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अन्त्येष्टि संस्कार परिचय
सनातन
षोडशसंस्कारों में अन्त्येष्टि कर्म अन्तिम संस्कार है, यही कारण है कि इसकी
अत्यधिक प्रचलित संज्ञा अन्तिमसंस्कार है। आधुनिक रहन-सहन, परिवेश, परिस्थिति
ने हमारे इस संस्कार को भी काफी प्रभावित किया है। जन्म जीवन की पहली क्रिया है,
तो मृत्यु आँखिरी और इन दोनों पर परिवेश-परिस्थिति हावी है। भले ही इसे हम विकास
कहकर, मानकर सन्तुष्ट और निश्चिन्त हो जाते हैं, किन्तु विकास की आड़ में संस्कृति
का प्रायः ह्रास ही हुआ है । पहले हमारे
यहाँ वास्तुशास्त्र के नियमानुसार प्रत्येक भवन में एक प्रसूतिकागृह हुआ करता था, जो
कि अब विकसित युग में लुप्त हो चुका है। परिणामतः अनिवार्य सूतिकाकृत्य का अवसर भी
नहीं मिलता। जन्म अस्पतालों में होते हैं, मृत्यु भी अस्पतालों में ही। शत-प्रतिशत
सुनिश्चित मरणासन्न स्थिति में भी ऑक्सीजन की पाईप नाकों में ढूँसे बिना न परिजनों
को सन्तोष है और न व्यवसाय-बहुल डॉक्टरों
को ही। सच पूछें तो हम शान्ति से मर भी नहीं पाते। तथाकथित प्रेमी-परिजन मरने भी
नहीं देते।
मरना
भी सनातन संस्कृति का एक महान कृत्य है—इसे जानकर बहुत लोग चौंकेंगे। मरने के भी
नियम हैं, विधियाँ हैं। हालाँकि महात्मा भीष्म को ही इच्छामृत्यु का वरदान मिला था,
किन्तु मृत्यु-संकेत तो आम बात है। भले ही हम उसपर ध्यान न दें। समझने-बूझने, सीखने-जानने
का प्रयास न करें।
सच
तो ये है कि जिस तरह गर्भाधान के पश्चात् नौ महीने तक प्रकृति की तैयारी चलती है, तब
प्राणी का जन्म होता है। उसी भाँति ठीक नौ महीने पहले से ही मृत्यु की भी तैयारी
चलने लगती है। यहाँ तक कि स्पष्ट सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति जितने दिन-घंटे-मिनट
गर्भवास किया है, उतने ही समय तक उसकी मृत्यु की भी तैयारी चलेगी। योग और तन्त्र
के जानकार इसे अपने हिसाब से तय करते हैं, शेष जन अन्धकार में, अज्ञान में
जीते-मरते हैं। हाँ, आकस्मिक मृत्यु का सिद्धान्त किंचित् भिन्न है। प्रसंगवश यहाँ
किंचित् संकेतों की चर्चा कर रहा हूँ।
मृत्यु-सूचक चिह्न-चर्चा— श्रीस्कन्दपुराण, काशीखण्ड (पूर्वार्द्ध)
में महर्षि अगस्त्य ने शिवपुत्र भगवान षडानन कार्तिकेयजी से जिज्ञासा की है कि
आसन्न मृत्यु-सूचक लक्षण को मनुष्य कैसे जाने । अमरत्त्व की कामना लिए मनुष्य की
ये सहज जिज्ञासा है । क्यों कि वह भयभीत है सदा । इस भय ने ही उसकी सुखानुभूतियों
पर पानी फेर रखा है । जो सामने है, जो उपलब्ध है, उसकी चिन्ता से कहीं अधिक चिन्ता
अदृष्ट
और भविष्य की खाये जाती है । इस चिन्ता में सहज-स्वाभाविक, नित्य-नैमित्तिक
कर्मों में भी प्रायः व्यवधान वा अलस्य होने लगता है ।
शिवनन्दन,
