षोडशसंस्कार विमर्श भाग चौबीस- विवाहमुहूर्त विचार एवं अन्य बातें

 

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विवाहमुहूर्त विचार एवं अन्य बातें

 

कुल-गोत्र, परिवेश, शिक्षा,  सामाजिकता, संस्कार इत्यादि की गहन छानबीन के पश्चात् लड़के-लड़की की कुण्डलीमिलान की प्रक्रिया चलती है। प्रायः परिवारों का मूल व स्थायी निवास अर्थबहुल युग में प्रवास का रूप ले लिया है। फलतः उक्त बातों के विचार में व्यावहारिक कठिनाई होती है। सही जानकारियाँ नहीं मिल पाती। जिसका दुष्परिणाम विवाह-सम्बन्ध स्थापित हो जाने के बाद दोनों पक्षों को भुगतना पड़ता है।  

विवाह योग्य पात्रों की सुनिश्चितता के पश्चात् समय और स्थान की बात आती है। भागमभाग की दुनिया में समयाभाव सबके पास है, स्थानाभाव तो है ही। बहुत कम लोग ही हैं जो अपने पैतृक गृह से विवाहसंस्कार सम्पन्न कर पाते हैं। समय और स्थान के अभाव में वैवाहिकसंस्कार के विभिन्न अत्यावश्यक अन्तःकृत्य प्रायः छूटने लगते हैं। जबकि विवाहसंस्कार के अन्तर्गत कई अन्तःकृत्य ऐसे हैं, जिन्हें अपरिहार्य रूप से सम्पन्न करना आवश्यक है।

कालप्रवाह में हमारी धार्मिक आस्थाएं भी चरमरा गयी हैं।

विवाह जैसे अति संवेदनशील संस्कार को भी प्रायः हम एक कोरम की तरह पूरा कर लेते हैं। लेन-देन, दिखावा, आडम्बर, फिज़ूलखर्ची तो खूब होता है, किन्तु मूल कर्मकाण्डीय विधि में सर्वाधिक कटौती होती है। सप्ताह-दस दिनों की प्रक्रिया को दिन-दो दिन या कहें घंटे-दो घंटे में निपटा लेने का चलन चल पड़ा है।  

 इन सबके बीच सर्वाधिक चिन्ता की बात ये है कि लाख चेष्टा के पश्चात् भी शुभ चयनित मुहूर्त (लग्न) में शायद ही कोई वैवाहिक क्रिया सम्पन्न हो पाती है। क्योंकि हमारा ध्यान नाच-गान, आडम्बर और आतिथ्य में जितना रहता है, उसका सहस्रांश भी मुहूर्त के प्रति सजगता नहीं रहती। यदि रहती भी है, तो उस पर व्यक्ति विशेष (अभिभावक आदि) का नियन्त्रण नहीं रह जाता। फलतः तिथि और नक्षत्र की मर्यादा भले पालित हो जाए, शुभविवाहलग्न की तो धज्जियाँ उड़ जाती हैं। जबकि इसे विवाह वृत्त का केन्द्र माना जाना चाहिए।

            ध्यातव्य है कि समय सुनियोजन में सबसे प्रमुख होता है विवाहमुहूर्त का विचार, जो कि वर्ष के कुछ खास महीनों में ही मिलता है। खरमास, मलमास, क्षयमास,  दूषित मास (गुरु-शुक्रादि  के अस्त, बाल्य, वृद्ध दोष विचार) आदि कई बातें हैं, जिसके कारण समय और भी सीमित हो जाता है। यथासम्भव इन सबका सूक्ष्म विचार करके विवाह की तिथि और मुहूर्त निश्चित होता है। और फिर उस मुख्य तिथि के आगे-पीछे सामान्य समय-शुद्धि का विचार करते हुए विवाह पूर्व और पर कृत्यों का भी समय विचारना होता है।

 

वर-कन्यावरण मुहूर्त— प्रसंगवश पहले यहाँ वर-कन्यादि वरण हेतु शुभमुहूर्त की चर्चा करते हैं। क्योंकि ये कार्य विवाह के मुख्य कृत्य से पूर्व का कर्म है। नियमतः दोनों के वरण हेतु अलग-अलग मुहूर्तों का चयन होता है। लोक परम्परानुसार कहीं ये दोनों कृत्य बारी-बारी से सम्पन्न होते हैं, कहीं सिर्फ वर का ही वरण होता है।  आजकल इन दोनों का समेकित स्वरूप परस्पर मुद्रिका परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है।  

मुहूर्तचिन्तामणि विवाहप्रकरण श्लोक संख्या १०-११ में उक्त दोनों के वरण हेतु मुहूर्त निर्दिष्ट है। यथा— 

विश्वस्वातीवैष्णव-पूर्वात्रयमैत्रैर्वस्वाग्नेयैर्वा करपीडोचितऋक्षैः। वस्त्रालङ्कारादिसमैतैः फलपुष्पैः सन्तोष्यादौ स्यादनु कन्यावरणं हि।। धरणिदेवोऽथवा कन्यकासोदरः शुभदिने गीतवाद्यादिभिः संयुतः । वरवृतिं वस्त्रयज्ञोपवीतादिना ध्रुवयुतैर्वह्निपूर्वात्रयैराचरेत् ।। (उत्तराषाढ, स्वाती, श्रवण, तीनों पूर्वा, अनुराधा, धनिष्ठा, कृत्तिका अथवा विवाह विहित अन्य नक्षत्रों में आभूषण, वस्त्र, फल, मिष्टान्नादि से कन्या को सन्तुष्ट करके कन्या वरण करना चाहिए। इसी भाँति तीनों पूर्वा, तीनों उत्तरा, रोहिणी, कृत्तिकादि नक्षत्रों में ब्राह्मण अथवा कन्या का भाई शुभ दिन में गीतवाद्यादि पूर्वक वस्त्र, अलंकार, यज्ञोपवीतादि सहित वर का वरण करे।

            विवाह हेतु सर्वविध अनुकूल समय का विचार क्यों करें, इस सम्बन्ध में आर्ष वचन हैं—भार्यात्रिवर्गकरणं शुभशीलयुक्ता शीलं शुभं भवति लग्नवशेन तस्याः। तस्माद्विवाह समयः परिचिन्त्यतेहि तन्निघ्नता मुपगताः सुतशील धर्म्माः।।  

 

चुँकि स्त्री त्रिवर्ग—धर्म, अर्थ, काम  साधिका व सहायिका है। स्त्री का पाणिग्रहण विवाहसंस्कार क्रम में होता है। अतः इस अति महत्त्वपूर्ण कार्य में समुचित मुहूर्त का विचार अति आवश्यक है।

 

