षोडशसंस्कार विमर्श का पचीसवां भाग- विवाहाङ्गभूत विविध कृत्य परिचय

 

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                    विवाहाङ्गभूत विविध कृत्य परिचय

                              

 विवाहमुहूर्त सम्बन्धी विस्तृत चर्चा के पश्चात् अब विवाहाङ्गभूत विविध कृत्यों की चर्चा अपेक्षित है।   

विवाहसंस्कार का प्रायोगिक कर्मकाण्ड पर्याप्त विस्तृत है। युगप्रभाव, मूल निवास स्थान से विलगाव, समुचित स्थानाभाव, भागमभाग का जीवन, अज्ञान, आलस्य व प्रमादवश संक्षिप्त कर्मकाण्ड से इस अत्यावश्यक संस्कार को सम्पन्न कर देना सर्वथा अनुचित, अशास्त्रीय व अव्यावहारिक है। अन्य संस्कारों की भाँति आंगिक क्रियाएं उन संस्कारों की तुलना में यहाँ काफी विस्तृत रूप से होती है। सांगोपांग वर-कन्यावरण, तिलकोत्सव, मृदाहरण (मटकोर), वंशरोपण, मण्डपाच्छादन, द्वारमातृका, षोडशमातृका, घृतमातृका, तृणमातृका, ग्रामदेवी, कुलदेवतादि का विशेष पूजन भी सम्पन्न करना अति आवश्यक है। पितरों के आशीष हेतु नान्दीमुख श्राद्ध इस संस्कार का अपरिहार्यकृत्य है। और सबके अन्त में चतुर्थीकर्म भी अवश्य करणीय है।

अब से पाँच दशक पूर्व तक ये समस्त कार्यक्रम  दस-पन्द्रह दिनों में सम्पन्न हुआ करते थे। किन्तु अब एक-दो दिन में जैसे-तैसे समेट लिया जाता है। यहाँ तक कि आलस्यवश लोग अति संक्षिप्त रूप से किसी तीर्थस्थल में जाकर भी विवाहसंस्कार सम्पन्न कर लेते हैं। वहाँ भी आवश्यक कर्मकाण्ड सही ढंग से  सम्पन्न नहीं होता।  

 

विवाह संस्कार के अन्तःकृत्य

 

१.                   वर-कन्यावरण— ज्योतिषीय, सामाजिक, पारिवारिक जाँच परख के पश्चात्  वर-कन्या वरण का विधान है। युगानुसार इसके स्वरूप में पर्याप्त परिवर्तन होता गया है। पहले छोटी जातियों में लड़की देखने की परम्परा थी, अब लड़की देखना-दिखाना आधुनिकता और बड़प्पन का निशानी बन गया है। देखने-दिखाना का तौर-तरीका भी अजीब है। कभी-कभी तो मानवता और अभद्रता का सीमोलंघन भी हो जाता है। सच पूछें तो जो (शील-स्वभाव) देखना चाहिए वो दिखता नहीं, अल्पकाल में देखना सम्भव भी नहीं। फिर लोग देखते

क्या हैं—समझ से परे है।

            पहले वरक्ष्या (वर-रक्षा—छेंका) के रूप में लड़की वाले लड़के के घर जाते थे। शुभ मुहूर्त में फल, मिष्टान्न, वस्त्र, द्रव्यादि भेंट कर ये सुनिश्चित कर लेते थे कि आगे विवाह अमुक समय में होगा। कुछ परिवारों में ऐसी परम्परा भी थी कि पुनः लड़के वाले भी यही काम करते थे। यानी लड़की के घर जाकर शुभ मुहूर्त में फल, मिष्टान्न, वस्त्र, द्रव्यादि भेंट करते थे।

             किन्तु अब स्वरूप बिलकुल बदल गया है। देखा-देखी एवं अन्यान्य बातों के सुनिश्चय के बाद एकत्ररूप से दोनों पक्ष उक्त क्रिया को सम्पन्न करते हैं, जिसे मुद्रिका का आदान-प्रदान (रिंगसेरेमनी) कहा जाता है।

