षोडशसंस्कारविमर्श सताइसवाँ भाग- चतुर्थीकर्म—विवाहसंस्कारान्त कृत्य

 

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                      चतुर्थीकर्म—विवाहसंस्कारान्त कृत्य

                              

 चतुर्थीकर्म विवाहसंस्कार के उपरान्त होने वाला एक अपरिहार्य कृत्य है। ध्यातव्य है कि पाणिग्रहणोपरान्त पत्नित्व तो मिल जाता है, किन्तु भार्यात्व नहीं मिलता। भले ही हम सभी शब्दों का एक सा अर्थ लगा लें , किन्तु नियमतः विवाह पूर्व कन्या संज्ञा होती है। कन्यादान के पश्चात् वधू कहलाती है। पाणिग्रहण के बाद पत्नी होती है और विवाह के चौथे दिन चतुर्थीकर्म सम्पन्न होने पर ही भार्या बनती है। विवाह की चौथी रात्रि में पतिदेह, पतिगोत्र एवं पतिकुल सूतक की अधिकारिणी होती है। यथा—

अप्रदानात् भवेत्कन्या प्रदानानन्तरं वधूः। पाणिग्रहे तु पत्नी स्याद् भार्या चातुर्थीकर्मणि।। विवाहे चैव निवृत्ते चतुर्थेऽहनि रात्रिषु। एकत्व मागता भर्तुः पिण्डे गोत्रे च सूतके।।  

प्रायः विवाह के अगले दिन विदाई हो ही जाती है। लड़की पितागृह त्याग कर पतिगृह चली जाती है। किन्तु शैय्याशायनी अभी नहीं होना चाहिए। नियम-संयम पूर्वक तीन दिन व्यतीत करना चाहिए। इन दिनों क्षार-लवण रहित भोजन किया जाए तो बहुत अच्छा। चौथे दिन विधिवत चतुर्थी कर्म सम्पन्न होने के पश्चात् ही पति-समागम होना उचित है।

इस कृत्य के प्रयोजन के सम्बन्ध में महर्षि मार्कण्डेय कहते हैं कि कन्या के देह में चौरासी दोष होते हैं। उन दोषों की निवृत्ति हेतु प्रायश्चितस्वरूप चतुर्थी कर्म किया जाना चाहिए— चतुरशीति दोषाणि कन्यादेहे तु यान्ति वै। प्रायश्चित्तकरं तेषां चतुर्थी कर्म ह्याचरेत् ।। चतुर्थीहोममन्त्रेण त्वङ्मांसहृदयेन्द्रियैः। भर्त्रा संयुज्यते पत्नी तद्गोत्रा तेन सा भवेत्।। (बृहस्पति वचन)

 चतुर्थीहोम मन्त्रों से त्वचा, मांस, हृदय और इन्द्रियों द्वारा पति से संयोग होता है। इस कर्म से सोम, गन्धर्व, अग्नि आदि द्वारा परोक्षरूप से कन्याभुक्त दोष का परिहार हो जाता है। महर्षि हारीत कहते हैं कि चतुर्थीकर्म करने वाली कन्या सदा सुखी रहती है। धनधान्य की वृद्धि के साथ-साथ पुत्र-पौत्रान्वित होती है एवं नहीं करने से वैधव्य व वन्ध्यत्व झेलना पड़ता है।  

                  

                       चतुर्थीकर्म-प्रयोग

लोकाचार में इस दिन पूर्व स्थापित कलश से वर-वधू स्नान करते हैं। स्नानोपरान्त नूतन वस्त्र धारण करके, वधू को अपने दाहिनी ओर बैठा कर, आचमन, प्राणायामादि करके, जल, अक्षत, पुष्पादि लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य अस्या मम पत्न्याः सोमगन्धर्वाग्न्युपभुक्तत्वदोषपरिहारद्वारा श्रीपरमेश्वर प्रीत्यर्थं विवाहाङ्गभूतं चतुर्थी होममहं करिष्ये। तदङ्गत्वेन तत्पूर्वं स्वस्तिवाचन, गौरीगणेशाम्बिकादि  पूजन, अग्निस्थापन-पूजनमहं करिष्ये।