करुणासागर कार्तिकेयजी ने महर्षि अगस्त्य की लोकोपयोगी जिज्ञासा का शमन करते हुए
विशद वर्णन किया है । उन्होंने बतलाया कि जिस मनुष्य की दाहिनी नासिका में एक
अहोरात्र (रात-दिन) (एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय पूर्व तक) श्वास अखण्ड रुप
चलती रह जाये तो समझे कि उसकी आयु अब मात्र तीन वर्ष शेष है । ज्ञातव्य है कि प्राणवायु
(श्वास-प्रश्वास) का संचरण प्रति घटी (पैंतालिस मिनट करीब) पर परिवर्तित होते रहता
है । यही क्रिया यदि दो अहोरात्र पर्यन्त जारी रहे तो मृत्यु एक वर्ष पश्चात होने
की आशंका रहेगी ।
यदि दोनों नासिका छिद्र दस दिन तक निरन्तर
ऊर्ध्वश्वास के साथ चलते रहें तो मनुष्य मात्र तीन दिवस का मेहमान जाने स्वयं को ।
प्राणवायु नासिका के दोनों छिद्रों के वजाय सीधे मुँह से आवागमन करने लगे तो दो
दिन में यमलोक प्रयाण कर जाये ।
ज्ञातव्य
है कि मृत्युदेवी की बिलकुल आसन्न स्थिति में प्राणी विविध भयकारक दृश्य का अवलोकन करने लग जाता है ।
ज्योतिष
शास्त्र में कहा गया है कि सूर्य जन्मराशि से सप्तम राशि पर और चन्द्रमा सीधे जन्म
नक्षत्र पर आ गए हों, तब यदि दाहिनी नासिका से श्वास चलने लगे तो, उस समय
सूर्याधिष्ठित काल जाने । ऐसे काल में विशेष सावधान रहते हुए प्रभु चिन्तन करे ।
यदि
अकस्मात किसी काले-पीले पुरुष का दृश्य स्पष्ट हो और तत्काल ही अदृश्य भी हो जाये
तो दो वर्ष का जीवन शेष जाने । जिस मनुष्य का मल-मूल, वीर्य वा मल-मूत्र व
छींक एक साथ प्रकट हो तो मात्र एक वर्ष ही जीवन शेष जाने । नीलमणि के तुल्य नागों
के झुंड को आकाश में तैरता हुआ यदि देखे तो द्रष्टा की आयु मात्र छः माह शेष जाने
।
जिसकी
मृत्यु अति निकट हो उसे सप्तर्षि मण्डल में महर्षि वशिष्ठ की सहधर्मिणी अरुन्धती
का तारा एवं ध्रुवतारा दिखायी नहीं पड़ता । ध्यातव्य है कि यहाँ आँखों की सामान्य
रौशनी की स्थिति में बात कही जा रही है । मद्धिम (मन्द) रोशनी वालों पर ये नियम
लागू नहीं होगा। जो मनुष्य अकस्मात
नीले-पीले रंगों को या खट्टे-मीठे रसों को विपरीत क्रम में अनुभव करने लगे तो उसकी
मृत्य छः माह के भीतर जाने । यही अवधि उस मनुष्य की भी होगी,
जिस
व्यक्ति के वीर्य, नख और आँखों का कोना
नीले या काले पड़ जायें ।
भलीभाँति
स्नान करने के बाद जिनका हृदयस्थल और हाथ-पैर अन्य अंगों की अपेक्षा जल्दी सूख
जाये, तो उसकी मृत्यु तीन मास के अन्दर होना निश्चित समझे ।
जो
मनुष्य जल, घी, तैल आदि तरल
पदार्थ तथा दर्पण में अपने सिरोभाग को स्पष्ट न देख पाये, वो अपना जीवन एक मास शेष
जाने । अपनी छाया में सिरोभाग का न दीखना भी सद्यः मृत्यु-सूचक है । जिसकी बुद्धि
अचानक भ्रष्ट हो जाये (पूर्व से विपरीत), वाणी अस्पष्ट हो
जाये, रात में इन्द्रधनुष दिखायी पड़े,
