षोडशसंस्कारविमर्श भाग उन्नीस- यज्ञोपवीतःपरिमाण और निर्माण

 

           यज्ञोपवीतःपरिमाण और निर्माण

              

यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण द्विजत्व-प्राप्ति का प्रमाणपत्र तुल्य है। इसके वगैर द्विज-पुत्र भले ही कहे जा सकते हैं, किन्तु द्विजत्व उपलब्ध नहीं हो सकता। धर्मशास्त्रानुसार इसके बिना सावित्रीपतित (व्रात्य) हैं। वस्तुतः  विनश्वर स्थूल शरीर को यज्ञोपवीत संस्कार कराकर, विशिष्ट ज्ञानशरीर प्रदान किया जाता है। 

यज्ञोपवीत को ब्रह्मसूत्र भी कहा गया है, जिसे संस्कार के दिन से मृत्युपर्यन्त शरीर से अलग नहीं करने का निर्देश है शास्त्रों में। इस अति महत्त्वपूर्ण ब्रह्मसूत्र के निर्माण की विशिष्ट विधि है और धारण करने की मर्यादा। विषम परिस्थितियों में अपवित्र यज्ञोपवीत का परित्याग करके, नूतन के धारण का विधान है।

सर्वप्रथम इसके शुचितापूर्ण निर्माण-प्रक्रिया के वैदिक, यौगिक, दार्शनिक एवं धर्मशास्त्रीय आधार को समझें।

ध्यातव्य है कि यज्ञोपवीतसंस्कार के अन्तर्गत गायत्रीदीक्षा का विधान है—यही मूल उद्देश्य भी है। गायत्रीमन्त्र (छन्द) में चौबीस अक्षर होते हैं। विदित है कि वेद चार हैं। अतः इस चौबीस को चार से गुना करते हैं, जिससे  छियानबे की संख्या प्राप्त होती है। इसीलिए श्रुतियों ने ९६ अंगुल (चौआ) परिमाण के पवित्र कर्पाससूत्र से यज्ञोपवीत निर्माण का निर्देश दिया है। वशिष्ठस्मृति में कहा गया है— चतुर्वेदेषु गायत्री चतुर्विंशतिकाक्षरी । तस्माच्चतुर्गुणं कृत्वा ब्रह्मतन्तुमुदीरयेत् ।।

अब इसके वैदिक आधार का अवलोकन करें। लक्षं तु चतुरो वेदा लक्षमेकं तु भारतम्—इस आप्त वचनानुसार वैदिक ऋचाओं की संख्या एकलाख कही गयी है। वैदिकभाष्य में महर्षि पतञ्जलि ने इसकी पुष्टि की है। इन एक लाख मन्त्रों में ८०,००० ऋचायें कर्मकाण्ड से सम्बन्धित हैं। १६००० ऋचायें उपासनाकाण्ड से सम्बन्धित हैं एवं शेष ४००० ऋचायें ज्ञानकाण्ड से सम्बन्धित हैं। चुँकि यज्ञोपवीतसंस्कार से कर्मकाण्ड और उपासनाकाण्ड का अधिकार प्राप्त होता है। इस प्रकार दोनों मिलाकर ९६००० वैदिक ऋचाओं का अधिकार मिलता है द्विज बटुक को। ध्यातव्य है कि ज्ञानकाण्ड सम्बन्धी शेष ४००० ऋचाओं के लिए पुनः संन्यासदीक्षा की आवश्यकता होती है। संन्यासदीक्षा के समय शिखा-सूत्र का त्याग कर दिया जाता है। इस प्रकार ९६००० वैदिक ऋचाओं के अधिकार-प्राप्ति के निमित्त छियानबे अंगुल परिमाण सूत्र निर्मित यज्ञोपवीतधारण का निर्देश है। इन तथ्यों से ये भी स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ—तीन आश्रमों तक इसे वहन करना है।

अब इस ९६ अंगुल (चौआ) सूत्र परिमाण के एक और शास्त्रीय आधार पर विचार करें—सृष्टि त्रिगुणात्मिका है, यानी सत्त्व, रज, तम तीन गुण व्याप्त हैं समस्त सृष्टि में। हमारे शरीर का निर्माण पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश नामधारी पंच महाभूतों से हुआ है। पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त पंच प्राण (प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान)— इन बीस बाह्यकरणों के साथ-साथ चार अन्तःकरणों का योग (समुच्चय) है हमारा शरीर। इस प्रकार कुल x+= २० + = २४ तत्त्वों का समावेश है हमारे शरीर में। इसकी त्रिगुणात्मिका आवृत्ति करने पर बहत्तर की संख्या प्राप्त होती है। ( २४ x = ७२ ) स्थूल, सूक्ष्म और कारण रूपी त्रिवृत्तों से इस शरीर को मुक्त करने हेतु गायत्री महामन्त्र के चौबीस वर्णों की साधना आवश्यक है और इस साधना हेतु यज्ञोपवीत धारण करना अपरिहार्य है। उक्त बहत्तर में चौबीस का योग करने पर छियानबें की संख्या प्राप्त होती है। ( ७२+२४ =९६) अतः भुक्ति-मुक्ति के सन्मार्ग की चेतना सदा बनी रहे, इस उद्देश्य से छियानबें अंगुल परिमाण वाले सूत्र से यज्ञोपवीत का निर्माण किया जाता है।

