षोडशसंस्कारविमर्श भाग सत्रह- यज्ञोपवीत का शरीरशास्त्रीय आधार

 

          यज्ञोपवीत का शरीरशास्त्रीय आधार

                   

आयुर्वेद का बहुचर्चित ग्रन्थ—प्रत्यक्षशारीरम् एवं  शरीरक्रिया विज्ञानम् शारीरिक संरचना और क्रियाविधि को विस्तृत रूप से व्याख्यायित करता है। तदनुसार मानव मात्र की संरचना एक समान है। आधुनिक विज्ञान की भी यही मान्यता है। ऐसे में ये जिज्ञासा स्वाभाविक है कि जब मानवमात्र की संरचना एक समान है, तो फिर यज्ञोपवीत की आवश्यकता सिर्फ द्विजों के लिए ही क्यों?

इसे समझने के लिए सनातन धर्मशास्त्र और कर्मशास्त्र का विहगावलोकन आवश्यक प्रतीत हो रहा है। श्रीमद्भगवद्गीता ४-१३ में श्रीकृष्ण के वचन हैं— चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । (चारों वर्णों की रचना मैंने गुण और कर्म के आधार पर की है)। स्पष्ट है कि शारीरिक और बौद्धिक क्षमता में सूक्ष्मातिसूक्ष्म अन्तर अवश्य है चारों वर्णों में, भले ही शरीरशास्त्र और शरीरक्रियाविज्ञान की दृष्टि से समानता प्रतीत हो।

प्रत्यक्षतः हम पाते हैं कि सुनार और लुहार की हथौड़ी एक समान कदापि नहीं हो सकती, भले ही दोनों में उपयोग किया गया लौहधातु एक जातीय है। एक तत्त्वीय है। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की शारीरिक संरचना तात्त्विक रूप से एक समान भले ही हो, किन्तु कहीं न कहीं सूक्ष्म अन्तर अवश्य है, जिसे हम सामान्य रूप से समझ नहीं पाते। हाँ, इतनी बात अवश्य है कि कर्मानुसार इसमें गुणात्मक परिवर्तन किया जा सकता है। उत्तरोत्तर प्रखर कर्मों से शूद्र ब्राह्मण बन सकता है और कर्मच्युति से ब्राह्मण शूद्रवत स्थिति में पहुँच सकता है।

हाथ की पाँच छोटी-बड़ी अँगुलियों की भाँति, सामाजिक व्यवस्था के सुचारु रूप से संचालन हेतु वर्णाश्रमधर्म की सनातनी व्यवस्था थी। उन दिनों ऊँच-नीच जैसी विचारधारा नहीं थी। क्षैतिज रूप से यानी समान धरातल पर सभी वर्ण अपने-अपने विहित कर्मों में रत और सन्तुष्ट थे। परस्पर एक दूसरे के सहयोग और कल्याण की भावना से सामाजिक कार्य सम्पन्न होते थे। बौद्धिक क्षमताबहुल ब्राह्मण यज्ञ-तपादि बल से सामाजिक उत्थान में संलग्न थे, तो क्षत्रियों पर शारीरिक शौर्यबल से सबके संरक्षण का दायित्व था। वैश्य कृषि-गोरक्ष-वाणिज्यादि कार्यों से सबका भरण-पोषण करते थे, तो शूद्र पर सबकी सेवा का दायित्व था। वर्णाश्रमधर्म का सम्यक् पालन हो रहा था। सुख, शान्ति, सौहार्द्र का वातावरण था। ब्राह्मणों के तपोयज्ञ से सिर्फ ब्राह्मणों का ही कल्याण नहीं था, प्रत्युत पूरे समाज का कल्याण निहित था। शूद्रों को यम, नियम, संयमादि से पूरी छूट दी गयी थी। कंपकपाती शीतलहरी में ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर, सहस्र गायत्री जपने से जो लाभ ब्राह्मण को मिलता था, उतना किसी शूद्र को मन्दिर की सफाई कर देने मात्र से ही मिल जाता था। 

