-३२-
विवाहसंस्कार की प्रथम प्रक्रियाःकुण्डलीमिलान
कितना
उचित, कितना व्यावहारिक
दैवी,
ब्राह्मी, मानसी सृष्टि की विडम्बनापूर्ण स्थिति में— ‘ ‘एकाकी न रमते सो कामयत’ वा
’एकोहं बहुस्यामः’ — ईक्षणा से मैथुनी सृष्टि की आवश्यकता प्रतीत हुई। उस समय प्रकृति का विमर्श (पुरुष)
ने अपने ही दक्षिण-वाम भागों से क्रमशः पुरुष-स्त्री युग्म उत्पन्न किया और मैथुनी
सृष्टि का श्रीगणेश हुआ। किन्तु ये व्यवस्था तात्कालिक थी। आगे, सभी पुरुषों में
ये क्षमता तो थी नहीं कि इसी भाँति युग्म संरचना करते रहें और यदि करते भी रहते तो
उनके बीच विधिवत वैवाहिक विधान सम्पादित करने का भी कोई औचित्य नहीं प्रतीत होता।
ऐसे में उनकी कुण्डलीमिलान प्रक्रिया का कोई अर्थ ही नहीं।
कालान्तर में प्रतिष्ठापित मैथुनीसृष्टि के जनक महर्षि काश्यप को माना जाता है। तदनुसार मानवेतर प्राणी भी काश्यपी सृष्टि के ही अंग हैं। दक्षप्रजापति ने अपनी साठहजार कन्याओं में तेरह कन्यायें काश्यप को प्रदान की। देवता, दैत्य, दानव, राक्षस, सरीसृप, पक्षी आदि सभी प्राणी दिति, अदिति, कद्रू, विनितादि तेरह पत्नियों से उत्पन्न हुए। स्पष्ट है कि इनकी कुण्डलीमिलान नहीं की गई।
विभिन्न
पौराणिक प्रसंगों में हम पाते हैं कि सतयुग, त्रेता, द्वापर यहाँ तक कि कलियुग के
प्रारम्भ तक स्वयंवर की परम्परा रही। स्वयंवर के लिए कन्या-पिता कन्या हेतु
योग्यवर की कामना से कोई शर्त निश्चित करता था। वस्तुतः ये वर की योग्यता की
परीक्षा थी। ऐसे में शर्त-पूर्ति अनिवार्य थी, न कि वर-कन्या की कुण्डली का मिलान।
आचार्यों एवं राजाओं को कन्यायें क्रमशः दान व उपहारस्वरूप प्रदान की जाती थी—इस
परम्परा में भी अष्टकूटमिलान की बात नहीं आती। वंशपरम्परा की अनिवार्यता के कारण
विशेष परिस्थिति में ‘चरुपद्धति’ और
‘नियोग’ विधि से
सन्तान उत्पत्ति की भी मान्यता रही है पूर्व युगों में।
वैवाहिक योग्यता के सम्बन्ध में
मनुस्मृति ३-५ में निर्देश है— असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः । सा
प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ।। (जो कन्या माता के सपिण्ड यानी सात
पीढ़ी के भीतर न हो और पिता के गोत्र की न हो
(यानी अन्य गोत्र की हो) ऐसी कन्या द्विजातियों के विवाहार्थ श्रेष्ठ है।)
वीरमित्रोदय-संस्कारप्रकाश
में यम ने निर्देश दिया है— कुलं शीलं च वपुर्वयश्च विद्यां च वित्तं च सनाथतां
च। एतान् गुणान्सप्त परीक्ष्य देया कन्या बुधैः शेषमचिन्तनीयम्।। (कुल, शील,
शरीर, आयु, विद्या, धन और पराक्रम— इन सात बातों पर विचार करके ही कन्या का विवाह
करे)।
याज्ञवल्क्यस्मृति
अ.५५ में कहा गया है— जातिविद्यावयः शीलमारोग्यं बहुपक्षता। अर्थित्वं
विप्रसम्पत्तिरष्टावेते वरे गुणाः ।। एतैरेव गुणैर्युक्तः सवर्णः
श्रोत्रियो वरः । यत्नात्परीक्षितः पुंस्तवे युवा धीमान् जनप्रियः।। (कुल,
शीलादि गुणों से युक्त सवर्ण ( यहाँ सवर्ण का अर्थ समान वर्ण से है, साथ ही
हीनवर्ण की वर्जना का भाव निहित है), श्रोत्रिय (वेदाभ्यासी), पुरुषत्व की
परीक्षापूर्वक, युवा, लौकिक-वैदिक कार्यों में बुद्धिवान, मृदुभाषी, स्मितहास आदि
गुण युक्त वर से विवाह करे।)
नारदस्मृति
में किंचित् और योग्यताओं की चर्चा है— उन्मतः पतितः क्लीवो
दुर्भगस्त्यक्तबान्धवः । कन्यादोषौ च यौ पूर्वावेव दोषगणो वरे।। (विक्षिप्त,