इन्हीं गूढ़ तथ्यों को सामवेद छन्दोगपरिशिष्ट में किंचित् भिन्न रीति से स्पष्ट किया गया है— तिथिवारञ्च नक्षत्रं तत्त्ववेदगुणान्वितम्।

              कालत्रयं च मासाश्च ब्रह्मसूत्रं हि षण्णवम्।।

हमारा शरीर पचीस तत्त्वों से निर्मित है, जिसमें सत्त्वादि तीन गुण सर्वदा व्याप्त रहते हैं। तत्त्वों और गुणों को मिलाने पर अठाईस की संख्या बनती है। तिथि, वार, नक्षत्र, काल, मास, वेदादि विविध भागों में विभक्त अनेक संवत्सरपर्यन्त संसार में जीवन धारण करना पड़ता है।

इन सबका योग छियानबे होता है। यथा— तत्व २५ + गुण ३+ तिथि १५+ वार + नक्षत्र २७+ वेद ४+ काल ३+ मास १२= ९६

            ये सब तो हुयी यज्ञोपवीत निर्माणार्थ सूत्र के परिमाण सम्बन्धी बातें। अब सूत्र निर्माण से ब्रह्मसूत्र निर्माण तक की प्रक्रिया पर विचार करते हैं।  कात्यायनपरिशिष्ट में इस पर विशद चर्चा है—

अथातो यज्ञोपवीतनिर्माणप्रकारं वक्ष्यामः...। तत् निर्दिष्ट प्रक्रिया वर्तमान बाजारवादी व्यवस्था के लिए कठिन या कहें अव्यावहारिक सी है। अतः इसका सार संक्षेप यहाँ प्रस्तुत है—

            ऋषि कहते हैं कि यज्ञोपवीत निर्माण हेतु गाँव से बाहर किसी तीर्थस्थल, मन्दिर, गोशालादि में जाकर अनध्याय रहित किसी  दिन संध्यावन्दनादि नित्यकर्म तथा एक माला, दस माला  वा यथाशक्ति गायत्रीमन्त्रजप करके, ऐसे सूत से जनेऊ तैयार करे, जो स्वयं या किसी ब्राह्मणीकन्या वा सधवाब्राह्मणी द्वारा काता गया हो। उस सूत को भूः का उच्चारण करते हुए छियाननबे चौआ (हाथ की चार अंगुलियों को आपस में मिलाने पर बनने वाला पैमाना चौआ कहलाता है) चार अंगुलियों के मूल भाग पर लपेटे और संख्या पूरी हो जाने पर पलाशपत्र पर रख दे। इसी भाँति पुनः भुवः का उच्चारण करते हुए, एवं पुनः स्वः का उच्चारण करते हुए दो और सूत्रखंड निकाले और पलाशपत्र पर रख दे। तदनन्तर क्रमशः आपोहिष्ठा..., शं नो देवी..., तत्सवितुः... इत्यादि वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करते हुए सूत को अच्छी तरह जल से भिंगोकर, बाँये हाथ में लेकर तीन बार जोर से आघात करे, फिर उक्त तीनों व्याहृहियों (भूः भुवः स्वः) से उसे एक वट देकर एकरूप करे। अब इन्हीं मन्त्रों से उसे त्रिगुणित करे और पुनः वटकर एकरूप बना ले। इस प्रकार तैयार नौ तन्तुओं वाले सूत में दोनों घुटनों के सहयोग से एक विशेष विधि से मालाकार बनाले और त्रिगुणित करके, उसके मूल भाग में ब्रह्मग्रन्थि लगावे।

            प्रणव महामन्त्र पूर्वक ब्रह्मग्रन्थि लगाने का अभिप्राय है कि ब्रह्म प्रादूर्भूत विश्व का ध्यान बना रहे। ब्रह्मतत्त्व को भूलकर सांसारिक मायाजाल में फँसे न रह जाँय, प्रत्युत तदर्थ उपाय करें। ब्रह्माण्ड नियामक तीनों देवों और तीनों शक्तियों, तीनों गुणों का सदैव ध्यान बना रहे। प्रणव के तीनों वर्ण—अ,उ,म् के सामीप्य का चिन्तन होता रहे। इसके साथ ही अपनी कुलपरम्परानुसार गोत्र-प्रवरादि भेद से १, ३ या ५ गाँठ लगाने का भी विधान है, जो पूर्वजों के स्मरण और आभार अभिव्यक्ति का प्रतीक है।

