षोडशसंस्कारविमर्श भाग पन्द्रह उपनयन,यज्ञोपवीत,वेदारम्भ,समावर्तनादि परिचय

 

         उपनयन,यज्ञोपवीत,वेदारम्भ,समावर्तन संस्कार परिचय

                          

इस समेकित संस्कार-खण्ड को समझने से पूर्व, संस्कार-परिचय (इस पुस्तक के प्रथम अध्याय)  में वर्णित गौतमस्मृति के प्रसंग का पुनरावलोकन करते हैं— गौतमस्मृति में संस्कारों की संख्या ४० कही गयी है। यथा— गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तोन्नयनं जातकर्म नामकरणान्नप्राशनचौलोपनयनं चत्वारि वेदव्रतानि स्नानं सहधर्मचारिणीसंयोगः......। यथा— गर्भाधन, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, उपनयन,  चतुर्वेदव्रत, समावर्तन (स्नान), विवाह....।

गौतमस्मृत्यानुसार चालीस संस्कारों में चौल सातवाँ और विवाह चौदहवाँ संस्कार है। ध्यातव्य है कि चतुर्वेदव्रत में चार संस्कार समाहित हैं। इस सातवें से चौदहवें के बीच ही उपनयन, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, समावर्तनादि संस्कार आते हैं। इनके बाद सीधे विवाह संस्कार है। प्राचीन समय में इन्हें क्रमशः अलग-अलग समयों में सम्पन्न किया जाता था। चौल-मुण्डन के पश्चात् टुक को यज्ञोपवीत धारण कराकर, गायत्री दीक्षा दे दी जाती थी, ताकि वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त हो जाए। याज्ञवल्क्यस्मृति में कहा गया है—

उपनीय गुरुः शिष्यं महाव्याहृतिपूर्वकम्। वेदमध्यापयेदेनं शौचाचाराँश्च शिक्षयेत् ।। (अर्थात् उपनयन करके आचार्य महाव्याहृतियों के साथ वेदका अध्ययन कराये और शौचाचार की भी शिक्षा दे)।  तदन्तर्गत अपनी शाखानुसार विहित वेद का  पहले अध्ययन कराया जाता था, तत्पश्चात् अन्य वेदों का। वीरमित्रोदय  संस्कारप्रकाश वर्णित महर्षि वशिष्ठ के वचन से स्पष्ट है—अधीत्य शाखामात्मीयां परशाखां ततः पठेत् । इस प्रकार क्रमशः चारों वेदों का चतुर्वेदव्रत संस्कार होता था, तदन्तर्गत सांगोपांग (षडंगयुक्त) वेदाध्ययन की परम्परा थी — 

        छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते

        ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।

        शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्

        तस्मात्सांगमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते॥

पाणिनीशिक्षा में इसकी महत्ता और औचित्य को स्पष्ट किया गया है—छन्द को वेदों का पैर, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक और व्याकरण को मुख कहा गया है।

            वेदवेदांगों का सम्यक् ज्ञान प्रदान करने के पश्चात् गुरु अपने शिष्य से ऊँ विरामोऽस्तु ऐसा कहकर विराम करते थे, तत्पश्चात् नियमों की जानकारी दी जाती थी। वेदविद्यादि समाप्ति के पश्चात् मन्त्राभिषेक पूर्वक स्नान होता था। इस प्रकार ज्ञानोदधि में स्नात् (स्नातक) विलक्षण प्रतिभासम्पन्न हुआ करते थे, जिनकी तुलना आजकल के स्नातक (ग्रैजुएट) से करना ही व्यर्थ है। स्नातकोपरान्त ब्रह्मचर्य के चिह्न मौञ्जीमेखला आदि का परित्याग करना पड़ता है। साथ ही अबतक धारित जटा-लोमादि का परित्याग कराकर, गार्हस्थोपयुक्त चिह्नों (चन्दन, कज्ज्ल, पुष्पहार, अलंकारादि धारण कराया जाता है। वस्तुतः शिक्षा-समाप्ति के पश्चात् गुरुगृह से पितागृह वापसी का आदेश ही समावर्तनसंस्कार है, जिसे दीक्षान्तसंस्कार भी कह सकते हैं। इस संस्कारक्रम में गुरु द्वारा स्नातक को सुमुचित गृहस्थोचित उपदेश किए जाते हैं।   