पतित, नपुंसक, भाग्यहीन, बन्धु-बान्धव द्वारा परित्यक्त, स्वतन्त्र विचार वाले वर
को कन्या न दे)।
मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में आठ प्रकार
के विवाह की चर्चा है—ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और
पिशाच। इनमें प्रथम चार को श्रेष्ठ और मध्य दो को मध्यम और अन्त के दो को निकृष्ट
कहा गया है। कुण्डलीमिलान की स्थिति यदि बनती भी है तो प्रथम चार में ही। शेष चार
(मध्यम और निकृष्ट) में तो किसी तरह के विचार की स्थिति ही नहीं बनती।
सृष्टि के प्रारम्भ से ही
ज्योतिषविद्या कालपुरुष के नेत्र के रूप में प्रतिष्ठित रही है। प्रत्येक
जीवन-व्यापार में ज्योतिष का सहयोग लिया गया है; किन्तु
वैवाहिक उद्देश्य से कुण्डलीमिलान की प्रक्रिया और इसकी प्राथमिकता का कब से चलन
हुआ पौराणिक गाथाओं या धर्मशास्त्रों में स्पष्ट कालनिर्देश नहीं मिलता। (कहीं होगा भी तो मुझे ज्ञात नहीं)
कलिकाल में बहुत बातों की वर्जना
है, बहुत विधियाँ लुप्त भी हो गयी। फिर भी अनेक
आचार्यों ने स्पष्ट निर्देश किया है कि सर्वप्रथम ज्योतिष एवं सामुद्रिकशास्त्र
में बतलाये गए लक्षणों पर विचार करे। यहाँ निरोग और दीर्घायु होने पर विशेष बल
दिया गया है। क्योंकि विद्या, धन आदि गुण आरोग्य और दीर्घायु होने पर ही सार्थक
होंगे, अन्यथा नहीं —
पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमादिशेत् ।
आयुर्हीननराणां च लक्षणैः किं प्रयोजयेत्।।
उक्त
प्रसंग में ज्योतिष एवं हस्तरेखादि शास्त्रों से वर-कन्या के आयु-आरोग्यादि
लक्षणों का विचार करने का जो संकेत है, सम्भवतः यही आधार बनता है कुण्डलीमिलान का।
यद्यपि धर्मशास्त्रसंग्रह एवं स्मृतिसंदर्भ नामक ग्रन्थों (श्लोक स्मरण नहीं है)
स्पष्ट निर्देश है कि १८ वर्षों के पश्चात् गुणमिलान का कोई औचित्य नहीं,
प्रत्युत दोषविचार और निवारण पूर्वक विवाह सम्पन्न करना चाहिए। अति विचारणीय
तथ्य है कि वर्तमान समय में तो इस समय तक विवाह की कल्पना भी नहीं की जाती। कानून
भी वयस्क होने की बात करता है।
अब
जरा अष्टकूटमिलान की प्रक्रिया पर विचार करें। ध्यातव्य है योग्य विवाह हेतु शरीर
और मन दोनों पर विचार करने की आवश्यकता है। कुल, शील, धन, विद्या आदि तो विचारणीय
हैं ही। किन्तु इन्हें गौंण कहना चाहिए। शरीर स्वस्थ-सबल न रहा, मन न मिला दोनों
का यदि तो सारा कुछ व्यर्थ है। शरीर से भी अधिक मन के मिलन को महत्त्व दिया गया।
‘चन्द्रमा मनसो जाताश्चक्षो सूर्यो अजायत। श्रोत्रांवायुश्च
प्राणश्च मुखादग्निरजायत ’— ऋग्वेद
(पुरुषसूक्त) के इस मन्त्र के अनुसार चन्द्रमा को मन का अधिष्ठाता और सूर्य को
चक्षु कहा गया है। सूर्य आरोग्य के अधिष्ठाता भी कहे गए हैं। मन के मिलन को
प्राथमिकता देते हुए ही हमारे ऋषियों ने चन्द्रमा के गमनपथ वाले नक्षत्रों को आधार
बनाया अष्टकूटमिलान में।
ध्यातव्य
है कि मेलापक विचार के लिए वर-कन्या के जन्मनक्षत्रों को ही आधार बनाया जाता है।
जन्मनक्षत्र यानी वह नक्षत्र जिस पर जन्मकालिक चन्द्रमा का संचरण है, न कि
सूर्यादि अन्य ग्रहों का। सभी ग्रह किसी न किसी नक्षत्रपथ पर हमेशा गमन करते रहते
हैं , किन्तु यहाँ सिर्फ चन्द्रमा के भोग नक्षत्रों को ही लिया जा रहा है। पौराणिक
प्रसंगानुसार सभी सताईस नक्षत्र चन्द्रमा की पत्नियाँ कहीं गई हैं। पति-पत्नी के
