षोडशसंस्कारविमर्श भाग सोलह-यज्ञोपवीत का धर्मशास्त्रीय आधार

 

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            यज्ञोपवीत का धर्मशास्त्रीय आधार

                              

सनातन धर्मियों के लिए ये बड़ी चिन्ता और दुःख की बात है कि कलिकाल-प्रभाव से हमारे अन्दर संस्कारहीनता के बीज बहुत तेजी से प्रस्फुटित हो रहे हैं। अज्ञानवश अपरिहार्य षोडशसंस्कारों की सिमटती संख्या से यज्ञोपवीतसंस्कार भी लुप्त होता जा रहा है। जिन कुलों में इसका पालन भी हो रहा है, तो सिर्फ नियम-निर्वाह मात्र। मेरी यही कुलपरम्परा है...मेरे यहाँ ऐसा नहीं चलता है...इत्यादि बचकाने तर्क देकर, विहित वय , विहित विधि और मुहूर्त की अवहेलना करते हुए, जैसे-तैसे जनेऊ के नाम पर गले में धागा लटका देते हैं विवाह संस्कार के समय। और चुँकि विवाह के समय जनेऊ हो रहा है, तो ऐसे में मुण्डन कराकर बुढ़ऊ दूल्हेराजा का रूप बिगाड़ना भला कौन चाहेगा ! और मुण्डन ही नहीं तो दीक्षा क्या? इतना ही नहीं, तथाकथित नियम-निर्वाह के पश्चात् भी यज्ञोपवीत के मूल उद्देश्य—संध्या-गायत्री में भी कोई अभिरूचि नहीं दीखती लोगों की, वेदोपनिषद की तो बात ही दूर। जब वेदमाता (गायत्री) ही नहीं, फिर वेद क्या और जब वेद ही नहीं, तो फिर सनातन धर्म क्या ! ऐसे में इन्हें विधर्मी कहा जाए तो अपमान अनुभव होगा। विधर्मी ना भी कहें, तो भी शूद्रवत स्थिति तो है ही। किसी भी वैदिककर्म का अधिकार ही कहाँ मिला है इन्हें—सम्यक् उपवीती हुए बिना ! चुँकि द्विज माता-पिता से उत्पन्न हुए हैं, इस कारण शूद्र नहीं हैं, परन्तु शूद्रवत स्थिति तो है ही। इस सम्बन्ध में निरूक्तकार महर्षि यास्क के वचन हैं—

जन्मना जायते शूद्रः संस्करात् भवेत् द्विजः।

वेद पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः।।

जबकि ब्रह्मपुराण में भी उक्त यास्कवचन से किंचित् भिन्न बात कही गयी है— जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।

 विद्यया वापि विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते।।

यहाँ द्विधा जन्म— जन्मना विद्यया च की पुष्टि हो रही है—माता-पिता के द्वारा और फिर आचार्य द्वारा।

 

स्पष्ट है कि जन्मजात सभी शूद्रवत हैं। ( यहाँ  शूद्र और शूद्रवत के सूक्ष्म भेद पर ध्यान देने की जरुरत है।) द्विजत्व, विप्रत्व और ब्रह्मणत्व क्रमिक रूप से संस्कार और कर्म आधारित हैं।

ध्यातव्य है कि द्विजत्व प्राप्ति जनित संस्कारों में उपनयन संस्कार अथवा यज्ञोपवीत संस्कार को सर्वोपरि कहा गया है। इन दोनों में अभेद है। 