किन्तु  युगानुसार कालान्तर में किंचित् विसंगतियाँ उत्पन्न हुई। बड़े-छोटे, ऊँच-नीच आदि भेद-भाव पनपने लगे। वर्णाश्रम व्यवस्था चरमाराने लगी। अज्ञानवश शूद्रों को ऐसा लगने लगा कि यज्ञोपवीत कोई ऐसी चीज है, जिसपर द्विजों ने एकाधिपत्य जमा रखा है। वेद और वेदमाता गायत्री से उन्हें वंचित रखकर उनके साथ अन्याय किया जा रहा है। परिणामतः कई ऐसी संस्थाएं जन्म लेने लगीं, जो इन बातों को तोड़मरोड़ कर, व्याख्यायित करने लगी और समाज में नये ढंग से अपना वर्चश्व स्थापित करने लगी। तो दूसरी ओर द्विजों में ऐसी भावना जगने लगी मानों उनपर ये नियम-संयम बोझ स्वरूप लादे गए हैं। शूद्रों की तरह खान-पान, रहन-सहन की छूट उन्हें नहीं मिल रही है। कुल मिलाकर देखा जाए तो अज्ञान और असन्तोष चारों वर्णों में व्याप्त हो गया। जिसका दुष्परिणाम सामने है। कोई भी वर्ण अपने विहित कर्मों से सन्तुष्ट नहीं है।

            प्रस्तुत प्रसंग में विवेच्य विषय यज्ञोपवीत है। अतः  यौगिक (शरीरशास्त्रीय) आधार पर इसका विचार करते हैं। द्विजों की सूक्ष्म शारीरिक संरचना अष्टांगयोग के अनुकूल है। मानव शरीर का सर्वोच्च शिखर कपालखण्ड है। जाबालदर्शनोपनिषद, घेरण्डसंहिता, पातञ्जलयोगदर्शन आदि ग्रन्थों में कहा गया है कि मानव शरीर में कुल ७२००० प्राणवाहिनी नाडियाँ हैं, जो शरीर के विभिन्न भागों से होकर गुजरती हैं, जिनमें चौदह नाड़ियाँ मुख्य हैं। इन चौदह में दो हैं—पूषा और यशस्विनी, जो क्रमशः मेरुदण्ड से निकलकर दक्षिण एवं वाम कर्ण तक गमन करतीं है। मेरुदण्ड से होकर गुजरने वाली तीन सर्व प्रमुख नाडियाँ हैं—इडा, पिंगला और सुषुम्णा।  यूँ तो सभी नाडियों का यथास्थान महत्व है, किन्तु शरीर के ऊर्जाप्रवाह को संतुलित रखने में इन पाँचों की विलक्षण भूमिका है। इनमें  तीन मुख्य और दो सहयोगी हैं। यज्ञोपवीत का सम्बन्ध इन्हीं पाँचों से है। विदित है कि महाशक्ति जागरण, संतुलन और ऊर्ध्वगमन में नाड़ीगुच्छों का महत् योगदान है। 

ध्यातव्य है कि यज्ञोपवीत की सामान्य अवस्थिति वायें कंधे पर पंचमनाड़ीगुच्छ (विशुद्धि) के समीप रहती है, जो नीचे की ओर लटकते हुए क्रमशः चतुर्थ और तृतीय पर अनुगमन करती है। ये तृतीय ही सूर्यलोक-अग्नितत्त्व है। सूर्य का सम्बन्ध गायत्री से है, जो वेद (ज्ञान) की अधिष्ठात्री भी हैं।

