षोडशसंस्कारविमर्शः भाग बारहः चूड़ाकरण-चौल-मुण्डन-संस्कार परिचय और प्रयोग

 

                       चूड़ाकरण-चौल-मुण्डन-संस्कार परिचय

            संस्कारों के क्रम में अब बारी है— चूड़ाकर्म की। चूड़ा क्रियते अस्मिन्—इस विग्रह से स्पष्ट है कि बालक को शिखा धारण कराया जा रहा है। इससे पूर्व शिखा का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था। शिखा सिर के पिछले भाग में सामान्य केशों से किंचित् लम्बे (गांठयुक्त) केशगुच्छ को कहते हैं, जो सनातनियों की मुख्य पहचान है। शरीरशास्त्रानुसार इस स्थान पर मस्तिष्क का सर्वाधिक मर्मस्थान है, जिसपर आघात पड़ने से सद्यः मृत्यु हो सकती है। इसका विवरण सुश्रुतसंहिता ३-६-२७ में मिलता है— मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात् सिरासन्धिसन्निपातो रोमावर्तोऽपति, तत्रापि सद्य एव मरणम् । लम्बी एवं सघन शिखा इस मर्म की रक्षा करती है। ध्यातव्य है कि शिखाधारण के यौगिक महत्व भी हैं। इस स्थान पर एक विशेष प्रकार की चेतना नामक अन्तःस्रावीग्रन्थि (पीनियलग्लैंड) है, जिससे इन्द्रियों के अधिष्ठाता— मन का नियन्त्रण होता है। इन्द्रिय रूपी चंचल अश्व को लगाम देने वाला मन ही है, जिसे सदा नियन्त्रण में रखने की आवश्यकता है और शिखा इसमें सहयोगी है। यही कारण है कि शिखा धारण करने का सनातन महत्व है। भौतिकी की भाषा में कहें तो इसे ऊर्जा-संग्राहक कहना चाहिए। अन्तरिक्षीय ऊर्जा को सम्यक् रूप से ग्रहण कर मस्तिष्क को संप्रेषित करता है। परिणामतः सद्बुद्धि, सद्विचार, शुचिता एवं सद्वृत्ति जागृत होती है। मनुष्य के दीर्घायु, बल और तेज के उन्नयन में शिखा की महती भूमिका है। शिखा विहीन द्विज शूद्र ही नहीं, प्रत्युत म्लेच्छवत है। इस सम्बन्ध में महर्षि कात्यायन कहते हैं—

सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च।

विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम्।।

स्नाने दाने जपे होमे सन्ध्यां देवतार्चने।

शिखाग्रन्थिं सदा कुर्यादित्येतन्मनुरब्रवीत्।।

 ( द्विजों को सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए, साथ ही शिखा में ग्रन्थि लगाये रखनी चाहिए। इन दोनों के बिना सारे कर्म निष्फल होते हैं। स्नान, दान, जप, होम, सन्ध्या, देवार्चन आदि कार्यों में शिखाग्रन्थि का ध्यान अवश्य करे। ) ध्यान अवश्य करे—कहने का तात्पर्य ये है कि ज्यादातर लोग तो शिखा रखने में ही शर्म शर्माते हैं। शिखा में उन्हें पुराने विचारों वाला घोषित होने का डर सताता है। कुछ लोग रखते भी हैं तो उसकी मर्यादा का ध्यान नहीं रहता। खुली शिखा पताके सा फहराता रहता है सिर पर। उसे सदा ग्रन्थियुक्त रखना है—जानते ही नहीं या जानते हुए भी भूल जाते हैं।  

ध्यातव्य है शिखा-सूत्र का परित्याग संन्यास दीक्षा के बाद ही होता है। इससे पूर्व अपरिहार्यरूप से धारणीय-पालनीय है।

प्रसंगवश यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि शिखा में पहले से गाँठ पड़ी हुयी है, उसे स्नान के समय अवश्य खोल देना चाहिए एवं स्नानोपरान्त वस्त्रादि धारण के पश्चात् पुनः शिखाबन्धन कर लेनी चाहिए—चिद्रूपिणि ! महामाये ! दिव्यतेज समन्विते ! तिष्ठ देवि ! शिखामध्ये तेजोवृद्धिं कुरुष्व में।। — शिखा में गाँठ लगाने हेतु निर्दिष्ट इस मन्त्र पर ध्यान दें— चित्तरूपिणी महादेवी को जो दिव्यतेजसमन्विता हैं उन्हें अपने शिखास्थान में आहूत कर रहे हैं तेजवृद्धि हेतु।  इस प्रकार जो व्यक्ति नित्य स्नानोपरान्त ये आवाहन कर रहा है, उसके तेज की वृद्धि सुनिश्चित है।  इतना ही नहीं, दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे शिखायै वषट्— शिखागत न्यास का ये मन्त्र स्पष्ट करता है कि शिखा हमारी ज्ञानशक्ति और चेतनाशक्ति-वृद्धि की सहायिका है।  बुद्धिचक्र एवं महापद्म-क्षरित अमृत तत्त्व के रक्षण में शिखा का महत् योगदान है। शिखा की गाँठ अमृत क्षरण को रोकती है, यानी केशों के माध्यम से कायगत अमृत की बरबादी नहीं होती। इसलिए शिखा रहे और सदा ग्रन्थियुक्त रहे—इन दोनों बातों पर ध्यान रखना चाहिए। 