सम्बन्ध विचार हेतु चन्द्रमा रूपी पति और नक्षत्र रूपी पत्नी की परस्पर मानसिक
स्थिति पर ही विचार करते हैं अष्टकूट मिलान क्रम में।
इसमें आठ
आवान्तर विचार विन्दु हैं— वर्णो वश्यं तथा तारा योनिश्च ग्रहमैत्रकम्।
गणमैत्रं भकूटं च नाडी चैते गुणाधिकाः।।
यथा— १.वर्ण, २.वश्य, ३.तारा, ४योनि. ५.ग्रहमैत्री, ६.गण, ७.भकूट और ८.नाडी।
क्रमशः इनका उत्तरोत्तर अधिक मान है। यानी वर्ण का एक, वश्य का दो, भकूट का सात
एवं नाड़ी का आठ। नक्षत्र, चरण और राशि के अनुसार इनका निर्धारण हुआ है। सभी
पञ्चाङ्गों में गणना मिलान हेतु सारणियाँ दी रहती हैं, जिससे विचार करना बहुत ही
सरल है। किन्तु चुँकि वहाँ सिर्फ परिणाम (मान) दिया हुआ है। क्या-क्यों-कैसे की
चर्चा नहीं है। अतः अब इन अष्टकूटों को यहाँ स्पष्ट कर लें—
१.वर्ण—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ध्यातव्य है कि
जन्मना वर्णों की बात यहाँ नहीं है। सताईस नक्षत्र और बारह राशियों के आपसी विभाजन
(सवादो नक्षत्र के हिसाब से) पर आधारित ये चार वर्ण कहे गए हैं। कूट मिलान क्रम
में ब्राह्मण को चारों वर्णों में, क्षत्रिय को तीन वर्णों में, वैश्य को दो
वर्णों में एवं शूद्र को अकेला रखते हुए- कूटगणना का मान निर्धारित है। सामान्यतया
लोग इसका ही अर्थ लगा लेते हैं कि ब्राह्मण को चारों वर्णों में विवाह का अधिकार
है। वस्तुतः ये नाक्षत्रिकवर्णविभाजन के क्रम में बात कही गयी है, न कि चातुर्वण्यं
मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः के अर्थ में। ऋषि कहते हैं— नोत्तमामुद्वहेत्कन्यां
ब्राह्मणीं च विशेषतः। म्रीयते हीन वर्णश्च शुक्रस्य दुहितां यदि। विप्र वर्णेषु
या नारी शूद्र वर्णेषु यः पतिः। ध्रुवं भवति वैधव्यं शुक्रस्य दुहिता यदि।। मूल
बात ये है कि वर के वर्ण से कन्या का वर्ण उत्तम होना चाहिए— वरस्य वर्णतोऽधिका
वधूर्न शस्यते बुधैः।
२.वश्य— इसका कूट-मान दो है और अवान्तर
प्रकार पाँच हैं—चतुष्पद, मानव, जलचर, वनचर और कीट। समान वश्य में पूरे अंक दिए
जायेंगे। जैसे लड़का-लड़की दोनों चतुष्पद श्रेणी में हैं तो उनका कूटमान दो होगा। वश्यविचार
का परिणाम है—सिहं बिना वशाः सर्वेद्विपदानां चतुष्पदाः। भक्ष्याः जलचरास्तेषां
भयस्थानं सरिसृपा।।
३.तारा—तारा का कूट मान तीन है और आवान्तर प्रकार नौ— जन्म सम्पद्विपक्षेम प्रत्यरि साधको वधः। मित्रः
परममित्रश्च जन्मादीनिपुनःपुनः।। यहाँ भी परस्पर उसी भाँति मिलान करके कूटमान
की गणना की जाती है—लड़के के नक्षत्र से लड़की के नक्षत्र तक गणना करते हैं और
पुनः लड़की के नक्षत्र से लड़के के नक्षत्र तक और फिर दोनों का पंचांग में दी गयी
सारणी से मिलान करते हैं। तीसरा, पाँचवा और सातवाँ तारा नामानुसार अशुभ होता है। शेष
शुभ अर्थात् ग्राह्य हैं।
४.योनि— योनि का कूटमान चार है और अवान्तर प्रकार चौदह हैं। यथा—अश्व,
गज, मेष, सर्प, श्वान, मार्जार, मूषक, गौ, महिष, व्याघ्र, मृग, वानर, नकुल एवं
सिंह । इनमें परस्पर योनिवैर के विचार से कूटमान की गणना की जाती है। जैसे—गज और
सिंह की जोड़ी परस्पर शत्रुता वाली होगी। मार्जार-मूषक
की जोड़ी शत्रुता वाली ही होगी। इत्यादि।
५.ग्रहमैत्री—ग्रहमैत्री का कूटमान पाँच है। ग्रहों में परस्पर
मित्रता, शत्रुता और समता सम्बन्ध है। तदनुसार कूटमान निर्धारित किया जाता है।