            तीन सूत्र और त्रिवृत का कारण भी मननीय है। सनातनधर्म में तीन की संख्या बड़ी महत्त्वपूर्ण है— आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक—सभी क्षेत्रों में। प्रचलित चार वेदों में प्रधान तीन ही हैं—ऋक्, यजुः और साम । त्रिदेव—ब्रह्मा, विष्णु , महेश। त्रिकाल—भूत, वर्तमान, भविष्य। त्रिगुण—सत्त्व, रज, तम। ऋतुत्रय—ग्रीष्म, वर्षा, शीत। त्रिलोक—पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक। यही त्रिगुणात्कम भाव आधार है त्रिसूत्र और त्रिवृत का। तीन सूत्र में मानवत्व, देवत्व और गुरुत्व भाव निहित है। मृत्युलोक से द्युलोक की ओर ऊर्ध्वगमन हेतु उपासना, ध्यान और सत्कर्म का भाव अपनाना है। तीन तन्तुओं को तीन महाव्याहृतियों से पूरित करते हुए नौ तन्तुमय सूत्र के निर्माण का यही अभीष्ट है।

            यज्ञोपवीत के नौ तन्तुओं में नौ देवों का वास है। सामवेद छन्दोगपरिशिष्ट में कहा गया है—

ऊँकारोऽग्निश्च नागश्च सोमः पितृप्रजापती।

वायुः सूर्यश्च सर्वश्च तन्तु देवा अमी नव।।

ऊँकारः प्रथमे तन्तौ द्वितीयेऽग्निस्तथैव च ।

तृतीये नागदैवत्वं चतुर्थे सोम देवता।।

पञ्चमे पितृदैवत्वं षष्ठे चैव प्रजापतिः।

सप्तमे मारुतश्चैव अष्ठमे सूर्य एव च।।

सर्वे देवास्तु नवमे इत्येतास्तन्तुदेवताः।।

इस प्रकार तैयार जनेऊ में ओंकार, अग्नि, वायु, अनन्त, सूर्य, चन्द्र, पितृगण, प्रजापति आदि सर्वदेवादि का आवाहन, स्थापन, पूजन करने के बाद उद्वयं तमसस्परिस्व... इत्यादि वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करते हुए सूर्य को दिखावे ।

 इस विधि और माप से स्वयं बनाया हुआ जनेऊ धारक के कटिभाग पर्यन्त होता है। बाँयें कंधे पर टिका हुआ जनेऊ दाँयी ओर नाभि को स्पर्श करते हुए कटिप्रान्त तक पहुँचे—इससे ऊपर और न नीचे। आकार छोटा होने पर आयु का और बड़ा होने पर तप का नाशक होता है। अधिक मोटा होने पर यश का और पतला होने पर धन का नाशक भी होता है। यथा—

            पृष्ठदेशे च नाभ्याञ्च धृतं यद्विन्दते कटिम् ।

            तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम्।।

            आयुर्हरत्यतिह्रस्वमतिदीर्घ तपोहरम्।

            यशोहरत्यतिस्थूलमतिसूक्ष्मं धनापहम्।।

कात्यायन का ये निर्णय सामुद्रिकशास्त्रानुसार भी उचित है। मानवशरीर का आयाम निज अंगुल से चौरासी से एकसौआठ अंगुल तक ही होता है। इसका मध्यमान छियानबे होता है। अतः स्वनिर्मित इस विशिष्ट परिमाण वाला जनेऊ हर स्थिति में कटि पर्यन्त ही होगा, ये सिद्ध है।

            वर्तमान व्यवस्था में हम सीधे बाजार के बने-बनाये जनेऊ पर निर्भर हो गए हैं, ये बिलकुल अनुचित है, क्योंकि वो किसी काम का नहीं है। उसमें तन्तुओं की संख्या भी गलत है और लगायी गयी ग्रन्थियाँ भी अपने गोत्र-प्रवरादि के अनुकूल नहीं है। तकुए या चरखे से कटे सूत अभी भी बाजर में उपलब्ध हो जाते हैं। उन्हें घर लाकर, उक्त विधि का पालन किया जा सकता है। ये भी यदि नहीं कर सकते, तो कम से कम त्रिगुणित मोटा सूता जो जनेऊ के धागे के नाम से बाजार में मिल जाता है (सेन्थेटिक नहीं) को घर लाकर, अपने अंगुल परिमाण से छियानबे चौआ निकाल कर, घुटने के सहारे समुचित परिमाण में सही विधि से जनेऊ बनाया जा सकता और विधिवत प्राणप्रतिष्ठित करके धारण किया जा सकता है। प्राणप्रतिष्ठा विधि नित्यकर्मपद्धतियों में उपलब्ध है। अस्तु।

 (पूरी विधि बिलकुल व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) है, जिसे लिपिबद्ध करना जरा कठिन है। लिख भी दूँ तो नियम पढ़कर जनेऊ बना नहीं पायेंगे। खास कर सही दिशा में फँदे लगाना और गाँठ डालना ध्यान देने वाली बात है। अतः किसी अनुभवी से व्यावहारिक ज्ञान लेना उचित है)।

क्रमशः.....

Comments