दो-दो सूर्य वा चन्द्रमा दीख पड़ें, तो इसे सद्यः मृत्यु की
सूचना समझे ।
अँगुलियों
से कान बन्द करने पर एक विशेष प्रकार की ध्वनि सुनायी पड़ती है । ये ध्वनि सुनायी
पड़ना यदि बन्द हो जाये तो मास पर्यन्त जीवन शेष जाने । यही अवधि उस मनुष्य की भी
होगी जो अचानक मोटे से दुबला या दुबले से मोटा हो जाये- विना किसी विशेष रोग-व्याधि
के । स्वभाव में अचानक परिवर्तन भी आसन्न मृत्यु का लक्षण है । जैसे कृपण का अचानक
उदार वा उदार का कृपण हो जाना ।
स्वप्न
में निरन्तर कुत्ते, कौए, गधे, सूअर, गीध, सियार, असुर, राक्षस, भूत, पिशाच आदि दीखें,
तो एक वर्ष के भीतर मृत्यु जाने । यदि मनुष्य स्वप्न में स्वयं को गन्ध, पुष्प, लाल वस्त्रादि से अलंकृत देखे तो आठ महीने बाद मृत्यु जाने । स्वप्न में
धूल या दीमक की बॉबी पर स्वयं को चलता देखे तो छः माह बाद मृत्यु जाने । स्वप्न
में तेल लगाता हुआ स्वयं को देखे, गधे वा घोड़े पर सवारी
करता हुआ, दक्षिण दिशा की यात्रा करता हुआ, अपने पूर्वजों का लागातार दर्शन करता हुआ पाये, तो छः मास की आयु शेष
समझे । यदि स्वप्न में अपने शरीर पर घास या सूखी लकड़ियाँ रखा देखे, तो छः मास की
आयु शेष समझे ।
स्वप्न
में लौह दंडधारी, काले वस्त्रधारी
पुरुष का दर्शन हो तो तीन मास की आयु शेष समझे । श्यामवर्णा स्त्री का स्वप्न में
आलिंगन महीने भर के भीतर ही यमपुरी की यात्रा करा देता है ।
स्वप्न
में वानर की सवारी करता हुआ, पूर्व दिशा की ओर स्वयं को जाता देखे तो महीने भर के अन्दर मृत्युपाश में
बाँधा जाये । यहाँ ध्यान देने की बात है कि घोड़े की सवारी करते हुए दक्षिण दिशा
की यात्रा और वानर की सवारी करते हुए पूर्व दिशा की यात्रा अनिष्ट सूचक है ।
इसी
भाँति और भी अनेक लक्षण विविध पुराणों में कहे गए हैं । सद्बुद्धि वाले मनुष्य को
चाहिए कि ऐसे अशुभ लक्षणों के उदित होने पर
योग-साधना, धर्म-साधना का
अवलम्बन करे वा काशीवास करे ।
योग
साधकों को अपने नाभिचक्र के आसपास विशेष प्रकार की अनुभूति (हलचल) (संकेत) मिलने
लगते हैं। ध्यातव्य है कि संसार में आने से पहले, माता के गर्भ में इसी नाभिचक्र
में कमलनाल के माध्यम से माता के गर्भ से सम्पृक्त होता है प्राणि। शरीर से सभी
नाडियों का यहाँ सम्मिलन होता है। कई मामलों में ये चक्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण है
मनुष्य के लिए।
दुःस्वप्न
के निवारण के लिए शास्त्रों में विविध उपाय भी सुझाये गए हैं । यथा— जगने के बाद
नित्यकृत्य से निवृत्त होकर आदित्यहृदय स्तोत्र, दुर्गाकवच, नारायण कवच, शिवमहिम्नस्तोत्र, शिवपंचाक्षर मन्त्र, नवार्ण मन्त्र आदि, जो भी
साधित हो जिसका, उसका जप-पाठादि सम्पन्न करे- विधिवत संकल्प पूर्वक । कुछ ना कर