            सच पूछें तो इसमें कोई अशास्त्रीयता नहीं है। समय और सुविधा की दृष्टि से उचित ही है, वशर्ते कि आडम्बरविहीन हो और चुँकि ये विवाहसंस्कार की प्रथम क्रिया है, इसलिए इसमें भी सामान्य रूप से स्वस्तिवाचन, गणेशाम्बिकापूजन, कलशस्थापन, नवग्रहादि पूजन तो होना ही चाहिए।  पुनः दोनों मुद्रिकाओं (अंगूठियों) की भी पूजा करनी चाहिए। ये सब कृत्य लड़का-लड़की दोनों को करना चाहिए। किन्तु ध्यान रहे— यहाँ दोनों आमने-सामने बैठें, न कि दायें-बायें, क्योंकि अभी विवाह हुआ नहीं है। कन्या न अभी वामांगी बनी है और न दक्षिणांगी ही है। लड़का पश्चिमाभिमुख रहना चाहिए और लड़की पूर्वाभिमुख।

 

२.                   तिलकोत्सव— वस्तुतः ये वरवरण की पुरानी आवश्यक परम्परा है। शुभ मुहूर्त में वर का पूजन एवं वरण किया जाता है। ये कार्य कन्या के भाई वा पिता द्वारा सम्पन्न होना चाहिए। आंगिककर्म—स्वस्तिवाचन, गणेशाम्बिकापूजन, कलशस्थापन, नवग्रहादि पूजन के पश्चात् वर का पंचोपचार पूजन करते हैं। तत्पश्चात् यथेष्ट सामग्रियाँ उपहार स्वरूप प्रदान करते हैं।

       तिलकोत्सव के पश्चात् वरपक्ष द्वारा वस्त्र, मिष्टान्नादि उपहार स्वरूप भेजे जाते हैं लड़की के लिए, जिसके साथ ही विवाह के अन्य  आंगिककर्म प्रारम्भ होते हैं। लौकिक शैली में इसे लगन उठाना कहते हैं, जो परम्परानुसार किंचित् क्रियाभेद से दोनों पक्षों में सम्पन्न होते हैं।

            वर्तमान समय में जबकि मुद्रिका परिवर्तन (रिंगसेरेमनी ) का फैशन चल ही पड़ा है, ऐसे में इसे मैं व्यर्थ का बोझ समझता हूँ। समय, श्रम और अर्थ की बरबादी है ये। इस कृत्य के वगैर भी विवाह संस्कार हो सकता है। या तिलकोत्सव करें या मुद्रिकाक्रिया। अतः इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए समाज को।

 

३.                   मृत्तिकाग्रहणमृदाहरण अथवा मटकोरविवाहसंस्कार गृहस्थजीवन का शुभारम्भ है। इस कारण जीवन के एक प्रधान यज्ञ की भाँति है। अतः शुभ समय में (पंचांगशुद्धि विचार पूर्वक) देव-पितरों के निमित्त शुद्ध मृत्तिकाग्रहण अत्यावश्यक है। पितरों के नामोच्चारण सहित आवाहन एवं मांगलिक गीत-वाद्यादि सहित बालक की माता अन्य सुवासिनियों सहित पवित्र स्थान से मात्र पंचोपचार पृथ्वीपूजन करके मिट्टी ले आती है। यहाँ सिर्फ पृथ्वीपूजन और खनन उपकरण (कुदाल, खुर्पी आदि) पूजन ही अनिवार्य है।   ऊँ पृथिव्यै नमः मन्त्र से पृथ्वी का पंचोपचार पूजन करना चाहिए। खनन उपकरण विश्वकर्मा के प्रतीक हैं, अतः इनकी पूजा  ऊँ विश्वकर्मणे नमः मन्त्र का उच्चारण करते हुए करें। ग्रहण की गई मिट्टी को नूतन वंशपात्र (टोकरी) में पवित्रता और आदरपूर्वक एकत्र कर, घर लाकर अपने कुलदेवता के स्थान में रख दिया जाता है। बाद में उसी मिट्टी से विवाह-यज्ञकार्यार्थ छोटा सा चूल्हा, वेदिका, पिण्डिकादि का निर्माण होता है, जिसे आगे मण्डप में कलशस्थापन के समय प्रयोग किया जाता है।

 