सर्वप्रथम यहाँ मुहूर्तचिन्तामणि, विवाहप्रकरण के अनुसार शुभमुहूर्तों  की चर्चा करते हैं। यथा—

विवाह में मास विचार—

मिथुन कुम्भ मृगाऽलि वृषाऽजगे मिथुनगेऽपि रवौ त्रिलवे शुचेः।

अलिमृगाजगते करपीडनं भवति कार्तिक पौष मधुष्वपि।।१३।।

(मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक, मकर, कुम्भ राशियों में सूर्य के रहने पर विवाह करना शुभ है। मिथुन के सूर्य में आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से दशमी पर्यन्त ही शुभ है एवं वृश्चिक के सूर्य हों तो कार्तिक में, मकर के सूर्य हों तो पौष में और मेष के सूर्य हों तो चैत्र में भी विवाह शुभ होता है।) ध्यातव्य है कि चान्द्रमास की अपेक्षा सूर्य मास की महत्ता दर्शायी जा रही है यहाँ। बीच में हरिशयनी एकादशी से देवोत्थान एकादशी तथा धनु और मीन की वर्जित संक्रान्तियों (खरमास) का अशुभ समय संकेत भी मिल रहा है। 

पञ्चरत्नविवाहपद्धति  एक बहुचर्चित पुस्तक है। इसके प्रथम प्रकरण के आठवें श्लोक में विवाहमास का निर्णय उद्धृत है—

मासाःफाल्गुन मार्ग माघ शुचयो ज्येष्ठस्तथा माधवः ।

शस्ताः सौम्य दिनं तथैव तिथयो रिक्ताकुहू वर्जिता।। (अमावस्या एवं रिक्ता यानी चतुर्थी, चतुर्दशी, नवमी तिथियों को छोड़कर मार्गशीर्ष- अगहन, माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ महीनों में सौम्य दिनों में विवाह शुभ है।)

इसी पुस्तक में आगे नौवें श्लोक में मुहूर्तचिन्तामणि वाला तेरहवां श्लोक भी उद्धृत है साथ ही एक अन्य श्लोक भी है, जिनसे उक्त तथ्यों की पुष्टि होती है। यथा—पौषेऽपि कुर्य्यान्मकर-स्थितेऽर्के चैत्रेभवेन्मेषगते यदा स्यात् । प्रशस्यमाषाढ़ कृतं विवाहं वदन्दि गर्गा मिथुनस्थिऽर्के।। (मिथुन के सूर्य में आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से दशमी पर्यन्त ही शुभ है एवं वृश्चिक के सूर्य हों तो कार्तिक में, मकर के सूर्य हों तो पौष में और मेष के सूर्य हों तो चैत्र में भी विवाह शुभ होता है।)

 

तिथि, नक्षत्र एवं लग्न विचार—

मास और दिन निर्णय के पश्चात् तिथि, नक्षत्र एवं लग्न के चयन की बात आती है। प्रसंगवश पहले यहाँ इनके मान (महत्त्व) को स्पष्ट कर दूँ। यथा— सहस्रगुणभृल्लग्नं चन्द्रः शतगुणो बली। ताराषष्ठिगुणोयोगो द्वात्रिंशद्गुणभाग्भवेत्।। तदर्द्धंकरणं प्रोक्तं वारस्त्वष्टगुणः स्मृतः। ऋक्षे चतुर्गुणोज्ञेयस्तिथिरेक गुण स्मृतः।। (लग्न को ऋषियों ने सहस्रबली - सर्वाधिक बलवान माना है, चन्द्रमा को शतबली, तारा को साठ बल वाला,  योग को बत्तीस बलवाला, करण को सोलह बल वाला, दिन को आठ बल वाला, नक्षत्र को चार एवं तिथि को मात्र एक बल वाला माना गया है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ विवाह में ही इनका विचार करना है, प्रत्युत यात्रादि अन्य कार्यों में इनका विचार यथासम्भव करना चाहिए।

 

स्पष्ट है कि अयन, मासादि सभी विन्दुओं पर यथासम्भव विचार करते हुए लग्न पर केन्द्रित होना चाहिए। लग्न का सम्यक् शोधन आवश्यक है। यहाँ पहले नक्षत्र पर थोड़ी और चर्चा करके, पुनः लग्न पर गहन विचार करेंगे।  

 

पञ्चरत्नविवाहपद्धति, प्रथम प्रकरण में संग्रहित एक बहुश्रुत श्लोक है, जिसमें एकत्र रूप से नक्षत्र और लग्न दोनों का निर्देश है — रेवत्युत्तर रोहिणी मृग मघा मूलानुराधाकरस्वातीषु प्रमदा तुला मिथुन गो लग्ने विवाहः शुभः।।१५।। (रेवती, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, मघा, मूल, अनुराधा, हस्ता और स्वाती नक्षत्रों में, वृष, मिथुन, कन्या एवं तुला लग्नों में विवाह करना शुभ है।)

 

मुहूर्तचिन्तामणि विवाहप्रकरण में भी उक्त नक्षत्रों की चर्चा है, साथ ही तिथियाँ भी सुझायी गयी  हैं। यथा— निर्वेधैः शशिकरमूल-मैत्रपित्र्यब्राह्मान्त्योत्तरपवनैः शुभो विवाहः। रिक्तामारहित-तिथौ शुभेऽह्नि वश्वप्रान्त्यांघ्रिः श्रुतितिथि-भागतोऽभिजित् स्यात् ।। ५५।। (रेवती, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, मघा, मूल, अनुराधा, हस्ता, स्वाती एवं अभिजित् नक्षत्रों में, पञ्च शलाका वेधविचार करते हुए, अमावस्या एवं रिक्ता यानी चतुर्थी, चतुर्दशी, नवमी तिथियों को छोड़कर शेष तिथियों में विवाह करना शुभ है।)

 

उक्त प्रसंग में दो बातों की स्पष्टी आवश्यक प्रतीत हो रही है— अभिजित् नक्षत्र और वेधविचार।

 

ध्यातव्य है कि अभिजित् नक्षत्र के मान के सम्बन्ध में विद्वानों में किंचित् मतभेद है। मु. चि. के उक्त श्लोक की टीका में श्री सीताराम झा जी कहते हैं कि उत्तराषाढ़ का चतुर्थ चरण एवं श्रवण का आरम्भिक पन्द्रह घटी अभिजित् नक्षत्र कहलाता है। जब कि नेमीचन्दशास्त्री का कथन है कि उत्तराषाढ़ की अन्तिम पन्द्रह घटी और श्रवण की आरम्भिक चार घटी यानी कुल उन्नीस घटी प्रमाण का ही अभिजित् नक्षत्र होता है। इसे सभी कार्यों में अति शुभद माना गया है।

   