सके तो कम से कम निरन्तर भगवन्नाम चिन्तन तो कर ही सकता है । । हरिऊँतत्सत् ।।
हालाँकि
जीवन-मृत्यु-सिद्धान्त की विवेचना यहाँ मेरा अभीष्ट नहीं है, अतः सामान्य संकेत के
साथ अब मुख्य विषय की चर्चा करते हैं।
अन्त्येष्टि
शब्द में दो पद हैं—अन्त्य और इष्टि। अन्त्य यानि अन्तिम और इष्टि यानी यज्ञ। यह
भी एक प्रकार का यज्ञ है, इसी कारण इसे षोडशसंस्कारों में समाहित किया गया है। अन्त्यकर्म,
और्ध्वदैहिककर्म, पितृमेध, पिण्डपितृयज्ञ आदि अन्त्येष्टिकर्म के पर्याय हैं।
महर्षि
याज्ञवल्क्य कहते हैं — ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा वर्णास्त्वाद्यास्त्रयो
द्विजाः। निषेकाद्याः श्मशानान्तास्तेषां वै मन्त्रतः क्रियाः।। (१-२-१०) तथा महर्षि
मनु के वचन हैं— निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधिः। तस्यशास्त्रे-धिकारोऽस्मिन्ज्ञेयोनान्यस्यकस्यचित्।।
(२-१६)
(
दोनों ऋषियों के कथन का अभिप्राय है कि निषेक यानी आधान— गर्भाधान से लेकर
अन्त्येष्टि पर्यन्त सभी कर्म सभी वर्णों को विधिवत सम्पन्न करने चाहिए)। धर्मशास्त्रों
में इन कृत्यों (विधियों) को दो भागों में विभाजित किया गया है— मरणासन्न
अवस्था के कृत्य एवं देहत्याग के पश्चात् के कृत्य। यहाँ क्रमशः इन दोनों पर थोड़ी
चर्चा करते हैं।
क्रमशः,,,,,,,
मरणासन्न अवस्था के कृत्य / महायात्रा
की तैयारी—
तीर्थाटन, देशाटन, पर्यटन जैसी जीवन की
सामान्य यात्राओं के लिए हम महीनों से तैयारी में जुट जाते हैं—सामान्य पाथेय से
लेकर सुस्वादु भोजन, वस्त्र, आवास-प्रवास नानाविध सुख-सुविधाओं का यथासम्भव-यथोचित
प्रबन्ध जुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ते; किन्तु दुर्भाग्य
की बात है कि अज्ञान वा लापरवाही (बेसुधी) वस महायात्रा के लिए कुछ भी तैयारी नहीं
करते। वर्णोचित-वर्णाश्रमधर्म पालन, जप, तप, दान, यज्ञादि सत्कर्म करने का आजीवन
अवसर होता है, किन्तु सांसारिक मायिक जंजालग्रस्त रहने के कारण उसमें भी काफी चूक
हो जाती है। जितना होना चाहिए, हो नहीं हो पाता। मरणासन्न स्थिति में तो और भी कठिन
हो जाता है कुछ कर पाना। अपने कर्मानुसार मृत्यु से पूर्व सहज चेतना भी
विलुप्तप्रायः हो जाती है। स्वजन-परिजन भी आसन्न मृत्यु को सही ढंग से भाँप नहीं
पाते। या तो निश्चिन्त बैठे रह जाते या अस्पतालों का चक्कर लगाने लगते हैं। कुछ
नहीं तो रोने-धोने में गंवा देते हैं।
हमारे
शास्त्रों में मृत्यु की भी तैयारी बतलायी गई है। जिनका यथासम्भव पालन करना चाहिए।
ये तैयारियाँ भी दो प्रकार की हैं—विधिपरक और निषेधपरक—करने वाले कार्य और नहीं
करने वाले कार्य। गरुड़पुराण-प्रेतखण्ड, श्राद्धविवेक, अन्त्यकर्मपद्धति आदि
ग्रन्थों में इनकी विशद चर्चा है।
(क) करने
योग्य कार्य—
१.