महर्षि चरक अपनी संहिता के सूत्रस्थान ५-९९ में मुण्डनादि के विषय में कहते हैं— पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचि रूपविराजनम्। केशश्मश्रुनखादीनां कल्पनं सम्प्रसाधनम्।। (केश, श्मश्रु, नख आदि काटने से शरीर पुष्ट होता है, आन्तरिक शक्ति का विकास होता है, आयु और सौन्दर्य की वृद्धि होती है तथा पाप का अपनोदन होता है।

ध्यातव्य है कि चूड़ाकरणसंस्कार के अन्तर्गत मुख्य दो बातें एकत्र सम्पन्न होती हैं—गर्भगत केशों का विसर्जन एवं शिखा का स्थापन।  इसे चौल अथवा मुण्डनसंस्कार भी कहा जाता है। इस संस्कार का मूल उद्देश्य है— गर्भगत केशों का विसर्जन । इसे अत्यावश्यक संस्कारों में माना गया है। लोकरीति के अनुसार जन्म के बाद प्रथम मुण्डन में लड़का-लड़की दोनों के सम्पूर्ण केशों का मुण्डन कर दिया जाता है। ये कार्य छुरिका से न करके कैंची से किया जाता है। छुरिका का स्पर्श तो यज्ञोपवीत के समय ही किया जाना चाहिए एवं उसी समय चूड़ाकरण (शिखा स्थापन) का कार्य होना चाहिए। किन्तु यहाँ व्यावहारिक कठिनाई होती है कि जिन कुलों में प्रारम्भिक मुण्डनसंस्कार विधिवत हुआ नहीं हो और जनेऊ भी विवाहकाल में लोग करते हैं, वहाँ तो निश्चित रूप से व्रात्यदोष के भागी होते हैं। जिसके लिए विशेष प्रायश्चित कर्म का विधान है। युवक समयानुसार बाल-दाढ़ी बनवाते रहते हैं। वस्तुतः ये संस्कारलोप की चिन्ताजनक स्थिति है, जिस पर द्विजों को ध्यान देना चाहिए।

 लड़का हो या लड़की समय पर मुण्डनसंस्कार होना (गर्भगत केशों का निष्पादन) अति आवश्यक है। अन्नप्राशन में लड़का-लड़की के लिए मास भेद है, किन्तु मुण्डन में वर्ष-भेद नहीं है।

 

ध्यातव्य है कि गर्भाधान से आगे क्रमिक रूप से संस्कारों के विधि-विधान में गहनता आते जाती है। तदनुसार मुण्डनसंस्कार का विधान पूर्व संस्कारों की तुलना में थोड़ा विस्तृत है। अब से पूर्व के कुछ संस्कारों में संक्षिप्त विधि से काम भले ही चला लिया जाए, किन्तु मुण्डनसंस्कार में सामान्य गणपत्यादि पूजन मात्र से काम नहीं चलता, प्रत्युत मातृकापूजन, ग्रामदेवी पूजन, नान्दीमुख श्राद्ध (आभ्युदयिक श्राद्ध) और कुलदेवता की पूजा भी अनिवार्य है। साथ ही किंचित् अन्य बातों पर भी विचार करना होता है।

   मुण्डनसंस्कार कब करना चाहिए — इस सम्बन्ध में दो मत हैं—गर्भाधान से काल गणना करें या जन्म से। किन्तु गर्भाधान से गणना करना आपातस्थिति में ग्राह्य है, न कि सामान्य स्थिति में। तीसरा, पाँचवां, सातवां इत्यादि विषम वर्षों का चयन करना चाहिए। हालाँकि मनुमहाराज का वचन है कि प्रथम वर्ष में भी (विषम वर्ष होने के कारण) मुण्डन हो सकता है। मनुस्मृति २-३५ में कहा गया है— चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः । प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात् ।।

पारस्करगृह्यसूत्र २-१-१,२ में भी मनुमत का ही समर्थन किया गया है। जबकि आश्वलायन, बृहस्पति, नारदादि के मत से मुण्डनसंस्कार तीसरे, पाँचवें, सातवें, दसवें, ग्यारहवें वर्ष में किया जाना चाहिए। इन सब मतों के उलझन को महर्षि याज्ञवल्क्य के वचन साफ कर देते हैं— चूडाकार्या यथाकुलम्— अपनी कुल परम्परानुसार कार्य करें। किन्तु वर्तमान समय में तथाकथित कुलपरम्परा के नाम पर समाज में घोर अनर्थ देखा जा रहा है। इस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। इससे सम्बन्धित विस्तृत चर्चा मु. चि. संस्कारप्रकरण में है—