 नक्षत्रवेध विचार—आगे नक्षत्रवेध निर्देशिका सारणी प्रस्तुत है—


प्रसंगवश यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि नक्षत्रवेध का विचार दो प्रकार से होता है—पञ्चशलाका और सप्तशलाका। विवाह में पंचशलाकावेध का एवं अन्य शुभकार्यों में सप्तशलाकावेध का विचार किया जाना चाहिए। यथा— वधुप्रवेशने दाने वरणे पाणिपीडने। वेधः पञ्चशलाकाख्योऽन्यत्र सप्तशलाककः।। एवं चक्रे सप्तशलाकाख्ये सवेधः सर्वकर्मसु। चिन्तनीयो विवाहे तु पञ्चरेखासमुद्भवः।।

इन दोनों प्रकार के वेधों के चक्र लगभग सभी पञ्चाङ्गों के मुखपृष्ठ पर ही दिए रहते हैं। अतः यहाँ दोनों चक्र न देकर, सिर्फ विचार-विधि की चर्चा की जा रही है। वेधविचार करने हेतु ये देखना आवश्यक है कि जिस नक्षत्र का शुभकार्य हेतु चयन करने जा रहे हैं, उसे वेधित करने वाले नक्षत्र पर कोई ग्रह तो नहीं है। जैसे पंचशलाकाचक्र में भरणी का वेध अनुराधा से है। स्वाभाविक है कि अनुराधा का वेध भरणी से हुआ। अब यदि भरणी के चतुर्थ चरण पर कोई ग्रह हो तो अनुराधा का प्रथमचरण वेधित होगा। इसी भाँति भरणी के तृतीयचरण पर हो तो अनुराधा का द्वितीयचरण, भरणी के द्वितीयचरण से अनुराधा का तृतीयचरण एवं भरणी के प्रथमचरण से अनुराधा का चतुर्थचरण वेधित हो रहा है। वेध का ऐसा विपरीत क्रम इस कारण है, क्योंकि शलाकाचक्र पर नक्षत्रों को दक्षिणावर्त स्थापित किया गया है। फलतः भरणी के क्रमशः १-२-३-४ चरणों का वेध अनुराधा के क्रमशः ४-३-२-१ चरणों से हो रहा है।  वेध की मान्यता या वर्जना के सम्बन्ध में विशेष बात ये है कि पापग्रह हों तो पूरा नक्षत्र बाधित होगा शुभकार्य हेतु, किन्तु यदि शुभग्रह—गुरु, शुक्रादि हों तो सिर्फ वह चरण ही बाधित होगा, न कि पूरा नक्षत्र। चन्द्रमा के विषय में स्पष्ट है कि कृष्णपक्ष की षष्ठी से शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि तक पापग्रह और शुक्लपक्ष एकादशी से कृष्णपक्ष की पंचमीतिथि तक शुभग्रह में परिगणित हैं। ध्यातव्य है कि अन्यान्य कार्यों में सप्त शलाकाचक्र विचार करने की भी विधि यही है।

 

लग्नशुद्धि विचार—

पहले लग्न को समझें, फिर लग्नशुद्धि पर विचार करेंगे। लग्न की परिभाषा है—राशिनामुदयो लग्नः । उदयक्षितिज पर (कार्यकाल में) बारह राशियों में जो राशि उपस्थित होती है, उसे ही लग्न कहते हैं। जैसे बालक के जन्मसमय तो राशि होगी, उसे जन्मांकचक्र का जन्मलग्न कहेंगे। इसी भाँति विवाहलग्न का विचार करना चाहिए। विवाह के लिए जो समय परिगणित कर रहे हैं, उस समय की कुण्डली बनाकर सभी ग्रहों को यथास्थान रखकर, शुद्धि-अशुद्धि का विचार करेंगे। अलग-अलग कार्यों में अलग-अलग भावों की शुद्धि का विचार किया जाता है। जैसे दीक्षा और उपनयन में पंचमशुद्धि का विचार करते हैं। इसी भाँति विवाह में सप्तमभाव (जीवनसाथी) और अष्टमभाव (आयु) शुद्ध होना चाहिए। यहाँ शुद्ध का अर्थ है- रिक्त। किन्तु शुभग्रहों का होना भी शुद्ध माना जाता है।   

इस सम्बन्ध में मुहुर्तचिन्तामणि नक्षत्रप्रकरण ४४ द्रष्टव्य है— व्ययाष्टशुद्धोपचये लग्नगे शुभदृग्युते। चन्द्रे त्रिषड्दशायस्थे सर्वारम्भः प्रसिद्धयति।। (लग्न से आठवां और बारहवां स्थान शुद्ध हो। अपनी जन्मराशि वा जन्मलग्न से तीसरी, छठी, दशवीं वा ग्यारहवीं राशि लग्न में हो और शुभग्रह से युक्त या दृष्ट हो तथा लग्न से तीसरे, छठे, दशवें, ग्यारहवें स्थान में चन्द्रमा हों तो सभी कार्यों का शुभारम्भ करना चाहिए।) श्रीरामदैवज्ञ जी वहीं मुहुर्तचिन्तामणि विवाहप्रकरण ४६, ४७ में कहते हैं— जन्मलग्नभयोर्मृत्युराशौ नेष्टः करग्रहः। एकाधिपत्ये राशीशमैत्र वा नैव दोषकृत्। मीनोक्षकर्कालिमृगस्त्रियोऽष्टमं लग्नं यदा नाऽष्टमगेहदोषकृत्। अन्योन्यमित्रत्ववशेन सा वधूर्भवेत्सुता-युर्गृहसौख्यभागिनी। (जन्मलग्न और जन्मराशि से अष्टम लग्न में विवाह शुभ नहीं है। किन्तु यदि इनका स्वामी और विवाह लग्न का स्वामी एक ही हो, अथवा दोनों में मैत्री हो तो दोष नहीं लगता। पुनः कहते हैं कि लग्न वा राशि से अष्टम मीन, वृष, कर्क, वृश्चिक, मकर, कन्या राशियाँ हों तो अष्टमलग्न का दोष नहीं होता। क्योंकि राशिशों की आपसी मैत्री से पुत्र, आयु, गृह और सौख्य की प्राप्ति होती है।)

चुँकि बात यहाँ लग्नशुद्धि की हो रही है, अतः प्रसंगवश ग्रहों के बल एवं कुण्डली में स्थिति पर भी थोड़ी चर्चा अपेक्षित है। इस सम्बन्ध में ऋषिवाक्य है—