श्रीमद्भगवद्गीता ८-१३
में कहा गया है—ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्
देहं स याति परमां गतिम्।। ऊँकार का उच्चारण देहत्याग के समय हो जाए तो परम गति की प्राप्ति सुनिश्चित है। किन्तु ये
इतना आसान नहीं है। जन्म-जन्मान्तरों के पुण्योदय के फलस्वरूप ही ऐसा हो सकता है। फिर
भी आत्मीयजनों का ये पावन कर्तव्य है कि महायात्रा के पथिक के मुख से यथासम्भव
भगवन्नामोच्चारण कराने का प्रयास करें। वाल्मीकीय रामायण सुन्दरकाण्ड में रामनाम
की महिमागायन क्रम में कहा गया है— प्राणप्रयाण समये यस्य नाम सकृतस्मरन्
नरस्तीत्वां भवाम्भोधिमपारं याति तत्पदम्।। अन्त समय में एक बार भी राम का नाम
निकल जाए मुख से तो अपार संसार-सागर से तरण हो जाता है। अतः स्वजनों को चाहिए कि
मरणासन्न व्यक्ति से नामोच्चारण कराने का प्रयास करें। बोलने की शक्ति न हो तो स्वयं
नामोच्चारण करें। महायात्री के समीप बैठ कर विष्णुसहस्रनाम, गजेन्द्रमोक्ष
इत्यादि स्तोत्रों का सस्वर पाठ करें।
२.
देहत्यागने से पहले यदि सम्भव हो तो समुचित
साधन से गंगा वा अन्य समीपवर्ती नदी तट पर ले जाएँ। प्रसंगवश यहाँ स्पष्ट कर दूँ
की शास्त्रों ने नदी के गर्भ, तीर और क्षेत्र को परिसीमित किया है। यथा—भाद्रपद
कृष्णचतुर्दशी तिथि को नदीं में जहाँ तक जल रहे, उसे गर्भ कहते हैं। उससे
डेढ़सौहाथ तक की भूमि को तीर कहते हैं एवं तीर से दो कोश यानि चार मील यानि छः
किलोमीटर तक की भूमि को नदी का क्षेत्र माना गया है।
३.
यदि घर में ही हों तो भी कम से कम घर के
आँगन (खुले आकाश की नीचे) गोबर से लीपी हुई भूमि पर कुश-तृण-कम्बल आदि के आसन पर
सुला दें। आसन पर तिल बिखेर दें। यथा—तिलान् गोमयलिप्तायां भूमौ तत्र निवेशयेत्।
हालाँकि आधुनिक जीवनशैली में ये सब भी
कठिन ही है। ज्यादातर घरों में आँगन है ही नहीं। मिट्टी भी गायब है। ऐसे में गंगाजल
का छिड़काव करके, जो भी उपलब्ध भूमि हो (कमरे में ही सही), वहीं सुला दें। यहाँ
उद्देश्य ये है कि शैय्या, पर्यंक और विस्तर का सर्वथा परित्याग हो जाना चाहिए
देहत्यागने से पूर्व।
४.
भूमि
के सम्बन्ध में भी ध्यान देने योग्य बात है कि आजकल बहुमन्जिले भवनों का एक अंश— निजी
फ्लैट भर का ही अधिकार होता है शहरी लोगों के पास। कटु सत्य है कि न तो उनके पास
अपनी भूमि है और न आकाश। अभाव और लाचारी में भले ही हम छत की सतह को भूमि मानलें, किन्तु
शास्त्रों ने इसे भूमि की श्रेणी में कदापि परिगणित नहीं किया है। भूमि भूमि है।
कमरे का छत ऊपरी मंजिल वाले के लिए विशुद्ध भूमि कदापि नहीं हो सकती विशेष
अवस्थाओं के लिए। अतः यदि सम्भव हो तो भवन परिसर में, खुले आकाश के नीचे, भूमि पर
मरणासन्न व्यक्ति को लेजाकर सुलावें, भले ही आधुनिक अज्ञानियों की भद्दी आलोचना का
शिकार क्यों न होना पड़े। हमारा लक्ष्य अपने प्रियजन का सर्वविध कल्याण है, न कि मूर्खतापूर्ण
सामाजिक आलोचना से बचने का मार्ग ढूढ़ना।
५.