चूडा वर्षात्तृतीयात् प्रभवति विषमेऽष्टार्करिक्ताद्यषष्ठी-

पर्वोनाहे विचैत्रोदगयनसमये ज्ञेन्दुशुक्रेज्यकानाम्।

वारे लग्नांशयोश्चास्वभनिधनतनौ नैधने शुद्धियुक्ते

शाक्रापेतैर्विमैत्रैर्मृदुचरलघुभैरायषट्त्रिस्थपापैः।। २९।।

क्षीणचन्द्रकुजसौरिभास्करैर्मृत्युशस्त्रमृतिपंगुताज्वराः।

स्युः क्रमेव बुधजीवभार्गवैः केन्द्रगैश्च शुभमिष्टतारया।। ३०।।

(गर्भाधान वा जन्मकाल से तृतीयादि विषम वर्षों में मुण्डनसंस्कार करना चाहिए। तृतीयाद्विषमे कहने का अभिप्राय है कि प्रथम और दूसरे वर्ष को भी ग्राह्य सूची में रखा गया है। अर्थात् प्रथम, द्वितीय और तृतीय वर्षों में प्रशस्त है। उससे आगे सिर्फ विषय वर्षों का ही चयन करना चाहिए। बहुश्रुत ग्रन्थ— मुहूर्तमार्तण्ड भी इन्हीं बातों का समर्थन करता है।  

अब तिथि क्रम कहते हैं—अष्टमी, द्वादशी, प्रतिपदा, षष्ठी, चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा आदि तिथियों से भिन्न तिथियों में (यानी द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, एकादशी, त्रयोदशी तिथियों में ग्राह्य),  सोम, बुध, गुरु, शुक्रादि वारों में, शुक्ल पक्ष में चन्द-बल और कृष्णपक्ष में तारा-बल का विचार करते हुए, पुनर्वसु, अश्विनी, हस्ता, पुष्य, अभिजित, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, रेवती, श्रवण और धनिष्ठा नक्षत्रों में, उत्तरायण सूर्य में , लग्न और नवांश में जन्मलग्न और जन्मराशि से सम राशि को छोड़कर, अन्य लग्न वा राशि में, अष्टमशुद्धि का विचार करते हुए, पापग्रहों की स्थिति ३,६,११ में हो तो शुभ (अन्यथा अशुभ) — ऐसे लग्न का चयन करके मुण्डन संस्कार करना चाहिए। किंचित् आचार्यों के मत से अनुराधा नक्षत्र की वर्जना की गयी है।

इसी प्रसंग में ऋषि आगे कहते हैं कि क्षीण चन्द्रादि लग्नादि केन्द्र में हों तो मुण्डन का परिणाम अशुभ होता है। यथा—चन्द्रमा दुर्बल हो तो मृत्यु, मंगल हो तो शस्त्राधात, शनि हो तो लंगड़ा (पैर की बीमारी), सूर्य हो तो ज्वर तथा बुध, गुरु और शुक्र यदि केन्द्रस्थ हों तो शुभ फल होता है।

बालक के मुण्डनसंस्कार में माता के सम्बन्ध में भी विचार करना कहा गया है। माता यदि पांचमास या अधिक समय से गर्भवती हो (मुण्डनकाल में) तो बालक का मुण्डन नहीं करना चाहिए। यानी पांच मास से कम का गर्भ हो तो किया जा सकता है। किन्तु बालक की अवस्था यदि पांच वर्ष हो गयी हो, तो माता के गर्भवती होने का दोष नहीं लगता। अर्थात् ऐसे में मुण्डन शुभ है। यथा—  पञ्चमासाधिके मातुर्गर्भे चौलं शोशोर्न सत्।

    पञ्चवर्षाधिकस्येष्टं गर्भिण्यामपि मातरि ।। ३१।।

मुण्डनसंस्कार हेतु तारा का अपवाद के सम्बन्ध में कहते हैं— तारादौष्ट्येऽब्जे त्रिकोणोच्चेगे वा क्षौरं सत्स्यात् सौम्यमित्रस्ववर्गे। सौम्ये भेऽब्जे शोभने दुष्टतारा शस्ता ज्ञेया क्षौरयात्रादिकृत्ये ।।३२।। (यदि तारा दुष्ट हो और चन्द्रमा त्रिकोण में हो, उच्चराशि में हो अथवा शुभग्रह वा अपने मित्रग्रहके साथ हो अथवा अपने ही षड्वर्ग में हो तो मुण्डन शुभ है। चन्द्रमा शुभग्रह की राशि में हो और गोचर में भी शुभ हो तो दुष्टतारा होने पर भी मुण्डन यात्रादि कर्म शुभ होते हैं।) इसी विधि-निषेध क्रम में आगे कहते हैं—

ऋतुमत्याः सूतिकायाः सूनोश्चौलादि नाऽऽचरेत्।

ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे कैश्चिन्मार्गेऽपि नेष्यते।। ३३।। (यदि बालक की माता रजस्वला हो, वा सूतिका हो (सद्यःप्रसूता) तो भी बालक का मुण्डन नहीं कराना चाहिए।

(ध्यातव्य है कि ये नियम बालक के यज्ञोपवीतसंस्कार के समय भी पालनीय हैं)

उक्त प्रसंग में एक अन्य बात का भी ध्यान दिलाया गया है—ज्येष्ठ सन्तान का ज्येष्ठ मास में मुण्डन न करावे। किंचित् आचार्यों का मत है कि मार्गशीर्ष माह की भी वर्जना करे।

(ध्यातव्य है कि इस बात की वर्जना विवाहादि संस्कार में भी की गयी है। यथा— लड़का और लड़की दोनों अपने माता-पिता की प्रथम सन्तान हों तो ज्येष्ठ महीने में उनका विवाह न किया जाए। यानी तीन ज्येष्ठ एकत्र न हो। दो को मध्यम और एक को क्षम्य कहा गया है।)

 