जैसे लड़के के राशीश सूर्य हैं और लड़की के राशीश शनि तो परस्पर मित्रता नहीं हो
सकती। किंचित् ऋषियों ने ग्रहों की मैत्री को सर्वाधिक महत्त्व दिया है, यानी
ग्रहमैत्री प्रबल है, तो अष्टकूट के अन्य
दोषों का स्वतः परिहार हो जाता है। यथा—न वर्ण वर्गो न गणो न
योनिर्द्विर्द्वादशं नैव षडष्टके वा। वरेऽपि दूरे नवपंचमेवा मैत्री यदि
स्याज्छुभदो विवाहः ।।
६.गण— गण तीन हैं—देव, मनुष्य और राक्षस तथा इसका कूट मान छः
है। यहाँ भी पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर कूटमान प्रदान किया जाता है। जैसे
देवता और राक्षस का कूटमान शून्य होगा। मनुष्य और राक्षस का भी कूटमान शून्य ही
है। मनुष्य और देवता का कूटमान पाँच एवं देवता-देवता का कूटमान छः । देवता, राक्षस,
मनुष्य के आपसी मित्रामित्र सम्बन्धों की तरह भावी दाम्पत्य प्रेम की स्थिति को
स्पष्ट करता है गुण। यथा— स्वगणे परमा प्रीतिर्मध्यमा देवमर्त्ययोः। मर्त्य
राक्षसयोर्मृत्युः कलहो देवरक्षसोः।। निज निज गणमध्ये प्रीतिरत्युत्तमास्यादमरमनुजयोः
सा मध्यमा संप्रतिष्ठा। असुरमनुजयोश्चेत् मृत्युरेव प्रतिष्ठो दनुज
विवुधयोस्सायद्वैर मेकान्ततोऽत्र।।
७.भकूट— इसका कूटमान सात है। मेषादि द्वादशराशियों के परस्पर सम्बन्ध के अनुसार सात या शून्य कूटमान प्रदान किया जाता है। ये भी बहुत महत्त्वपूर्ण गणना है। मोटेतौर पर कह दिया जाता है कि वर-कन्या की परस्पर राशियाँ ६-८ हो तो मृत्यु, २-१२ हो तो निर्धनता एवं ९-५ हो तो सन्तानहानि का सूचक है। इस सम्बन्ध में मुहूर्तचिन्तामणि विवाहप्रकरण ३१ में कहा गया है— मृत्युः षडष्टके ज्ञेयोऽपत्यहानिनवात्मजे। द्विर्द्वादशे निर्धनत्वं द्वयोरन्यत्र सौख्यम्।। किन्तु इसमें भी सूक्ष्मविचार की आवश्यकता है, क्योंकि इनकी कई जोड़ियाँ बनती है, जो शुभद भी हैं। अतः यहाँ क्रमशः षडष्टक, नवपंचम और द्विर्द्वादश की शुभाशुभ अलग-अलग जोड़ियों को स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। यथा—
प्रीतिषडष्टक—सिंह से मीन
तक गणना करने पर आठ और मीन से सिंह तक गणना करने पर छः होता है, जो की प्रीतिकर
यानी शुभद है। इसी भाँति तुलादि का भी
विचार है यहाँ।
सिंह |
तुला |
धन |
कुम्भ |
मिथुन |
मेष |
मीन |
वृष |
कर्क |
कन्या |
मकर |
वृश्चिक |
मित्रषडष्टक—वृश्चिक से मेष छठा और मेष से वृश्चिक आठवां है, जो कि
मित्रवत फलदायी है। यानी विवाहार्थ ग्राह्य है। इसी भाँति इस सारणी के अन्य भी हैं—
वृश्चिक |
वृष |
कर्क |
मीन |
मकर |
कन्या |
मेष |
तुला |
धन |
सिंह |
मिथुन |
कुम्भ |
मेष |
तुला |
मिथुन |
मकर |
कुम्भ |
वृष |
कन्या |
मीन |
वृश्चिक |
सिंह |
कर्क |
धन |
मृत्युषडष्टक— षडष्टक का ये तीसरा स्वरूप है, जो सर्वथा त्याज्य है।
मेष से कन्या छठा और कन्या से मेष आठवां हो रहा है-ये त्याज्य है, क्योंकि
मृत्युकारक है। इस सारणी में इसी भाँति
अन्य भी त्याज्य हैं—
मेष |
तुला |
मिथुन |
मकर |
कुम्भ |
वृष |
कन्या |
मीन |
वृश्चिक |
सिंह |
कर्क |
धन |
शुभ नवपञ्चम— इसी भाँति अब नवपञ्चम पर विचार करते हैं—मेष से सिंह पाँचवीं और सिंह से मेष नौवीं राशि है। किन्तु नवपंचम में ये जोड़ी शुभद है।
मेष |
वृष |
कर्क |
सिंह |
कुम्भ |
सिंह |
कन्या |
वृश्चिक |
धन |
मिथुन |
अशुभ नवपञ्चम— इससे भिन्न नव-पंचम जोड़ी अशुभ होगी। ऊपर की सारणी में
