विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।
८.
ऊँ
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमँश्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो
अदितये स्याम स्वाहा। इदं वरुणायादित्यादितये न मम।
९. तदन्तर मानसिक उच्चारण करते हुए अन्तिम आहुति प्रदान करे—
ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं
प्रजापतये न मम।
अब
स्विष्टकृत् आहुति प्रदान करें (इस क्रम में ब्रह्मा कुश से होता का स्पर्श किए
रहें) — ऊँ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।
तदनन्तर
प्रोक्षणी पात्र में हुतशेष प्रक्षेपित घृत को अनामिका अंगुलि के स्पर्श से होठों
में लगावे। इसे संस्रवपाशन कहते हैं। ये क्रिया शिशु को भी करा दे।
तदन्तर
हाथ धोकर, आचमन करे और प्रणीता के जल से सिर पर कुशाभिषेक करे (अपना और बालक का)— ऊँ
सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु।
तदुपरान्त
उसी कुशा से एक बार नीचे की ओर जल छिड़के— ऊँ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्
द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः ।
तदनन्तर कुशा
को अग्नि में छोड़ दे और हाथ धोकर, जलपुष्पाक्षतादि लेकर पूर्णपात्रदानर्थ संकल्प
करे—
ऊँ
अद्य...अन्नप्राशनहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्म-प्रतिष्ठार्थमिदं
वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं पूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतं ... गोत्राय... शर्मणे ब्रह्मणे
भवते सम्प्रददे।
ब्रह्मा स्वस्ति
बोलते हुए पूर्णपात्र ग्रहण करें।
अब
प्रणीतापात्र को ईशानकोण में उलट दे और गिरे हुए जल से पुनः मार्जन करे— ऊँ आपः
शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम् । उपयमन कुशों को
अग्नि में छोड़ दे तथा आगे बर्हिहोम कार्य सम्पन्न करे, यानी वेदी के चारों ओर
बिछाए गए कुशों को उसी क्रम से उठावे, जिस क्रम से बिछाया गया था और घी में
डुबो-डुबोकर अग्नि में छोड़ता जाए इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक— ऊँ देवा गातु विदो
गातुं वित्त्वा गातुमित । मनसस्पत इमं देव यज्ञँ स्वाहा वाते धाः स्वाहा।
तदनन्तर नूतन
पात्र में थोड़ा सा चरु (हविष्यान्न) लेकर हन्त मन्त्रोच्चारण करते हुए, शंखघंटादि
मंगलघोष पूर्वक बालक को अन्नप्राशन करावे। पुनः पाँच बार बिना मन्त्रोच्चारण के ही
इस क्रिया को करे। तदनन्तर स्वच्छ जल से बालक का मुख प्रक्षालित कर दे। तदुपरान्त ही
जीविका-परीक्षण का कार्य किया जाना चाहिए।
ऊँ
अद्य...कृतस्यान्नप्राशनकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं न्यूनातिरिक्त- दोषपरिहारार्थञ्च
नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो भूयसीदक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये तथा च यथासंख्याकान्
ब्राह्मणान् सदक्षिणाद्रव्यं भोजयिष्ये ।
विसर्जन— यान्तु
देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्।
इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ।
।। ऊँ विष्णवे नमः ऊँ विष्णवे नमः ऊँ
विष्णवे नमः ।।
क्रमशः जारी.......
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