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उपनयनादि समेकित संस्कार प्रयोग
उपनयनमुहूर्त— सर्वप्रथम
शुभ मुहूर्त-विचार अपेक्षित है। इस सम्बन्ध में श्रीरामदैवज्ञजी ने
मुहूर्तचिन्तामणिनामक ग्रन्थ में विस्तार से निर्देश दिया है। उन निर्देशों का
यथासम्भव विचार करते हुए, पालन करना चाहिए। यानी सिर्फ दिन, तिथि, नक्षत्र और लग्न
का विचार कर लेने से काम नहीं चलता, प्रत्युत सूर्य, चन्द्र, गुरु, शुक्रादि सहित
पापग्रहों की स्थिति का भी विचार अपेक्षित है। गुरु-शुक्रादि शुभग्रहों के अस्त,
वाल, वृद्धादि स्थिति में भी संस्कार वर्जित है। विशेष बात ये है कि धनु और मीन की
संक्रान्तियों (खरमास) में भी अन्य ग्रहादि स्थितियाँ अनुकूल हों तो ब्राह्मण
का यज्ञोपवीतसंस्कार हो सकता है, अन्य वर्णों का नहीं। यहाँ संस्कारप्रकरण के
किंचित् आवश्यक श्लोकों को यथावत उद्धृत किया जा रहा है— विप्राणां व्रतबन्धनं
मिगदितं गर्भाज्जनेर्वाऽष्टमे
वर्षे वाऽप्यञ्च पञ्चमे क्षितिभुजां
षष्ठे तथैकादशे।
वैश्यानां पुनरष्टमेऽप्यथ पुनः
स्याद्द्वादशे वत्सरे
कालेऽथ द्विगुणे गते निगदिते गौणं
तदाहुर्बुधः ।।३९।।
ब्राह्मण को गर्भ वा जन्म से पंचम वा
अष्टम सौरवर्ष में, क्षत्रिय को छठे वा ग्यारहवें सौरवर्ष में, वैश्य को आठवें वा
बारहवें सौरवर्ष में उपनयनसंस्कार कराना चाहिए।
क्षिप्रध्रुवाहिचरमूलमृदुत्रिपूर्वारौद्रेर्ञ्कविद्गुरुसितेन्दुदिने
व्रतं सत्। द्वित्रीषुरुद्ररविदिक्प्रमिते तिथौ
च कृष्णादिमत्रिलवकेऽपि न चापराह्ने ।। ४०।। अर्थात् क्षिप्रसंज्ञक
(हस्ता, अश्विनी, पुष्य, अभिजित), ध्रुवसंज्ञक (तीनों उत्तरा और रोहिणी), चरसंज्ञक
(स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिष), मृदुसंज्ञक(मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा)
तथा मूल, तीनों पूर्वा एवं आर्द्रा नक्षत्रों में, रवि, सोम, बुध, गुरु, शुक्र
वारों में, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, एकादशी, द्वादशी एवं दशमी तिथियों में, (कृष्णपक्ष
में पंचमी पर्यन्त ही) यज्ञोपवीतादि करना शुभ है। ये संस्कार पूर्वाह्न में ही
होना चाहिए। अपराह्न में निन्दित है।
कवीज्यचन्द्रलग्नपा
रिपौ मृतौ व्रतेऽधमाः।
व्ययेऽब्जभार्गवौ
तथा तनौ मृतौ सुते खलाः।। ४१।।
व्रतबन्धेऽष्टषड्रिष्फवर्जिताः
शोभनाः शुभाः।
त्रिषडाये
खलाः पूर्णो गोकर्कस्थो विधुस्तनौ ।। ४२।।
शुक्र, गुरु, चन्द्रमा और लग्नेश ये सब
छठे-आठवें स्थान में अशुभ हैं। पुनः कहते
हैं कि चन्द्रमा और शुक्र बारहवें स्थान में भी अशुभ हैं। एवं पापग्रह लग्न, अष्टम
और पंचमस्थान में अशुभ हैं। व्रतबन्ध में सभी शुभग्रह छठे, आठवें, बारहवें स्थान
से भिन्न स्थानों में शुभ कहे गए हैं एवं पापग्रह तीसरे, छठे,ग्यारहवेंस्थानों में
शुभ कहे गए हैं। विशेष बात ये है कि पूर्ण चन्द्रमा वृष या कर्क का होकर लग्न में
हो तो विशेष शुभद है। विहित मास के सम्बन्ध में स्पष्ट है कि जिन महीनों में विवाह
शुभ हैं, उन महीनों में यज्ञोपवीत विहित है। यानी चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ (हरिशयनी
पर्यन्त), कार्तिक (देवोत्थान पश्चात्), अगहन, माघ एवं फाल्गुन महीने ग्राह्य हैं।
उपनयनादि समेकित संस्कार का प्रायोगिक
कर्मकाण्ड पर्याप्त विस्तृत है। आलस्य व प्रमादवश संक्षिप्त कर्मकाण्ड से सम्पन्न
कर देना सर्वथा अवैदिक, अनुचित और अव्यावहारिक है। पूर्ववर्णित अन्य संस्कारों की
भाँति आंगिक क्रियाएं (उन संस्कारों की तुलना में) यहाँ काफी विस्तृत रूप से होती
है। यहाँ तक कि विवाहादि की तरह सांगोपांग मृदाहरण (मटकोर), वंशरोपण, मण्डपाच्छादन,
द्वारमातृका, षोडशमातृका, घृतमातृका, तृणमातृका, ग्रामदेवी, कुलदेवतादि का विशेष
पूजन भी सम्पन्न करना अपरिहार्य रूप से आवश्यक है। पितरों के आशीष हेतु नान्दीमुख श्राद्ध
इस संस्कार का अत्यावश्यक कृत्य है। और सबके अन्त में चतुर्थीकर्म भी अवश्य करणीय
है।
अतः सुविधानुसार इसे दो-तीन दिन में
विभाजित करके सम्पन्न किया जाना चाहिए। आलस्यवश लोग अति संक्षिप्त रूप से किसी
तीर्थस्थल में जाकर या किसी अन्य के विवाहसंस्कार के समय घर में ही घंटे-आध घंटे
में निपटा लेते हैं, जो बिलकुल ही अशास्त्रीय है। देखादेखी में ये लगभग परम्परा
सी बन चुकी है, जबकि किसी एक के संस्कार में किसी दूसरे के संस्कार का कोई
शास्त्रीय औचित्य नहीं है। हास्यस्पद बात ये है कि विवाह के साथ उपनयनमुहूर्त
का भी विचार नहीं किया जाता। विवाह संस्कार के साथ यज्ञोपवीत संस्कार का निपटा
देना सीधे सीधे शास्त्र की अवहेलना और मनमानापन है। अतः इसमें सुधार होना चाहिए।
१.
मृत्तिकाग्रहण—मृदाहरण
अथवा मटकोर— यज्ञोपवीतसंस्कार गृहस्थजीवन में एक प्रधान यज्ञ की भाँति है। अतः उपनयनसंस्कार
की क्रिया शुभ समय (पञ्चाङ्गशुद्धि मात्र) में देव-पितरों के निमित्त शुद्ध
मृत्तिकाग्रहण से प्रारम्भ होती है। पितरों के नामोच्चारण सहित आवाहन एवं मांगलिक
गीत-वाद्यादि सहित बालक की माता अन्य सुवासिनियों सहित पवित्र स्थान से पंचोपचार
पृथ्वीपूजन करके मिट्टी ले आती है। यहाँ सिर्फ पृथ्वीपूजन और खनन उपकरण (कुदाल,
खुर्पी आदि) पूजन ही अनिवार्य है। नूतन वंशपात्र (टोकरी) में पवित्रता और आदरपूर्वक
लायी गयी मिट्टी को अपने कुलदेवता के स्थान में रख दिया जाता है। बाद में उसी
मिट्टी से यज्ञकार्यार्थ छोटा सा चूल्हा, वेदिका, पिण्डिकादि का निर्माण होता है, जिसे
आगे मण्डप में कलशस्थापन के समय प्रयोग किया जाता है।
२.
कल्याणी—यज्ञोपवीतसंस्कार
का दूसरा कृत्य है—कल्याणी। तदन्तर्गत कुलदेवतागृह के द्वार पर प्रवेश के समय अपने
से दाहिने छोटा सा गर्तकर्म करते हैं, जिसमें पृथ्वीदेवी की पंचोपचार पूजन करके, पत्र
सहित हरे बांस दो तन्तु स्थापित करते हैं, जिसे वंशरोपण (कल्याणी) क्रिया कहते
हैं। इस क्रम में आंगिक क्रिया —गौरीगणेश, कलश, नवग्रहादि पूजन किया जाता है। ये
कार्य सपत्निक यज्ञकर्ता ( बालक के माता-पिता या अन्य अधिकारी) द्वारा सम्पन्न
किया जाता है। वस्तुतः पिता की भूमिका यहीं से प्रारम्भ होती है। (उसके पहले
मृदाहरण कार्य तो सुवासिनियों सहित माता निपटा लेती है)।
३.
मण्डपाच्छादन— आगे
सुविधानुसार उसी दिन या अगले दिन आँगन में अपनी कुल परम्परानुसार चार या आठ (चारों
दिशाओं और कोणों में) हरे बाँस को स्थापित करके मण्डप निर्माण करते हैं। मण्डप के
बीच में आकाश-पाताल के स्वामी ब्रह्मा और हलधर को स्थापित-पूजित करते हैं। मध्य में गौरीगणेशादि
पंचांग सहित कलशस्थापन-पूजन होता है।
४.
मातृकादि पूजन— मातृकापूजन
के प्रारम्भ में ग्रामदेवी की पूजा का विधान है। ये कार्य बटुक की माता द्वारा ही सम्पन्न
किया जाता है। पिता की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है, किन्तु बटुक की उपस्थिति
अपेक्षित है। ग्रामदेवी पूजनोपरान्त आँगन में स्थापित मण्डप में पुनः पूजा होती है।
ध्यातव्य है कि इससे पूर्व सिर्फ मण्डप की स्थापना मात्र हुयी है। सर्वप्रथम मण्डप
के मध्यस्थल पर मृतिकावेदी निर्माण कर गौरीगणेश को स्थापित-पूजित करते हैं, तत्पश्चात्
क्रमशः कलशस्थापन सहित सूर्यादिनवग्रह, गणपत्यादि पञ्चलोकपाल, इन्द्रादि दशदिक्पाल,
गौर्यादि षोडशमातृका, चतुःषष्ठीयोगिनीमातृका की पूजा करते हैं। यहीं यज्ञमण्डप में
ही सप्तघृतमातृका एवं पञ्चतृणमातृका को भी स्थापित-पूजित किया जाता है। तत्पश्चात्
षोडश मातृकाओं को पुनः कुलदेवताघर में जाकर स्थापित-पूजित भी करते हैं। अन्यान्य
क्रम में षोडशमातृका पूजन की तुलना में यहाँ किंचित् विस्तार से पूजा की जाती है।
कुलदेवताघर में प्रवेश से पूर्व द्वारदेश में (चौखट से दायें-बायें) द्वारमातृका
को भी स्थापित-पूजित किया जाता है।
५.
पित्रादि आवाहनपूजन—पितरों
के आवाहन सहित शिला स्थापन-पूजन भी किया जाता है। इस क्रम में पितरों का मानसिक
नामोच्चारण करते हुए बटुक की माता धीरे-धीरे लोढ़िका चलाते हुए शील पर चावल पीसती
है। फिर उसे एकत्रकर पीले कपड़े में लपेट कर वहीं, कलश के समीप रख देती है और शील-लोढ़िये
से दबा देती है। वस्तुतः ये यज्ञरक्षा का विधान है। लौकिक भाषा में इस क्रिया को सीलपोना
(शिलापूजन) कहते हैं।
६.
नान्दीमुखश्राद्ध—
अन्य संस्कारों की तुलना में यज्ञोपवीत बड़ा संस्कार है। अतः इसमें आभ्युदयिक
नान्दीमुखश्राद्ध अत्यावश्यक है। संक्षिप्त वा विस्तृत विधि से इसे सम्पन्न किया
जाना चाहिए। इस श्राद्ध की एक और विशेषता है कि इसके बाद यदि घर-परिवार-गोत्रादि
में किसी तरह का अशौच घटित हो जाए, तो भी यज्ञ बाधित नहीं होता।
नान्दीमुखश्राद्ध तक की क्रिया
पूर्वदिन सम्पन्न कर लेना सुविधाजनक है। अगले दिन यज्ञोपवीत के मुख्य कृत्य किए
जायेंगे।
(कल्याणी,मण्डपाच्छान,मातृकापूजन,घृतधाराप्रवाहण,
नान्दीमुखश्राद्धादि की क्रियाएं यज्ञोपवीत
और विवाह में बिलकुल एक समान हैं दोनों जगह, भेद सिर्फ
संकल्प-वाक्य का है। )
७.
बटुक सहभोज—यज्ञोपवीत
के मुख्य कृत्य क्रम में मंडप में ही बटुक सहित अन्य बालकों को भी बैठा कर भोजन
कराया जाता है। ध्यातव्य है कि इस सहभोज में बटुक अन्न ग्रहण नहीं करता। सिर्फ
दही-गुड़ ग्रहण करता है।
८.
यज्ञोपवीत के मुख्य कृत्य—
मुख्य कृत्य में पहला कृत्य मुण्डन है। ध्यातव्य है कि इस मुण्डन में शिखास्थान
छोड़कर शेष केशों का मुण्डन होगा। हालाँकि किंचित् लोकाचार में शिखा सहित मुण्डन
की भी परम्परा है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि जिस बालक का पूर्व समय में विधिवत
मुण्डनसंस्कार हो चुका है, उसका उपनयनकाल में सशिखा मुण्डन नहीं होगा। किन्तु जिसका
नहीं हुआ है, उसका होगा। स्वाभाविक है कि उसके कर्मकाण्ड का भी विस्तार हो जायेगा।
जिसका पूर्व में विधिवत मुण्डनसंस्कार हो चुका है, उसका सिर्फ मूल कार्य—मुण्डन
होगा, जिसमें केशकर्तनक्रम और विधि वही रहेगी। आगे-पीछे के पूजन-होमादि नहीं
होंगे। (इसकी पूरी क्रिया मुण्डन संस्कार प्रयोग नामक अध्याय में दी गयी है।)
९.