बारह में दस राशियाँ आ गयी हैं। तुला और मकर इसमें नहीं हैं। तुला से पांच राशि आगे
गणना करने पर कुम्भ होता है और कुम्भ से नौ राशि आगे जाने पर तुला होता है। इसी
भाँति मकर से पांच राशि आगे वृष है और वृष से नौ राशि आगे मकर है। तुला और कुम्भ
का नवपंचम जोड़ी तथा मकर और वृष का नवपंचम जोड़ी अशुभ नवपंचम कहलाता है। अतः
त्याज्य है।
शुभ द्विर्द्वादश— मीन से गणना करने पर मेष दूसरी और मेष से गणना करने पर मीन बारहवीं राशि होती है। इसी भाँति इस सारणी में अन्य भी हैं, जो परस्पर द्विर्द्वादश होते हुए भी शुभद हैं—
मीन |
वृष |
कर्क |
कन्या |
वृश्चिक |
मकर |
मेष |
मिथुन |
सिंह |
तुला |
धन |
कुम्भ |
अशुभ
द्विर्द्वादश— मेष से वृष
दूसरी राशि है और वृष से मेष बारहवीं राशि। इस भाँति इस सारणी में अन्य भी है, जो
परस्पर द्विर्द्वादश अशुभ परिणाम वाले हैं, अतः इनका त्याग करना चाहिए—
मेष |
मिथुन |
सिंह |
तुला |
धन |
कुम्भ |
वृष |
कर्क |
कन्या |
वृश्चिक |
मकर |
मीन |
महर्षियों ने
बड़ी कृपा की है हमपर। अधिकाधिक समस्याओं का यथासम्भव समाधान भी निर्दिष्ट किया
गया है। इस सम्बन्ध में गुरु वशिष्ठ के वचन हैं—द्विर्द्वादशे वा नवपंचमे वा
षडष्टके राक्षसी कन्यका वा। एकाधिपत्ये भवनेश मैत्रे शुभाय पाणिग्रहणं विधेयम्।। (
भकूट गणना में द्विर्द्वादश, नवपंचम, षडष्टकादि यदि दोष पूर्ण स्थिति में हों, किन्तु
वर-कन्या की राशियों के स्वामी एक ही हों या भिन्न हों, किन्तु उनमें मैत्री सम्बन्ध
हो, तो ये सारे दोष प्रभावित नहीं करते, यानी ऐसा विवाह शुभद होता है। ) ध्यातव्य
है लाभ का ये सिद्धान्त नाड़ीदोष पर भी लागू होता है। किन्तु वहाँ शर्त ये है कि
नक्षत्र एक होने में हानि नहीं है, किन्तु चरणभेद होना चाहिए।
८.नाडी— नाडी का कूटमान आठ है एवं अवान्तर भेद तीन हैं— आदि,
मध्य और अन्त्य । यहाँ निर्णय अन्य कूटों से बिलकुल विपरीत होता है। यथा—लड़का-लड़की
की नाडियाँ समान नहीं होनी चाहिए। अष्टकूटों में इसका मान आठ (सर्वाधिक) है और तदनुसार
मान्यता भी वरीय है। नाडी के परिणाम के विषय में कहा गया है— आदि नाडी वरं
हन्ति मध्यनाडी च कन्यकाम्। उभौहन्त्य नाड़ी वै तस्मानाड़ी विचारयेत्।। (वर-कन्या
की आदि नाडी हो वर की, मध्य नाडी हो तो कन्या की और अन्त्य नाडी हो तो दोनों का
नाश होता है)। चुँकि इसका मान सर्वाधिक है, अतः इसके परिहार के प्रति भी शास्त्र
अधिक गम्भीर हैं। इस क्रम में विभिन्न ऋषियों के मत उपलब्ध हैं। यथा—
नाडी दोष
परिहार एवं अपवाद—
क.
एकाधिपत्ये
समसप्तमेव, लाभ तृतीये दशमे चतुर्थे । नाडी वियोगं गणना प्रवाहे न चिन्तनीये
उद्वाह काले ।। (व्यवहाररत्नप्रदीप))
ख.
रोहिणी
आर्द्रा मृगेन्द्राणां हस्ते श्रवण पौष्णभम् ।
रेवती अहिर्बुध्या निरीक्ष्य नाड़ीदोषो न
विद्यते ।। (व्यवहार
रत्नमाला एवं निर्णयामृत) अहिर्बुध्या= उ.भा. (यहाँ निरीक्ष्य शब्द असंगत लग रहा है। इसके बिना भी श्लोक पूरा
है)
ग.
शुक्रे
जीवे तथा सौम्ये एकराशीश्वरो यदि ।
नाडी
दोषो न वक्तव्यः सर्वथा यत्नते बुधैः
।। (विवाह कुतूहल एवं पंचरत्न
विवाह पद्धति)
घ.
एकराशौ
पृथक धिष्णे पृथक राशौ तथैक मे।
गण नाडी नृ दूरत्वं ग्रहवैरं न
चिन्तयेत्।।
ङ.
एकराशौ पृथक धिष्णे पृथक राशौ तथैक मे।
एकांशेऽपि
कृतोद्वाहः श्रेष्ठोमध्योऽधमः क्रमात्।।
च.
