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अक्षरारम्भ-विद्यारम्भ
संस्कार-परिचय
‘क्षर’ जीव का ‘अक्षर’ संस्कार—आधुनिक ‘प्ले और नर्सरी स्कूल’ के सोच वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों और अभिभावकों के लिए औचित्य विहीन, तथ्य हीन, महत्वहीन बात है। पश्चिमी सोच वालों को भला क्या समझ कि वाल्यावस्था का अधिकाधिक समय माता-पिता, परिवारजन के सानिध्य में व्यतीत होना आवश्यक है। इसके विपरीत, बच्चे का बचपना छीन लिया है नये, तथाकथित सभ्य समाज ने। बड़ी कृपा है ‘सांयन्स’ की कि अभी तक शिक्षा और ज्ञान की गोली, कैपसूल, इन्जेक्शन नयी बनायी। व्यतिक्रमित शिक्षाप्रणाली ने जीते-जागते मनुष्य को मशीन बना डाला है। शिक्षा कब, कैसी, कैसे, कितनी दी जाए—इनकी वैचारिक-सूची में है ही नहीं। आधुनिकता की अँधीदौड़ में हम सब अपने सनातन संस्कारों को विसार बैठे हैं। ‘अक्षरं ब्रह्म परमं’, ‘अक्षराणामकारोऽस्मि’, ‘गिरामस्म्येकमक्षरम्’ इत्यादि सिद्धान्त और विचार रखने वाले ‘पट्टिकापूजक’ देश में भी कदम सम्भालने से पहले ही किताब-कॉपी लाद दी जाती है नवनिहालों के कंधों पर, जिनकी भारी-भरकम बोझ तले उनका कोमल-सुकुमार मेरुदण्ड ही रुग्ण हो जाता है। परिणातः मस्तिष्क प्रतियोगिता की मशीन बन कर रह जाती है।
हमारे
सनातन परिवेश में विधिवत अक्षरारम्भ (विद्यारम्भ) की परम्परा रही है। वस्तुतः ये
दोनों दो भिन्न कृत्य हैं। प्रारम्भ में अक्षरारम्भ संस्कार किया जाना चाहिए एवं
कालान्तर में अक्षरज्ञान सुदृढ़ होजाने पर पुनः उन्हीं क्रियाओं को किंचित
संकल्पभेद से सम्पन्न करना चाहिए। बालक
जब पाँच वर्षों का हो जाता है, तब शुभ मुहूर्त में विद्यादाता विघ्नेश्वर गणेश,
विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती सहित अन्यान्य देव-ऋष्यादि का पूजन करके, पवित्र
आम्रपट्टिका एवं खड़िया (या गेरु) की पूजा करके, अकारादि अक्षर समूह की पूजा की
जाती है। विद्यादाता गुरु की पूजा होती है। होमादि सम्पन्न किए जाते हैं। तब कहीं
ककहारा-मात्रा की बात आती है।
अतः
उचित है कि समुचित वय में, समुचित मुहूर्तादि का विचार करके, विधिवत अक्षरारम्भ संस्कार
कराकर ही बालकों की शिक्षा प्रारम्भ की जाए। उससे पूर्व बालकों को खिलौने तक ही
रहने दें, लेखनी-पुस्तिकादि का बोझ न लादें।
ध्यान रहे—विधिवत संस्कृत बालक की
मेधाशक्ति अद्भुत होगी है, यही कारण है कि अक्षरारम्भ हमारी संस्कार-परम्परा का
प्रधान अंग रहा है।
संस्कार-वय के सम्बन्ध में संस्कारमयूष में महर्षि मार्कण्डेयजी के वचन हैं— प्राप्तेऽथ पञ्चमे वर्षे विद्यारम्भं तु कारयेत् । मूहूर्तचिन्तामणि, संस्कार प्रकरण श्लोक संख्या ३७, ३८ में अक्षरारम्भ और विद्यारम्भ के सम्बन्ध में दो अलग-अलग स्पष्ट निर्देश हैं—
तत्रोत्तरायणे रवौ पञ्चमेऽब्दे गणेशादिविष्णु-सरस्वतीलक्ष्मी
कुलदेवानत्वा सविधि सम्पूज्य च शिशौर्नूतनाक्षर-लेखनारम्भः कार्यः। तथाच अक्षरग्रहणे
दृढ़े संजाते सौम्यायनेरवौ आश्विने कन्यार्क बुधप्राबल्ये विद्यारम्भ कार्यः।
गणेशविष्णुवाग्रमाः
प्रपूज्य पञ्चमाब्दके,
तिथौ
शिवार्कदिग्द्विषट्शरत्रिके रवावुदक्।
लघुश्रवोऽनिलान्त्य
भादितीशतक्षमित्रमे,
चरोनम्रत्तनौ
शिशोर्लिपिग्रहः सतां दिने।।