मण्डपप्रवेश— विधिवत
मुण्डन और स्नान के पश्चात् यज्ञमण्डप में बटुक का प्रवेश होता है और आगे की
क्रियायें सम्पन्न की जाती हैं, जो तीन-चार घंटे की लम्बी प्रक्रिया है। चुँकि
वेदारम्भ-समावर्तन संस्कार भी साथ में सम्पन्न करा देना है, इस कारण समय और भी
ज्यादा लग जाता है। हालाँकि समेकित संस्कार प्रयोग में कर्मकाण्डीय समय की काफी
बचत हो जाती है। पूजनकार्य की पुनरावृत्ति नहीं करनी पड़ती, किन्तु अलग-अलग
संस्कारों से सम्बन्धित होमकार्य में कटौती नहीं करनी चाहिए। अलग-अलग तीन वेदियाँ
न बनाकर, एक ही वेदी पर सभी आहुतियाँ प्रदान की जा सकती हैं। अलग-अलग वेदियाँ बना सकें
तो अतिउत्तम। आहुतियों में प्रमाद न करें। क्योंकि यज्ञोपवीत-विवाहादि में विस्तृतरूप
से होमकर्म अपरिहार्य है।
ध्यातव्य
है कि पूर्वार्द्ध सभी कर्म बटुक के माता-पिता द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं।
किन्तु बटुक की उपस्थिति अनिवार्य है। जिस भाँति विवाह में कन्या अपनी माता के
दाहिने ओर बैठती है, पति पत्नी के बांयी ओर बैठता है, उसी भाँति उपनयन संस्कार में
बटुक माता के दाहिनी ओर ही बैठे। कहीं-कहीं लोकाचारानुसार संस्कारक्रम में बालिका
को माता की ओर और बालक को पिता की ओर बैठा देते हैं। शास्त्रवचन है—संस्कार्यः
पुरुषो वापि स्त्री वा दक्षिणतः सदा। संस्कारकर्ता सर्वत्र तिष्ठेदुत्तरतः सदा।। व्रतबन्धे
विवाहे च चतुर्थ्यां सह भोजने। व्रतेदानेमखेश्राद्धे पत्नी तिष्ठति दक्षिणे।।
यज्ञमण्डप में पूर्वाभिमुख आसीन
माता-पिता आसनशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, आचमन, प्राणायामादि सम्पन्न करके, साक्षीदीप
एवं रक्षादीप प्रज्वलित करें। तत्पश्चात् पुष्पाक्षत लेकर वृहत्स्वस्तिवाचन करें।
यहाँ संक्षिप्त से काम न चलायें।
(आसनशुद्धि,
स्वस्तिवाचन, संकल्प, वेदी का पंचभू संस्कार आदि के लिए पुस्तक का परिशिष्ट खंड
देखें। यहाँ सिर्फ संकल्पके
मुख्य अंशों की चर्चा है।)
तदन्तर पुनः जल, अक्षत, पुष्प, द्रव्यादि
लेकर प्रथम संकल्प करे— ऊँ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः....गोत्रः सपत्निकः....शर्माऽहं
अस्य कुमारस्य... शर्मणस्य गर्भाधान पुंसवन सीमन्तोन्नयन जातकर्म नामकरण
निष्क्रमणान्नप्राशन चूड़ाकरण संस्काराणां स्व-स्वकालेऽकृतानां
कालातिपत्तिदोषपरिहारेण व्रात्यदोषपरिहार द्वारा उपनयनाधिकारसिद्धिद्वारा
श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं कृच्छ्रात्मकं प्रायश्चित्तं
गोनिष्क्रयद्रव्यदानप्रत्याम्नायेन करिष्ये। ( तत् निमित्त देय द्रव्य हाथ में
लेकर ऊँदेयद्रव्याय नमः कहते हुए पंचोपचार पूजन करे ।
पुनः जल, अक्षत, पुष्प, द्रव्यादि
लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य ममास्य कुमारस्य संकल्पितनानादोषपरिहारार्थं
कृच्छ्रप्रायश्चित्त प्रत्याम्नायभूत-गोनिष्क्रयद्रव्यदानद्वारेण उपनयना-धिकारसिद्धिद्वारा
श्रीपरमेश्वरप्रीतये गोनिष्क्रयद्रव्यं ...नाम... गोत्राय ब्राह्मणाय भवते
सम्प्रददे। ( और आचार्य के हाथों में दे दे। यदि बाद में देना हो तो दातुमुत्सृज्ये
बोले)
पुष्पाक्षत लेकर गोप्रार्थना करे— यज्ञसाधनभूता
या विश्वस्याघौघ-नाशिनी। विश्वरूपधरो देवः प्रीयतामनया गवा।।
पुनः जल, द्रव्य, पुष्पाक्षत लेकर
तीनों (समेकित) संस्कारों के लिए एकत्र संकल्प करे— ऊँ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः....गोत्रः
सपत्निकः ....शर्माऽहं अस्य कुमारस्य... शर्मणस्य द्विजत्वसिद्ध्या
वेदाध्ययनाद्यधिकारसिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीतये उपनयन संस्कारं
श्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठानाधिकारप्राप्ति पूर्वक ब्रह्मचर्य ससिद्धि द्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं
वेदारम्भसंस्कारं गृहस्था-श्रममार्हतासिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं
समावर्तनसंस्कारं च करिष्ये।
नोट—1. सम्भव
हो तो यहाँ विप्रमण्डली द्वारा अधिकाधिक संख्या में गायत्री जप भी कराया जाय। अभाव
में पिता या आचार्य स्वयं ही कुछ जप कर ले।
2.चुँकि
मण्डपस्थापित सभी देवों का विस्तृत पूजन पूर्व दिन में हो चुका है, अतः मुख्य
मुहूर्त के दिन कम से कम संक्षिप्त पूजन कर दिया जाना उचित है।
इस पूजन
के साथ ही माता-पिता की याज्ञिक भूमिका समाप्त हो जाती है। अब वे अन्नादि ग्रहण कर
सकते हैं।
3.
ध्यातव्य है कि मुण्डन के पश्चात् स्नान करके बटुक निवृत्त हो चुका है और वहीं
मण्डप के बाहर प्रतीक्षा में हैं। पिता द्वारा उक्त संकल्प कर लिए जाने के पश्चात्
बटुक अपने हाथों में पुष्प, अक्षत, फलादि लेकर मण्डप में दाहिना पैर पहले रखते हुए
प्रवेश करे और आचार्य के समीप आसन ग्रहण करे।
4.यज्ञमण्डप
में बटुक के प्रवेश के बाद पहला काम है हवन वेदी का निर्माण, वेदी का
पंचभूसंस्कार, अग्निस्थापन आदि। बटुक इस
कार्य हेतु अभ्यस्त नहीं है, इस कारण इसमें पितादि सहयोग करें।
5.यज्ञोपवीत
एवं वेदारम्भसंस्कार में समुद्भवनामक अग्नि को आहूत किया जाता है। तदनुसार
संकल्पवाक्य में शब्द समायोजन करना चाहिए— ऊँ अद्य....अस्मिन्नुपनयनकर्मणि
समुद्भवनामाग्नेः स्थापनं करिष्ये।
6.ध्यातव्य
है कि अग्निस्थापन तक की क्रिया सम्पन्न कर देनी है, किन्तु कुशकण्डिका और
आहुतिकर्म अभी नहीं करना है। अतः अग्नि को प्रज्वलित रखने हेतु समुचित काष्ठादि
डाल दें।
बटुक का संस्कार— अब
बटुक को आचार्य के समीप दाहिनी ओर आसन पर बैठावे। आचार्य निम्नांकित मन्त्रों से
उसका संस्कार करे—
ऊँ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमन्तनो
त्वरिष्टं यज्ञᳫ
समिमन्दधातु। विश्वेदेवास इह मादयन्तामों प्रतिष्ठ।
अब आचार्य और बटुक में संवाद होगा। आचार्य
बारी-बारी से बटुक से कहलावें— ऊँ ब्रह्मचर्यमागाम्। ऊँ ब्रह्मचार्यसानि।
अब आचार्य बटुक को मौन होकर कटिसूत्र धारण
करावें। तदनन्तर निम्न मन्त्र बोलते हुए कौपीन धारण करायें— ऊँ येनेन्द्राय
बृहस्पतिवासः पर्यदधादमृतम्। तेन त्वा परि दधाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे।
(कौपीन
कहते हैं खुले-अनसिले वस्त्र के टुकड़े को, जिसे संन्यासी लोग धारण करते हैं।
ब्रह्मचारी का भी यही वेष होना चाहिए। अन्तर सिर्फ रंग का है। संन्यासी गैरिक
कौपीन धारण करता है। सम्प्रदाय भेद से कौपीन का रंगभेद भी है। ब्रह्मचारी का कौपीन
पीले रंग का होना चाहिए। दो अँगुल चौड़े मारकीन (अनधुला श्वेतवस्त्र) को कटिप्रदेश
में लपेटा जाता है। उसके सहारे आगे-पीछे संयुक्त कर बित्तेभर चौड़ाई वाला दूसरा
टुकड़ा लपेटते हैं और उससे ऊपर गमछे की तरह बड़ा टुकड़ा लपेट लेते हैं। इसकी
चौड़ाई इतनी ही हो कि कमर से पिण्डली तक का भाग ढके। आधी पिण्डलियाँ दीखती रहें। ऐसा
नहीं कि बिलकुल नीचे तक लटकता रहे। बांये कंधे पर इसी तरह का खुला चादरनुमा एक
टुकड़ा रखना होता है। )
मारकीन
के सम्बन्ध में यहाँ ये स्पष्ट कर देना उचित प्रतीत हो रहा है कि बाजार में इसके
दो प्रकार उपलब्ध हैं—एक अनधुला होता है जिसका रंग मटमैला सा होता है और दूसरा
धुला होता है, जिसमें श्वेताभ नीलिमा होती है। शुद्धि के विचार से अनधुला मारकीन
ही उत्तम माना जाता है। भले ही अज्ञानवश लोग सुन्दरता के विचार से धुला मारकीन
प्रयोग करते हैं—शुभ वा अशुभ कर्मों में कौपीन बनाने के लिए। किन्तु उचित है कि
अनधुला ही प्रयोग किया जाए—यज्ञोपवीतादि शुभकर्मों में हल्दी या पीले रंग में रंग
करके और अशुभ कर्मों में बिना रंगे हुए ही—मटमैले स्वरूप में ।
मेखलाबन्धन— अब आचार्य बटुक को खड़ाकर उसके कटिप्रदेश में प्रदक्षिण क्रम से तीन आवृतकर प्रवर के नियमानुसार तीन या पाँच गाँठ बाँधकर, निम्न मन्त्र से मौंजीमेखला (सरकंडे के पुष्प का ऊपरी आवरण, जिसे मूंज कहते हैं, उससे बनी रस्सी से मेखला-कटिसूत्र बनाते हैं) धारण करायें—ऊँ इयं दुरक्तं परि बाधमाना वर्णं पवित्रं पुनती मऽआऽगात् । प्राणापानाभ्यां बलमादधाना स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम्। तदनन्तर ऊँ केशवाय नमः, ऊँ माधवाय नमः, ऊँ नारायणाय नमः कह कर आचमन करे और ऊँ हृषीकेशाय नमः कहकर हाथ धो ले। इस आचमन क्रिया को पुनः उसी भाँति एक बार और करे। जल की मात्रा अल्प हो (तालु स्पर्श मात्र) ।