(इस पुस्तक के परिशिष्ट खण्ड में बतलायी गई विधि से पूर्वांग पूजन, वेदी निर्माण, वेदी का पंचभूसंस्कार, ब्रह्मास्थापन आदि कर्म सम्पन्न करे)

आधाराज्य होम— तदनन्तर होम कर्म (घृताहुति डाले। आहुति डालने के बाद स्रुवाशेष घृत को उत्तर दिशा में स्थापित प्रणीता पात्र में छिड़कता जाए। ) —

ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।

ऊँ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम।

ऊँ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम।

ऊँ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।

प्रधान होम—

१.       ऊँ अग्ने प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्यै पतिघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा।। इदमग्नये न मम।।

२.      ऊँ वायो प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्यै प्रजाघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं वायवे न मम।।

३.      ऊँ सूर्य प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्मै पशुघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं सूर्याय न मम।।

४.     ऊँ चन्द्र प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्यै गृहघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं चन्द्राय न मम।।

५.      ऊँ गन्धर्व प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्यै यशोघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं गन्धर्वाय न मम।।

तदनन्तर चरु (खीर) में थोड़ा सा घी मिलाकर एक आहुति डाले—

            ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।

पुनः घृतमिश्रित खीर से स्विष्टकृत होम करे—

           ऊँ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।

तदनन्तर सिर्फ घी से नवाहुति प्रदान करे। आहुति शेष घृत को प्रोक्षणीपात्र में छिड़कता जाए— नवाहुति मन्त्र—

१.      ऊँ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम।

२.      ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम।

३.      ऊँ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।

४.     ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा ᳭᳴᳴ सि प्रमुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

५.      ऊँ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुण ᳭᳴᳴रराणो वीहि मृडीक ᳭᳴ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

६.     ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज ᳭᳴᳴ स्वाहा। इदमग्नये अयसे न मम।

७.     ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो  मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।

८.      ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यम ᳭᳴᳴श्रधाय । अथा वयमादित्य  व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं वरुणायादित्यायादितये न मम।

(यहाँ तक प्रायश्चित्तसंज्ञक होम है। आगे की एक आहुति प्रजापतिसंज्ञक है।)

९.      ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। (यहाँ प्रजापति देवता का मानसिक ध्यान कर, आहुति डाले)

संस्रवप्राशन एवं मार्जन — होम पूर्ण होने पर प्रोक्षणीपात्र प्रक्षेपित घृत को दाहिने हाथ से ग्रहण कर, यत्किंचित् पान करे। तदनन्तर आचमन करके, निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक प्रणीतापात्र के जल से अपने सिर पर मार्जन करे—ऊँ सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु ।

तदनन्तर ऊँ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्वष्पः — मन्त्रोच्चारण पूर्वक जल नीचे छिड़के।

अब पवित्रक को अग्नि में छोड़ दे और पूर्व स्थापित ब्रह्मापूर्णपात्र पर दक्षिणाद्रव्य रखकर संकल्प करे—

ऊँ अद्य कृतैतच्चतुर्थीहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूप ब्रह्मकर्म-प्रतिष्ठार्थमिदं यथाशक्ति द्रव्यसहितं पूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतं ...गोत्राय ...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे ।

नियुक्त ब्रह्मा स्वति कहकर उस पूर्णपात्र को ग्रहण करें।

 

प्रणीताविमोक एवं मार्जन — अब, प्रणीतापात्र को ईशानकोण में उलटकर रख दे और उपयमनकुशा द्वारा उस जल से सिर पर मार्जन करे, इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक— ऊँ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। ( मार्जनोपरान्त उस कुशा को अग्नि में छोड़ दे।) 

 

बर्हिहोम— अव अग्निवेदी के चारो ओर जिस क्रम से कुशाओं को बिछाये थे, उसी क्रम से उठा-उठाकर, घृत में डुबोकर, इस मन्त्र के उच्चारण पूर्वक अग्नि में डाल दे— ऊँ देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित मनसस्पत इमं देव यज्ञ ᳭᳴᳴ स्वाहा वाते धाः स्वाहा ।

कुशा में लगी ब्रह्मग्रन्थि खोल दें।

 