विशेष ध्यान देने योग्य— सिर्फ मुण्डनसंस्कार ही नहीं, बल्कि सामान्य दिनों के क्षौरकर्म (दाढ़ी-बाल बनवाना आदि) स्नान और भोजन के पश्चात् कदापि न करे। दिन के दूसरे प्रहर के बाद भी मुण्डनकर्म न करे। निषिद्ध तिथि-दिन की वर्जना भी अन्यान्य क्षौरकर्म में अवश्य होना चाहिए, किन्तु अशौच-निवृत्ति, कारागर-मुक्ति, यज्ञादि विशेष परिस्थिति में तिथि-वार दोष नहीं लगता। अर्थात् यदि किसी का दशगात्र यदि शनिवार या मंगलवार को पड़ रहा है, तो भी उसदिन मुण्डन कराना चाहिए।

एक और बात का भी ध्यान रखना चाहिए, जिस पर लोगों का ध्यान बिलकुल नहीं जाता— जिस पुरुष की पत्नी गर्भवती हो उसे किसी की शवयात्रा में शामिल नहीं होना चाहिए और न मुण्डन कराना चाहिए। किन्तु यहाँ सामान्य क्षौरकर्म की वर्जना नहीं है। और न गोत्रज-सपिण्डज अशौच से ही बचने का उपाय है—यानी अशौच हो जाने पर तो कराना ही होगा।

इस सम्बन्ध में मुहूर्तचिन्तामणि संस्कार प्रकरण के ३५वें, ३६वें श्लोक पर भी ध्यान देना चाहिए। यथा—क्रतु पाणिपीड सूतिः बन्धमोक्षणे क्षुरकर्म च द्विजनृपाज्ञयाऽऽचरेत्। शववाहतीर्थगमसिन्धु-मञ्जनक्षुरमाचरेन्न खलु गर्भिणीपतिः ।। नृपाणां हितं क्षौरभे श्मश्रुकर्म दिने पञ्चमे पञ्चमेऽस्योदये वा । षडग्निस्रिमैत्रोऽष्टकः पञ्चपित्रोऽब्दतोऽब्ध्यर्यमा क्षौरकृन्मृत्युमेति ।। अस्तु।

                             

                       

                                                          

                   चूड़ाकरण-चौल-मुण्डन-संस्कार प्रयोग

 

पूर्व चर्चित विविध संस्कारों की तुलना में चूड़ाकरण संस्कार का कर्मकाण्ड किंचित् दीर्घ है। अन्यान्य पूजन-सामग्रियों सहित किंचत् अतिरिक्त सामग्री की आवश्यकता होती है। अतः पहले उन अतिरिक्त सामग्रियों की सूची दिए देता हूँ। तत्पश्चात् प्रयोगविधि पर चर्चा होगी।

१.      नूतन पीत वस्त्र (केशाधिवासन हेतु)—एक हाथ परिमाण

२.     शीतलजल एवं उष्णजल अलग-अलग पीतल की कटोरी में (इस कटोरी को क्रिया सम्पन्न हो जाने के बाद नापित को दे देना चाहिए)।

३.      मक्खन, दही, घृत—दो-दो चम्मच (मुण्डन के अनन्तर सिर पर लेपन करने हेतु)।

४.       शल्लकी (साही का कांटा)—केशगुच्छों को सुलझाने के लिए। इसका कोई विकल्प ग्राह्य नहीं है।

५.      सताइश हरे ताजे कुश (ये कुशकण्डिका के अतिरिक्त मात्रा है)।

६.      केशमुण्डन हेतु ताम्रावर्णित लौह छुरिका एवं कैंची (नवीन हो तो अच्छा)—इसे भी क्रिया के बाद नापित को दे देना चाहिए।

७.     बैल का गोबर (गाय का यहाँ प्रयोग नहीं है)—कटे हुए केशों के किंचित् भाग को रखने के लिए। लोकाचार में वटुक की बहन-फूआ वगैरह अपने आँचल में लेती हैं और फिर उन्हें कुलदेवता स्थान पर बैल के गोबर में खोंस कर रख दिया जाता है। बहनों को यथेष्ट उपहारादि दिया जाता है।

चूडाकरण संस्कार में सर्वप्रथम केशाधिवासन कर्म होता है। इसे पूर्व रात्रि में ही सम्पन्न कर लेना उचित है। न हो पाये तो उसी दिन प्रातः किया जा सकता है। इस क्रिया के प्रारम्भ में बालक के सिर के केशों को संकल्पित जल से (ऊँ अद्य....करिष्यमाण चूड़ाकरण संस्कार....)अच्छी तरह भिंगो दें। अब नूतन पीत वस्त्र के बारह छोटे-छोटे टुकड़े करके, सब में चन्दन, रोली, हल्दी, दूर्वा, अक्षत, पीला सरसो इत्यादि थोड़ा-थोड़ा बाँध कर पोटलिका बनावें और उसे गणाधिपं नमस्कृत्य... मन्त्र से अभिमन्त्रित करके बालक के शिखास्थल पर तीन सूत्रों के सहारे एक पोटली को मजबूती से बाँध दें।  फिर दाहिनी ओर की बालों की तीन जुटिका (छोटा जूड़ा) बनाकर सभी में एक-एक पोटली पूर्ववत सूत्र से बाँध दें। पुनः इसी तरह बायीं ओर भी तीन जूटिका बनाकर एक-एक पोटली बाँधे। पुनः पीछे की ओर भी इसी तरह तीन जुटिका बनाकर तीन पोटली बाँधे। (शिखास्थल पर पहले ही बाँध चुके हैं)। इस प्रकार बालक के सिर पर दस जूड़े बन चुके। अब गमछे से पगड़ीनामा बन्धन कर दें। ध्यातव्य है दो पोटलियाँ अभी शेष हैं। इनमें एक को छुरिका में और एक को कैंची में बाध देना चाहिए। इस क्रिया के औचित्य और विधि को न समझ पाने के कारण प्रायः लोग एकत्र शिखास्थल पर ही बाँध देते हैं, जबकि सही विधि ये है।