(क) उद्वाहे चोत्सवे जीवः सूर्योभूपालदर्शने। संग्रामे धरणीपुत्रो विद्याभ्यासे बुधोबली।। यात्रायां भार्गवः प्रोक्तो दीक्षायां च शनैश्चरः । चन्द्रमा सर्वकार्येसु प्रशस्तो गृह्यते बुधै।। ( विवाह में गुरु का, राजदर्शन में सूर्य  का, युद्ध में मंगल का, विद्यारम्भ में बुध का, यात्रा में शुक्र का, दीक्षा में शनि का एवं सभी कार्यों में शुभ चन्द्रमा के बल का विचार करना चाहिए। )

(ख) वरस्य भास्कर बलं कन्यायाश्च गुरोर्बलम्। द्वयोश्चन्द्रबलंग्राह्यं विवाहो नान्यथाभवेत्।। (वर का सूर्यबल, कन्या का गुरुबल एवं

दोनों का चन्द्रबल विचार करना चाहिए, क्योंकि इनकी निर्बल स्थिति में विवाह अशुभ है।)

(क)            तृतीयः षष्टगश्चैव दशमैकादशस्थितः । रवि शुद्धो निगदितो वरस्यैव करग्रहे।। एवं  एकादशे तृतीये च षष्ठे वा दशमेऽपिवा वरस्य शुभदो नित्यं विवाहे दिननायकः।।              ( राजमार्तण्ड एवं अन्यत्र  कथित उक्त दोनों श्लोकों के भाव एक समान हैं। सूर्यबल के सम्बन्ध में कहा गया है— यदि वर की कुण्डली के अनुसार सूर्य ग्यारहवें, तीसरे, छठे, दशवें स्थान पर हो तो विवाह अति शुभ है।

(ख)            जन्मस्थे च द्वितीयस्थे पञ्चमे सप्तऽपिवा । नवमे भास्करे पूजां कुर्य्यात्पाणिग्रहोत्सवे।। तथा जन्मन्यच्च द्वितीये वा पंचमे सप्तमेऽपिवा। नवमे च दिवानाथे पूजयापाणिपीडनम्।। (इन दोनों श्लोकों का भाव एक ही है— विवाहकाल के सूर्य वर के जन्मलग्नानुसार प्रथम, द्वितीय, पंचम, सप्तम अथवा नवम भाव में पड़ रहे हों तो सूर्य क निमित्त पूजा या दान वगैरह निग्रह करके ही विवाह करना चाहिए।)

(ग)              चतुर्थे चाष्टमे चैव द्वादशेभास्करेस्थिते । वरः पञ्चत्व माप्नोति कृते पाणिग्रहोत्सवे।। तथा अष्टमे च चतुर्थे च द्वादशे च दिवाकर। विवहितो वरो मृत्युं प्राप्तनोत्यत्र न संशयः।। ( इन दोनों श्लोकों का भाव भी एक ही है—ऋषि कहते हैं कि विवाहकालिक कुण्डली में वर की जन्मराशि के अनुसार सूर्य की स्थिति यदि चौथे, आठवें, बारहवें स्थान पर हो तो निश्चित ही मृत्यु होती है, यानी ऐसी स्थिति में विवाह कदापि न करे। )

इस प्रकार स्पष्ट है कि ग्रहस्थितियाँ तीन तरह की बन रही हैं—शुभ, अशुभ और  शुभाशुभ यानी पूर्णतः ग्रहण करने योग्य, पूर्णतः त्यागने योग्य एवं पूजा-दानादि करके ग्रहण करने योग्य।

 

(घ)             अब आगे कन्या/वटुक के सम्बन्ध में कहते हैं— वटु कन्या जन्म राशे स्त्रिकोणाय द्विसप्तगः । श्रेष्ठो गुरुः षट्त्र्याद्ये पूजयान्यत्र निन्दितः ।। (यज्ञोपवीत में वटुक का और विवाह में कन्या का गुरुबल विचार करना चाहिए। संस्कारकालिक कुण्डली में जन्मराशि के अनुसार बृहस्पति की स्थिति नौवें, पांचवें, ग्यारहवें, दूसरे और सातवें भाव में हो तो श्रेष्ठ होते हैं। दशवें, छठे, तीसरे और प्रथम स्थान में हों तो पूजा करके संस्कार करना चाहिए एवं चौथे, आठवें और बारहवें स्थान में निन्दित यानी त्याज्य हैं।

(ङ)            उक्त भावों के ही वचन पञ्चरत्नविवाहपद्धति १००, १०१, १०२ में भी मिलते हैं। ऋषि कहते हैं कि बृहस्पति यदि कन्या की जन्मराशि से आठवें, चौथे, बारहवें हों तो पूजा करने पर भी शुभ नहीं हैं, यानी त्याज्य हैं। किन्तु यदि छठे, पहले और दसवें स्थान पर हों तो पूजा करके शुभ हैं परन्तु यदि ग्यारहवें, दूसरे, पांचवें, सातवें और नौवें स्थान में हों तो अतिशुभद होते हैं। यथा— अष्टमे द्वादशे वापि चतुर्थे च बृहस्पतौ । पूजातत्र न कर्त्तव्या विवाहे प्राण नाशकः ।। षष्ठे जन्मनि देवेज्ये तृतीये दशमेऽपिवा। भूरिपूजापूजितःस्यात् कन्यायाः शुभकारकः।। एकादशे द्वितीये वा पञ्चमे सप्तमेऽपिवा नवमे च साचार्य्याः कन्याया शुभकारकाः।।

(च)             उक्त  विधि-निषेधों के वर्णन के पश्चात् आगे स्पष्ट निर्देश है कि कन्या के दश वर्ष से अधिक उम्र होने पर (यानी रजोदर्शनो परान्त) सिर्फ तारा, चन्द्रमा और लग्नशुद्धि का विचार करना चाहिए। गुरुशुद्धि आदि का विचार आवश्यक नहीं है। यथा— रवीज्य शशि शुद्धिश्च दशवर्षाणि कारयेत्। अत ऊर्ध्वं रजस्कन्या तस्मात् दोषोन विद्यते।। गुरवीन्द्रर्कवलागौरीगुर्विन्दुबलरोहिणी । रवीन्दुवलजा कन्या प्रौढ़ालग्नवलास्मृता।। रजस्वलायाः कन्यायाः गुरुशुद्धिं न चिन्तयेत्। अष्टमेऽपि प्रकर्त्तव्यो विवाह स्त्रिगुणार्जनात् ।। सर्वत्रापि शुभंदयात् द्वादशाब्दात् परं गुरुः । पंच षष्टाब्दयोरेव शुभगोचरतामता।। अतिप्रौढ़ातु या कन्या कुलधर्म विरोधिनी। अविशुद्धापिसादेया चन्द्र लग्न वलेनतु।। राजग्रस्तेऽथवा युद्धे पितृणां प्राण संकटे। अतिप्रौढ़ा च या कन्या नानु कुल्यं प्रतीक्षते।।  