(ध्यातव्य है ब्राह्मण की मेखला मूँज की, क्षत्रिय की मूर्वा ( सीसल नामक एक वनस्पति विशेष, जिसकी पत्तियों का रेशा बहुत मजबूत होता है, जिससे रस्सियाँ बनायी जाती हैं) एवं वैश्य की सण (एक वनस्पति विशेष। इससे भी रस्सियाँ बनती है) की बनी होनी चाहिए। यथा— मौंजी मेखला त्रिवृता ग्रन्थयश्च प्रवरसंख्यया। त्रिवृन्मौंजी समा श्लक्ष्णा कार्या विप्रस्य मेखला। क्षत्रियस्य तु मौर्वी ज्या वैश्यस्य शणतस्तथा।।
मेखला
के सम्बन्ध में एक संदेश विशेषकर आचार्यों के लिए कहना चाहता हूँ कि पेशेवर
कर्मकाण्डी लोग एक बनी बनायी मौंजीमेखला और मौंजीयज्ञोपवीत अपने साथ रखते है, जिसे
बार-बार अलग-अलग बटुकों को पहनाते रहते हैं। ये बिलकुल ही अशास्त्रीय कर्म है। किसी
एक के संस्कार में व्यवहृत मेखालादि का कदापि अन्य के लिए प्रयोग नहीं होना चाहिए।)
शिखाबन्धन—प्रणव युक्त गायत्री मन्त्र से बटुक की शिखा बाँधें।
(अन्य अवसरों पर शिखाबन्धन हेतु चित्तरूपिणी
महामाये....मन्त्र का प्रयोग किया जाता है, किन्तु यहाँ आचार्य द्वारा ऊँकार
युक्त गायत्री मन्त्रोच्चारण सहित बटुक के शिखास्थल का स्पर्श अनिवार्य है, ताकि
गुरु के हाथों उस अतिसंवेदनशील स्थान का स्पर्श होकर, गायत्रीशक्ति का स्थापन हो
सके।)
आचार्य द्वारा यज्ञोपवीतों का संस्कार—
अब आचार्य पहले से तैयार किए गए तीन या पाँच
यज्ञोपवीतों को जल छिड़क कर प्रक्षालित करे, निम्नांकित मन्त्रोच्चारण सहित—
ऊँ आपो
हि ष्ठा मयोभुवः। ऊँ ता न ऊर्जे दधातन। ऊँ महे रणाय चक्षसे। ऊँ यो वः शिवतमो रसः।
ऊँ तस्य भाजयतेह नः । ऊँ उशतीरिव मातरः । ऊँ तस्मा अरङ्गमाम वः । ऊँ यस्य क्षयाय
जिन्वथ। ऊँ आपो जनयथा च नः ।।
तदनन्तर आचार्य यज्ञोपवीत के ग्रन्थियों
का स्पर्श करते हुए उन्हें अभिमन्त्रित करें— ऊँ प्राणानां ग्रन्थिरसि रुद्रो
मा विशान्तकः । तेनान्नेनाप्ययस्व।
तदनन्तर आचार्य यज्ञोपवीतों को पलाशपुटक
में प्रतिष्ठित करें इन मन्त्रों का
उच्चारण करते हुए— ऊँ भूर्भुवः स्वरोम्। एतं ते देव सवितर्यज्ञं
प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे। तेन यज्ञमव तेन यज्ञपतिं तेन मामव ।
तदनन्तर आचार्य निम्नांकित मन्त्रों से
यज्ञोपवीततन्तुओं पर बारी-बारी से अक्षत छोड़ते हुए देवों का आवाहन करें—
१. ऊँ ओंकारदैवत्याय
प्रथमतन्तवे नमः।
२. ऊँ
अग्निदैवत्याय द्वितीयतन्तवे नमः ।
३. ऊँ
नागदैवत्याय तृतीयतन्तवे नमः ।
४. ऊँ
सोमदैवत्याय चतुर्थतन्तवे नमः ।
५. ऊँ
इन्द्रदैवत्याय पञ्चमतन्तवे नमः ।
६. ऊँ
प्रजापतिदैवत्याय षष्ठतन्तवे नमः।
७. ऊँ
वायुदैवत्याय सप्तमतन्तवे नमः।
८. ऊँ
सूर्यदैवत्याय अष्टमतन्तवे नमः ।
९. ऊँ
विश्वेदेवदैवत्याय नवमतन्तवे नमः।
तथा तीनों ग्रन्थियों पर भी उसी भाँति अक्षत
छोड़ते हुए आवाहन करें—
(१) ऊँ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि
सीमतः सुरुचो वेन आवः । स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च वि वः । ऊँ
ब्रह्मणे नमः।
(२) इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे
पदम् । समूढमस्य याँ सुरे स्वाहा । ऊँ विष्णवे नमः।।
(३) ऊँ नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः
। बाहुभ्यामुत ते नमः। ऊँ ईश्वराय नमः ।
अब समग्र यज्ञोपवीत के अधिदेवता को अक्षत
छिड़क कर आवाहित करे—
ऊँ परब्रह्मणे नमः ।
तदनन्तर उक्त सभी मन्त्रों का पुनःपुनः
उच्चारण करते हुए पंचोपचार पूजन करे।
सूर्यदर्शन— पूजनोपरान्त यज्ञोपवीत को हाथ में उठाकर ऊपर सूर्य की ओर दिखावे— ऊँ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्तयञ्च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनान पश्यन्। ऊँ श्री सूर्य नारायणाय नमः।
पुनः जल छिड़ककर यज्ञोपवीतों का मार्जन
करें— ऊँ आपो हि ष्ठा मयोभुवः। ऊँ ता न ऊर्जे दधातन। ऊँ महे रणाय चक्षसे। ऊँ यो
वः शिवतमो रसः। ऊँ तस्य भाजयतेह नः । ऊँ उशतीरिव मातरः । ऊँ तस्मा अरङ्गमाम वः ।
ऊँ यस्य क्षयाय जिन्वथ। ऊँ आपो जनयथा च नः ।।
मार्जन के पश्चात् दस बार गायत्री
मन्त्र का जप करे। इस प्रकार आचार्य द्वारा सर्वविध तैयार यज्ञोपवीत को गणेशादि
देवताओं को स्पर्श कराकर, अब बटुक को धारण कराना है। लोकाचार में यह कार्य पाँच
विप्र एकत्र रूप से करते हैं। आचार्य मन्त्रोच्चारण करते रहते हैं।
यज्ञोपवीतधारण विनियोग— हाथ
में जल लेकर निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक विनियोग करे (जल सामने गिरावे)—
ऊँ यज्ञोपवीतमिति मन्त्रस्य परमेष्ठी ऋषिः
त्रिष्टुप्छन्दो लिङ्गोक्ता देवता यज्ञोपवीतधारणे विनियोगः।
यज्ञोपवीतधारण— अब आचार्य अभिमन्त्रित यज्ञोपवीतों में एक अपने
हाथ में लेकर, खड़े हो जायें। बटुक सामने बैठा रहकर अपना दाहिना हाथ किंचित् ऊपर
की ओर उठाले। आचार्य निम्नांकित मन्त्रोच्चारण सहित अपने दोनों हाथ के तर्जनी और
अंगूठे के मध्यस्थान में खुले-टिकाये हुये यज्ञोपवीत को बटुक के बांये कंधे पर
स्थापित करते हुए, हृदयप्रान्त के सामने से गुजारते हुए दाहिने कटिभाग तक लटका दें—
ऊँ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रं
प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।। यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा
यज्ञोपवीतेनोपनह्वयामि ।।
तदनन्तर
बटुक ऊँ केशवाय नमः, ऊँ माधवाय नमः, ऊँ नारायणाय नमः कह कर आचमन करे और
ऊँ हृषीकेशाय नमः कहकर हाथ धो ले। इस आचमन क्रिया को पुनः उसी भाँति एक
बार और करे। जल की मात्रा अल्प हो (तालु स्पर्श मात्र) ।
मृगचर्मधारण— तदनन्तर
आचार्य बटुक को मृगचर्म प्रदान करें, जिसे बटुक निम्नांकित मन्त्र का उच्चारण करते
हुए ग्रहण करे और बायीं ओर बाहों से दबा ले— ऊँ मित्रस्य चक्षुर्द्धरुणं
बलीयस्तेजो यशस्वी स्थविरंसमिद्धम् । अनाहनस्यं वसनं जरिष्णुः परीदं वाज्यजिनं दधेऽहम्।
(ध्यातव्य है कि इससे पूर्व मृगचर्म
प्रयोग का अधिकार नहीं है। मृगचर्म, व्याघ्रचर्म आदि कोई सामान्य आसन नहीं है, जिसका
हरकोई प्रयोग कर ले। साधनाविधान में यह बहुत ही संवेदनशील आसन है। इसका हरकोई
अधिकारी कदापि नहीं हो सकता। )
(वर्तमान
समय में धनलोलुप पेशेवरों की निरंकुश बरबरता और पाश्चात्य संस्कृति के दुष्प्रभाव से
खड़ी की गयी कानूनी अड़चने हमारे बहुत से स्थावर-जांगम पदार्थों को दुर्लभ बना
दिया है। ध्यातव्य है गोहत्या जैसा जघन्य कुकृत्य पर सरकारी मुहर लगा हुआ है और
प्राकृतिक रूप सें मृत मृग-व्याघ्रादि चर्मों के लिए भी कानूनी रोक है। ऐसी
परिस्थिति में उपनयनसंस्कार में मृगचर्म का विकल्प विचारणीय है। .....चैलाजिनकुशोत्तरम्—श्रीमद्भगवद्गीता
निर्दिष्ट आसन पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है। ऐसे में कुशासन एवं कम्बलासन के
प्रयोग से ही सन्तुष्ट होना पड़ रहा है।)
पलाशदण्ड धारण— अब
आचार्य आपादमस्तक पलाशदण्ड बटुक को प्रदान करे। बटुक निम्न मन्त्र बोलते हुए उसे
ग्रहण करके, मृगचर्म की भाँति बांयी ओर बगल में दबा ले— ऊँ यो मे दण्डः
परापतद्वैहायसोऽधिभूयाम्। तमहं पुनरादद आयुषे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय।।
इसका उच्चारण करते हुए दण्ड को
थोड़ा ऊपर उठाये— ऊँ उच्छ्र्यस्व वनस्पत ऊर्ध्वो मा पाह्यँ हसऽ आऽस्य
यज्ञस्योदृचः।।
(दण्डविधान-
विप्र का दण्ड पलाश का होना चाहिए। जो कि सुदृढ़, सुघड़, सीधा और जमीन पर खड़ा
होने पर सिर के केश पर्यन्त ऊँचाई वाला हो। क्षत्रिय का ललाटपर्यन्त एवं वैश्य का
नासिका पर्यन्त। पलाश के अभाव में बेल को भी ग्रहण किया गया है।)
सूर्यदर्शन, सूर्यार्घ्य और उपस्थान — तदनन्तर आचार्य बटुक को सूर्यदर्शन हेतु आदेश दें—सूर्यमुदीक्षस्व।
बटुक सिर थोड़ा ऊपर उठाकर
सूर्यदर्शन करते हुए अंजुलि के जल से सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे।
तत्पश्चात् बटुक दोनों हाथ ऊपर उठाकर उपस्थान करे, आचार्य मन्त्र बोलें— ऊँ
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवम शरदः शतं
श्रुणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।।
हृदयालम्भन—आचार्य
बटुक के दाहिने कंधे परसे अपना दाहिना हाथ लेजाकर उसके हृदयप्रदेश का स्पर्श करें
इस मन्त्र के उच्चारण पूर्वक—ऊँ मम व्रते ते हृदयं दधमि। मम चित्तमनुचित्तं ते ऽअस्तु।
मम वाचमेकमना जुषस्व। बृहस्पतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्।
को नामासि ? (तुम्हारा नाम क्या है)
कुमार बोले— ....शर्मा...भो३ (यहाँ भो
का सुदीर्घ यानी प्लुत् उच्चारण होगा, इसीलिए स्वरसंकेत ३ दिया गया है)
कस्य
ब्रह्मचार्यसि ?
(तुम
किसके ब्रह्मचारी हो?)