नोट— 1. कर्मकाण्ड चुँकि काफी लम्बा है, इसलिए ऐसी व्यवस्था भी शास्त्र और लोक सम्मत है कि सुविधानुसार क्रियाओं को दो दिनों में विभाजित कर लें, जैसा कि विवाह-यज्ञोपवीतादि में करते हैं। चूड़ाकरण के मुख्य मुहूर्त से पूर्व ही मातृकादिपूजन, नान्दीश्राद्धादि कर्म किए जा सकते हैं। मुख्य दिन मुण्डन एवं वेदिकाकार्य होगा। विभाजित क्रम में कार्य सम्पन्न करने की स्थिति में संशोधित क्रम (करिष्यमाण चूडाकरण संस्कार....) से संकल्प बार-बार करना चाहिए। वैसे भी प्रत्येक क्रिया के आरम्भ में लघुरूप से संकल्प करना उचित है। संकल्प के अन्तर्गत हम स्वयं को चैतन्य करते हैं— देश-काल का बोध कराते हैं और देवर्षियों के प्रति अपनी कृतज्ञता जताते हैं।

2. ध्यातव्य है कि मुण्डनसंस्कार की मुख्य क्रिया सभी आंगिक पूजा एवं होम के पश्चात् ही करना है।

3. सम्पूर्ण कर्मकाण्ड ग्रन्थिबन्धनयुक्त सपत्निक ही होना चाहिए एवं वटुक की उपस्थिति पिता की ओर होनी चाहिए। केशों का प्रथम छेदन भी पिता का ही कर्म है, जैसा कि जातकर्मसंस्कार में नालच्छेदन पिता का ही कर्म है। इसे लोकव्यवहार में लोग भूल गए हैं।

 

संक्षिप्त संकल्प वाक्य (विस्तृत हेतु पुस्तक का परिशिष्टखंड देखें)—

ऊँ अद्य....गोत्रः सपत्नीकः...शर्माऽहं....नाम्नः अस्य कुमारस्य बीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणायुर्वर्चोऽभिवृद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वर प्रीत्यर्थं चूड़ाकरणसंस्कारं करिष्ये। तदङ्गत्वेन स्वस्तिपुण्याह-वाचनं मातृकापूजनं वसोर्धारापूजनमायुष्यमन्त्रजपं साङ्ककल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये। तत्रादौ कर्मणः निर्विघ्नतासिद्ध्यर्थं गणेशाम्बिकयोः पूजनं च करिष्ये।

संकल्पित सभी देवों का आवाहन पूजन करने के बाद सवा हाथ की वालुका वेदी बनाकर पुस्तक के परिशिष्टखण्ड में निर्दिष्ट विधि से पंचभूसंस्कार करना चाहिए।  

ध्यातव्य है प्रत्येक कार्य में होमार्थ अग्नि की भिन्न-भिन्न संज्ञा होती है। आहुति की मूल प्रक्रिया तो वही होती है, किन्तु आहुति द्रव्य एवं मन्त्र भेद होता है। अतः उन बातों की संक्षिप्त चर्चा यहाँ कर दी जा रही है।

मुण्डनसंस्कार में सभ्य नामक अग्नि में आहुति प्रदान करते हैं। तदनुसार आवाहन-पूजन के लिए मन्त्र होगा—ऊँ सभ्यनामाग्नये सुप्रतिष्ठितो वरदो भव। ऊँ सभ्यनामाग्नये नमः।  

कुशकण्डिका, पात्रासादनादि क्रिया सम्पन्न करने के बाद अन्य हवन की तरह यहाँ भी पहले आधार-आज्यभाग संज्ञक होम करना चाहिए। दिए गए मन्त्रों का उच्चारण करते हुए स्रुवा में घी लेकर आहुति प्रदान करे और स्रुवाशेष घृत को प्रोक्षणीपात्र में छिड़कते जाना चाहिए। यथा—

१.  ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।

२.  ऊँ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।

३.  ऊँ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम।

४. ऊँ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।

अब भूरादि नौ आहुतियाँ (प्रायश्चित्तहोम स्वरूप) प्रदान करें—

१.          ऊँ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम।

२.         ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम।

३.         ऊँ स्व स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।

४.         ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः । यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्र मुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

५.         ऊँ स त्वं नो अग्नेऽवसो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुणँरराणो वीहि मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

६.         ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यभित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भषजँ स्वाहा। इदमग्नयेऽयसे न मम।

७.        ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा ।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।

८.         ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमँश्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं वरुणायादित्यादितये न मम।

९.         तदन्तर मानसिक उच्चारण करते हुए अन्तिम आहुति प्रदान करेऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।

 