अभिषेक— तदनन्तर कलश के जल से वर अपने एवं पत्नी के सिर पर आम्रपल्लव से छिड़काव करे—ऊँ या ते पतिघ्नी प्रजाघ्नी पशुघ्नी गृहघ्नी यशोघ्नी निन्दितातनूः। जारघ्नीं ततऽएनां करोमि । सा जीर्य त्वं मया सह श्री....देवि। (रिक्तस्थान में पत्नी का नाम बोले)  

 

तदनन्तर मातादि सुहागिनियों द्वारा वर-वधू की अँजुलि में हरिद्रा रंजित चावल (अक्षत) भर कर, अक्षताभिषेक किया जाना चाहिए।

 

तदनन्तर निम्नांकित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए वर वधू को चरु (खीर) खिलावे—

ऊँ प्राणैस्ते प्राणान सन्दधामि।

ऊँ अस्थिभिस्तेऽअस्थीनि सन्दधामि।

ऊँ माꣳसैर्माꣳसानि सन्दधामि।

ऊँ त्वचा ते त्वचं सन्दधामि।

(लोकरीति में अपनी परम्परानुसार कहीं कोहबर में तो कहीं शयनगृह में बालाओं के समूह में ये कार्य सम्पन्न होते हैं)

 

तदनन्तर वर वधू के हृदयस्थल का स्पर्श करे— ऊँ यत्ते सुसीमे हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्। वेदाहं तन्मां तद्विद्यात् पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतम्।।

 

तदनन्तर विवाह के प्रारम्भ में वधू के हाथ में जो कंकण बाँधा गया था, उसे वर इन मन्त्रोच्चारण पूर्वक खोल दे— कङ्कणं मोचयाम्यद्य रक्षोघ्नं रक्षणं मम। मयि रक्षां स्थिरां कृत्वा स्वस्थानं गच्छ कङ्कण।। कंकण मोक्षण के पश्चात् वर वधू के आँचल में बँधी ग्रन्थि को भी खोल दे एवं होमाग्नि से किंचित् भस्म लेकर त्र्यायुष्करण करे— ऊँ त्रायुषं जमदग्नेः- ललाट में। ऊँ कश्यपस्य त्र्यायुषम्- ग्रीवा में। ऊँ यद्देवेषु त्र्यायुषम्- दक्षिण कन्धे पर। ऊँ तन्नोऽस्तु त्र्यायुषम्- हृदय में। (स्त्री सिर्फ कंठ देश में लगाले। )

 

तदनन्तर जलाक्षतपुष्पद्रव्यादि लेकर दक्षिणासंकल्प करे— ऊँ अद्य कृतैतच्चतुर्थीकर्मणि साङ्गतासिद्ध्यर्थं यथाशक्ति दक्षिणाद्रव्यं ...गोत्राय ...शर्मणे आचार्याय तुभ्यमहं सम्प्रददे ।

 

तदनन्तर ब्राह्मणभोजन हेतु भी संकल्प करे— ऊँ अद्य कृतैतच्चतुर्थीकर्मणि साङ्गतासिद्ध्यर्थं यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये।

 

तदनन्तर पुनः जलाक्षतपुष्पद्रव्यादि लेकर भूयसी दक्षिणा हेतु संकल्प करे— ऊँ अद्य कृतैतच्चतुर्थीकर्मणि साङ्गतासिद्ध्यर्थं न्यूनाऽतिरिक्त दोषपरिहार्थं भूयसीं  दक्षिणाद्रव्यं विभज्य नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो सम्प्रददे ।

भगवत्स्मरण— पुनः पुष्पाक्षत लेकर निम्नांकित मन्त्रोच्चारण करे— प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत् । स्मरणादेव तद् विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ।। यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।। यत्पादपङ्कजस्मरणाद् यस्य नामजपादपि । न्यूनं कर्म भवेत् पूर्णं  वन्दे साम्बमीश्वरम् ।। ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ विष्णवे नमः। ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ साम्बसदाशिवाय नमः । साम्बसदाशिवाय नमः । साम्बसदाशिवाय नमः ।

                               ।। चतुर्थीकर्मसम्पूर्णम् ।।

क्रमशः..........

                   

 

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