ध्यातव्य है कि वर्तमान समय में तो दस-बारह वर्ष की उम्र में वर या कन्या के विवाह की कल्पना भी नहीं की जाती। इसी भाँति अन्यत्र कहीं के वचन हैं कि कुण्डली का गुण मिलान या अन्य सूक्ष्म विचार के चक्कर में पड़ने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आजकल युवक-युवतियों का विवाह हो रहा है, वर-कन्या का नहीं। अस्तु।

मास के सम्बन्ध कुछ अन्य बातें —

आद्यगर्भसुतसन्ययोर्द्वयोर्जन्ममासभतिथौ करग्रहः। नोचितोऽथ विबुधैः प्रशस्यते चेद् द्वितीयजनुषोः सुतप्रदः।। १४।। ज्येष्ठद्वन्द्वं मध्यमं सम्प्रदिष्टं त्रिज्येष्ठं चेन्नैव युक्तं कदाऽपि । केचित्सूर्यं वह्निगं प्रोज्ङ्य चाऽऽहुर्नैवाऽन्योन्यं ज्येष्ठयोः स्याद्विवाहः।। १५।। सुतपरिणयात् षण्मासान्तः सुताकरपीडनं, न च निजकुले तद्वद्वा मण्डनादपि मुण्डनम्। न च सहजयोर्देये भ्रात्रोः सहोदरकन्यके, न सहजसुतोद्वाहोऽब्दार्धे शुभे न पितृक्रिया।। १६।।  

(अन्य पुस्तकों में उक्त श्लोक किंचित् पाठभेद सहित भी मिलता है, किन्तु भाव समान ही है।) 

(जन्ममास, जन्मनक्षत्र और जन्मतिथि में प्रथमगर्भजात बालक-बालिका का विवाह नहीं करना चाहिए। जबकि द्वितीयादि गर्भजात के लिए शुभ है)

(दो ज्येष्ठ मध्यम है, किन्तु तीन ज्येष्ठ कदापि ग्राह्य नहीं है विवाह में। तीन ज्येष्ठ यानी प्रथम गर्भजात वर, प्रथमगर्भजाता कन्या और ज्येष्ठ मास। इसके परिहार में किंचित् आचार्यों का मत है कि कृत्तिका नक्षत्र में सूर्य हों तो उसे त्याग कर, शेष ज्येष्ठ को ग्रहण किया जा सकता है। प्रथमगर्भजात वर-कन्या का परस्पर विवाह भी अशुभ है।)

(पुत्र-पुत्री के विवाह के छः महीने के भीतर अन्य पुत्र-पुत्री का विवाह-मुण्डनादि संस्कार न करे। ये वर्जना तीन पीढ़ी तक के लिए मान्य है। यानी तीन पीढ़ी से अधिक दूर हो चुके कुल वाले कर सकते हैं। विवाह के छः माह के भीतर एकोदिष्टादि पिण्डकर्म भी वर्जित है।)  

 

सहोदर-सहोदरा संस्कार निषेध —

उक्त सोलहवें श्लोक के उत्तरार्द्ध में निर्दिष्ट है कि दो सहोदर भाई और दो सहोदर बहनों के बीच भी वैवाहिक सम्बन्ध वर्जित है। यानी सुविधा के विचार से दो बहनों का विवाह एक ही घर में दो सहोदर भाइयों से कर देना उचित नहीं है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव सौभाग्य और सन्तान पर पड़ता है।

इस सम्बन्ध में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि दो भाइयों का या दो बहनों का विवाहादि संस्कार एक साथ ही सुविधा की दृष्टि से सम्पन्न कर दिए जाने का समाज में खूब प्रचलन है, जो कि शास्त्रविरूद्ध है। इस निषेध का पालन अन्य संस्कारों में भी करना चाहिए। यानी दो सहोदर भाइयों का एकसाथ यज्ञोपवीत संस्कार या एक के विवाह में दूसरे का जनेऊ करना, बहन के विवाह में सहोदर भाई का जनेऊ कर देना इत्यादि बातें बिलकुल शास्त्र सम्मत नहीं हैं। मूल बात ये है कि किसी एक यज्ञ के बीच दूसरे यज्ञ को सम्पन्न करना ही भूल है। यहाँ तक कि अलग-अलग दोनों कार्यों के लिए मुहूर्तविचार की आवश्यकता भी लोग नहीं समझते।  

 

मुहूर्त सम्बन्धी किंचित् ज्ञातव्य—   

            वध्वा वरस्याऽपि कुले त्रिपूरुषे नाशं व्रजेत् कश्चन निश्चयोत्तरम्। मासोत्तरं तत्र विवाह इष्यते शान्त्याऽथवा सूतकनिर्गमे परैः।। १७।। ( वैवाहिक कार्यक्रम के आरम्भिक कृत्य— वाग्दान, वर-कन्यावरण या इससे भी आगे के कृत्य सम्पन्न होने के पश्चात् कुल में किसी प्रकार का अशौच (जन्म-मरण) हो जाए, ऐसी स्थिति में मासोपरान्त विवाहकार्य करे।  यानी पुनः मुहूर्त विचार करे। कुछ आचार्यों का मत है कि अशौच-निवृत्ति के पश्चात्  विशेष शान्ति करके आगे का कार्य किया जा सकता है।)  

 

सम्भावित अशौच समाधान—नान्दीमुखश्राद्ध

किसी यज्ञसमारोह में नान्दीमुखश्राद्ध यानी आभ्युदयिक श्राद्ध को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। इससे सिर्फ पितरों की तुष्टि ही नहीं होती, प्रत्युत भावी अवरोधों का भी शमन होता है। यदि कुल-परिवार में कोई असाध्यरोगी, मरणासन्न वृद्ध अथवा गर्भिणी हो, या वर-कन्या के माता या स्वयं कन्या के ही रजस्वला होने की आशंका हो, ऐसी स्थिति में समय पूर्व सचेत होकर नान्दीश्राद्ध सम्पन्न कर लेना चाहिए। यथा— एकविंशत्यहर्यज्ञे विवाहे दश वासराः। त्रिषद् चौलोपनयने नान्दीश्राद्धं विधीयते।। (यज्ञादि में अधिकतम इक्कीस दिनों पूर्व, विवाह में दस दिनों पूर्व, यज्ञोपवीतसंस्कार में छः दिनों पूर्व एवं चूड़ाकरण संस्कार में तीन दिनों पूर्व नान्दीश्राद्ध किया जा सकता है। )