अब स्विष्टकृत् आहुति प्रदान करें (इस क्रम में ब्रह्मा कुश से होता का स्पर्श किए रहें) ऊँ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।

तदनन्तर प्रोक्षणी पात्र में हुतशेष प्रक्षेपित घृत को अनामिका अंगुलि के स्पर्श से होठों में लगावे। इसे संस्रवपाशन कहते हैं। ये क्रिया वटुक (जिसका मुण्डन होना है) को भी कर दे। तदन्तर हाथ धोकर, आचमन करे और प्रणीता के जल से सिर पर कुशाभिषेक करे (अपना और बालक का)ऊँ समित्रिया न आप ओषधयः सन्तु। तदुपरान्त उसी कुशा से एक बार नीचे की ओर जल छिड़केऊँ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः ।

तदनन्तर कुशा को अग्नि में छोड़ दे और हाथ धोकर, जलपुष्पाक्षतादि लेकर पूर्णपात्रदानर्थ संकल्प करे

ऊँ अद्य... कृतैतच्चूड़ाकरणहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्म-प्रतिष्ठार्थमिदं पूर्णपात्रं सदक्षिणाकं प्रजापतिदैवतं ...गोत्राय शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे। 

ब्रह्मा स्वस्ति बोलते हुए पूर्णपात्र ग्रहण करें।

अब प्रणीतापात्र को ईशानकोण में उलट दे और गिरे हुए जल से पुनः मार्जन करेऊँ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम् ।

अब उपयमन कुशों को अग्नि में छोड़ दे तथा आगे बर्हिहोम कार्य सम्पन्न करे, यानी वेदी के चारों ओर बिछाए गए कुशों को उसी क्रम से उठावे, जिस क्रम से बिछाया गया था और अग्नि में छोड़ता जाए इस मन्त्रोच्चारण पूर्वकऊँ देवा गातु विदो गातुं वित्त्वा गातुमित । मनसस्पत इमं देव यज्ञँ स्वाहा वाते धाः स्वाहा।

ध्यातव्य है कि किसी भी कार्य में ब्राह्मणभोजन अति आवश्यक है। अतः अब तीन ब्राह्मणभोजन हेतु पुष्पाक्षतजलद्रव्यादि लेकर संकल्प करे (ये संकल्प सभी देवों के पूजन के पश्चात् यानी होम से पहले भी कर लिया जा सकता है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि क्रिया के अन्त में कराया जाने वाला विप्र-भोजन इससे अलग चीज है। चूड़ाकरण संस्कार के अन्त में दस ब्राह्मण भोजन हेतु अन्त में फिर से संकल्प करेंगें। तदनुसार संकल्पवाक्य भिन्न होगा )—

 ऊँ अद्य... गोत्रः सपत्नीकः... शर्माऽहं....नाम्नः अस्य कुमारस्य चूड़ाकरण-संस्कारपूर्वाङ्गतया विहितान् त्रीन् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये।

 

चूड़ाकरणसंस्कार की मुख्य विधि—  

यहाँ तक के कर्म सम्पन्न कर लेने के पश्चात् चूड़ाकरण का मुख्य कर्म प्रारम्भ होगा। सर्वप्रथम बालक के केशों को जल से शोधित करे। इसके लिए पहले से रखे गए शीतल जल को गर्म जल में निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक मिश्रित करें— ऊँ उष्णेन वाय उदकेनेह्यदिते केशान् वप।

 तदनन्तर मौन होकर उस जल में थोड़ा सा मट्ठा, घृत, दही, मक्खन इत्यादि भी थोड़ा-थोड़ा मिलावें।

 

दाहिने भाग के केशों का उन्दन, बन्धन, छेदनादिकर्म—

तदनन्तर बालक का पिता उत्तराभिमुख हो जाए एवं पूर्वाभिमुख बैठे बालक के सिर के दाहिने भाग में बाँधी गयी तीन जूटिकाओं में दक्षिण तरफ वाली जूटिका को निम्न मन्त्र से क्रमशः शीतोदक, उष्णोदक एवं मिश्रजल से बारी-बारी से भिंगोए—ऊँ सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं दीर्घायुत्वाय वर्चसे ।

अब उस पहली जूटिका को साहीकंटक से सुलझाते हुए, पूर्वस्थापित सत्ताइश कुशों में से तीन कुश लेकर उनके अग्रभाग को पहली जूटिका के साथ लगाकर निम्न मन्त्रोच्चारण करे— ऊँ ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनँ हिँ सीः ।

अब कुशयुक्त केशों को बाँयें हाथ से पकड़कर निम्न मन्त्रोच्चारण पूर्वक समीप में पहले से ही रखे गए छूरिका (उस्तरा) को अपने दाहिने हाथ में ग्रहण करे— ऊँ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हिँ सीः ।

अब निम्न मन्त्रोच्चारण पूर्वक जूटिका के बालों को छुरिका से स्पर्श करे—ऊँ नि वर्त्तयाम्ययुषेऽन्नद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ।

अब इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए कुशों समेत केशों की पहली जूटिका का छेदन करे— ऊँ येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान् । तेन ब्रह्मणो वपतेदमस्यायुष्यं जरदष्टिर्यथाऽसत्।