(नोट—ये कार्य लोक परम्परानुसार तिलकोत्सव के बाद और विवाह से पाँच वा आठ दिनों पूर्व होना चाहिए। किन्तु आजकल  समयाभाववश संक्षिप्त रूप से सारे कार्य निपटाए जा रहे हैं। अतः सुविधानुसार  इसका समय निश्चित कर लेना चाहिए। ध्यातव्य है कि ये विवाहयज्ञ का आवश्यक कृत्य है।)

 

४. कल्याणी विवाहसंस्कार का दूसरा कृत्य हैकल्याणी। तदन्तर्गत कुलदेवताघर के द्वार पर प्रवेश के समय अपने से दाहिने छोटा सा गर्तकर्म करते हैं, जिसमें पृथ्वीदेवी की पंचोपचार पूजन करके, हरे बाँस के पत्र सहित दो तन्तु स्थापित करते हैं, जिसे वंशरोपण (कल्याणी) क्रिया कहते हैं। इस क्रम में आंगिक क्रिया स्वस्तिवाचन, गौरीगणेश, कलश, नवग्रहादि पूजन किया जाता है।

 

५. मण्डपाच्छादन, मण्डप में कलशस्थापन, पूजनादि आगे सुविधानुसार उसी दिन या अगले दिन आँगन में अपनी कुल परम्परानुसार चार या आठ (चारों दिशाओं और कोणों में) हरे बाँस को स्थापित करके मण्डप निर्माण करते हैं। मण्डप के बीच में आकाश-पाताल के स्वामी ब्रह्मा और हलधर  को स्थापित-पूजित करते हैं। मध्य में गौरीगणेशादि पंचांग सहित कलशस्थापन-पूजन होता है। सम्पूर्ण ताजे बाँसों के शीर्ष भाग पर कुछ पत्तियाँ लगी हुयी होनी चाहिए। उन सभी बाँसों में शीर्षभाग पर मौली के सहारे आम्रपल्लव भी बाँध देना चाहिए तथा एक मजबूत रस्सी के छोर से दो बाँसों को जोड़ देना चाहिए। इन्हीं दोनों को बाकी बाँसों को दक्षिणावर्त क्रमशः गाड़ने के बाद चारों ओर घुमा देने से सभी बाँसो का ऊपरी छोर आपस में जुड़कर मन्दिरनुमा आकार बना लेता है। यह आवश्यक कार्य है।  

           किसी-किसी कुल में ऐसी भी परम्परा है कि मण्डपाच्छादन से लेकर आगे के कई कृत्य सिर्फ लड़की के घर में होता है, लड़के के घर में नहीं। अतः अपने कुलानुसार कार्य करना चाहिए।

मण्डप-निर्माण के पश्चात् विधिवत कलशस्थापनादि कर्म होते हैं। इस कार्य को पहले विवाहयज्ञकर्ता दम्पति (माता-पिता) द्वारा सम्पन्न किया जाता है। बाद में हरिद्रावन्दन के समय लड़की को भी संक्षिप्त विधान से पूजन करना चाहिए ।

६. मातृकादि पूजन मातृकापूजन के प्रारम्भ में ग्रामदेवी की पूजा का विधान है। ये कार्य वर/कन्या की माता द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। पिता की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है, किन्तु वर/कन्या की उपस्थिति अपेक्षित है। ग्रामदेवी पूजनोपरान्त आँगन में स्थापित मण्डप में पुनः पूजा होती है। इससे पूर्व सिर्फ मण्डप की स्थापना मात्र हुयी है। सर्वप्रथम मण्डप के मध्यस्थल पर मृतिकावेदी निर्माण कर गौरीगणेश को स्थापित-पूजित करते हैं, तत्पश्चात् क्रमशः कलशस्थापन सहित सूर्यादिनवग्रह, गणपत्यादि पञ्चलोकपाल, इन्द्रादि दशदिक्पाल, गौर्यादि षोडशमातृका, चतुःषष्ठीयोगिनीमातृका की पूजा करते हैं। यहीं यज्ञमण्डप में ही सप्तघृतमातृका एवं पञ्चतृणमातृका को भी स्थापित-पूजित किया जाता है। तत्पश्चात् षोडशमातृकाओं को पुनः कुलदेवताघर में जाकर स्थापित-पूजित करते हैं। अन्यान्य क्रम में षोडशमातृका पूजन की तुलना में यहाँ किंचित् विस्तार से पूजा की जाती है। कुलदेवताघर में प्रवेश से पूर्व द्वारदेश में (चौखट से दायें-बायें) द्वारमातृका को स्थापित-पूजित किया जाता है।   