एकराशौ शुभोद्वाहः एकभांशे मृति प्रदः।
यदि
स्याद्भिन्ननक्षत्रं शुभदः शौनकोऽब्रवीत्।।
छ.
दम्पत्यो रेकराशिः स्याद्भिन्नमृक्षं यदा तदा।
गणदौष्टयेऽप्येकनाड्यां
विवाहः शुभदः स्मृतः।।
ज.
एकभे भिन्न नक्षत्रे न नाडी गमदुष्टता।
वह्निर्भ
ब्रह्मवत् प्रीतिः समता राजपादवत्।।
झ.
नक्षत्रमेकं यदि भिन्न राश्योरभिन्न राश्योर्यदि
भिन्नमृक्षम्।
प्रीतिस्तदानि निविड़ा नृनार्य्योश्चेत् कृत्तिका रोहिणिवन्न
नाडी।। (विवाहवृन्दावन)
ञ.
दम्पत्योरेकराशिश्चेत्
पृथगृक्षंयदाभवेत्।
वशिष्ठोक्तोविवाहः स्यात् गणनाडीं न
चिंतयेत्।।
ट.
न
खेट मैत्र्यं नो राश्यं न वर्णो न च तारका।
सद्भकूटे पराप्रीतिर्न सा वज्रेन
भिद्यते।।
ठ.
राश्यैकं
चेत् भिन्नमृक्षं द्वयोस्यात्
नक्षत्रैक्यं राशियुग्मं तथैव।
नाडी दोषो नो गणनाञ्च दोषो
नक्षत्रैक्ये पादभेदे शुभं स्यात्।।
उक्त आर्ष वचनों से स्पष्ट है कि कुछ
ऐसी ग्रहस्थितियाँ हैं, कुछ ऐसे नक्षत्रों की जोड़ियाँ बनती है, जहाँ नाडीदोष
निरस्त हो जाता है या कहें प्रभावी नहीं होता। ये भी कह सकते हैं कि उक्त परिस्थितियों
में नाडीदोष पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए।
अबतक वर्णित अष्टकूट विचार (मिलान)
के इस दीर्घ प्रसंग से स्पष्ट है किअष्टकूटों
का कुल मान ३६ होता है। इसे ही ३६ गुण कहते हैं। विवाह हेतु आधे से अधिक
गुण होना आवश्यक है। जैसे परीक्षा में आठ
विषय में ५०% से अधिक अंक को सफल माना जाता है।
कुण्डलीमिलान में
दोषविचार—
अष्टकूटगुणमिलान
के साथ-साथ किंचित् दोषों का भी विचार अति आवश्यक है। या ये कहें कि गुण की तुलना
में दोष विचार पर अधिक सावधान रहना चाहिए।
मंगल,
शनि, राहु आदि पापग्रहों की लग्न, व्यय, पाताल, जामित्र, अष्टमादि (१, ४, ८, १२) भावों
में उपस्थिति विधुर व वैधव्य दोष उत्पन्न करता है—लग्ने व्यये च पाताले जामित्रे
चाऽष्टमे कुजे। वरः पत्नीविनाशाय कन्या पतिविनाशिनी। ये सर्वाधिक महान दोष के
अन्तर्गत आता है। उक्त भावस्थ ग्रहों का विचार लग्न और चन्द्र दोनों कुण्डलियों से
करना चाहिए।
उक्त
श्लोक बहुचर्चित है। इसका ज्ञान सामान्य गणक (ज्योतिर्वद) को भी रहता है। किन्तु
इसके अतिरिक्त अन्य कई आर्षवचन भी हैं, जिन पर विवाहपूर्व अवश्य ध्यान देना चाहिए।
ऐसा नहीं कि सिर्फ गुणगणना बाहुल्य देखकर निश्चिन्त हो जाए। स्त्रीजातकम् एवं भावकुतूहलम्
आदि ज्योतिषग्रन्थों में इसकी विशद चर्चा मिलती है।
(भले ही मुख्य रूप से स्त्री को सम्बोधित किया गया है
इन प्रसंगों में, किन्तु परोक्ष भाव ये भी है कि पुरुष पर भी ये दोष प्रभावी
होंगे। किसी न किसी मात्रा में दाम्पत्य जीवन कष्ट और चिन्तामय होगा ही। ) यथा—
(क) व्ययेऽष्टमे भूमिसुतस्य राशि, वर्गौ सपापै भवतीह
रण्डा। मदे कुलीरे सरवौ कुजेऽपि, धवेन हीना रमतेऽन्यलोकैः।। (मंगल के राशि का राहु यानी मेष और वृश्चिक राशि का राहु
यदि बारहवें या आठवें भाव में किसी अन्य पापग्रह से युक्त हो तो वह स्त्री विधवा
होती है तथा सप्तमस्थान में कर्क यानी अपनी नीच राशि पर मंगल सूर्य के साथ बैठा हो
तो भी वह स्त्री पतिसुख से रहित होती है। पति से भिन्न दैहिक संयोग भी बन सकता है।)
(ख) पापग्रहे
सप्तमगे वलोने शुभेन दृष्टे पतिसौख्यहीना। स्यातां मदे भौमकवीसचन्द्रौ पत्याज्ञया