किन्तु व्यावहारिक रूप से यहाँ ध्यान रखने की बात है कि मृतक, प्रसूता आदि के सम्पर्क में यज्ञकर्ता न जाए। एक घर में रहते हुए भी स्वयं को प्रतिबन्धित रखे। नान्दीश्राद्धोपरान्त यज्ञकर्ता के माता-पितादि अति निकटवर्ती के निधन में दाहसंस्कार को रोक कर, मृत शरीर की सुरक्षा का समुचित प्रबन्ध करके, विवाहादि यज्ञ किए जा सकते हैं, जबकि इस तरह कार्य सम्पादित करने में लौकिक एवं व्यावहारिक कठिनाई है। नान्दीश्राद्धोपरान्त कन्या या कन्या की माता स्वयं रजस्वला हो गयी हो तो, मृत्तिकास्नान—मिट्टी से सिर धोकर यज्ञ में भाग ले। यहाँ मिट्टी अनिवार्य है, न कि आधुनिक प्रशाधनों (साबुन-शेम्पु आदि) से तात्कालिक शुद्धि होगी।  

विष्णुपुराण ने विविध कार्यों में कार्यारम्भ की सीमा को निर्धारित किया है, यानी किस कार्य से कार्यारम्भ कहा जाए। यथा— व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धे होमेऽर्चने जपे। प्रारब्धे सूतकं न स्यात् अनारब्धे तु सूतकम्।। प्रारम्भो वरणं यज्ञे सङ्कल्पो व्रतसत्रयोः। नान्दीमुखं विवाहादौ श्राद्धे पाकपरिक्रिया ।। (व्रत, यज्ञ, विवाह, श्राद्ध, होम, जप, अर्चनादि में कार्यारम्भ के पश्चात् सूतक नहीं लगता। यज्ञ में आचार्यादि का वरण, व्रतादि में संकल्प, विवाहादि में नान्दीमुखश्राद्ध एवं अन्यश्राद्ध में पाक निर्माण को ही कार्यारम्भ माना गया है। हालाँकि पारस्करगृहसूत्र १-८-१२,१३ के विवाहश्माशानयो-र्ग्रामं प्रविशतात् तथा तस्मात्तयोर्ग्रामः प्रमाणम् आदि वचनों से स्पष्ट है कि देशाचार (लोकाचार) के अनुसार कार्य करे। यानी शास्त्रसम्मत होते हुए भी लोकविरुद्ध कार्य न करे। (किन्तु यहाँ पुनः विवेक की आवश्यकता है, क्योंकि अज्ञानवश अति भ्रष्ट लोकाचार का अनुकरण-अनुशरण भी नहीं करना चाहिए। आजकल ज्यादातर ऐसी बातें देखने-सुनने को मिलती हैं कि मूढ़तावश लोग लोकाचार का ढाल प्रयोग करते रहते हैं। मड़वा में बिल्ली बाँधने वाली कहावत इसी का उदाहरण है।)

 

अन्यान्य दोष विचार—

समाज में विवाह से पूर्व लड़का-लड़की का  जन्मकुण्डली देखकर, अष्टकूट गुणमिलान का तो काफी चलन है, किन्तु लता, पात, उपग्रह, क्रान्तिसाम्य, खार्जूर (एकार्गल), जामित्र, कर्तरी, उदयास्त, बाण एवं संक्रान्ति आदि दस दोष भी होते हैं, इस पर शायद ही किसी का ध्यान जाता है। वस्तुतः ये विवाहकाल में यानी मुहूर्त विचार के समय विचार करने वाली बातें हैं। इनमें सर्वप्रथम बाणदोष पर सामान्य पंडितों का भी ध्यान अवश्य जाता है, अतः सर्वप्रथम इसकी ही चर्चा करते हैं।  

विवाहकाल में उक्त दस दोषों में बाणदोष पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

 

 पञ्चबाणदोष विचार—  बाणदोष पाँच प्रकार के होते हैं, जिनका अलग-अलग अवसरों पर विचार किया जाता है। स्पष्ट सूर्य के गतांशों से इसका निश्चय किया जाता है। चुँकि इसकी गणना का आधार नभमण्डल में सूर्य की स्पष्ट स्थिति है, इस कारण अंशानुसार सुनिश्चित है कि कब कौन का बाण होगा। इसे निम्न सारणी से समझा जा सकता है—

 

रोगबाण

अग्निबाण

नृपबाण

चौरबाण

मृत्युबाण

८, १७,

२६

२, ११,

२०, २९

४,१३,२२

६,१५,२४

१,१०,१९, २८

    उक्त सारणी हृषीकेश पञ्चाङ्ग के मुखपृष्ट पर ही दी रहती है।

किस कार्य में किस बाण का विचार करना चाहिए इस सम्बन्ध में कहा गया है— यात्रायां चौर बाणं तु व्रते रोगं त्यजेद्बुधः । विवाहे मृत्युबाणं च नृपाख्यं नृपसेवया। गृहस्याच्छादने वह्निः वर्जयेत् सर्वदा बुधः।। (यात्रा काल में चौर बाण, व्रतादि में रोगबाण, विवाह में मृत्युबाण, राजकाज में नृपबाण एवं गृहनिर्माण में अग्निबाण का विचार करना चाहिए)

इसी भाँति मु.चि. ७२ में कहा गया है— लग्नेनाड्या यात तिर्थोंक तष्टा शेषे नाग द्वब्धि तर्केन्दु संख्ये। रोगो वह्नी राज चौरौ च मृत्युर्बाणश्चायं दाक्षिणात्यः प्रसिद्धः।। ( रोगबाण, अग्निबाण, नृपबाण, चौरबाण और मृत्युबाण ये पाँच प्रकार हैं । इनमें विवाह काल में मृत्युबाण का विचार करना अति आवश्यक है।

बाणकाल का निश्चय सूर्य की संक्रान्ति और तिथि के हिसाब से किया जाता है। यथा— शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से गत सूर्य संक्रान्ति तक गणना करे। प्राप्तांक में आठ जोड़कर नौ का भाग दे दे। भाग देने पर आठ शेष बचे तो रोगबाण, दो शेष बचे तो अग्निबाण, चार शेष बचे तो नृपबाण, छः शेष बचे तो चौरबाण एवं एक शेष बचे तो मृत्युबाण होता है।

 

पञ्चबाण गणना की अन्य विधि—  

धार्य्याःतिथिर्मास दशाष्टवेदाः। संक्रान्तितो यातदिनैश्च योज्याः । ग्रहैर्विभक्ताः यदि पंचकंस्यात् रोगास्तथाग्निर्नृपचौरमृत्युः।।

 (स्पष्ट सूर्य के गतांशों में क्रमशः पन्द्रह, बारह, दस, आठ एवं चार अलग-अलग स्थानों पर रखकर जोड़ें और नौ से भाग दें। भाग देने पर यदि पाँच शेष बचे तो बाणदोष समझें।  पन्द्रह वाले गणित में रोगबाण, बारह वाले में अग्निबाण, दस वाले में नृपबाण, आठ वाले में चौरबाण और चार वाले में मृत्यु बाण जानना चाहिए। इसी आधार पर ऊपर वाली सारणी बनायी गयी है।)