तैत्तिरीयोपनिषद् शीक्षावल्ली (शिक्षा के अर्थ में ही वैदिक प्रयोग—शीक्षा, जिसकी व्याख्या द्वितीय अनुवाक में की गयी है— शीक्षां व्याख्यास्यामः....) के ग्यारहवें अनुवाक् में इसकी वृहत् चर्चा है। इन उपदेशों का यथासम्भव पालन करने से स्नातक से गृहस्थ हुए व्यक्ति का जीवन सदाचारमय, आनन्दमय होता है। अतः इसे सर्वकालोपयोगी समझते हुए यहाँ यथावत प्रस्तुत किया जा रहा है— सत्यं वद । धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। भृत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् । देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। यान्यनवाद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। यान्यस्माकँ सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि। ये के चास्मच्छ्रेयाँसो ब्राह्मणाः। तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम्। श्रद्धया देयम्। अश्रद्धयादेयम्। श्रिया देयम् । हृया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्। अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः । युक्ता आयुक्ताः । अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तत्र वर्तेरन् । तथा तत्र वर्तेथाः। अथाभ्याख्यातेषु। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः । युक्ता आयुक्ताः । अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तेषु वर्तेरन् । तथा तेषु वर्तेथाः । एष आदेशः । एष उपदेशः । एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम् । एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्।।  

( हे पुत्र ! तुम सदा सत्य भाषण करना। आपत्ति काल में भी झूठ का आश्रय न लेना। अपने वर्णाश्रम के अनुकूल शास्त्रसम्मत धर्म का अनुष्ठान करना। स्वाध्यायसे अर्थात् वेदों के अभ्यास, सन्ध्यावन्दन, गायत्रीजप और भगवन्नामगुणकीर्तन आदि नित्यकर्म में कभी आलस्य (प्रमाद) न करना। गुरु के लिए दक्षिणास्वरूप उनकी रूचिके अनुरूप धनादि लाकर, प्रेमपूर्वक देना। उनकी आज्ञा से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके स्वधर्म का पालन करते हुए सन्ततिपरम्परा को सुरक्षित रखना, उसका लोप न करना। अर्थात् शास्त्रविहित  विवाहिता पत्नी से ऋतुकालचर्चा का पालन करते हुए—अर्थात् ऋतुस्नान के पश्चात् सहवास करके सन्तानोत्पत्ति कार्य अनासक्तिपूर्वक करना। तुमको कभी भी सत्य से चूकना नहीं चाहिए। हास-परिहासक्रम में भी झूठ न बोले। इसी भाँति धर्मपालन में भी चूक न हो कभी। आलस्य व प्रमादवश धर्मकार्य की अवहेलना न हो। लौकिक व शास्त्रीय कर्त्तव्यरूपसे प्राप्त शुभकर्मों का त्याग वा उपेक्षा न हो। धन-सम्पत्ति को बढ़ाने वाले लौकिक उन्नति के साधनों के प्रति भी उदासीन नहीं होना चाहिए। इसके लिए वर्णाश्रमोचित चेष्टा करनी चाहिए। पढ़ने-पढ़ाने के मुख्य नियमों का आलस्यवश त्याग नहीं करना चाहिए। अग्निहोत्र, यज्ञादि अनुष्ठान, देवकार्य, पितृकार्यादि सम्पादन में भी आलस्य न हो और न उनकी अवहेलना करे। हे पुत्र !   तुम माता-पिता, आचार्य और अतिथि में देवबुद्धि रखना, यानी उनकी मर्यादाओं का सम्यक् ध्यान रखते हुए आज्ञाओं का पालन करना। समुचित सेवा करना। जगत् में जो-जो निर्दोष कर्म हैं, उनका सेवन करना एवं निषिद्धकर्मों का सर्वथा त्याग करना। गुरुजनों के आचार-व्यवहार में उत्तम (शास्त्रानुमोदित) आचरणों के विषय में निःशंक रहना। उनका अनुकरण करना। जिनके विषय में शंका हो उनका अनुकरण न करना। वय, विद्या, तप,आचरणादि में ज्येष्ठ-श्रेष्ठ जनों का आगमन पर पाद्यादि से सम्मान और यथोचित सेवा करना। यथाशक्ति सहर्ष सात्त्विक भाव से दान देना। हम दान दे रहे है ये भाव मन में न हो, क्योंकि संसार की सभी वस्तुएं प्रभु की हैं। हम किसी का उपकार कर रहे हैं—ऐसी भावना से अहंकार उत्पन्न होता है। अतः इससे बचना चाहिए।  ये सब करते हुए तुम्हें किसी अवसर पर कर्त्तव्य निश्चय में दुविधा हो, अपनी बुद्धि  से किसी निर्णय पर पहुँचने में कठिनाई हो तो उचित परामर्श देने में कुशल, सत्कर्म-सदाचाररत किसी विद्वान ब्राह्मण से सम्पर्क करना और उनके निर्देशों का पालन करना। यही सब शास्त्रों का मर्म है। यही रहस्य है। यही अनुशासन है। यही उपदेश है। )