मृगात्कारच्छुतेस्त्रयेऽश्विमूलपूर्विकात्रये,
गुरुद्वयेऽर्कजीववित्सितेऽह्नि
षट्शरत्रिके।
शिवार्कद्ग्द्विके
तिथौ ध्रुवान्त्यमित्रये परैः,
शुभैरधीतिरुत्तमा
त्रिकोणकेन्द्रगैः स्मृता ।।
जन्म के पंचम वर्ष में उत्तरायण सूर्य में गणेश,
विष्णु, सरस्वती, लक्ष्मी की पूजा करके (कुलदेवता की पूजा यहाँ श्लोक क्रम में
नहीं कहें हैं, जिसका भाव है कि षोडशमात्रिकावेदी पर सामान्य रूप से उन्हें पूजित
कर लिया जा रहा है), द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी, द्वादशी
तिथियों में (दुर्योगादि वर्जना पूर्वक) (शुक्लपक्ष उत्तम, कृष्णपक्ष पंचमीतिथि
पर्यन्त मध्यम), श्रवण, स्वाती, रेवती, पुनर्वसु, आर्द्रा, चित्रा, अनुराधादि तथा
लघुसंज्ञक (अश्विनी, हस्ता, पुष्य, अभिजित्) नक्षत्रों में, चर लग्न रहित यानी
स्थिर लग्न (वृष, सिंह, वृश्चिक, कुम्भ- उत्तम) (मिथुन, कन्या, धनु, मीन- मध्यम)
में, शुभ दिनों—सोम, बुध, शुक्रवार को अक्षरारम्भ संस्कार करे। मु.चि. से भिन्न (अन्यत्र)
लग्नशुद्धि के सम्बन्ध में कहते हैं कि २,३,६,९,१२ स्थानों में शुभग्रह हों, अष्टमस्थान
रिक्त (शुद्ध) हो, स्थिर लग्न होते हुए भी कुम्भ और कुम्भांश न हो—ऐसे समय में
अक्षरारम्भ संस्कार करे। विद्यारम्भसंस्कार के समयशुद्धिसम्बन्ध में किंचिच्
भेद सहित लगभग यही बातें हैं। तिथिक्रम
में तृतीया को ग्रहण नहीं किए हैं, दिन में रविवार और गुरुवार को भी ग्रहण कर लिए
हैं। केन्द्रत्रिकोण में शुभग्रहों को प्राथमिकता दी गयी है। नक्षत्रों में
मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, हस्ता, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा,
शतभिषा, अश्विनी, मूल, तीनों पूर्वा, तीनों उत्तरा, पुष्य, श्लेषा, रेवती और रोहिणी
को ग्रहण किए हैं।
अक्षरारम्भ-विद्यारम्भ संस्कार-प्रयोग
पुनः ध्यातव्य है कि उक्त दोनों संस्कारों में किंचित् कालभेद है। प्रथम की सुदृढ़ता के पश्चात् द्वितीय संस्कार की क्रिया सम्पन्न होनी चाहिए। शेष प्रयोगविधि बिलकुल समान है, भेद है तो सिर्फ संकल्पवाक्य में अक्षरारम्भ/विद्यारम्भ का। मुहूर्त क्रम में भी यत्किंचित् अन्तर है- इसका भी ध्यान रखना चाहिए।
शुभ
मुहूर्त में स्नानादि से निवृत होकर, नूतन वस्त्र धारण कर, पूजास्थल पर पूजन-सामग्रियों को एकत्र कर ले। पिता या आचार्य द्वारा पूजनकार्य सम्पन्न किया
जाए। पूजन के प्रारम्भिक कृत्य — आचमन, प्राणायामादि के पश्चात् साक्षीदीप एवं
रक्षादीप प्रज्वलित कर लें। तत्पश्चात् स्वस्तिवाचन-संकल्प करे।
(यहाँ संक्षिप्त संकल्प सहित पूजा-निर्देश
मात्र दिया जा रहा है। ध्यातव्य है कि किसी भी पूजा में मुख्य कृत्य के पूर्व
आंगिक रूपसे स्वस्तिवाचनोपरान्त गौरीगणेश, कलश, नवग्रह, लोकपाल, दिक्पाल, मातृकादि
पूजन अत्यावश्यक है। पुण्याहवाच एवं नान्दीश्राद्ध वैकल्पिक होते हुए भी कर लिया
जाना उत्तम है। विस्तृत जानकारी हेतु
परिशिष्टखण्ड का अवलोकन करें।)
संकल्प— ऊँ
अद्य....गोत्रः सपत्नीकः...शर्माऽहं....नाम्नः अस्य कुमारस्य (मम पुत्रस्य) लेखनवाचनादिविपुलविद्याज्ञानप्राप्तये श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं
अक्षरारम्भ/विद्यारम्भसंस्कारं करिष्ये। तदपूर्वाङ्गत्वेन स्वस्तिपुण्याहवाचनं