 

पञ्चबाण गणना की एक और विधि—

मुहूर्तचिन्तामणि विवाह प्रकरण श्लोक संख्या ७३ में कहा गया है—रस गुण शशि नागाब्ध्याढ्यसंक्रान्तियातांशकमितिरथ ताष्टाङ्कैर्ययदा पञ्च शेषाः । रुग नल नृप चौरा मृत्युसञ्ज्ञश्च बाणो नवबृतशरशेषे शेषकैक्य सशल्यः ।।  ( सूर्य के गत अंशों को पाँच स्थानों पर रखकर, क्रमशः ६-३-१-८-४ जोड़े और प्राप्तांकों में बारी- बारी से ९ का भाग देता जाए। यदि प्रथम स्थान में पाँच शेष रहे तो रोगबाण, द्वितीय स्थान में पाँच शेष रहे तो अग्निबाण, तृतीय स्थान में पाँच शेष बचे तो नृपबाण, चतुर्थ स्थान में पाँच शेष बचे तो चौर बाण और पंचम स्थान में पाँच शेष बचे तो मृत्यु बाण जाने)

            इस प्रकार उक्त विधियों से विचार करे अथवा दी गयी सारणी का अवलोकन करे।  स्पष्ट है कि विवाह हेतु निश्चित की जा रही तिथि को पंचांग में सूर्य की स्पष्टी देख कर इसका निर्धारण किया जाता है कि किसी तरह का बाणदोष तो नहीं है। विवाह लग्न के समय विशेषकर मृत्युबाण की वर्जना अवश्य करे।

 

अन्यान्य दोष—अब किंचित् अन्य दोषों की चर्चा करते हैं।

 

लत्तादोष— बुध जिस नक्षत्र में हो उससे पिछले सातवें नक्षत्र पर, राहु नौवें नक्षत्र पर, पूर्णचन्द्रमा बाइसवें नक्षत्र पर, एवं शुक्र पांचवें नक्षत्र पर लत्तादोष उत्पन्न करता है तथा सूर्य जिस नक्षत्र पर हो उससे आगे के बारहवें नक्षत्र पर, शनि आठवें नक्षत्र पर, बृहस्पति छठे नक्षत्र पर और मंगल तीसरे नक्षत्र पर लत्तादोष उत्पन्न करता है। विवाहकाल में ये दोष भी यथासम्भव विचारणीय है।

यथा— ज्ञराहुपूर्णेन्दुसिताः स्वपृष्ठे भं सप्तगोजातिशरैर्मितं हि। संलत्तयन्तेऽर्कशनौज्यभौमाः सूर्याष्टतर्काग्निमितं पुरस्तात्।।(मु.चि.वि.प्र.५९)

                                                                 

पातदोष— हर्षण, वैधृति, साध्य, व्यतीपात, गण्ड और शूल—इन योगों के अन्त में जो नक्षत्र होता है वह पातदोष युक्त कहलाता है। यथा— हर्षणवैधृतिसाध्यव्यतिपातकगण्डशूलयोगानाम् । अन्ते यन्नक्षत्रं पातेन निपातितं तत्स्यात्।। (मु.चि.वि.प्र.६०)

 

क्रान्तिसाम्यदोष— सिंह-मेष, वृष-मकर, तुला-कुम्भ, कन्या-मीन, कर्क-वृश्चिक, धनु-मिथुन—इन-इन राशियों पर सूर्य-चन्द्रमा हों तो क्रान्तिसाम्यदोष उत्पन्न होता है। शुभकार्यों में ऋषियों ने इसे वर्जित कहा है। जैसे सूर्य यदि सिंह राशि पर हो और चन्द्रमा मेष राशि का हो विवाह के दिन, अथवा इसके विपरीत यानी चन्द्रमा सिंह राशि राशि पर हो और सूर्य मेष राशि पर हो तो भी क्रान्तिदोष कहलायेगा। इसी भाँति अन्य जोड़ियों पर भी विचार करना चाहिए।

यथा—पञ्चास्याजौ गो-मृगौ तौलिकुम्भौ कन्या-मीनौ कर्क्यली चापयुग्मे । तत्राऽन्योन्यं चन्द्रभान्योर्निरुक्तं क्रान्तेः साम्यं नो शुभं मङ्गलेषु।। (मु.चि.वि.प्र.६१)

सूर्य या चन्द्रमा

मेष

वृष

मिथुन

कर्क

कुम्भ

मीन

सूर्य या चन्द्रमा

सिंह

मकर

धनु

वृश्चिक

तुला

कन्या

 

 

 

 

 

खार्जूर या एकार्गल दोष—व्याधात, गण्ड, व्यतिपात, विष्कुम्भ, शूल, वैधृति,, वज्र, परिघ, अतिगण्ड—इन अशुभ योगों में सूर्य के नक्षत्र से विषम नक्षत्र पर यदि चन्द्रमा हो तो खार्जूरदोष होता है। यानी सम नक्षत्र पर हो तो नहीं होता। ध्यातव्य है कि इस गणना में अभिजित् को भी समाहित किया गया है। यथा— व्याधातगण्डव्यतिपातपूर्व- शूलान्त्यवज्रे परिघातिगण्डे । योगे विरुद्धे त्वभिजित् समेतः खार्जूरमर्काद्विषमे शशी चैत्।। (मु.चि.वि.प्र.६२)

 

उपग्रह दोष— सूर्य के नक्षत्र से ५, ८, १०, १४, ७, १९, १५, १८, २१, २२, २३, २४, २५ वें नक्षत्र पर यदि चन्द्रमा हो तो उपग्रह दोष कहलाता है। इसे अशुभ माना गया है। किन्तु इसकी वर्जना सिर्फ कुरुक्षेत्र और बाह्लीक क्षेत्रों में ही है। ध्यातव्य है कि उक्त कथन में श्लोकविग्रहानुसार नक्षत्र संख्याओं को रखा गया है। न कि किसी अन्य कारण से। यथा—  शराष्टदिक्शक्रनगातिधृत्यस्तिथिर्धृतिश्च प्रकृतेश्च पञ्च । उपग्रहाः सूर्यभतोऽब्जताराः शुभा न देशे कुरुबाह्लिकानाम्।। (मु.चि.वि.प्र.६३)

 