कुमार बोले—भवतः ।
आचार्य कहें— ऊँ इन्द्रस्य
ब्रह्मचार्यसि, अग्निराचार्यस्तवाह-माचार्यः...शर्मन्।
तदनन्तर आचार्य बटुक को दिशाओं में संकेत
करते हुए प्रणाम करने का आदेश दें, बटुक आदेश का पालन करे।
ये वस्तुतः पंचमहाभूतों को समर्पित है —
ऊँ प्रजापतये त्वा परिददामि इति
प्राच्याम्। (पूरब में)
ऊँ देवाय त्वा सवित्रे परिददामि इति
दक्षिणस्याम्। (दक्षिण में) ऊँ अद्भ्यस्त्वौषधीभ्यः परिददामि इति प्रतीच्याम्।
(पश्चिम में)
ऊँ द्यावापृथिवीभ्यां त्वा परिददामि इति
उदीच्याम्। (उत्तर में)
ऊँ विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः परिददामि इति
अधः। (नीचे)
ऊँ सर्वेभ्यस्त्वा भूतेभ्यः परिददामि
इत्यूर्ध्वम्। (ऊपर में)।
अग्निप्रदक्षिणा एवं ब्रह्मावरण—
तदनन्तर पूर्व स्थापित अग्नि की प्रदक्षिणा करके, बटुक आचार्य के दाहिनी ओर
आसन ग्रहण करे। आचार्य ब्रह्मावरणसामग्री सहित जलपुष्पाक्षतद्रव्यादि हाथ में लेकर
संकल्प बोलें—
ऊँ अद्य करिष्यमाणोपनयनहोमकर्मणि कृताकृता
वेक्षणरूप ब्रह्मकर्मकर्तुं ...गोत्र...शर्माणं ब्राह्मणमेभिः वरणद्रव्यैः
ब्रह्मत्वेन भवन्तमहं वृणे।
वरण सामग्री उपस्थित ब्रह्मा को प्रदान कर
दे और उनकी प्रार्थना करे— यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्ववेदधरः प्रभुः। तथा त्वं
मम यज्ञेऽस्मिन् ब्रह्मा भव द्विजोत्तम।। नियुक्त ब्रह्मा अग्नि की परिक्रमा
करके अग्नि के दक्षिण में आसन ग्रहण करें।
कुशकण्डिका एवं होम पूर्व विधान—
(कुशकण्डिका के लिए पुस्तक के परिशिष्ट खण्ड का सहयोग लें।)
ध्यातव्य है कि यहाँ कुशकण्डिका से लेकर
नवाहुति तक का होमकर्म सम्पन्न कर लेंगे, जैसा कि परिशिष्ट में निर्दिष्ट है। उसके
आगे स्विष्टकृत् आहुति से बर्हिहोम तक की क्रियायें नहीं करनी है। उसे
वेदाध्ययनसंस्कार के पश्चात् करेंगे।
अग्निप्रतिष्ठा, ध्यान,पूजन—
ध्यातव्य है कि बटुक के मंडपप्रवेश से पूर्व ही अग्नि स्थापित किया जा चुका है।
उसी अग्नि को निम्न मन्त्र से अक्षत छोड़कर अब प्रतिष्ठित करें।
ज्ञातव्य है विभिन्न कार्यों में
अग्नि का नाम भेद होता है। उपनयन एवं वेदाध्ययनसंस्कार में समुद्भव नामक अग्नि को
आहूत करते हैं। अतः ऊँ समुद्भवनाम्नाग्ने सुप्रतिष्ठितो वरदो भव कहकर अक्षत
छोड़ें और ध्यान करें— अग्नि प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम्। सुवर्णवर्णममलमनन्तं विश्वतोमुखम्। सर्वतः पाणि
पादश्च सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः । विश्वरूपो महानग्निः प्रणीतः सर्व कर्मसु । ऊँ
चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो
वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याँ, आविवेश ।
ध्यान के पश्चात् पंचोपचार पूजन
करे— ऊँ भूर्भुवः स्वः समुद्भवनाम्ने अग्नये नमः । सर्वोपचारर्थे गन्धपुष्पाक्षताणि
समर्पयामि। (बारीबारी से सभी पूजनसामग्री अग्नि में छोड़े उक्त मन्त्रोच्चारण
सहित।
तदनन्तर अग्नि में पर्याप्त काष्ठ
छोड़कर वेणुधमनी (विशिष्ट प्रकार की नलिका) से फूंक मारकर प्रज्वलित करे, तत्पश्चात्
होमकर्म करे। सर्वप्रथम प्रजापतिदेवता के निमित्त आहुति दी जाती है, तदनन्तर
इन्द्र, अग्नि और सोम को आहुति देते हैं। इन चार आहुतियों में प्रथम और द्वितीय को
आधारआहुति कहते हैं। इन्हें वेदी के मध्यभाग में देना चाहिए एवं
तृतीय-चतुर्थ को आज्यभाग आहुति कहते हैं। तृतीय आहुति वेदी के उत्तरपूर्वार्द्धभाग
में तथा चतुर्थ आहुति दक्षिण पूर्वार्द्धभाग में प्रदान करें। ये चारों आहुतियाँ घी से दी जानी चाहिए। इस क्रम
में नियुक्त ब्रह्मा कुश से बटुक का स्पर्श किए रहेंगे। इसे ब्रह्मणान्वारब्ध
कहते हैं। बटुक हाथ में जल लेकर इदमाज्यं तत्तद्देवतायै मया परित्यक्तं
यथादैवतमस्तु न मम का उच्चारण करते हुए छोड़े, तत्पश्चात् घी से चार आहुतियाँ
प्रदान करे। प्रत्येक बार स्रुवाशेष घृत को प्रोक्षणीपात्र में छिड़कते जायेंगे—
१. ऊँ
प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।
२. ऊँ
इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।
३. ऊँ
अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम।
४. ऊँ
सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।
अब ब्रह्मा कुश का स्पर्श हटा लेगें। इस
क्रिया को अनन्वारब्ध कहते हैं।
नवाहुति
मन्त्र—
१. ऊँ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम।
२. ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम।
३. ऊँ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।
४. ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्
देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाꣳ सि
प्रमुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
५. ऊँ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती
नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुण ᳭᳴᳴रराणो वीहि मृडीक ᳭᳴ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न
मम।
६. ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च
सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज ᳭᳴᳴ स्वाहा। इदमग्नये अयसे न मम।
७. ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं
यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु
मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।
८. ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि
मध्यम ᳭᳴᳴ श्रधाय । अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं
वरुणायादित्यायादितये न मम।
९. ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये
न मम। (यहाँ
प्रजापति देवता का मानसिक ध्यान कर, आहुति डाले)
(ध्यातव्य है कि १. अग्नि
को सीधे मुँह से फूँकना वर्जित है। पंखे आदि से भी हवा नहीं करना चाहिए।
२. प्रारम्भिक आधारहोम, प्रजापत्यादि होम,
नवाहुति, स्विष्टकृतहोम, संस्रवप्राशन, मार्जन, पूर्णपात्र दान, प्रणीताविमोक, पुनः
मार्जन एवं बर्हिहोम तक की पूरी होम विधि अन्यान्य होम की तरह ही है। मन्त्र भेद
नहीं है। अतः इसके लिए पुस्तक के परिशिष्ट खण्ड में वर्णित होम विधान का सहयोग
लेना चाहिए। यहाँ सिर्फ उन्हीं बातों की चर्चा की गयी है, जिनमें क्रिया वा नाम
भेद है।
३. अभी
उपनयन संस्कार क्रम में आधारहोम, प्रजापत्यादि होम, नवाहुति तक की क्रियाओं को
सम्पन्न कर लेंगे एवं स्विष्टकृतहोम, संस्रवप्राशन,
मार्जन, पूर्णपात्र दान, प्रणीताविमोक, पुनर्मार्जन एवं बर्हिहोम तक की शेष
क्रियाओं को आगे वेदाध्ययनसंस्कार के बाद करेंगे। इन दोनों के बीच उपनयन और
वेदारम्भ की मूल क्रियाओं को यथास्थिति यथासमय सम्पन्न करेंगे।
४. ध्यान
देने की बात है कि समेकित संस्कार क्रम में एक संस्कार और है समावर्तन। चुँकि
इसमें आहूत अग्नि का नाम भेद है—वहाँ वैश्वानर नामक अग्नि को आहूत किया
जाता है,अतः उनके निमित्त उस समय होम की सारी क्रियायें दुहरानी पड़ेगी अर्थात्
आधारहोम, प्रजापत्यादिहोम, नवाहुति, स्विष्टकृत .....बर्हिहोम तक की और अन्त में
ब्रह्मापूर्णपात्रदानादि की क्रियायें होगी।
५.ब्रह्मापूर्णपात्रदान के
समय संकल्पवाक्य पर ध्यान रखना होगा कि तीनों संस्कारों के समेकित होमकर्म के
पश्चात् ही आगे का ये कार्य किया जायेगा। तदनुसार संकल्प होगा — ऊँ अद्य...
उपनयनवेदारम्भसमावर्तनादि समेकित संस्काराङ्गहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्म
प्रतिष्ठार्थमिदं पूर्णपात्रं सदक्षिणाकं प्रजापति दैवतं...गोत्राय ....शर्मणे
ब्राह्मणे भवते सम्प्रददे।
६. आचार्य सम्बन्धी ध्यातव्य— किसी
भी संस्कार के लिए आचार्य की योग्यता का विचार अपरिहार्य है। आचार्य और गुरु की
योग्यता ही बटुक और शिष्य की योग्यता का आधारशिलास्थापन है। समयानुसार इसमें
पर्याप्त न्यूनता आती जा रही है। सदाचार युक्त आचार्य, जो नियमित रूप से
सन्ध्योपासन, सहस्र गायत्रीजप आदि सम्पन्न करता हो—आज के समय में मिलना कठिन सा
है। फिर भी यथासम्भव खोज और चयन का प्रयास तो करना ही होगा। सन्ध्या-गायत्री से
रहित व्यक्ति भला आचार्य के आसन के लिए कदापि योग्य नहीं है। वैसे संस्कारहीन
व्यक्ति से उपयनय संस्कार कराना, गायत्री का उपदेश लेना—शास्त्र, संस्कार और गायत्री
सबकी अवमानना है।)
कुमार(बटुक)का अनुशासन—
होमकर्म सम्पन्न हो जाने पर आचार्य कुमार
को उपदेश प्रदान करें। आचार्य कुमार से कहें—ब्रह्मचार्यसि (हे कुमार तुम
मेरे ब्रह्मचारी हो)
बटुक कहे—असानि (मैं आपका
ब्रह्मचारी हूँ)।
आचार्य कहें— अपोऽशान । (तुम सर्वदा
अपोशानविधि से ही अन्न भक्षण करना)
बटुक कहे—अश्नानि। (मैं अपोशानविधि
से ही अन्न ग्रहण करूँगा। अर्थात् आचमन करके ही भोजन करूँगा)
आचार्य कहें— कर्म कुरु
(ब्रह्मचारी के कर्म को करो)
बटुक कहे— करवाणि (मैं पालन करूँगा)
आचार्य कहें— मा दिवा सुषुप्थाः (
दिन में शयन मत करना)
बटुक कहे— न स्वपानि (मैं दिन में
शयन नहीं करूँगा)
आचार्य कहें— वाचं यच्छ (वाणी पर
संयम रखना)
बटुक कहे— यच्छानि ( वाणी पर संयम
रखूँगा)
आचार्य कहें— समिधमाधेहि ( समिधा
लाना)
बटुक कहे— आदधानि ( समिधा लाउँगा)
लग्नादिदोषपरिहारदान—अब
बटुक गायत्री मन्त्र ग्रहणाधिकार प्राप्त्यर्थ लग्नादिदोष शान्ति हेतु दान के लिए
संकल्प करे— ऊँ अद्य सावित्री ग्रहणलग्नात्....स्थानस्थितैः दुष्टग्रहैः
सूचितदुष्टफल निवृत्तिपूर्वक शुभफलप्राप्तये आदित्यादिनवग्रहाणां प्रीतये च इदं
सुवर्णनिष्क्रयीभूतं द्रव्यं आचार्याय सम्प्रददे।
बटुक द्वारा देवादिपूजन—
तदनन्तर आचार्य एक कांस्यपात्र में हरिद्रारंजित चावल विछाकर सुवर्णशलाका अथवा कुशा से ओंकार और व्याहृति सहित सम्पूर्ण गायत्री मन्त्र का लेखन करे साथ ही गणेशाम्बिका कुलदेवतादि सहित पंचोपचार पूजन बटुक से करावे। तदर्थ जलपुष्पाक्षतद्रव्यादि लेकर बटुक संकल्प बोले— ऊँ अद्य ...गोत्रः ...शर्मा मम ब्रह्मवर्चसंसिद्ध्यर्थं वेदाध्ययनाधिकारसिद्ध्यर्थं गायत्र्युपदेशाङ्गविहितं गायत्रीसावित्री सरस्वती पूजनपूर्वकमाचार्यपूजनं गणपत्यादि पूजनञ्च करिष्ये।
गणपतिपूजन— ऊँ गणानान्त्वा गणपतिᳫहवामहे
प्रियानां त्वा प्रियपतिᳫहवामहे निधीनान्त्वा निधिपतिᳫहवामहे वसो मम। आहमजानि
गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्।। ऊँ भूर्भुवः स्वः सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमः
गणपतिमावहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि। (बटुक
बारीबारी से सभी पूजन सामग्री समर्पित करे)
गायत्रीपूजन—ऊँ ताँ सवितुर्वरेण्यस्य
चित्रामाऽहं वृणे सुमर्ति विश्वजन्याम्। यामस्य कण्वो अदुहत्प्रपीनाँ सहस्रधारा
पयसा महीङ्गाम्। ऊँ भूर्भुवः स्वः गायत्र्यै नमः गायत्रीमावाहयामि,
स्थापयामि,पूजयामि, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि। (बटुक
बारीबारी से सभी पूजन सामग्री समर्पित करे)
सावित्रीपूजन—ऊँ सवित्रा प्रसविता
सरस्वत्या वाचा त्वष्ट्रा रूपैः पूष्णा पशुभिरिन्द्रेणास्में बृहस्पतिना ब्रह्मणा
वरुणेनौजसाऽग्निना तेजसा सोमेन राज्ञा विष्णुना दशम्या देवतया प्रसूतः प्र
सर्पामि। ऊँ भूर्भुवः स्वः सावित्र्यै नमः सावित्रीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि,
सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षत-पुष्पाणि समर्पयामि।
(बटुक बारीबारी से सभी पूजन सामग्री
समर्पित करे)
सरस्वतीपूजन—ऊँ पावका नः सरस्वती
वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसुः। ऊँ भूर्भुवः स्वः सरस्वत्यै नमः
सरस्वतीमावाहयामि, पूजयामि, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि। (बटुक
बारीबारी से सभी पूजन सामग्री समर्पित करे)
गुरुपूजन—ऊँ बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद्
द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। यद्दीदयच्छवस ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि
चित्रम्। ऊँ भूर्भुवः स्वः गुरवे नमः, गुरुमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि,
सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षत-पुष्पाणि समर्पयामि।
(बटुक बारीबारी से सभी पूजन सामग्री
समर्पित करे)
गायत्रीमन्त्रोपदेश—
उक्त पंचोपचार पूजन सम्पन्न हो जाने के
पश्चात् अग्निकुण्ड के समीप गुरु सम्मुख बैठा बटुक आचार्य के दोनों पैरोंका स्पर्श
करे।
(सामानय तौर पर सामने वाले का पैर छूते
समय दाहिना हाथ बाँया पैर का और बांयां हाथ दाहिने पैर का स्पर्श करता है, जबकि ये
अनुचित है। सही विधि के लिए अपने हाथों को कैंची के दोनों फलकनुमा कर लेना चाहिए, ताकि
गुरु के पैर और शिष्य के हाथों का सम्यक् मेल हो सके। यथा— ब्रह्मारम्भेऽवसाने