सा व्यभिचारिणी स्यात्।। ( यदि बलहीन पापग्रह सप्तमभाव में बैठे हों और उन पर
किसी शुभग्रह की दृष्टि न हो तो वह स्त्री पतिसुखहीना हो और यदि सप्तमभाव में
मंगल, शुक्र, चन्द्रमा तीनों की युति हो तो पति की प्रेरणा से व्यभिचारिणी होती
है। )
(ग) पापग्रहे सप्तमलग्नगेहे भर्ता दिवं गच्छति
सप्तमेब्दे। निशाकरे चाष्टमवैरिभावे तदाष्टमेब्दे निधनं प्रयाति।। (यदि स्त्री कुण्डली के सप्तमभाव अथवा लग्न में पापग्रह (शनि,
मंगल, राहु, केतु) हों तो विवाह के सातवें वर्ष में विधवा हो जाती है। तथा चन्द्रमा
यदि छठे या आठवें भाव में हो तो आठवें वर्ष ये दुर्योग घटित होता है।)
(घ) सप्तेशोऽष्टमे यस्याः सप्तमे निधनाधिपः। पापेक्षण
युतो बाला वैधव्यं लभते ध्रुवम्।। (सातवें
घर का स्वामी आठवें और आठवें का स्वामी सातवें घर में बैठा हो और वहाँ पापग्रहों
की दृष्टि भी हो तो स्त्री निश्चय ही विधवा होती है) यहाँ गुप्त भाव ये भी है
कि पापग्रहों की दृष्टि वैधव्य दोष को प्रबल बना देती है। दृष्टि न भी हो तो भी
दोष तो रहेगा ही।
(ङ) सप्ताष्टमपती षष्टे व्यये वा पापपीडिते। तदा वैधव्य
माप्नोति नारी नैवात्र संशयः।। (सप्तमेश
व अष्टमेश पापग्रहों से पीडित होकर,छठे वा बारहवें भाव में बैठा हो तो स्त्री
विधवा होती है)
(च) द्वाद्वि पापयुते भौमे सप्तमे वाष्टमेस्थिते।
वालवैधव्य योगः स्यात् कुलनाशकरी वधूः।। ( दो या अधिक पापग्रहों से युक्त मंगल यदि सप्तम वा
अष्टम भाव में स्थित हों तो कुल नाशक वैधव्ययोग होता है। )
(छ) लग्ने पाप ग्रहैर्युक्ते नीचशत्रु गृहंगते। अष्टमे
वत्सरे चैव दम्पत्योर्न शुभावहः ।। (लग्न में
पापग्रह हो अथवा लग्नेश अपने नीचराशि में हो या शत्रुराशि में हो तो आठवें वर्ष
में पति-पत्नी दोनों की हानि होती है।)
(ज) अंगारके मदन मन्दिर मिन्दुभावं मन्दान्वितेहरिभगे
जननेऽङ्गनायाः। वैधव्यमेव नियतं कपट प्रबन्धात् वाराङ्गना भवति सैव वराङ्गनापि ।। (जिस कन्या के सप्तमभाव में कर्क यानी अपनी नीचराशि का
मंगल हो अथवा शनियुत मंगल सिंहराशि का हो तो ऐसी कन्या वैधव्यदोष पीड़ित होती है
अथवा कपट और कुकर्म में लिप्त रहकर पतिता होती है।)
(झ)मदनभावगते तपनात्मजे पतिरतीव गदाकुलितो-भवेत। मलीनवेषधरो विमलोमहान् जनुषि तुङ्गगते प्रवरोधनी।। (कुण्डली
में शनि सप्तम भाव में अपनी नीचराशिगत हो तो उसका पति विशेष रोगों से पीड़ित होता
है अथवा मलिनवेश वाला, निर्धन, दुर्बल होता है। किन्तु यदि उच्चराशि गत हो तो रोगी
होते हुए भी अन्य दोषमुक्त होगा)
(ञ) सप्तमे सिंहिकापुत्रे कुलदोष विवर्द्धिनी। नारी
सुखपरित्यक्ता तुङ्गे स्वामी सुखान्विता ।। ( राहु सप्तमभाव में हो तो स्त्री निजकुल दोष को बढ़ाने
वाली होती है तथा पति-सुख से वंचित रहती है, किन्तु यदि राहु उच्चराशि (मिथुन) का
हो तो इससे विपरीत फल मिलता है, यानी सुख प्राप्त करती है।
उक्त
दोषों को जान कर चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसके कई समुचित परिहार
भी सुझाये गए हैं ज्योतिष ग्रन्थों में। मुख्य बात ये है कि परस्पर (दोनों पक्ष
में) इस तरह के कोई भी दोष हों तो अमान्य हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे दो समान
अस्त्र-शस्त्रधारी प्रतिद्वन्द्वी आपस में युद्ध नहीं, शान्ति चाहते है। यथा—
(क) शनिर्भौमोऽथवा कश्चित् पापो वा तादृशो भवेत्।