जामित्र दोष—विवाह कालिक कुण्डली में लग्न वा चन्द्रमा से सप्तम भाव में कोई शुभाशुभ ग्रह हो तो जामित्रदोष कहलाता है, जो अशुभ होता है। साथ ही लग्न वा चन्द्रमा से पचपनवें नवांश में यदि कोई ग्रह हो तो सूक्ष्म जामित्रदोष होता है, जो अपेक्षाकृत अधिक दोषपूर्ण है। जैसे— वृषराशि के दूसरे नवांश में चन्द्रमा है तो वृश्चिक राशि का दूसरा नवांश पचपनवां नवांश कहलायेगा। इसी भाँति अन्य स्थानों से भी गणना करना चाहिए। इस सम्बन्ध में ये प्रमाण द्रष्टव्य है  लग्नाच्चन्द्रान्मदनभवनगे खेटे न स्यादिह परिणयनम्। किं वा बाणाशुगमितलवगे जामित्रं स्यादशुभकरमिदम्।।  (मु.चि.वि.प्र.६७)

 

संक्रान्तिदोष विचार— विषुवायनेषु परपूर्वमध्यमान् दिवसांस्त्यजेदितर-संक्रमेषु हि घटिकास्तु षोडश शुभक्रियाविधौ परतोऽपि पूर्वमपि सन्त्यजेद्बुधः।। देवद्वयङ्कर्तयोऽष्टाष्टौ नाड्योऽङ्काः खनृपाः क्रमात् । वर्ज्याः संक्रमणेऽर्कादेः प्रायोऽर्कस्यातिनिन्दिताः।। (मु.चि.वि.प्र. ७९, ८०)  (विषुव यानी मेष-तुला की संक्रान्ति और अयन यानी कर्क-मकर की संक्रान्ति के पूर्व और पर तथा मध्य दिवस विवाहादि शुभकार्यों में वर्जित हैं। एवं अन्य संक्रान्तियों में संक्रान्तिकाल से सोलह घटी पूर्व और पर का त्याग करना चाहिए। ध्यातव्य है कि सूर्य की संक्रान्ति तैंतीस घटी, चन्द्रमा की दो घटी, मंगल की  नौ घटी, बुध की छः घटी, गुरु की अठ्ठासी घटी एवं शनि की एक सौ साठ घटी पूर्वापर त्याज्य है।)

 

उक्त दोषों का परिहार विचार— ऊपर कई तरह के विवाह मुहूर्तकालिक दोषों की चर्चा के पश्चात् अब उनके परिहार वा शमन की चर्चा करते हुए कहते हैं— एकार्गलोपग्रहपात-लत्ता-जामित्र-कर्तर्युदयास्तदोषाः । नश्यन्ति चन्द्राऽर्कबलोपपन्ने लग्ने यथार्काभ्युदये तु दोषा।। रोगोऽथ व्रतगेहगोप-नृपसेवा-यान पाणिग्रहे वर्ज्याश्च क्रमतो बुधैरुगनलक्ष्मा पाल चौरामृतिः।। केन्द्रे कोणे जीव आये रवौ वा लग्ने चन्द्रेवाऽपि वर्गोत्तमे वा। सर्वे दोषा नाशमायान्ति चन्द्रे लाभे तद्वद्दुर्मुहूर्तांशदोषाः ।। (मु.चि.वि.प्र. ६८, ७४ एवं ९०) (विवाह का लग्न यदि सूर्य और चन्द्रमा के बल से युक्त हो तो एकार्गल, उपग्रह, जामित्र, लत्ता, कर्तरी, उदयास्त, पातादि दोष ठीक वैसे ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे सूर्य के उदित रहने पर रात्रि का अन्धकार नष्ट हो जाता है। पुनः कहते हैं कि चौरबाण और रोगबाण रात्रि में, नृपबाण दिन में, अग्निबाण सभी समय और मृत्युबाण दोनों सन्ध्याओं में त्याज्य है। पुनः इसे और स्पष्ट करते हैं कि मृत्युबाण शनिवार को, राजबाण बुधवार को, अग्निबाण और चौरबाण मंगलवार को तथा रोगबाण रविवार को विशेष रूप से त्याग देना चाहिए। कथन का अभिप्राय है कि अन्य दिनों में यदि अन्य बातें अनुकूल हों तो ग्रहण किये जा सकते हैं। पुनः कहते हैं कि यज्ञोपवीत में रोगबाण, गृह छादन में अग्निबाण, राजकार्य में नृपबाण, यात्रा में चौरबाण और विवाह में मृत्युबाण विशेष विचारणीय है। बृहस्पति केन्द्र वा त्रिकोण में हो अथवा सूर्य या चन्द्रमा आयभाव में अथवा वर्गोत्तम में हो अथवा चन्द्रमा वर्गोत्तम नवांश में हो तो सभी दोषों का नाश हो जाता है।  

ध्यातव्य है कि ये विचार विवाह हेतु निर्धारित किये जा रहे लग्न कुण्डली से करना है। दूसरी बात ध्यान रखने योग्य है कि यहाँ केन्द्र १, ४, १० को ही माना गया है, जबकि अन्यत्र सप्तम को भी केन्द्र कहा गया है। त्रिकोण  ९, ५ कहलाता है। तीसरी बात यहाँ ये भी है कि उपलक्षण से चन्द्रमा के लिए उपचयभवन यानी तृतीय, षष्टम, दशम एवं एकादश भाव भी ग्राह्य हैं। यानी सिर्फ आय भाव ही नहीं अपितु अन्य तीन भावों में रहने पर भी समस्त दोशों का

नाशक हैं। )

            आगे इसी ग्रन्थ के ९१वें श्लोक में समस्त दोषों का और भी उत्तम परिहार सुझाते हैं— त्रिकोणे केन्द्रे वा मदनरहिते दोषशतकं हरेत् सौम्यः शुक्रो द्विगुणमपि लक्षं सुरगुरुः । भवेदाये केन्द्रेऽङ्गप उत लवेशो यदि तदा समूहं दोषाणां दहन इव तूलं शमयति।। (यदि विवाहकालिक कुण्डली के सातवें स्थान को छोड़कर अन्य केन्द्रस्थान- १, ४, १० में वा त्रिकोण-९,५ में बुध हों तो सौ दोषों का, शुक्र हों तो दो सौ दोषों का और बृहस्पति हों तो लाखों दोषों का शमन हो जाता है। इतना ही नहीं लग्नेश वा लग्न नवांश का स्वामी १, ४, १० एवं ११वें स्थान में हो तो समस्त दोष इस प्रकार भस्म हो जाते हैं जैसे अग्नि की चिनगारी मात्र से रुई का ढेर नष्ट हो जाता है।)

            उक्त ऋषि-निर्देशों से स्पष्ट है कि विवाहकालिक कुण्डली का सप्तम भाव सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ज्योतिष में उसे ही पति/पत्नी भाव कहा जाता है। इसका शुद्ध होना अत्यावश्यक है।

                       

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