च पादौ ग्राह्यौ गुरोः सदा। व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसङ्ग्रणं गुरोः। सव्येन सव्यः
स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन तु दक्षिणः।। मनुस्मृति २-७१,७२)
अब आचार्य बटुक के सिर को
नूतनवस्त्राच्छादित करके गायत्रीउपदेश करें—उपदेशं तु गायत्र्या वाससाऽऽच्छाद्
येत् बटुक्।।
( उपदेशक्रम में दो बातों का ध्यान रखना
है— १. मन्त्र में प्रयुक्त वरेण्यं का वरेणियम् उच्चारण भी सिखलाना है बटुक को।
क्योंकि लेखन में वरेण्यं होता है, जबकि जपकाल में वरेणियम् उच्चारण होना चाहिए।
यथा— सर्वत्र तु वरेण्यं स्यात् जपकाले वरेणियम् ।
२. गायत्री मन्त्र त्रिपदा है। मन्त्रोपदेश तीन टुकड़ों
में, तीन बार में देना है। अतः पहली बार प्रथम पाद, फिर आधी ऋचा और अन्त में
व्याहृति सहित सम्पूर्ण मन्त्र। दूसरी बार में आधी-आधी ऋचा और तीसरी बार में पूरा
मन्त्र। इस प्रकार मन्द-मन्द उच्चारण करते
हुए बटुक के दाहिने कान में उपदेश देना चाहिए। बटुक एकाग्रचित्त होकर गुरुप्रदत्त इन ध्वनियों को आत्मसात करने
का प्रयत्न करे। उस समय शब्दों और अर्थों में न उलझे। )
यथा—
प्रथम बार—
प्रथम पाद—ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्।
द्वितीय पाद— भर्गो देवस्य धीमहि।
तृतीय पाद— धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
द्वितीय बार—
प्रथम आधी ऋचा—ऊँ भूर्भुवः स्वः
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
द्वितीय आधी ऋचा— धियो यो नः
प्रचोदयात् ।
तीसरी बार— त्रिपदा
गायत्री सम्पूर्ण— ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो
यो नः प्रचोदयात् ।
अब यथासम्भव तीन-पाँच-सात बार बटुक से
उच्चारण करायें।
परिसमूहन—
तदुपरान्त उपदेशित बटुक (ब्रह्मचारी) अग्निवेदी के पश्चिम की ओर बैठकर पर्याप्त घी
में डुबोयी हुई पाँच यज्ञसमिधायें (आम की लकड़ी या गोमय उपले) प्रज्वलित अग्नि में
निम्नांकित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए बारीबारी से पाँच आहुतियाँ प्रदान करे—
१. ऊँ
अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु।
२. ऊँ
यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि।
३. ऊँ
एवं माꣳ सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।
४. ऊँ
यथा त्वमग्ने देवानां यक्षस्य निधिपा असि।
५. ऊँ
एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम्।
अग्निपर्युक्षण एवं समिदाधान— तदुपरान्त
प्रदक्षिणक्रम से (ईशान से आरम्भ कर क्रमशः
पूरब, अग्नि, दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायु, उत्तर एवं पुनः ईशान) जल से अग्नि
का प्रोक्षण करे और पुनः एक समिधा लेकर, घी में डुबोकर, खड़े होकर निम्नांकित
मन्त्रोच्चारण करते हुए अग्नि में आहुति डाले— ऊँ अग्नये समिधमाहार्षं बृहते
जातवेदसे । यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस एवमहमायुषा मेधया वर्चसा प्रजया
पशुभिर्बह्मवर्चसेन समिन्धे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यह-मसान्यनिराकरिष्णुर्यशस्वी
तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्व्यन्नादो भूयासꣳ स्वाहा।
(उक्त मन्त्र का पुनःपुनः उच्चारण करते
हुए पूर्वकी भाँति दो आहुतियाँ और प्रदान करे।)
तदनन्तर पूर्व विधानानुसार पाँच आहुतियाँ
पुनः प्रदान करे—
१. अग्ने
सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु।
२. ऊँ
यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि।
३. ऊँ
एवं माꣳ सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।
४. ऊँ
यथा त्वमग्ने देवानां यक्षस्य निधिपा असि।
५. ऊँ
एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम्।
तदुपरान्त पूर्व की भाँति प्रदक्षिणक्रम
से (ईशान से आरम्भ कर क्रमशः पूरब,
अग्नि, दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायु,
उत्तर एवं पुनः ईशान) जल से अग्नि का प्रोक्षण करे। एवं निम्नांकित मन्त्रों का
उच्चारण करते हुए अग्नि में हाथ सेंककर अपने मुख पर हाथ फेरे —
क. ऊँ
तनूपाऽअग्नेऽसि तन्वं मे पाहि।
ख. ऊँ
आयुर्दा अग्नेऽस्यायुर्मे देहि।
ग. ऊँ
वर्चौदा अग्नेऽसि वर्चो मे देहि।
घ. ऊँ
अग्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्म आपृण।
ङ. ऊँ
मेधां मे देवः सविता आदधातु।
च. ऊँ
मेधां मे देवी सरस्वती आदधातु।
छ. ऊँ
मेधामश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ।
इस मन्त्र से सर्वांग पर हाथ फेरे— ऊँ
अङ्गानि च म आप्यायन्ताम्।
ऊँ वाक् च म आप्यायताम्—मुख
का स्पर्श करे।
ऊँ प्राणश्च म आप्यायताम्—
दोनों नासिकारन्ध्रों का स्पर्श करे।
ऊँ चक्षुश्च म आप्यायताम्—
दोनों आँखों का स्पर्श करे।
ऊँ श्रोत्रञ्च म आप्यायताम्— दाहिने
और बायें कान का स्पर्श करे।
ऊँ यशो बलं च म आप्यायताम्—
दोनों भुजाओं का परस्पर एक साथ स्पर्श करे। तदनन्तर जलका स्पर्श करे।
त्र्यायुष्करण—
तत्पश्चात् आचार्य स्रुवा से होमाग्नि का भस्म ग्रहण करके दायें हाथ की अनामिका से
निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक क्रमशः बटुक के अंगों में लगावें (अन्यत्र ये
कार्य यजमान स्वयं कर लेता है आचार्य के निर्देश पर, किन्तु यहाँ उचित है कि आशीष
के रूप में आचार्य ही ये कार्य सम्पन्न करें)—
ऊँ त्र्यायुषं जमदग्नेः
(ललाट में),
ऊँ काश्यपस्य त्र्यायुषम्
(ग्रीवा में),
ऊँ यद्देवेषु त्र्यायुषम्
(दक्षिण बाहुमूल में),
ऊँ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्
(हृदय में),
अग्नि एवं आचार्य का अभिवादन—
अब बटुक अपने नाम, गोत्र, प्रवरादि का उच्चारण करते हुए अग्नि एवं आचार्य को
प्रणाम करे—अग्ने त्वामभिवादये...गोत्रः...प्रवरान्वितः...शर्माहं भोः३।
तदनन्तर बटुक अपने गुरु का दक्षिण पाद
अपने दाहिने हाथ से एवं वाम पाद बायें हाथ से स्पर्श करते हुए बोले—त्वामभिवादये... गोत्रः...
प्रवरान्वितः...शर्माहं भोः३।
आचार्य बटुक के नाम सहित बोलें— आयुष्मान्
भव सौम्य ....श्रीशर्मन्। तदनन्तर बटुक अन्य प्रणम्य जनों से भी आशीष ले।
भिक्षाग्रहण—
तदनन्तर ब्रह्मचारी भिक्षापात्र (कांस्यस्थाली) लेकर, बायें हाथ में पलाश दण्ड
धारण किए हुए सर्वप्रथम माता के समीप जाकर बोले—भवति भिक्षां देहि मातः।
तदनन्तर अन्य लोगों के पास भवन् भिक्षां देहि कहते हुए भिक्षाटन करे।
प्राप्त भिक्षा को गुरु को समर्पित करते हुए बोले—
भो गुरो इयं भिक्षा मया लब्धा।
आचार्य बोलें—भुङ्क्ष्व।
(लोकपरम्परा में कहीं-कहीं पूरी भिक्षा
आचार्य ग्रहण कर लेते हैं, तो कहीं-कहीं बटुक की बहन-फूआ आदि। ये सर्वथा अनुचित है। उचित है कि आचार्य अपना अंश लेकर, शेष
भिक्षा बटुक को सौंप दें।)
तदनन्तर बटुक अग्नि का पुनः
पंचोपचार पूजन करे एवं पुष्पाक्षत लेकर ब्रह्मासहित
अग्नि का विसर्जन करे— ऊँ भूर्भुवः स्वः समुद्भवनामाग्नये नमः समुद्भवनामाग्निं
पूजयामि,सर्वोपचार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि ।
नोट— 1. ध्यातव्य है कि संक्षिप्त
लोकरीत्यानुसार वेदाध्ययन एवं समावर्तन संस्कार भी उपनयन संस्कारके साथ ही किया जा
रहा है, जिनका कृत्य अभी शेष है।
2. पुनः यहाँ स्मरण रखने की आवश्यकता है
कि भले ही तीनों संस्कार समेकित रूप से सम्पन्न कर ले रहे हैं, किन्तु होम कार्य
के लिए तीन अलग-अलग वेदियाँ हों तो अति उत्तम। दो वेदियाँ हों तो मध्यम। दो यानी
उपनयन और वेदारम्भ के लिए एक वेदी से काम चलाया जा सकता है, क्योंकि इन दोनों में समुद्भवनामक
अग्नि को ही आहूत करना है। जबकि समावर्तनसंस्कार में वैश्वानरनामक अग्नि को
आहूत करते हैं, इस कारण उनकी वेदी अलग होनी ही चाहिए। भले ही कुशकण्डिकादि कार्यों
की पुनरावृत्ति में अधिक समय लगता हो।
ब्रह्मचारी के लिए उपदेश— अब
आचार्य सम्मुख बैठे ब्रह्मचारी वेश बटुक को उपदेश करें। बटुक ध्यान से उसे सुने—
अधःश्यायी स्यात्। अक्षारालवणाशी स्यात्।
समावर्तनपर्यन्तं दण्डधारणम्। अग्निपरिचरणम्। प्रत्यहं समिदाहरणम्।
गुरुशुश्रुषणम्। भिक्षाचर्यां कुर्वात् । मधु,
मांसम्, मज्जनम्, उपर्यासनम्, स्त्रीगमनम्, अनृतवदनम्, अदत्तादानम् एतानि
वर्जयेत् । ताम्बूलम्, अभ्यङ्गम्, अञ्जनम्, आदर्शनम्, छत्रोपानहौ,
कांस्यपात्रभोजनादीनि च वर्जयेत् । आचार्येणाहूत उत्थाय प्रतिशृणुयात्। शयानं चेत्
आसीनः, आसीनञ्चेत्तिष्ठन्, तिष्ठन्तं चेदभिक्रामन्, अभिक्रामन्तं चेद् अभिधावनम्
प्रतिवचनं दद्यत्।
(ब्रह्मचारी को सदा भूमिशयन करना
चाहिए, यानी चौकी इत्यादि का प्रयोग न करे। भूमिशयन का ये अर्थ नहीं कि सीधे जमीन
पर सो जाये। क्योंकि ये भी वर्जित है। इससे शरीर की ऊर्जा का क्षरण होता है। क्षार, लवण, मधु, मांस इत्यादि का सेवन न करे।
समावर्तन संस्कार पर्यन्त पलाशदण्ड धारण करना चाहिए। अग्नि की उपासना करनी चहिए।
प्रतिदिन समिधा लानी है। गुरु की सेवा करनी है। भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करना है।
शरीर मल-मल कर स्नान नहीं करना है। उँचे आसन पर नहीं बैठना है। स्त्रीसेवन नहीं
करना है। असत्य भाषण नहीं करना है। दूसरे के द्वारा बिना दिए कुछ ग्रहण नहीं करना
है। ताम्बूल, उबटन, कज्जल, दर्पण, छत्र, उपानह (जूता वगैरह) एवं कास्यपात्र का
प्रयोग नहीं करना है। भोजन पत्रावली में होना चाहिए। आचार्य द्वारा बुलाने पर लेटे
हुए शिष्य को बैठकर, बैठे हुए को खड़े होकर, खड़े हुए को चलकर, एवं चलते हुए को
दौड़कर आचार्य का प्रत्युत्तर देना चाहिए। इस प्रकार का आचरण करने वाला ब्रह्मचारी
(शिष्य) सदा उत्तम लोक में निवास करता है।)
(ध्यातव्य है कि होम के पश्चात् किये जाने
वाले कार्यों में संस्रवप्राशन, मार्जन, ब्रह्मपूर्णपात्रदान, प्रणीताविमोक,
पुनर्मार्जन, बर्हिहोम, अग्निप्रार्थना एवं विसर्जन, अन्य देवतादि विसर्जन आदि
क्रियायें अभी शेष है। इसे सबसे अन्त में यानी वेदारम्भ और समावर्तनसंस्कार के
पश्चात् ही सम्पन्न करना चाहिए, क्योंकि समेकित रूप से तीन संस्कार एक दिन में ही
किए जा रहे हैं)
वेदारम्भसंस्कार प्रयोग—
ध्यातव्य है कि यज्ञोपवीत यज्ञमण्डप में गणेशाम्बिकादि समस्त देवों का आवाहन-पूजन, अग्निस्थापन,
कुशकण्डिका, ब्रह्मावरण, होमकर्म इत्यादि सभी आवश्यक कर्मकाण्ड यज्ञोपवीतसंस्कार क्रम
में ही सम्पन्न किया जा चुका है। अतः पुनः उसकी आवृत्ति अनिवार्य नहीं है। अतः
सामान्य रूप से पुनः एकाग्रचित्त होकर सभी देवों का स्मरण करते हुए पूर्व स्थान पर
ही आचार्य एवं बटुक आसनासीन रहेंगे। तीनों संस्कारों के लिए समेकित संकल्प भी पहले
ही किया जा चुका है। प्रथम दो संस्कारों—उपनयन और वेदारम्भ में समुद्भव
नामक अग्नि में ही आहुति प्रदान करनी है। अतः अग्निस्थापन से कुशकण्डिका तक की आंगिक
क्रियायें पुनः करने की आवश्यकता नहीं है। सीधे होमकर्म प्रारम्भ करेंगे। प्रारम्भ
में ब्रह्मा कुश से बटुक का स्पर्श किए रहेंगे। इसे ब्रह्मणान्वारब्ध कहते
हैं। बटुक हाथ में जल लेकर इदमाज्यं तत्तद्देवतायै मया परित्यक्तं यथादैवतमस्तु
न मम का उच्चारण करते हुए छोड़ दे, तत्पश्चात् घी से चार आहुतियाँ प्रदान करे।
प्रत्येक बार स्रुवाशेष घृत को प्रोक्षणीपात्र में छिड़कते जाए—
१. ऊँ
प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।
२. ऊँ
इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।
३. ऊँ
अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम।
४. ऊँ
सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।
अब ब्रह्मा कुश का स्पर्श हटा लें। इस
क्रिया को अनन्वारब्ध कहते हैं। तदनन्तर चारों वेदों के मन्त्रों से क्रमशः
चार-चार आहुतियाँ डालनी हैं—
१. ऊँ
अन्तरिक्षाय स्वाहा, इदमन्तरिक्षाय न मम।
२. ऊँ
वायवे स्वाहा, इदं वायवे न मम।
३. ऊँ
ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
४. ऊँ
छन्दोभ्यः स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
---------
१. ऊँ
पृतिव्यै स्वाहा, इदं पृथिव्यै न मम।
२. ऊँ
अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम।
३. ऊँ
ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
४. ऊँ
छन्दोभ्यः स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
----------
१. ऊँ
दिवे स्वाहा, इदं दिवे न मम।
२. ऊँ
सूर्याय स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।
३. ऊँ
ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
४. ऊँ
छन्दोभ्यः स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
----------
१. ऊँ
दिग्भ्यः स्वाहा, इदं दिग्भयो न मम।
२. ऊँ
चन्द्रमसे स्वाहा,इदं चन्द्रमसे न मम।
३. ऊँ
ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
४. ऊँ
छन्दोभ्यः स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
पुनः सात आहुतियाँ और डालें—
१.
ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं
प्रजापतये न मम।
२.
ऊँ देवेभ्यः स्वाहा, इदं देवेभ्यो
न मम।
३.
ऊँ ऋषिभ्यः स्वाहा, इदमृषिभ्यो न
मम।
४.
ऊँ श्रद्धायै स्वाहा, इदं
श्रद्धायै न मम।
५.
ऊँ मेधायै स्वाहा, इदं मेधायै न
मम।
६.
ऊँ सदस्पतये स्वाहा, इदं सदस्पतये
न मम।
७. ऊँ
अनुमतये स्वाहा, इदमनुमतये न मम।
अब पूर्व की भाँति नवाहुति प्रदान करें—
नवाहुति
मन्त्र—
१.
ऊँ
भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम।
२. ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम।
३. ऊँ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।
४. ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्
देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाꣳ सि
प्रमुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
५. ऊँ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती
नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुण ᳭᳴᳴रराणो वीहि मृडीक ᳭᳴ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न
मम।
६. ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च
सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज ᳭᳴᳴ स्वाहा। इदमग्नये अयसे न मम।
७. ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं
यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु
मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।
८. ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि
मध्यम ᳭᳴᳴ श्रधाय । अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं
वरुणायादित्यायादितये न मम।
९. ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये
न मम। (यहाँ
प्रजापति देवता का मानसिक ध्यान कर, आहुति डाले)
स्विष्टकृत् आहुति— पुनः ब्रह्मा कुश से बटुक का स्पर्श
करेंगे और बटुक आहुति डालेगा— ऊँ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये
स्विष्टकृते न मम।
(नोट— इस क्रिया के साथ समेकित कर्मकाण्ड में उपनयन और वेदारम्भ का काम
पूरा हो चुका। आगे समावर्तनसंस्कार हेतु अलग से वेदी बनाना है और सारे होमकृत्य
पुनः करने हैं। अतः यहाँ होमकर्म की शेष क्रियायें—संस्रवप्राशन, मार्जन,
ब्रह्माकलशदान, प्रणीताविमोक, पुनर्मार्जन, बर्हिहोम, परिसमूहन, अग्निपर्युक्षण,
समिदाधान इत्यादि सम्पन्न कर लेंगे।)
संस्रवप्राशन
एवं मार्जन — होम
पूर्ण होने पर प्रोक्षणीपात्र प्रक्षेपित घृत को दाहिने हाथ से ग्रहण कर,
यत्किंचित् पान करें।
तदनन्तर
आचमन करके, निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक प्रणीतापात्र के जल से अपने सिर पर
मार्जन करे— ऊँ सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु ।
तदनन्तर
ऊँ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्वष्पः मन्त्रोच्चारण
पूर्वक जल नीचे छिड़के और पवित्रक को अग्नि में छोड़ दे ।
ब्रह्मापूर्णपात्र
दान—पूर्व स्थापित ब्रह्मापूर्णपात्र में
दक्षिणाद्रव्य रखकर संकल्प करे— ऊँ अद्य उपनयनवेदारम्भसंस्कार होमकर्मणि
कृताकृतावेक्षण-रूपब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं वृषनिष्क्रय द्रव्यसहितं
पूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतं ...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे ।
नियुक्त
ब्रह्मा स्वति कहकर उस पूर्णपात्र को ग्रहण करें।
प्रणीताविमोक
एवं मार्जन —
अब, प्रणीतापात्र को ईशानकोण में उलटकर रख दे और उपयमनकुशा द्वारा उस जल से सिर पर
मार्जन करे, इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक— ऊँ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः
शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। ( मार्जनोपरान्त उस कुशा को अग्नि
में छोड़ दे।)
बर्हिहोम— अब अग्निवेदी के चारो ओर जिस क्रम
से कुशाओं को बिछाये थे, उसी क्रम से उठा-उठाकर, घृत में डुबोकर, इस मन्त्र के
उच्चारण पूर्वक अग्नि में डाल दे— ऊँ देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित
मनसस्पत इमं देव यज्ञ ᳭᳴᳴ स्वाहा वाते धाः स्वाहा ।
अब
बटुक आचमन करके, जलपुष्पाक्षतादि लेकर देवपूजन संकल्प करे— ऊँ
अद्यः...गोत्र....शर्माहं पूर्वोच्चारितग्रहगुण-गणविशेषणविशिष्टायां पुण्यतिथौ मम
ब्रह्मवर्चससिद्ध्यर्थं वेदारम्भकर्मणः पूर्वाङ्गत्वेन गणपतिसहितसरस्वतीविष्णुलक्ष्मीयजुर्वेदगुरुणां
पूजनं करिष्ये।
अब
हरिद्रारंजित आम्रकाष्ठपीठिका पर दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमशः पाँच स्थानों पर
दधि मिश्रित अक्षत पुञ्ज स्थापित करे। उन पाँचों स्थानों पर सुपारी भी रखे।
गणपत्यादि देवों को यथाक्रम आवाहित पूजित करे—
१. ऊँ भूर्भुवः स्वः गणेश इहागच्छ इह
तिष्ठ पूजार्थं त्वामावाहयामि।
२. ऊँ भूर्भुवः स्वः विष्णो इहागच्छ इह
तिष्ठ पूजार्थं त्वामावाहयामि।
३. ऊँ भूर्भुवः स्वः सरस्वति इहागच्छ इह
तिष्ठ पूजार्थं त्वामावाहयामि।
४. ऊँ भूर्भुवः स्वः लक्ष्मि इहागच्छ इह
तिष्ठ पूजार्थं त्वामावाहयामि।
५. ऊँ भूर्भुवः स्वः स्वविद्ये इहागच्छ
इह तिष्ठ पूजार्थं त्वामावाहयामि।
पुनः
पुष्पाक्षत लेकर ऊँ एतं ते देव सवितर्यज्ञं प्राहुर्बृहस्पतये ब्रह्मणे तेन
यज्ञमव तेन यज्ञपतिं तेन मामव बोलकर पट्टिका पर प्रतिष्ठित करे। तदुपरान्त
उनका पंचोपचार पूजन करे।
वेदारम्भ की मुख्य क्रिया— सर्वप्रथम प्रणव और व्याहृतियुक्त गायत्रीमन्त्र
का तीन बार उच्चारण करे। तदनन्तर क्रमशः शुक्लयजुर्वेद, ऋग्वेद, सामवेद एवं अन्त
में अथर्ववेद के एक-एक ऋचाओं का पाठ करे। आचार्च धीरे-धीरे बोलते जाएँ, बटुक
एकाग्रचित्त श्रवण करते हुए, साथ-साथ वाचन करे—
१. ऊँ इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ
देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण आप्यायध्व मध्न्या इन्द्राय
भागम्प्रजावतीरनमीवा अयक्ष्मा मा व स्तने ईशत माधशꣳ सो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात
बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।।
२. ऊँ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य
देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम्।।
३. ऊँ अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये । नि
होता सत्सि बर्हिषि।।
४. ऊँ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं
योरभि स्रवन्तु नः ।
पुनः
पूर्व की भाँति गायत्रीमन्त्रपाठ करे एवं गुरु द्वारा विरामोऽस्तु—ऐसा कहने
पर उनके चरणों में नत होकर, विराम करे। यहाँ गुरु पुनः पूर्व वर्णित नियमों का
स्मरण दिलावें, जैसा कि उपनयनोपदेश के समय कहा गया था। नियम स्मरण कराकर आचार्य
बटुक को आशीष प्रदान करें।
त्रायुष्करण— तदनन्तर स्रुवा से हवनवेदी के
ईशानकोण से किंचित् भस्म लेकर अनामिका अँगुली से अपने अंगों में लगावे। (यथा— ऊँ
त्रायुषं जमदग्नेः (ललाट में), ऊँ
कश्यपस्य त्र्यायुषम् (गले में), ऊँ यद्देवेषु त्र्यायुषम् (दक्षिण
बाहु मूल में), ऊँ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम् (हृदय में)।
विसर्जन—तदनन्तर पुष्पाक्षत लेकर, आवाहित
देवों के विसर्जन निमित्त मन्त्रोच्चारण करके,यथास्थान छोड़ दे — गच्छ गच्छ
सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर । यत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्र गच्छ हुताशन ।।
यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम् । इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ।।
भगवत्समरण— पुनः पुष्पाक्षत लेकर निम्नांकित
मन्त्रोच्चारण करे— प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत् । स्मरणादेव
तद् विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ।। यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या
तपोयज्ञक्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।
यत्पादपङ्कजस्मरणाद् यस्य नामजपादपि । न्यूनं कर्म भवेत् पूर्णं वन्दे साम्बमीश्वरम् ।। ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ
विष्णवे नमः। ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ साम्बसदाशिवाय नमः । साम्बसदाशिवाय नमः ।
साम्बसदाशिवाय नमः ।
इस
प्रकार वेदारम्भसंस्कार की क्रिया सम्पन्न हुयी। अब इस समेकित विधान का अन्तिम
कृत्य शेष रह गया है—समावर्तन।
समावर्तनसंस्कार
प्रयोग—
समावर्तनसंस्कार
में वेदारम्भसंस्कार की प्रायः सभी विधियों को यथावत पुनः सम्पन्न किया जाता है। ध्यातव्य
है कि यहाँ अग्नि का नामभेद है। यहाँ समुद्भवाग्नि के स्थान पर वैश्वानरनामाग्नि
का प्रयोग होना है, अतः क्रियाविधि और आहुतिमन्त्र आदि पूर्ववत रहते हुए भी, अलग
से हवनवेदी का निर्माण और कुशकण्डिकादि क्रियाएं सम्पन्न करनी पड़ती हैं। आलस्य वा
अज्ञान में लोग एक ही वेदी पर सारी क्रियायें सम्पन्न करा देते हैं, ये शास्त्रसम्मत नहीं है। पारस्करगृह्यसूत्र में एक और बात कही गयी है—
अत्र समावर्तने
मातृपूजनादिपूर्णपात्रदानान्तमाचार्यस्य कृत्यम्। अष्टकलशाभिषेकादिदण्डनिधानान्तं
ब्रह्मचारिणः बटो कृत्यम्।
वेदारम्भसंस्कार
के पश्चात् किंचित् विश्राम लेकर समावर्तन संस्कार हेतु निर्मित अन्य वेदी के समीप
बटुक स-मन्त्र सिर पर जल छिड़ककर, आचमन, प्राणायाम आदि करे। तदुपरान्त आचार्य की
अनुमति से सर्वप्रथम गोदान हेतु संकल्प करे— ऊँ अद्य...अहं स्नानाधिकारसिद्धये
इमां गां गोप्रत्याम्नायनिष्क्रयभूतां दक्षिणां आचार्याय भवते सम्प्रददे।
तदुपरान्त समावर्तनसंस्कारवेदी को पूर्व
की भाँति तैयार करें। (वेदीसंस्कारविधि हेतु परिशिष्ट खण्ड का सहयोग लें)
संकल्प— आचार्य जलपुष्पाक्षतद्रव्यादि लेकर नूतन
अग्निस्थापन हेतु संकल्प करे— ऊँ अद्य...गोत्र...शर्माहमस्य माणवकस्य समावर्तन संस्कारकर्मणि
वैश्वानरनामकमग्नेः स्थापनं करिष्ये।
अग्निस्थापन—
ऊँ अग्नि दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे । देवाँ आ सादयादिह। इस मन्त्र से अग्नि को वेदी पर
स्थापित करके, काष्ठ एवं उपले वगैरह डाल दे।
ब्रह्मावरण—
पुनः जलपुष्पाक्षतद्रव्यादि लेकर
संकल्प करे—
ऊँ
अद्य...बटोः समावर्तनहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्म-कर्मकर्तुं
...गोत्रं....शर्माणं ब्राह्मणमेभिः पुष्पचन्दनताम्बूलयज्ञोप-वीतवासोभिः
ब्रह्मत्वेन भवन्तमहं वृणे।
(वरणसामग्री उपस्थित ब्रह्मा को दे
दे)
ग्रहण
करते हुए ब्रह्मा कहें— वृतोऽस्मि।
आचार्य
कहें— यथाविहितं कर्म कुरु।
ब्रह्मा
कहें—यथाज्ञानं करवाणि।
वेदी
के दक्षिण आसन दे कर नियुक्त ब्रह्मा से निवेदन करे—
अस्मिन्
कर्मणि त्वं ब्रह्मा भव।
ब्रह्मा
कहे— भवामि।
अब
बटुक ब्रह्मा की ओर हाथ जोड़कर प्रार्थना करे—
यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्ववेदधरः
प्रभुः ।
तथा त्वं मम यज्ञेऽस्मिन् ब्रह्मा भव
द्विजोत्तम।।
अब
परिशिष्टखण्ड निर्दिष्ट कुशकण्डिका विधान सम्पन्न करे। तदुपरान्त अक्षत छिड़क कर स्थापित
अग्नि की प्रतिष्ठा करे— ऊँ वैश्वानरनामाग्ने सुप्रतिष्ठितो भव।
अग्नि
की प्रार्थना — अग्नि प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं
हुताशनम्। सुवर्णवर्णममलमनन्तं
विश्वतोमुखम्। सर्वतः पाणि पादश्च सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः । विश्वरूपो महानग्निः
प्रणीतः सर्व कर्मसु । ऊँ चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त
हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याꣳआविवेश ।
ध्यान के पश्चात् पंचोपचार पूजन करे— ऊँ
भूर्भुवः स्वः वैश्वानरनाम्ने अग्नये नमः । सर्वोपचारार्थे गन्धपुष्पाक्षताणि
समर्पयामि। (बारीबारी से सभी पूजनसामग्री अग्नि में छोड़े उक्त मन्त्रोच्चारण
सहित। )
तदनन्तर अग्नि में पर्याप्त काष्ठ
छोड़कर वेणुधमनी (विशिष्ट प्रकार की नलिका) से फूँक मारकर प्रज्वलित करे,
तत्पश्चात् होमकर्म करे।
सर्वप्रथम प्रजापतिदेवता के
निमित्त आहुति दी जाती है, तदनन्तर इन्द्र, अग्नि और सोम को आहुति देते हैं। इन