शैय्या से हटाकर भूमि पर सुलाने से पूर्व
यथासम्भव पूर्ण स्नान या अर्द्धस्नान कराकर नूतन वा पवित्र वस्त्र धारण करा दें। ध्यान
रहे—वस्त्र अनसिले (धोती-चादर) हों तो अच्छा है। उक्त भूमि पर गोमूत्र, गोबर, कुशामिश्रित
जल, गंगाजल, अन्य तीर्थजल इत्यादि यथोपलब्ध सामग्री का प्रयोग करें, क्योंकि ये परम
कल्याणकारी हैं। यथा— आसन्नमरणं ज्ञात्वा पुरुषं स्नापयेत् ततः।
गोमूत्रगोमयसुमृतीर्थोदककुशोदकैः। वाससी परिधार्याथ धौते तु शुचिनी शुभे।
दुर्भाग्यादौ समास्तीर्य दक्षिणाग्रान्वीकीर्य च।। (गरुड़पुराण प्रे.खं.३२-८५,८६)
६.
उपवीती हो तो नूतन यज्ञोपवीत पहना दें।
मलयगिरीचन्दन, गोपीचन्दन या तुलसीपादपतल की मिट्टी पूरे शरीर पर लेप कर दें। यथा—तुलसीमृत्तिकाऽऽलिप्तो
यदि प्राणान् विमुञ्चति। याति विष्ण्वन्तिकं नित्यं यदि पापशतैर्युतः।। (गरुड़पुरण)
तथा मृतिकाले तु सम्प्राप्ते तुलसीतरुचन्दनम्। भवेच्च यस्य देहे तु
हरिर्भूत्वा हरिं व्रजेत्।। (पद्मपुराण)
७. घर
में शालग्राममूर्ति हो तो समीप में किसी ऊँचे आसन पर रख दें। अपने इष्टदेव की
मूर्ति भी रख सकते हैं।
८.
तुलसी मिश्रित शालग्रामशिला का जल वा
गंगाजल पिला दें।
९.
व्यक्ति के ललाट पर तुलसीदल रख दें।
१०. सिरहाने
घी का दीपक जला दे। यथा— शालग्रामशिला तत्र तुलसी च खगेश्वर। विधेया सन्निधौ
सर्पिर्दीपं प्रज्वालयेत् पुनः।। तथा शालग्रामशिलातोयं यः पिवेद्
बिन्दुमात्रकम्। स सर्वपापनिर्मुक्तो वैकुण्ठभुवनं व्रजेत्।। (गरुड़पुराण)
११. यथासम्भव
दश महादान, अष्ट महादान, पञ्चधेनुदान
इत्यादि करा देना चाहिए।
१२. मरणासन्न
व्यक्ति एकादशी, त्रयोदशी इत्यादि कोई व्रत यदि जीवन में करता हो, तो उसका समय पर
उद्यापन होना चाहिए। यदि न कर पाया हो, तो अनुकल्पस्वरूप सुवर्ण-रजतादि का दान करा
देना चाहिए।
१३. ध्यातव्य
है कि मृत्यु के बाद परिजनों द्वारा किए जाने वाले विविध दानों से सहस्र गुना अधिक
होशोहवाश में स्वयं से किया गया आसन्नमृत्युकालिकदान पुण्यदायी है। समयाभाववश
तत्सम्बन्धित वस्तुएँ उपलब्ध न भी हों, तो भी कम से कम तत्निमित्त निष्क्रय-द्रव्य
दान कर देना चाहिए।
१४. ध्यातव्य
है कि दान में प्रतिज्ञासंकल्प, दानग्रहीता का वरणसंकल्प, दान का मुख्य संकल्प एवं
दानप्रतिष्ठा सांगतासिद्धि संकल्प अवश्य करें। (विविध दान-विधान के लिए
अन्त्यकर्मपद्धति इत्यादि ग्रन्थों का सहयोग लें) अस्तु।
(ख) न करने योग्य
कार्य—
१.