उपनयन शब्द उप उपसर्गपूर्वक नी धातुसे ल्यु प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। उप का प्रयोग समीप अर्थ में किया जाता है। उपासना पद में भी यही उप है। वहाँ देवता के समीपता का बोध है और यहाँ उपनयन में आचार्य की समीपता का। नयन का अर्थ नेत्र भी लिया जा सकता है, किन्तु आनयन - ले जाना, लेआना अर्थ अधिक सार्थक प्रतीत होता है। सुसमय पर पितादि द्वारा बालक को विद्यार्जन हेतु योग्य आचार्य के समीप ले जाना—उपनयन का प्रयोजन है। बालक में सम्यक् योग्यता आ जाए, तद्हेतु विशेष क्रिया द्वारा उसे संस्कृत करने का विधान है। इसीलिए उपनयन को एक अपरिहार्य संस्कार कहा गया है ऋषियों द्वारा। मुण्डनादि आंगिक क्रियाओं के अतिरिक्त उपनयन संस्कार में मुख्य दो क्रियायें सम्पन्न होती है—समन्त्रक-संस्कारित यज्ञोपवीत (ब्रह्मसूत्र) धारण करना एवं वेदमाता गायत्री का उपदेश आचार्य द्वारा ग्रहण करना। ध्यान देने योग्य है कि मौञ्जीमेखला भी धारण कराया जाता है, किन्तु समावर्तन के समय उसका परित्याग कर दिया जाता है, जबकि  यज्ञोपवीत और शिखा का परित्याग संन्यास ग्रहण करने पर ही होता है, अन्यथा नहीं। कात्यायनस्मृति १-४  में कहा गया है—

सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च ।

विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम्।। (अर्थात् यज्ञोपवीत सदा धारण किए रहना चाहिए और शिखा में गाँठ लगाये रहना चाहिए। शिखा-सूत्र विहीन होकर किए गए धर्म-कर्म निष्फल होते हैं)।

उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार कराने का अधिकारी कौन? ये भी किंचित् विचारणीय है। पारस्करगृह्यसूत्र २-२-१ में महर्षि वृद्धगर्ग के वचन हैं कि पिता, पितामह, चाचा, सहोदर, गोत्रज बन्धु-बान्धव आदि क्रमशः अधिकारी हैं, यानी पिता पहला अधिकारी है। अभाव में उसके बाद वाले लोग। यथा— (क) पितैवोपनयेत्पुत्रं तदभावे पितुः पिता। तदभावे पितुर्भ्राता तदभावे तु सोदरः।  

(ख) पिता पितामहो भ्राता ज्ञातयो गोत्रजाग्रजाः। उपायनेऽधिकारी स्यात् पूर्वाभावे परः परः ।। ध्यातव्य है कि ये व्यवस्था सिर्फ ब्राह्मणों के लिए ही है। क्षत्रियादि के लिए एकमात्र पुरोहित वा आचार्य ही विहित हैं।  

यज्ञोपवीत क्या है, क्यों आवश्यक है इत्यादि बातें मननीय हैं। यज्ञोपवीत धारण मन्त्र से ही इन प्रश्नों का समुचित उत्तर मिल जा रहा है—

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च

शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।। शुभ कर्मानुष्ठानार्थ बनाये गए, अत्यन्त पवित्र, ब्रह्मा द्वारा धारित, आयुष्य प्रदान करने वाले सर्वश्रेष्ठ यज्ञोपवीत को मैं धारण करता हूँ। यह मुझे तेज-बल प्रदान करे—यह मन्त्र यज्ञोपवीत धारण के प्रयोजन और महत्ता को स्पष्ट करने हेतु पर्याप्त है।

स्मृतिप्रकाश में कहा गया है— सूचनाद ब्रह्मतत्त्वस्य वेदतत्त्वस्य सूचनात् ।

तत्सूत्रमुपवीतत्वाद् ब्रह्मसूत्रमिति स्मृतम्।। (ब्रह्मतत्त्व और वेदज्ञान की सूचना देने के कारण इसे ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं।)

 