स प्रकार स्पष्ट है कि चौल के पश्चात् समावर्तन तक बटुक माता-पितादि पारिवारिक परिवेश से अलग रहते हुए सुदीर्घ काल के लिए गुरुकुल वासी होता था। ब्रह्मचारी होता था। पूरी शिक्षा-दीक्षा के पश्चात् ही (समावर्तन) पारिवारिक-नागरिक परिवेश में पदार्पण होता था, जहाँ विवाहसंस्कार  करके गृहस्थ जीवन की शुरुआत होती थी।

काल और परिवेश परिवर्तन के साथ-साथ गुरुकुल व्यवस्था ध्वस्त हो गयी। गुरुकुल के नाम पर यथाकदा जीवित भी हैं, तो वहाँ की अन्तः-वाह्य व्यवस्था पहले से भिन्न है। वैदिक संस्कारों के प्रति अभिरूचि कम हो रही है। फलतः प्रायः संस्कारों का लोप होता जा रहा है। आधुनिकता में औंधेमुंह गिरे लोगों को यज्ञोपवीत का कोमल तन्तु भी बोझ प्रतीत हो रहा है।

            हालाँकि व्यावहारिक कठिनाई पर विचार करते हुए पूर्वाचार्यों ने काफी पहले ही (निश्चित समय नहीं मालूम) इन्हें समेकित स्वरूप दे दिया है। उपनयन यज्ञोपवीत का पर्याय बन चुका है, जब कि ये उपनय का एक अंग मात्र है। यज्ञोपवीत संस्कार की विस्तृत कर्मकाण्डीय विधि को समेट दिया गया है। उपलब्ध उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार पद्धतियों में समावर्तन तक की क्रिया निर्दिष्ट है। यानी घंटे दो घंटे के कर्मकाण्ड में ही मुण्डन, यज्ञोपवीत, गायत्रीदीक्षा, वेदोपदेश एवं गृहस्थोपदेश—सबकुछ सम्पन्न हो जाता है।

            (इस प्रकार उपनयनादि चारो संस्कारों के समेकित स्वरूप से परिचय कराने के पश्चात् अब आगे यज्ञोपवीत पर विशेष चर्चा अपेक्षित है। अतः इसकी चर्चा क्रमशः चार उपखण्डों में आगे की जार रही है।) अस्तु।  

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क्रमशः.....             

           

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