प्रायः लोग मरणासन्न व्यक्ति के समीप जाकर
उसके साथ आत्मीयता जताते हुए पूछते हैं—आप क्या चाहते हैं...हमें पहचान रहे
हैं...किससे मिलना चाहते हैं...इत्यादि। सच कहें तो ये बहुत ही मूर्खतापूर्ण बातें
हैं। पुराणों के कथाप्रसंगों को नहीं जानने-सुनने वाले लोग ही ऐसी अज्ञनतापूर्ण
बातें करते हैं। महायात्रा की तैयारी में लगे प्राणी से आप ये सवाल कर-करके, अवांछित
सांसारिक जाल में घसीट रहे हैं।
२.
हालाँकि
आम जन के लिए ये बहुत ही कठिन कार्य है। धैर्य-परीक्षा की विकट घड़ी है; किन्तु शास्त्रों का स्पष्ट आदेश है कि आसन्न मृत्युकाल में अथवा मृत्यु
हो जाने के बाद, तत्क्षण कदापि रोये नहीं।
३.
तबतक न रोवे जबतक शवदाह न हो जाए। यथा—रोदितव्यं
ततो गाढमेवं तस्य सुखं भवेत्। (गरुड़पुराण,प्रेतखण्ड १५-५१)
शवदाह के पश्चात् कपालक्रिया (सिर फट जाने के बाद) ही लोगों को रोना चाहिए और खूब
रोना चाहिए उस समय। क्योंकि दिवंगत प्राणी को उस समय परिजनों के स्नेह-स्मरण की
भूख होती है। वह देखना चाहता है कि कौन कितना चाह रखता है उसके लिए। अतः
कपालक्रिया के पश्चात् प्रेमाश्रु का स्वाद अवश्य चखायें, उससे पूर्व कदापि नहीं।
४.
कपालक्रिया से पूर्व यदि परिजन रोते हैं, तो
उनके आँसू, नाक-मुंह के लाला रसादि का विवश होकर पान करना पड़ता है प्राणी को।
अपने कर्मानुसार उत्तम लोकों को सिधारता हुआ प्राणी भी विवश होकर, यमदूतों से
प्रेरित होकर, अपने सूक्ष्म शरीर से लौट आता है, अपने परिजनों का आँसू-कफ इत्यादि का
पान करने ।
५.
अतः कठोरता पूर्वक अपने आँसू रोके रखें, तबतक
रोके रखें, जबतक कपालक्रिया सम्पन्न न हो जाए। यथा—श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं
प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवशः। अतो न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याः स्वशक्तितः।। (याज्ञवल्क्यस्मृति,
प्रायश्चित्ताध्याय १-११ एवं गरुड़पुराण प्रेतखण्ड १५-५८)। वाल्मीकीय रामायण में
भी इन बातों की चर्चा है—शोचमानास्तु सस्नेहा बान्धवाः सुहृदस्तथा । पातयन्ति
गतं स्वर्गमश्रुपातेन राघव।।
६.
ध्यातव्य है कि घर में, यहाँ तक कि गांव-मुहल्ले
में भी जबतक मृतशरीर पड़ा हुआ हो, तबतक अन्नादि ग्रहण कदापि न करे। किन्तु वर्तमान
समय में तो घर-परिवार भी इस नियम की अवहेलना करते हैं। ऐसा करके आप मृतप्राणी को
अतिशय कष्ट दे रहे हैं और अपना भी अहित कर रहे हैं।
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