तेष्वेव भवनेष्वेव कुजदोषविनाशकृत।।
(ख) गुरुः
केन्द्रे त्रिकोणेवा लाभभावे दिवाकरे। शत्रुस्थाने गते राहौ न दोषो मंगलोद्भवः ।।
(ग) भौमतुल्यो यदा भौमः पापो वा तादृशो भवेत् । अथवा
गुणबाहुल्ये न दोषो मंगलोद्भवः।
(घ) भौम तुल्यो यदा भौमः पापो वा तादृशोभवेत् । उद्वाहः
शुभदः प्रोक्तः चिरायुः पुत्रपौत्रदः ।।
(ङ) लग्नाद्विधोर्वा यदि जन्मकाले शुभग्रहोवा
मदनाधिपश्च। द्युनस्थितो हन्त्यनपल्प दोषं वैधव्य दोषं च विषांगनारव्यम्।।
(च) केन्द्रे कोणेशुभासर्वे त्रिषडाये प्यसद्ग्रहाः। तदा
भौमस्य दोषो न मदने मदपस्तथा।।
(छ) यामित्रे च यदासौरिर्लग्ने वा हिबुकेऽथवा। अष्टमे
द्वादशे वापि भौमदोष विनाशकृत्।।
अतः गुणबाहुल्य
के पश्चात् भी दोष-विचार और परिहार का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
वैधव्ययोगों का
समुचित परिहार—
प्रबल वैधव्ययोग के
परिहार हेतु ऋषिनिर्दिष्ट सावित्रीव्रत, कुम्भविवाह, अश्वत्थविवाह वा विष्णुविवाह आदि विधियों का विवाह से पूर्व
समयानुसार पालन करना चाहिए। यथा—
जन्मोत्थं च विलोक्य बालविधवायोगं
विधाय व्रतं,
सावित्र्या उत पैप्पलं हि सुतया दद्यादिमां वा रहः।
सल्लग्नेऽच्युतमूर्तिपिप्पलघटैः कृत्वा विवाहं स्फुटं,
दद्यात्तां चिरजीविनेऽत्र न भवेद्दोषः पुनर्भूभवः।।
वैवाहिक गुण-दोष
विचार का व्यावहारिक पक्ष—
विवाह
निश्चय क्रम की प्रथम प्रक्रिया—कुण्डलीमिलान पर विस्तृत चर्चा के पश्चात् अब इसके
व्यावहारिक पक्ष पर विचार करते हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या अधिकाधिक गुण देखकर और दस दोषों
का परिहार करके शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक रूप से अयोग्य जोड़ियों का मिलान
करना पसन्द करेंगे?
वर्तमान
समय में विवाह की उम्र काफी आगे सरका लिया है समाज ने। शिक्षा और कैरियर की
सुव्यवस्था में विवाह का प्राकृतिक अवधि व्यतीत हो जाता है। दोनों का शारीरिक
विकास और सौन्दर्य अपनी सीमा पार कर, ढलान की ओर सरकने लगता है। अविवेकपूर्ण अति
महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा, दहेज आदि सामाजिक कुरीतियाँ भी आड़े आने लगती हैं।
ऐसे में जैसे-तैसे कुण्डलीमिलान की खानापूर्ति करके काम सलटाना चाहते हैं
आधे-अधूरे मन से।
अतः उचित
ये है कि जन्मकुण्डली को विवाह का शतप्रतिशत आधार न बनाया जाए, बल्कि ऋषि
निर्दिष्ट अन्यान्य विन्दुओं पर भी विचार करें। केवल अष्टकूट पर अड़े न रहकर,
सौभाग्य, सन्तान और सुखभाव का विचार वारीकी से करें । तदन्तर्गत परिहार और समाधान
ढूढ़ें। साथ ही योग्यता का मापदण्ड धन, पद और सौन्दर्य न बने। बच्ची को ऐसा
प्रशिक्षण दें कि दो दिलों ही नहीं, दो परिवारों को जोड़ सके। धरती की तरह
धैर्यधारिणी हो। लड़कों में भी इस बात की समझ होनी चाहिए कि वह भोग्या और दासी
नहीं है, प्रत्युत जीवनसंगिनी और
कुलसंयमनी है। वह प्रेम और सम्मान दोनों की अधिकारिणी है।
और एक अहम बात— कुण्डली सिद्धान्त पर विश्वास न हो, तो नकली कुण्डली प्रस्तुत करके किसी को धोखा न दें। इससे
शास्त्र, समाज और स्वयं की हानि होती है । प्रत्यक्ष वा
परोक्ष रूप से इसका दण्डभागी बनना पड़ेगा— कु्ण्डली देने वाले को भी और नकली
कुण्डली बनाने वाले को भी। अस्तु।
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