            ऊर्जाप्रवाह के ऊर्ध्वगमन संतुलन और असामयिक पातन पर नियन्त्रण हेतु यज्ञोपवीत (ब्रह्मसूत्र) की उपयोगिता है। ब्रह्मतेज पूरित सूत्र को मूत्र-पुरीष परित्याग (लघुशंका-दीर्घशंका) के समय दोनों कर्णमूलों से संश्लिष्ट रखना आवश्यक होता है। लघुशंका के समय अनियन्त्रित शुक्र (वीर्य) का स्खलन न हो जाए, इसके लिए पूषानाड़ी पर बन्धन डालना आवश्यक है। एवं दीर्घशंका (मलत्याग) के समय ये दायित्व और अधिक बढ़ जाता है, क्योंकि नीचे (प्रथम नाड़ीगुच्छ) भी उस समय बन्धनमुक्त हो जाता है। ऐसे में वामकर्ण स्थित यशस्विनीनाड़ी पर भी बन्धन लगाना आवश्यक हो जाता है। इतना ही नहीं इन दोनों नाड़ियों के बीच शरीर का विशुद्धिनाड़ीगुच्छ (गर्दन वाला भाग) भी सन्तुलन की अपेक्षा रखता है। आयुर्विज्ञान जिसे अवटुकाग्रन्थि (थॉयरॉयडग्लैन्ड) कहता है, शौचकर्म में उस विशुद्धिखण्ड का भी महत् योगदान है।

ध्यान देने की बात है कि मलत्याग के समय यज्ञोपवीत का पहले दक्षिणकर्ण पर तीन बार फेरा लगाते हैं, फिर गर्दन के सामने से गुजारते हुए वामकर्ण पर दो फेरे लगाते हैं। इस प्रकार पूषा, यशस्विनी और विशुद्धिनाड़ीगुच्छ का सम्यक् बन्धन और सन्तुलन स्थापित हो जाता है।

यहाँ एक और बात ध्यान रखने योग्य है कि ब्राह्मण का सिर सिर्फ शौचादि के समय ही ढका होना चाहिए, जबकि नीचे का प्रथम और द्वितीय नाड़ीगुच्छ का भाग खुला हुआ हो। अन्य समय में कदापि नहीं। अज्ञानवश लोग पूजा-पाठ के समय में सिर ढक लेते हैं और शौच के समय खुला छोड़ देते हैं— ये दोनों स्थितियाँ असंगत और योगविज्ञान के प्रतिकूल हैं।

चक्रसाधन की प्रारम्भिक प्रक्रिया है नाड़ीशोधन। जो कि न्यूनतम तीन महीनों और अधिकतम तीन वर्षों का अभ्यास है। सम्यक् नाड़ीशोधन से अन्तःकाय की शुद्धि हो जाती है। ऐसे में वायें कन्धे से नाभिमण्डल पर्यन्त तीन प्रमुख चक्रों को समाहित किए यज्ञोपवीत अपनी उपस्थिति-अनुपस्थिति, शुचिता-अशुचिता का सहज ही बोध करा देता है। इसे प्रयोगात्मक रूप से समझा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है।

            आयुर्विज्ञान की दृष्टि से उच्चरक्तचाप, हृदयरोग, मधुमेह, पौरुषग्रन्थिशोथ, अवटुकाग्रन्थिशोथ इत्यादि विभिन्न बीमारियों के सन्तुलन में भी यज्ञोपवीत का विशेष योगदान है।

            सनातनी परम्परा से अवगत लोग भलीभाँति अवगत हैं कि गैर द्विज भी मल-मूत्र परित्याग के समय गमछे से दोनों कान सहित सिर को बाँध लेते थे। गमछे से कानों को बाँध लेना भी काफी हद तक शरीर को सन्तुलित कर देता है।   

मल-मूत्र-परित्याग की शारीरिक मुद्रा भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। आधुनिक समय में एक ओर यज्ञोपवीत की अनिवार्यता पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, तो दूसरी ओर अंग्रेजी पहरावे और चलन में खड़े होकर मूत्र त्याग करना, कुर्सीनुमा आसन पर बैठ कर मल त्याग करना अनेकानेक व्याधियों को निमन्त्रण दे रहा है। हमें चाहिए कि भारतीय सनातनी परम्परा की वैज्ञानिकता को परखें, समझें और सम्यक् अनुपालन करें। अस्तु। 

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क्रमशः.....

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