चार आहुतियों में प्रथम और द्वितीय को आधारआहुति कहते हैं। इन्हें वेदी के
मध्यभाग में देना चाहिए एवं तृतीय-चतुर्थ को आज्यभाग आहुति कहते हैं। तृतीय
आहुति वेदी के उत्तरपूर्वार्द्धभाग में तथा चतुर्थ आहुति दक्षिण पूर्वार्द्धभाग
में प्रदान करें। ये चारों आहुतियाँ घी से
दी जानी चाहिए। इस क्रम में नियुक्त ब्रह्मा कुश से बटुक का स्पर्श किए रहेंगे।
इसे ब्रह्मणान्वारब्ध कहते हैं। बटुक हाथ में जल लेकर इदमाज्यं
तत्तद्देवतायै मया परित्यक्तं यथादैवतमस्तु न मम का उच्चारण करते हुए छोड़े,
तत्पश्चात् घी से चार आहुतियाँ प्रदान करे। प्रत्येक बार स्रुवाशेष घृत को
प्रोक्षणीपात्र में छिड़कते जायेंगे—
१. ऊँ
प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।
२. ऊँ
इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।
३. ऊँ
अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम।
४. ऊँ
सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।
अब ब्रह्मा कुश का स्पर्श हटा लेगें। इस
क्रिया को अनन्वारब्ध कहते हैं।
तदुपरान्त वेदारम्भसंस्कार वाले सभी मन्त्रों
से क्रमशः आहुतियाँ डालनी हैं—
१. ऊँ
अन्तरिक्षाय स्वाहा,इदमन्तरिक्षाय न मम।
२. ऊँ
वायवे स्वाहा,इदं वायवे न मम।
३. ऊँ
ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
४. ऊँ
छन्दोभ्यः स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
---------
१. ऊँ
पृतिव्यै स्वाहा, इदं पृथिव्यै न मम।
२. ऊँ
अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम।
३. ऊँ
ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे न मम।
४. ऊँ
छन्दोभ्यः स्वाहा, इदं छन्दोभ्यो न मम।
----------
१. ऊँ
दिवे स्वाहा,इदं दिवे न मम।
२. ऊँ
सूर्याय स्वाहा,इदं सूर्याय न मम।
३. ऊँ
ब्रह्मणे स्वाहा,इदं ब्रह्मणे न मम।
४. ऊँ
छन्दोभ्यः स्वाहा,इदं छन्दोभ्यो न मम।
----------
१. ऊँ
दिग्भ्यः स्वाहा,इदं दिग्भयो न मम।
२. ऊँ
चन्द्रमसे स्वाहा,इदं चन्द्रमसे न मम।
३. ऊँ
ब्रह्मणे स्वाहा,इदं ब्रह्मणे न मम।
४. ऊँ
छन्दोभ्यः स्वाहा,इदं छन्दोभ्यो न मम।
पुनः सात आहुतियाँ और डालें—
१.
ऊँ प्रजापतये स्वाहा,इदं प्रजापतये
न मम।
२.
ऊँ देवेभ्यः स्वाहा,इदं देवेभ्यो न
मम।
३.
ऊँ ऋषिभ्यः स्वाहा,इदमृषिभ्यो न
मम।
४. ऊँ
श्रद्धायै स्वाहा,इदं श्रद्धायै न मम।
५.
ऊँ मेधायै स्वाहा,इदं मेधायै न मम।
६. ऊँ
सदस्पतये स्वाहा,इदं सदस्पतये न मम।
७. ऊँ
अनुमतये स्वाहा,इदमनुमतये न मम।
अब पूर्व की भाँति नवाहुति प्रदान करें—
नवाहुति
मन्त्र—
१. ऊँ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम।
२. ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम।
३. ऊँ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।
४. ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्
देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाꣳ सि प्रमुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा,
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
५. ऊँ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती
नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुण ᳭᳴᳴रराणो वीहि मृडीक ᳭᳴ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न
मम।
६. ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च
सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज ᳭᳴᳴ स्वाहा। इदमग्नये अयसे न मम।
७. ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं
यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु
मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।
८. ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि
मध्यम ᳭᳴᳴ श्रधाय । अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं
वरुणायादित्यायादितये न मम।
९.
ऊँ
प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।
( इस अन्तिम आहुतिके मन्त्र का वाचिक
उच्चारण नहीं होगा। मानसिक उच्चारण करते हुए प्रजापति के ध्यान पूर्वक आहुति डालें)
स्विष्टकृत् आहुति— पुनः ब्रह्मा कुश से बटुक का स्पर्श
करेंगे और बटुक आहुति डालेगा— ऊँ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये
स्विष्टकृते न मम।
(नोट— इस क्रिया के साथ समेकित कर्मकाण्ड (उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन) का
अन्तिम कृत्य सम्पन्न हो रहा है, इस कारण अब होमकर्म की शेष क्रियायें—संस्रवप्राशन,मार्जन,
ब्रह्माकलशदान, प्रणीताविमोक, पुनर्मार्जन, बर्हिहोम, परिसमूहन, अग्निपर्युक्षण,
समिदाधान इत्यादि, जिन्हें अब तक छोड़ते आए हैं, यहाँ पर साथ-साथ सम्पन्न कर लेंगे।)
संस्रवप्राशन
एवं मार्जन — होम
पूर्ण होने पर प्रोक्षणीपात्र प्रक्षेपित घृत को दाहिने हाथ से ग्रहण कर, यत्किंचित्
पान करे।
तदनन्तर
आचमन करके, निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक प्रणीतापात्र के जल से अपने सिर पर
मार्जन करे—ऊँ सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु ।
तदनन्तर
ऊँ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्वष्पः मन्त्रोच्चारण
पूर्वक जल नीचे छिड़के।
(अब
पवित्रक को अग्नि में छोड़ दे )
ब्रह्मापूर्णपात्र
दान—पूर्व स्थापित ब्रह्मापूर्णपात्र में
दक्षिणाद्रव्य रखकर संकल्प करे— ऊँ अद्य समावर्तनाङ्गहोमकर्मणि
कृताकृतावेक्षणरूप-ब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं पूर्णपात्रं
प्रजापतिदैवतं ...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे ।
नियुक्त
ब्रह्मा स्वति कहकर उस पूर्णपात्र को ग्रहण करें।
प्रणीताविमोक
एवं मार्जन —
अब, प्रणीतापात्र को ईशानकोण में उलटकर रख दे और उपयमनकुशा द्वारा उस जल से सिर पर
मार्जन करे, इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक— ऊँ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः
शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। ( मार्जनोपरान्त उस कुशा को अग्नि
में छोड़ दे।)
बर्हिहोम— अव अग्निवेदी के चारो ओर जिस क्रम
से कुशाओं को बिछाये थे, उसी क्रम से उठा-उठाकर, घृत में डुबोकर, इस मन्त्र के
उच्चारण पूर्वक अग्नि में डाल दे— ऊँ देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित
मनसस्पत इमं देव यज्ञ ᳭᳴᳴ स्वाहा वाते धाः स्वाहा ।
परिसमूहन—
तदुपरान्त उपदेशित बटुक(ब्रह्मचारी) अग्निवेदी के पश्चिम की ओर बैठकर पर्याप्त घी
में डुबोयी हुई पाँच यज्ञसमिधायें (आम की लकड़ी या गोमय उपले) प्रज्वलित अग्नि में
निम्नांकित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए बारीबारी से पाँच आहुतियाँ प्रदान करे—
१. ऊँ
अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु।
२. ऊँ
यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि।
३. ऊँ
एवं माꣳ सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।
४. ऊँ
यथा त्वमग्ने देवानां यक्षस्य निधिपा असि।
५. ऊँ
एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम्।
अग्निपर्युक्षण एवं समिदाधान— तदुपरान्त
प्रदक्षिणक्रम से (ईशान से आरम्भ कर क्रमशः
पूरब, अग्नि, दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायु, उत्तर एवं पुनः ईशान) जल से अग्नि
का प्रोक्षण करे और पुनः एक समिधा लेकर, घी में डुबोकर, खड़े होकर निम्नांकित
मन्त्रोच्चारण करते हुए अग्नि में आहुति डाले— ऊँ अग्नये समिधमाहार्षं बृहते
जातवेदसे । यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस एवमहमायुषा मेधया वर्चसा प्रजया
पशुभिर्बह्मवर्चसेन समिन्धे जीवपुत्रो ममाचार्यो
मेधाव्यह-मसान्यनिराकरिष्णुर्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्व्यन्नादो भूयासꣳ स्वाहा।
(उक्त मन्त्र का पुनःपुनः उच्चारण करते
हुए पूर्वकी भाँति दो आहुतियाँ और प्रदान करे।)
तदनन्तर पूर्व विधानानुसार पाँच आहुतियाँ
पुनः प्रदान करे—
१. अग्ने
सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु।
२. ऊँ
यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि।
३. ऊँ
एवं माꣳ सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।
४. ऊँ
यथा त्वमग्ने देवानां यक्षस्य निधिपा असि।
५. ऊँ
एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम्।
तदुपरान्त पूर्व की भाँति प्रदक्षिणक्रम
से (ईशान से आरम्भ कर क्रमशः पूरब, अग्नि,
दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायु, उत्तर एवं पुनः ईशान) जल से अग्नि का प्रोक्षण
करे। एवं निम्नांकित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए अग्नि में हाथ सेंककर अपने मुख
पर हाथ फेरे —
क. ऊँ
तनूपाऽअग्नेऽसि तन्वं मे पाहि।
ख. ऊँ
आयुर्दा अग्नेऽस्यायुर्मे देहि।
ग. ऊँ
वर्चौदा अग्नेऽसि वर्चो मे देहि।
घ. ऊँ
अग्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्म आपृण।
ङ. ऊँ
मेधां मे देवः सविता आदधातु।
च. ऊँ
मेधां मे देवी सरस्वती आदधातु।
छ. ऊँ
मेधामश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ।
तदुपरान्त—
ऊँ अङ्गानि च म आप्यायन्ताम्—इस
मन्त्र से सर्वांग पर हाथ फेरे।
ऊँ वाक् च म आप्यायताम्—मुख
का स्पर्श करे।
ऊँ प्राणश्च म आप्यायताम्—
दोनों नासिकारन्ध्रों का स्पर्श करे।
ऊँ चक्षुश्च म आप्यायताम्—
दोनों आँखों का स्पर्श करे।
ऊँ श्रोत्रञ्च म आप्यायताम्— दाहिने
और बायें कान का स्पर्श करे।
ऊँ यशो बलं च म आप्यायताम्—
दोनों भुजाओं का परस्पर एक साथ स्पर्श करे। तदनन्तर जलका स्पर्श करे।
त्र्यायुष्करण—
तत्पश्चात् आचार्य स्रुवा से होमाग्नि का भस्म ग्रहण करके दायें हाथ की अनामिका से
निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक क्रमशः बटुक के अंगों में लगावें (अन्यत्र ये
कार्य यजमान स्वयं कर लेता है आचार्य के निर्देश पर, किन्तु यहाँ उचित है कि आशीष
के रूप में आचार्य ही ये कार्य सम्पन्न करें)—
ऊँ त्र्यायुषं जमदग्नेः
(ललाट में),
ऊँ काश्यपस्य त्र्यायुषम्
(ग्रीवा में),
ऊँ यद्देवेषु त्र्यायुषम्
(दक्षिण बाहुमूल में),
ऊँ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्
(हृदय में),
अग्नि एवं आचार्य का अभिवादन—
अब बटुक अपने नाम, गोत्र, प्रवरादि का उच्चारण करते हुए अग्नि एवं आचार्य को
प्रणाम करे—अग्ने त्वामभिवादये...गोत्रः...प्रवरान्वितः...शर्माहं भोः३।
तदनन्तर गुरु का दक्षिण पाद अपने दाहिने
हाथ से एवं वाम पाद बायें हाथ से स्पर्श
करते हुए बोले—त्वामभिवादये...गोत्रः... प्रवरान्वितः...शर्माहं भोः३।
आचार्य बटुक के नाम सहित बोलें— आयुष्मान्
भव सौम्य ....श्रीशर्मन्। तदनन्तर बटुक अन्य प्रणम्य जनों से भी आशीष ले।
अष्टकलशाभिषेक—पारस्करगृह्यसूत्र
के अनुसार अब ये क्रियायें बटुक स्वयं करे। आठ कलशों में जल भरकर स्थापित कर दे। उन्हें
पूजनकलश की भाँति आम्रपल्लवों से सुसज्जित कर दे। कलशों के चारों ओर पूर्वाग्र
कुशा बिछाकर, उस पर उत्तराभिमुख बैठ जाए। अब दाहिने से क्रमशः एक-एक कलश का जल अपने
चुल्लू में ले-लेकर अपने सिर पर छिड़के। प्रत्येक कलशों से जल ग्रहण हेतु मन्त्र
समान है, जबकि अभिषेक हेतु मन्त्र भेद है। इसका ध्यान रखते हुए जल ग्रहण करे और
अभिषेक करे। पहले जल ग्रहण मन्त्र का वाचन करते हुए जल ग्रहण करे, तत्पश्चात् हर
बार भिन्न-भिन्न मन्त्र का वाचन करते हुए अभिषेक करे।
जलग्रहण हेतु मन्त्र— ऊँ येऽप्स्वन्तरग्नयः प्रविष्टा
गोह्य उपगोह्यो मयूखो मनोहाऽस्खलो विरुजस्तनूदूषिरिन्द्रियहा तान् विजहामि यो
रोचनस्तमिह गृह्णामि।
अभिषेक हेतु क्रमशः अलग-अलग मन्त्र—
१. प्रथम
कलश— ऊँ तेन मामभिषिञ्चामि श्रियै यशसे ब्रह्मवर्चसाय।
२. द्वितीय
कलश— ऊँ येन श्रियमकृणुतां येनावमृशताꣳ सुराम्। येनाक्ष्यावभ्यषिञ्चतां यद्वां
तदश्विना यशः।
३. तृतीय
कलश— ऊँ आपो हि ष्ठा मयो भुवस्ता न ऊर्जे दधातन महे रणाय चक्षसे।
४. चतुर्थ
कलश—ऊँ यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ।
५. पञ्चम
कलश— ऊँ तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जनयथा च नः ।
६.