ज्ञातव्य है कि षोडशसंस्कारों में एक, उपनयन संस्कार क्रम में किए जाने वाले यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात् ही द्विजत्त्व प्राप्ति होती है। इस सम्बन्ध में वेद, उपनिषद, धर्मशास्त्र, गृह्यसूत्रादि ग्रन्थ एकमत है। मतान्तर बहुल स्मृतियाँ भी इस विन्दु पर सहमत हैं। अतः द्विजत्व प्राप्ति हेतु ये संस्कार अनिवार्य और अपरिहार्य है। जैसा कि मनुस्मृति २-१७१ में कहा गया है— न ह्यस्मिन् युज्यते कर्म किञ्चिदामौञ्जिबन्धनात् । उपनयन संस्कार के बिना बालक किसी तरह के श्रौत-स्मार्त कर्मों का अधिकारी नहीं है। यानी देवकार्य एवं पितृकार्य का अधिकार यज्ञोपवीत धारणोपरान्त ही प्राप्त होता है। याज्ञवल्क्य स्मृति १-३९ में कहा गया है—मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौञ्जिबन्धनात्। ब्रह्मणक्षत्रियविशस्तस्मादेते द्विजाः स्मृताः।।

(मातृगर्भ से प्रथमोत्पत्ति के पश्चात् मौञ्जीबन्धन यानी उपनयनसंस्कार द्वारा द्वितीय जन्म होने के कारण ही ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों के लिए द्विज संज्ञा  है।) इन्हीं बातों को शंखस्मृति १-६ में भी कहा गया है—

            ब्राह्मणः क्षत्रियोर्वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः ।

            तेषां जन्म द्वितीयं तु विज्ञेयं मौञ्जिबन्धनात् ।।

साथ ही वहीं अगले सातवें श्लोक में प्रथम जनक-जननी से भिन्न द्वितीय जनक-जननी की बात कही गयी है—

            आचार्यास्तु पिता प्रोक्तः सावित्री जननी तथा।

ब्रह्मक्षत्रविशाञ्चैव मौञ्जिबन्धनजन्मनि।। ( द्वितीय जन्म का पिता आचार्य होता है एवं माता वेदमाता सावित्री (गायत्री) होती हैं)। इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति मनुस्मृति २-१७० में भी है—

तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौञ्जीबन्धनचिह्नितम् ।

तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ।।

उक्त प्रमाणों से उपनयनसंस्कार (यज्ञोपवीतसंस्कार) का महत्त्व और प्रयोजन बिलकुल स्पष्ट है। अब जरा इस संस्कार के लिए प्रशस्त वय पर ऋषियों के विचारों का अवलोकन कर लें। क्योंकि वर्तमान समाज में बड़ी भारी चूक हो रही है, इस संस्कार के वय को लेकर। 

उपनयनसंस्कार के लिए विहित वय का शास्त्रीय आधार बड़ा ही रहस्यमय है। पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि उपनयन संस्कार में गायत्री-दीक्षा सर्वोपरि क्रिया है। विदित हो कि वेदमाता गायत्री त्रिपदा कही गयी हैं वेदोपनिषदों में। 

ध्यातव्य है कि सांख्यदर्शनानुसार पचीस तत्त्वों में प्रकृति चौबीसवाँ तत्त्व है और उसके बाद मात्र एक शेष रह जाता है—पुरुष। गायत्री छन्द (मन्त्र) में चौबीस वर्ण हैं। इन वर्णों की सम्यक् साधना से गायत्री का साधक प्रकृति मण्डल को सहज-सुगम रीति से पार कर सकता है। यानी वह पुरुष के बहुत समीप पहुँचने की स्थिति में होता है। इन चौबीस तत्त्वों की यात्रा के तीन पड़ाव हैं, जो आठ-आठ के क्रम से विभाजित हैं। यही कारण है कि उपनयन संस्कार हेतु श्रेष्ठ वय आठवाँ वर्ष ही है। यानी त्रिपदागायत्री का प्रथमपाद—आठवाँ वर्ष सर्वोत्तम है। विशेष तत्त्वदर्शी बनाने की अभिलाषा हो तो माता-पिता को चाहिए कि पाँचवें वर्ष में ही ये संस्कार कर दें— ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे। सामान्य नियमानुसार मनुस्मृति २-३६ में निर्देश है —

गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणास्योपनायनम्।

      गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः ।। (अर्थात ब्राह्मण के लिए आठवाँ वर्ष, क्षत्रिय के लिए ग्यारहवाँ वर्ष एवं वैश्य के लिए बारहवाँ वर्ष प्रशस्त है) पारस्करगृह्यसूत्रम् २-२-१ में भी इन्हीं बातों की पुष्टि है— अष्टवर्षे ब्राह्मणमुपनयेद् गर्भाष्टमे वा। एकादश वर्षं राजन्यम् । द्वादशवर्षं वैश्यम् ।। ध्यातव्य है कि विशेष परिस्थिति में वर्ष-गणना गर्भ से भी करने की बात यहाँ कही जा रही है, यानी गर्भगत व्यतीत नौ मास को भी वय गणना में ग्रहण करते हुए (सात+एक) आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार किया जा सकता है।

 

            किसी कारणवश मुख्य काल में यज्ञोपवीतसंस्कार यदि नहीं कर पाते हैं, ऐसी स्थिति में त्रिपादीय गायत्री की अगली कड़ी का चयन करना चाहिए यानी ब्राह्मणों के लिए सोलहवें वर्ष पर्यन्त की चरमावधि कही गयी है—आषोडशाद्वर्षाद् ब्राह्मणस्यानतीतः कालो भवति । आद्वाविंशाद्राजन्यस्य। आचतुर्विंशाद्वैश्यस्य।। (अर्थात सोलहवें वर्ष तक ब्राह्मण के लिए, बाईसवें वर्ष तक क्षत्रिय के लिए और चौबीसवें वर्ष तक वैश्य के लिए) — पारस्करगृह्यसूत्रम् --३६ एवं मनुस्मृति भी इस चरमावधि की पुष्टि करती है — आषोडशाद् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते। आद्वाविंशात् क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः ।।

प्रमादालस्य वश यज्ञोपवीतसंस्कार के लिए विहित मुख्य काल एवं गौण काल के व्यतीत हो जाने पर द्विज कुल में जन्म लिया हुआ बालक पतितसावित्रीक अथवा व्रात्य कहलाने लगता है। अर्थात् समय पर संस्कार न होने के कारण पतित—निन्दित हो जाता है और वैदिक धर्म-कर्मादि के लिए अयोग्य हो जाता है। अनाधिकारी हो जाता है। ऐसा स्पष्ट निर्देश है शंखस्मृति २-९ में— सावित्रीपतिता व्रात्याः सर्वधर्मबहिष्कृताः। इस सम्बन्ध में मनुमहाराज के वचन हैं— अतः ऊर्ध्वं त्रयोऽपेते यथाकालमसंस्कृताः।  सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः।।

वर्तमानकाल की विडम्बना ये है कि आठवें, सोलहवें की तो बात ही नहीं सोची जाती। चौबीसवाँ वर्ष भी व्यतीत हो जाता है और सीधे विवाहकाल में जनेऊ का धाग लटका दिया जाता है। शिखा तो पहले ही व्यर्थ घोषित कर चुके हैं—आधुनिकता के चक्कर में— उस शिखा को जो हिन्दुत्व की पहचान है। क्या उन्हें हिन्दू कहा जाए—सोचने वाली बात है।

            हमारे ऋषि-महर्षि बड़े ही कृपालु और दयालु हुआ करते थे। सुख-शान्तिमय जीवनायापन करते हुए ज्ञान व मोक्ष की प्राप्ति हेतु सारे नियम-संयम सुझा गए हैं। भले ही आज हम इन गूढ़ बातों को समझ नहीं पा रहे हैं, फलतः अवमानना या अवहेलना कर जाते हैं। सावित्रीपतित—व्रात्य के कल्याण हेतु भी ऋषियों ने सन्मार्ग सुझाया है। कात्यायनश्रौतसूत्र में व्रात्यस्तोम की विधि बतलायी गयी है। तदनुसार अनादिष्टप्रायश्चित विधान से संस्कार करके धर्मानुष्ठान की योग्यता प्राप्त की जा सकती है। व्रात्यदोष निवार्णार्थ प्रायश्चितगोदान भी शास्त्र सम्मत है। अस्तु।   

 

          क्रमशः....                 

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