तदनन्तर बालक का पिता उन कटे हुए केशों के अग्रभाग को आगे रखते हुए, बालककी माता की ओर बढ़ावे। माता उसे लेकर, पहले से किसी काँस्यपात्र में रखे हुए बैल के गोबर पर रख दे। पिता शुद्ध जल से हस्त प्रक्षालन करले।

अब बारी-बारी से ऊपर कही गयी विधि से ही बालक का पिता दाहिनी ओर की शेष दो जूटिकाओं का छेदन करे और माता उन्हें ग्रहण करके, बैल के गोबरपिण्ड पर रखती जाए।

ध्यातव्य है कि इन दो जूटिकाओं के छेदन में विधि तो वही रहेगी, किन्तु पूर्व कथित मन्त्रों की पुनरावृत्ति नहीं करनी है। यानी अमन्त्रक कर्म ही सम्पन्न होंगे।

 

 अब क्रमशः पिछले और बायें भाग की जूटिकाओं का छेदन भी इसी भाँति करेंगे। यहाँ भी वे सारी क्रियाएं करनी हैं। क्रिया विधि पूर्ववत ही है। सभी मन्त्र भी समान ही हैं, सिर्फ जूटिकाछेदन के मन्त्र में भिन्नता है।

 

पिछले भाग के केशों का छेदनकर्म—

पिछले भाग में बाँधी गयी तीन जूटिकाओं में दक्षिण तरफ वाली जूटिका को निम्न मन्त्र से क्रमशः शीतोदक, उष्णोदक एवं मिश्रजल से बारी-बारी से भिंगोए—ऊँ सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं दीर्घायुत्वाय वर्चसे ।

अब उस पहली जूटिका को साहीकंटक से सुलझाते हुए, पूर्वस्थापित सत्ताइश कुशों में से तीन कुश लेकर उनके अग्रभाग को पहली जूटिका के साथ लगाकर निम्न मन्त्रोच्चारण करे— ऊँ ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनँ हिँ सीः ।

अब कुशयुक्त केशों को बाँयें हाथ से पकड़कर निम्न मन्त्रोच्चारण पूर्वक पास में पहलेसे रखे गए छूरिका(उस्तरा)को अपने दाहिने हाथ में ग्रहण करे— ऊँ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हिँ सीः ।

अब निम्न मन्त्रोच्चारण पूर्वक जूटिका के बालों को छुरिका से स्पर्श करे—ऊँ नि वर्त्तयाम्ययुषेऽन्नद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ।

अब इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए कुशों समेत केशों की पहली जूटिका का छेदन करे— ऊँ त्रायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम् । ऊँ यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽस्तु त्र्यायुषम्।।

तदनन्तर बालक का पिता उन कटे हुए केशों के अग्रभाग को आगे रखते हुए, बालककी माता की ओर बढ़ावे। माता उसे लेकर, पहले से काँस्यपात्र में रखे बैल के गोबर पर रख दे। पिता शुद्ध जल से हस्त प्रक्षालन करले।

अब बारी-बारी से ऊपर कही गयी विधि से ही बालक का पिता पिछली ओर की शेष दो जूटिकाओं का छेदन करे और माता उन्हें ग्रहण करके, बैल के गोबरपिण्ड पर रखती जाए। ध्यातव्य है कि इन दो जूटिकाओं के छेदन में विधि तो वही रहेगी,किन्तु पूर्व कथित मन्त्रों की पुनरावृत्ति नहीं करनी है। यानी अमन्त्रक कर्म ही सम्पन्न होंगे।

बाँयें भाग के केशों का उन्दन, बन्धन, छेदनादिकर्म — बांयें भाग में बाँधी गयी तीन जूटिकाओं में दक्षिण तरफ वाली जूटिका को निम्न मन्त्र से क्रमशः शीतोदक, उष्णोदक एवं मिश्रजल से बारी-बारी से भिंगोए—ऊँ सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनूं दीर्घायुत्वाय वर्चसे ।

अब उस पहली जूटिका को साहीकंटक से सुलझाते हुए, पूर्वस्थापित सत्ताइश कुशों में से तीन कुश लेकर उनके अग्रभाग को पहली जूटिका के साथ लगाकर निम्न मन्त्रोच्चारण करे— ऊँ ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनँ हिँ सीः ।

अब कुशयुक्त केशों को बाँयें हाथ से पकड़कर निम्न मन्त्रोच्चारण पूर्वक पास में पहले से रखी गई छूरिका (उस्तरा) को अपने दाहिने हाथ में ग्रहण करे— ऊँ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हिँ सीः ।

अब निम्न मन्त्रोच्चारण पूर्वक जूटिका के बालों को छुरिका से स्पर्श करे—ऊँ नि वर्त्तयाम्ययुषेऽन्नद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ।

अब इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए कुशों समेत केशों की पहली जूटिका का छेदन करे—ऊँ येन भूरिश्चरा दिवं ज्योक्च पश्चाद्भि सूर्यम् । तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुश्लोक्याय स्वस्तये।

तदनन्तर बालक का पिता उन कटे हुए केशों के अग्रभाग को आगे रखते हुए, बालककी माता की ओर बढ़ावे। माता उसे लेकर, पहले से काँस्यपात्र में रखे बैल के गोबर पर रख दे। पिता शुद्ध जल से हस्त प्रक्षालन करले।