७. सप्तम
८. अष्टम— इन तीनों कलशों का जल पूर्ववत उसी मन्त्र
से ग्रहण करेंगे, किन्तु अभिषेक के लिए
किसी मन्त्र का उच्चारण नहीं करना है, अपितु
मौन रूप से सिर पर छिड़क लेना है।
मौञ्जीमेखला, पलाशदण्ड, मृगचर्मादि का परित्याग—
ध्यातव्य
है कि
उपनयन
के समय आचार्य द्वारा मौंजीमेखला, पलाशदण्ड एवं मृगचर्म आदि धारण कराया गया था, जो
अबतक शरीर पर ही है। समावर्तनसंस्कार के साथ ब्रह्मचारी वेश का परित्याग हो रहा है
और आगे गृहस्थजीवन में प्रवेश की अनुमति दी जा रही है। अतः मेखलादि का निस्सारण
करना है।
सर्वप्रथम निम्न मन्त्रोच्चारण
पूर्वक मेखला को शिरोमार्ग से आदर सहित शरीर से बाहर निकाले (नीचे से नहीं)— ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाऽधमं मध्यमꣳ
श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अतितये स्याम स्वाहा । तदनन्तर पलाशदण्ड
को मौन (अमन्त्रक) उत्तर की ओर शीर्ष करके रख दे तथा धारित मृगचर्म को भी उतार दे
एवं गृहस्थोचित परिधान (धोती, गमछा, चादर इत्यादि) धारण कर दो बार आचमन करे।
ध्यातव्य
है कि आजकल लोग म्लेच्छ परिधान—पैंट-शर्ट, पायजामा-कुर्ता आदि पहना देते हैं। ये
अनुचित है, क्योंकि आगे अभी कई महत्वपूर्ण कार्य शेष हैं।
तत्पश्चात् दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर
निम्नांकित मन्त्रों से सूर्योपस्थान करे।
सूर्योपस्थान मन्त्र— ऊँ उद्यन्
भ्राजभृष्णुरिन्द्रो मरुद्भिरस्था-त्प्रातर्यावभिरस्थाद् दशसनिरसि दशसनिं मा
कुर्वा विदन् मा गमय । उद्यन् भ्राजभृष्णुरिन्द्रो मरुद्भिरस्थाद् दिवा
यावभिरस्थाच्छतसनिरसि शतसनिं मा कुर्वा विदन् मा गमय । उद्यन् भ्राजभृष्णुरिन्द्रो
मरुद्भिरस्थाद् सायं यावभिरस्थात् सहस्रसनिरसि सहस्रसनिं मा कुर्वा विदन् मा गमय।
तदुपरान्त ब्रह्मचारी दधि अथवा तिल
दाहिने हाथ में लेकर सेवन कर ले। चुँकि मुण्डनक्रिया अभी कुछ देर पहले ही सम्पन्न
हुयी है, अतः सिर एवं नखों पर छुरिकाभ्रमण मात्र करा ले नापित से। तदुपरान्त आचमन
करके द्वादश अँगुल परिमाण का उदुम्बर (गूलर- शुक्र की समिधा) से दतुअन करे, इस
मन्त्र का उच्चारण करके— ऊँ अन्नाद्याय व्यूहध्वꣳसोमो राजाऽयमागमत्।
स मे मुखं प्रमार्क्ष्यते यशसा च भगेन च ।।
(ध्यातव्य
है कि अन्य अवस्थाओं में गूलर का दतुअन वर्जित है, क्योंकि इसके प्रयोग से आध्यात्मिक
ऊर्जा का क्षरण होता है। )
दन्तधावनोपरान्त बारह कुल्लाकरके, सुगन्धित
तेल, उबटन आदि का लेपन करके समशीतोष्ण जल से स्नान करे एवं नूतन वस्त्र धारण करे।
तदनन्तर ऊँ प्राणापानौ मे तर्पय-
उच्चारण करते हुए दोनों नासिका छिद्रों का स्पर्श करे। ऊँ चक्षुर्मे तर्पय—उच्चारण
करते हुए दोनों नेत्रों का स्पर्श करे। ऊँ श्रोत्रं मे तर्पय—उच्चारण करते
हुए दोनों कानों का स्पर्श करे।
तदनन्तर हाथ धोकर, अपसव्य होकर (जनेऊ
को दाहिने कंधे पर कर ले) पूरब मुख किए हुए ही, किन्तु दक्षिण दिशा में भूमि पर
पितरों के निमित्त जलाञ्जलि प्रदान करे इस मन्त्र से— ऊँ पितरः शुन्धध्वम् ।
तदनन्तर पुनः सव्य होकर (पूर्ववत जनेऊ
बांये कंधे पर लाकर), आचमन करके
सविता
देवता की प्रार्थना करे— ऊँ सुचक्षा अहमक्षीभ्यां भूयासꣳ सुवर्चा मुखेन ।
सुश्रुत्कर्णाभ्यां भूयासम्।
यहाँ पर पुनः वस्त्र परिवर्तन करे।
गृहस्थोचित नूतन वस्त्र धारण करे इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए— ऊँ परिधास्यै
यशोधास्यै दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि। शतं च जीवामि शरदः पुरूची रायस्पोषमभि
संव्यविष्वे ।
वस्त्र धारण के पश्चात् दो बार आचमन करे।
तदुपरान्त जल लेकर यज्ञोपवीत धारण हेतु विनियोग करे— ऊँ यज्ञोपवीतमित्यस्य
परमेष्ठी ऋषिः त्रिष्टुप्छन्दो लिङ्गोक्तादेवता यज्ञोपवीतधारणे विनियोगः।
अब आचार्य द्वारा पूर्व अभिमन्त्रित शेष
बचे यज्ञोपवीत का जोड़ा लेकर दोनों हाथ के तर्जनी और अंगूठे के मध्यस्थान पर
टिकाते हुए, यज्ञोपवीत धारण मन्त्र का उच्चारण करे। चुँकि बटुक अभी मन्त्रका
अभ्यस्त नहीं है, इसलिए आचार्य उच्चारण करें, बटुक साथ में बोले— ऊँ यज्ञोपवीतं
परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं
यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।।
अभिमन्त्रित यज्ञोपवीत को धारण कर
ले, किन्तु पहले से धारण किए हुए को अभी निकाले नहीं। इस प्रकार शरीर पर तीन
यज्ञोपवीत हो गए अभी।
अब
इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए उत्तरीय (ऊपरी वस्त्र- गमछा, चादर) धारण करे— ऊँ
यशसा मा द्यावापृथिवी यशसेन्द्राबृहस्पती । यशो भगश्च माऽचिन्दद् यशो मा
प्रतिपद्यताम्।। पुनः दो बार आचमन करे।
तत्पश्चात् बटुक गृहस्थोचित अलंकार
(पुष्पहार, आभूषण, पगड़ी, छत्र, पादुका, बांस का डंडा इत्यादि) धारण करे। आँखों
में अञ्जन लगावे, दर्पण में अपना चेहरा देखे।
ध्यातव्य
है कि अब से पूर्व उपनयन के पश्चात् आचार्य ने उपदेश किया था इन सभी अलंकारों से
बचने के लिए, क्योंकि ब्रह्मचारी के लिए निषिद्ध हैं ये सब। अब चुँकि गृहस्थाश्रम
में प्रवेश हो रहा है समावर्तनसंस्कार के साथ, इसलिए ये सब ग्रह्य होंगे।
आगे इनके लिए अलग-अलग मन्त्र दिए
गए हैं— ऊँ या आहरज्जमदग्निः श्रद्धायै मेधायै कामायेन्द्रियाय । ता अहं
प्रतिहृह्णामि यशसा च भगेन च।। ऊँ यद्यशोऽप्सरसामिन्द्रश्चकार विपुलं पृथु । तेन
सङ्ग्रथिताः सुमनस आवध्नामि यशो मयि।। ऊँ युवा सुवासाः परिवीत आगात्स उ श्रेयान्
भवति जायमानः । तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो मनसा देवयन्तः। ऊँ अलङ्करणमसि भूयोऽलङ्करणं
भूयात् । ऊँ वृत्रस्यासि कनीनकश्चक्षुदां असि चक्षुर्मे देहि। ऊँ रोचिष्णुरसि । ऊँ
बृहस्पतेश्छदिरसि पाप्मनो मामन्तर्धेहि तेजसो यशसो माऽन्तर्धेहि।। ऊँ प्रतिष्ठे
स्थो विश्वतो मा पातम्। ऊँ विश्वाभ्यो मा नाष्ट्राभ्यस्परि पाहि सर्वतः ।
तदुपरान्त आचार्य के निमित्त गोदान
हेतु हाथ में जलपुष्पाक्षतद्रव्यादि लेकर संकल्प करे— ऊँ
अद्य...गोत्रः...शर्माहं मम स्नातकत्वसिद्धये इदं वररूपेण
गोनिष्क्रयद्रव्यमाचार्याय दातुमहमुत्सृज्ये।
द्रव्यादि आचार्य को समर्पित करके,
उनके श्रीमुख से स्नातकोचित-गृहस्थोचित नियमों को श्रद्धापूर्वक सुने और आगे जीवन
में यथासम्भव पालन करने का प्रयत्न करे। इसकी विस्तृत चर्चा पारस्करगृह्यसूत्र
काण्ड २ कण्डिका ७-८ में है। जिसका सारांश यहाँ प्रस्तुत है —
सत्य और न्याय का हमेशा पालन करे।
सर्वतोभावेन अपनी रक्षा करे। प्राणीमात्र पर दया करे और उनके कल्याण की कामना करे।
सभी के साथ मानवोचित व्यवहार करे। मदिरा-मांसादि का सेवन कदापि न करे।
धर्मशास्त्रों का अध्ययन-मनन और अनुपालन करे। अस्तु।
तदनन्तर स्नातक गुरु चरणों में
श्रद्धावनत होकर प्रणाम करे—एतान्नियमान् करिष्यामि कहते हुए।
पूर्णाहुति निषेध— विवाहे
व्रतबन्ध च शालायां वास्तुकर्मणि । गर्भाधानादिसंस्कारे पूर्णाहुतिं न कारयेत् ।।
इस वचन के अनुसार उक्त कार्यों में पूर्णाहुति नहीं करना चाहिए।
अब आचार्य दक्षिणा, ब्राह्मणभोजन
एवं भूयसी दक्षिणा हेतु संकल्प करे—
(क) ऊँ अद्य कृतानां उपनयनवेदारम्भसमावर्तनसंस्कार-कर्मणां
साङ्गतासिद्ध्यर्थं हिरण्यनिष्क्रयभूतं द्रव्यं आचार्याय भवते सम्प्रददे।
(ख) ऊँ
अद्य कृतानां उपनयनवेदारम्भसमावर्तनसंस्कार-कर्मणां साङ्गतासिद्ध्यर्थं
यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। तेभ्यो ताम्बूलदक्षिणां च दास्ये।
(ग)
ऊँ अद्य कृतानां
उपनयनवेदारम्भसमावर्तनसंस्कार-कर्मणां साङ्गतासिद्ध्यर्थं तन्मध्ये
न्यूनातिरिक्तदोषपरि-हारार्थं इमां भूयसीदक्षिणा विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये।
विसर्जन—तदनन्तर पुष्पाक्षत लेकर, आवाहित
देवों के विसर्जन निमित्त मन्त्रोच्चारण करके, यथास्थान छोड़ दे —
गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर ।
यत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्र गच्छ हुताशन ।। यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय
मामकीम् । इष्टकामसमृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च ।।
भगवत्स्मरण— पुनः पुष्पाक्षत लेकर निम्नांकित
मन्त्रोच्चारण करे— प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत् । स्मरणादेव
तद् विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ।। यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या
तपोयज्ञक्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।
यत्पादपङ्कजस्मरणाद् यस्य नामजपादपि । न्यूनं कर्म भवेत् पूर्णं वन्दे साम्बमीश्वरम् ।। ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ
विष्णवे नमः। ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ साम्बसदाशिवाय नमः । साम्बसदाशिवाय नमः ।
साम्बसदाशिवाय नमः ।
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