गणपतिसहित-गौर्यादिषोडशमातृकापूजनं वसोर्धारापूजनमायुष्यमन्त्रजपं साङ्ककल्पिकेन
विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये। तत्रादौ कर्मणः निर्विघ्नतासिद्ध्यर्थं
गणेशाम्बिकयोः पूजनं च करिष्ये।
(नान्दीश्राद्ध
के विषय में पहले अन्य प्रसंगों में भी कहा जा चुका है, पुनः यहाँ स्मरण दिलाना
चाहता हूँ कि यथासम्भव सभी संस्कारों में इसे समाहित कर लिया जाना अति उत्तम है। )
उक्त संकल्पित देवपूजनोपरान्त
वहीं पूजामण्डप में ही एक ओर नूतन श्वेत वस्त्र आम्रकाष्ठपीठिका पर विछाकर, श्वेत चावल
से अष्टदलकमल चित्रित करें। उसमें क्रमशः गणेश, सरस्वती, लक्ष्मीनारायण, कुलदेवता,
गुरु आदि का नाममन्त्रों से अक्षत छोड़ते हुए आवाहन करें।
तदनन्तर
उसी पीठिका पर पंक्तिवद्ध रूप से अक्षतपुंजों को रखते हुए क्रमशः नारद, पाणिनि,
पतञ्जलि, कपिल, कात्यायन, पारस्कर, यास्क, कपिंजल, गोभिल, जैमिनि, विश्वकर्मा,
बृहस्पति एवं व्यासादि को आवाहित करें।
उपलब्ध हो तो किंचित् पवित्र धर्मग्रन्थों को भी यथास्थान व्यवस्थित कर दें।
(ध्यातव्य है कि प्रारम्भिक रूप से गौरीगणेश की पूजा
पहले ही कर चुके हैं)
अब
पुष्पाक्षत लेकर उन्हें प्रतिष्ठित करें— ऊँ एतन्ते देव सवितर्यज्ञं
प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे तेन यज्ञमव तेन यज्ञपतिं तेन मामव। ऊँ गणेशादिदेवाः
नारदादिदेवर्षयः विद्याचार्याश्च सुप्रतिष्ठिताः वरदा भवन्तु ।
तदनन्तर
सबके नाम मन्त्रों का उच्चारण करते हुए (ऊँ गणेशाय नमः सर्वोपचार्थे
गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि। ऊँ सरस्वत्यैनमः सर्वोपचार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि
समर्पयामि, नमस्करोमि इत्यादि) यथोपलब्ध सामग्री से विधिवत पूजन करें।
तत्पश्चात् विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को पुष्पाक्षत लेकर प्रणाम करें— सर्वविद्ये
त्वमाधारः स्मृतिज्ञानप्रदायिके । प्रसन्ना वरदा भूत्वा देहि विद्यां स्मृतिं
यशः।।
संकल्पित
सभी देवों का आवाहन पूजन करने के बाद सवा हाथ की वालुका वेदी बनाकर पुस्तक के परिशिष्टखण्ड
में निर्दिष्ट विधि से पंचभूसंस्कार करना चाहिए। अक्षरारम्भसंस्कारक्रम में इस
कार्य को संक्षेप में भी कर सकते हैं।
ध्यातव्य
है प्रत्येक कार्य में होमार्थ अग्नि की भिन्न-भिन्न संज्ञा होती है। अक्षरारम्भसंस्कारक्रम
में पुष्टिवर्धन नामक अग्नि को आहूत करते हैं। आहुति की मूल प्रक्रिया तो
वही होती है, किन्तु आहुति द्रव्य एवं मन्त्र भेद होता है। अतः उन बातों की
संक्षिप्त चर्चा यहाँ कर दी जा रही है।
तदनुसार
आवाहन-पूजन के लिए मन्त्र होगा—ऊँ पुष्टिवर्धननामाग्नये सुप्रतिष्ठितो वरदो भव।
ऊँ पुष्टिवर्धननामाग्नये नमः।
अब कुशकण्डिका,
पात्रासादनादि क्रिया सम्पन्न करने के बाद अन्य हवन की तरह यहाँ भी पहले आधार-आज्यभाग
संज्ञक होम करना चाहिए। दिए गए मन्त्रों का उच्चारण करते हुए स्रुवा में घी लेकर
आहुति प्रदान करे और स्रुवाशेष घृत को प्रोक्षणीपात्र में छिड़कते जाना चाहिए। यथा—
१. ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं
प्रजापतये न मम।
२. ऊँ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय
न मम।
३. ऊँ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये
न मम।
४. ऊँ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय
न मम।
उक्त आधार
एवं आज्यभाग की चार आहुति के पश्चात् गणेशादि सभी आवाहित देवताओं के नाममन्त्रों
से क्रमशः पृथक-पृथक आठ-आठ आहुतियाँ घी से प्रदान करना चाहिए। यथा—
ऊँ गणेशाय नमः स्वाहा। ऊँ सरस्वत्यै नमः स्वाहा। ऊँ
कुलदेवतायै नमः स्वाहा । ऊँ गुरवे नमः
स्वाहा। ऊँ लक्ष्मीनारायणाय नमः स्वाहा। ऊँ नारदाय नमः स्वाहा। ऊँ पाणिनये नमः
स्वाहा। ऊँ पतञ्जलये नमः स्वाहा। ऊँ कपिलाय नमः स्वाहा। ऊँ कात्यायनाय नमः स्वाहा।
ऊँ पारस्कराय नमः स्वाहा। ऊँ यास्काय नमः स्वाहा। ऊँ कपिंजलाय नमः स्वाहा। ऊँ
गोभिलाय नमः स्वाहा। ऊँ जैमिनये नमः स्वाहा। ऊँ विश्वकर्मणे नमः स्वाहा। ऊँ
देवगुरु बृहस्पतये नमः स्वाहा। ऊँ व्यासाय नमः स्वाहा।
अब भूरादि नौ
आहुतियाँ (प्रायश्चित्त होम स्वरूप) प्रदान करें—
१. ऊँ भूः स्वाहा, इदमग्नये
न मम।
२. ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे
न मम।
३. ऊँ स्व स्वाहा, इदं
सूर्याय न मम।
४. ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्
देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः । यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्र
मुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम। ५. ऊँ
स त्वं नो अग्नेऽवसो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो
वरुणँरराणो वीहि मृडीकँ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
६. ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च
सत्यभित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भषजँ स्वाहा। इदमग्नयेऽयसे न
मम।
७. ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः
पाशा वितता महान्तः तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः
स्वाहा ।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः
स्वर्केभ्यश्च न मम।
८. ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि
मध्यमँश्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं
वरुणायादित्यादितये न मम।
९. तदन्तर मानसिक उच्चारण करते हुए अन्तिम आहुति प्रदान करें— ऊँ
प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।
तदनन्तर प्रोक्षणी
पात्र में हुतशेष प्रक्षेपित घृत को अनामिका अंगुलि के स्पर्श से होठों में लगावे।
इसे संस्रवपाशन कहते हैं। ये क्रिया बालक को भी कर दे। तदन्तर हाथ धोकर, आचमन करे और
प्रणीता के जल से सिर पर कुशाभिषेक करे (अपना और बालक का)— ऊँ
समित्रिया न आप ओषधयः सन्तु। तदुपरान्त
उसी कुशा से एक बार नीचे की ओर जल छिड़के— ऊँ
दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः ।
तदनन्तर
कुशा को अग्नि में छोड़ दे और हाथ धोकर, जलपुष्पाक्षतादि लेकर पूर्णपात्रदानार्थ संकल्प करे—
ऊँ अद्य...कृतैततअक्षरारम्भसंस्कारक्रमे
होमकर्मणि कृताकृता-वेक्षणरूपब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं पूर्णपात्रं सदक्षिणाकं
प्रजापति दैवतं ...गोत्राय शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे।
ब्रह्मा स्वस्ति
बोलते हुए पूर्णपात्र ग्रहण करें। आचार्यादि को भी दक्षिणा प्रदान करें।
अब