अब बारी-बारी से ऊपर कही गयी विधि से ही बालक का पिता बांयी ओर की शेष दो जूटिकाओं का छेदन करे और माता उन्हें ग्रहण करके, बैल के गोबरपिण्ड पर रखती जाए।

ध्यातव्य है कि इन दो जूटिकाओं के छेदन में विधि तो वही रहेगी, किन्तु पूर्व कथित मन्त्रों की पुनरावृत्ति नहीं करनी है। यानी अमन्त्रक कर्म ही सम्पन्न होंगे।

छूरिका परिभ्रमण—

इस प्रकार कुल नौ बार पिता (वा आचार्य) द्वारा केशछेदन की प्रक्रिया सम्पन्न की गयी। क्रमशः दाहिने, पीछे और अन्त में बांयें भाग की जूटिकाओं का छेदन सम्पन्न हो जाने के पश्चात् अब सिर के चारों ओर छुरिका परिभ्रमण की क्रिया तीन बार की जायेगी। इसमें पहली बार मन्त्रोच्चारण होगा, शेष दो परिभ्रमण अमन्त्रक ही होंगे—

ऊँ यत्क्षुरेण मञ्जयता सुपेशसा वप्त्वा वा वपति केशांश्छिन्धि शिरो माऽस्यायुः प्रमोषीः।  

अब निम्न मन्त्रोच्चारण सहित छुरिका को नापित को समर्पित कर दें— ऊँ अक्षण्वन् परिवप ।

बालक के पिता से नापित छुरिका को सहर्ष ग्रहण करे और स्वयं उत्तराभिमुख बैठकर, पूर्वाभिमुख बैठे वटुक के सिर के शेष केशों को पूर्व व्यवस्थित जल से सुखपूर्वक भिंगो कर, पूर्वभाग से प्रारम्भ करते हुए, विधिवत मुण्डन सम्पन्न करे।

 कुल परम्परानुसार काटे गये जूटिकाओं को बालक की बहन-फूआ आदि अपने आँचल में सहर्ष ग्रहण करती हैं। इसके लिए उन्हें समुचित उपहार दिए जाते हैं। वे उसे ले जाकर कुलदेवता के पास थोड़ी देर के लिए रख छोड़ती है।

यहाँ ध्यान देने की बात है कि सिर्फ जूटिकाओं को ही कुलदेवता के पास रखेंगे। बाद के कटे केशों को कदापि नहीं। नापित द्वारा मुण्डन किये गए केशों को चुनचुन कर एकत्र कर लेना चाहिए एवं बैलके गोबर में लपेट कर, गोशाला या बाहर कहीं विसर्जित कर देना चाहिए। पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से उचित है कि दूर जाकर मिट्टी में गाड़ दे।

अब बालक विधिवत स्नान करे, नूतन वस्त्र धारण करके, कुलाचारानुसार तिलक लगाकर, माता-पिता, गुरुजनों को प्रणाम करे। तत्पश्चात् पुनः अग्निवेदी के समीप आकर त्र्यायुष धारण करे—

ऊँ त्र्यायुषं जमदग्नेः ( कहते हुए ललाट में), ऊँ कश्यपस्य त्र्यायुषम् (ग्रीवा में), ऊँ यद्देवेषु त्र्यायुषम् (दक्षिण बाहु में), ऊँ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्( हृदय में)।

 

क्षौरकर्मोपरान्त नापित को यथेष्ट अन्न, वस्त्र, द्रव्यादि प्रदान करना चाहिए।

 

विप्रभोजन एवं दक्षिणादान संकल्प

ऊँ अद्य... कृतस्य चूड़ाकरणकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थञ्च नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो भूयसीदक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये तथा च यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् सदक्षिणाद्रव्यं भोजयिष्ये ।

 

विसर्जनआवाहित सभी देवों का मन्त्रोच्चारण सहित विसर्जन करें—      यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्।

        इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ।

 ।। ऊँ विष्णवे नमः ऊँ विष्णवे नमः ऊँ विष्णवे नमः ।।

 

आगे अपनी कुल परम्परानुसार शिखा (चोटी) रखे। ध्यातव्य है कि दक्षिणशिखा व वामशिखा का अम्नायानुसार भेद है । यहाँ पुनः स्मरण दिलाना आवश्यक है कि जन्मोपरान्त प्रथम मुण्डनसंस्कार क्रम में शिखास्थापन नहीं है— सशिखावपनं कार्यम्, यानी सम्पूर्ण मुण्डन होना है। किन्तु यज्ञोपवीत के समय जो मुण्डन होगा, उसमें विधि तो लगभग यही होगी, किन्तु शिखा का स्थापन हो जायेगा।

दुर्भाग्यपूर्ण सामाजिक स्थिति ये है कि बहुत से लोग समय पर विधिवत मुण्डनसंस्कार न किए जाने के कारण कुल-गोत्र में हुए विभिन्न अशौचों में भी मुण्डन नहीं करा पाते। सोचने वाली बात है कि वैसे बालक का संस्कार कितना विकृत-दूषित होगा ! आधुनिक विचारधारा वाले लोगों को इसका दुष्प्रभाव प्रत्यक्षतः दिखे, न दिखे, दुष्परिणाम तो भुगतना ही पड़ता है ।

अतः समय पर संक्षिप्त वा विस्तृत विधि से कोई भी संस्कार हो, सम्पन्न तो होना ही चाहिए। अस्तु।   

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क्रमशः जारी.....

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