प्रणीतापात्र को ईशानकोण में उलट दे और गिरे हुए जल से पुनः मार्जन करे— ऊँ आपः
शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम् । उपयमन कुशों को अग्नि में छोड़ दे तथा आगे बर्हिहोम
कार्य सम्पन्न करे, यानी वेदी के चारों ओर बिछाए गए कुशों को उसी क्रम से
उठावे, जिस क्रम से
बिछाया गया था और अग्नि में छोड़ता जाए इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक—
ऊँ देवा गातु विदो गातुं वित्त्वा गातुमित । मनसस्पत इमं
देव यज्ञँ स्वाहा वाते धाः स्वाहा।
किसी भी
कार्य में ब्राह्मणभोजन अति आवश्यक है। अतः अब तीन ब्राह्मणभोजन हेतु पुष्पाक्षतजलद्रव्यादि
लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य... गोत्रः सपत्नीकः... शर्माऽहं....नाम्नः
अस्य कुमारस्य अक्षरारम्भसंस्कारपूर्वाङ्गतया विहितान् त्रीन् ब्राह्मणान्
भोजयिष्ये।
अक्षरारम्भसंस्कार की प्रधान विधि—
देवपूजन-होमादि
सम्पन्न हो जाने के पश्चात् वस्त्रालंकृत बालक को अपने समीप बैठा कर सभी पूजित
देवों को प्रणाम करावे। तदनन्तर पश्चिमाभिमुख बालक को पूर्वाभिमुख गुरु के सामने
बैठावे। बालक द्वारा निम्नांकित मन्त्र से गुरु एवं देवी सरस्वती को नमस्कार करावे—
अज्ञानतिमिरान्धस्य
ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।। ऊँ सरस्वति
नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि। विश्ववन्द्ये विशालाक्षि विद्यां देहि नमोऽस्तु ते।।
तदनन्तर विद्याप्रदाता गुरु या पिता
हरिद्रा रंजित आम्रपट्टिका का पंचोपचार पूजन बालक से कराये।
तदनन्तर श्री
गणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः । श्रीकुलदेवतायै नमः । श्री गुरुभ्यो नमः ।
श्रीलक्ष्मीनारायणाय नमः। ऊँ नमः सिद्धम्। लिखने के बाद क्रमशः सभी स्वर एवं
व्यंजन वर्णों का लेखन करके, उन लिखित वर्णमात्रिकाओं का बालक द्वारा पंचोपचार
पूजन इस मन्त्र से सम्पन्न करावे—ऊँ पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं
वष्टु धियावसुः । ऊँ लिखितसरस्वत्यै नमः ।। अब आचार्य( वा पिता) बालक का हाथ
पकड़कर पूर्व लिखित अक्षरों पर तीन बार बालक द्वारा पुनर्लेखन करावे, साथ ही
वर्णों का उच्चारण भी कराता जाए।
तदनन्तर
गुरु (आचार्य) को उष्णीष (पगड़ी), वस्त्रादि भेंट कराये बालक द्वारा एवं
प्रदक्षिणा कराये। सुवासिनियाँ बालक का अक्षताभिषेक करके, आरती उतारें। आचार्य को
समुचित दक्षिणा प्रदान करे।
विप्रभोजन एवं भूयसि दक्षिणादान संकल्प —
ऊँ
अद्य... कृतस्य आक्षरारम्भसंस्कार साङ्गतासिद्ध्यर्थं
न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थञ्च नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो भूयसीदक्षिणां
विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये तथा च यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् सदक्षिणाद्रव्यं
भोजयिष्ये ।
विसर्जन—आवाहित सभी देवों का मन्त्रोच्चारण सहित विसर्जन करें— यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम् । इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ।
।। ऊँ विष्णवे नमः ऊँ विष्णवे नमः ऊँ विष्णवे
नमः ।।
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क्रमशः जारी.....
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