 

७. पित्रादि आवाहनपूजनपितरों के आवाहन सहित शिला स्थापन-पूजन भी किया जाता है। इस क्रम में पितरों का मानसिक नामोच्चारण करते हुए वर/कन्या की माता धीरे-धीरे लोढ़िका चलाते हुए शील पर चावल पीसती है। फिर उसे एकत्रकर पीले कपड़े में लपेट कर वहीं, कलश के समीप रख देती है और शील-लोढ़िये  से दबा देती है। वस्तुतः ये यज्ञरक्षा का विधान है। लौकिक भाषा में इस क्रिया को सीलपोना (शिलापूजन) कहते हैं।  

 

८. नान्दीमुखश्राद्ध अन्य संस्कारों की तुलना में विवाह एक बड़ा संस्कार है। अतः इसमें आभ्युदयिक नान्दीमुखश्राद्ध अत्यावश्यक है। सुविधानुसार संक्षिप्त वा विस्तृत विधि से इसे सम्पन्न किया जाना चाहिए। इस श्राद्ध की एक और विशेषता है कि इसके बाद यदि घर-परिवार-गोत्रादि में किसी तरह का अशौच घटित हो जाए, तो भी यज्ञ बाधित नहीं होता। नान्दीमुखश्राद्ध तक की क्रिया पूर्वदिन सम्पन्न कर लेना सुविधाजनक है। अगले दिन विवाह के मुख्य कृत्य किए जायेंगे।

 

९. मुख्य विवाहदिवसीय कृत्य— नियत तिथि को लड़का पक्ष  वारात लेकर लड़की के यहाँ जाता है। विवाह के मुख्य कर्मकाण्ड से पूर्व कई तरह के लघुकृत्य हैं—द्वारपूजा, जनवासपूजा, वरपूजा,  वरपरीक्षण इत्यादि। अपनी लोकपरम्परानुसार इन कृत्यों को यथासम्भव सम्पन्न करना चाहिए।

आधुनिक समय में दोनों पक्ष एक ही भवन में एकत्र होकर वैवाहिककार्य सम्पन्न करते हैं। ऐसे में दोनों को अपने-अपने कर्म यथासम्भव अवश्य करने चाहिए।  वटपत्रछेदन, लावाभुँजना, धान्यछू (अष्टमंगल)-अठौघर, नहछू, वारात निकलने से पहले वर का माताओं द्वारा परिछन, ग्रामदेवी दर्शन इत्यादि कई कृत्य हैं।

 

१०. चतुर्थीकर्म(चौठारी)— वर्तमान समय में सभी कार्य आनन-फानन में एक-दो दिवसीय होते हैं। परिणामतः किसी तरह सिर्फ कोरम पूरे किए जाते हैं।  वस्तुतः चतुर्थीकर्म का  मूल भाव है कल्याणी कर्म के चौथे दिन विवाहयज्ञ का समापन कार्य। परम्परानुसार ये कार्य दोनों पक्षों में किंचित् क्रियाभेद से सम्पन्न होता है। लड़की विदा हो जाती है विवाह के बाद, जबकि उसकी अनुपस्थिति में पूर्व स्थापित देवों का विसर्जन, कलशजल से स्थान आदि का कार्य माता-पिता द्वारा सम्पन्न किया जाता है। वस्तुतः ये अवभृत्थस्नान है, जो किसी भी यज्ञ के अन्त में होना चाहिए। पुरानी परम्परा ये थी कि चतुर्थीकर्म करके आवाहित देवों का विसर्जन कर दिया जाता था, किन्तु रोपित कल्याणी एवं मण्डप का सिर्फ विसर्जन होता था, विस्थापित नहीं किया जाता। मध्य के स्तम्भ के स्थान पर वेदिका बना दी जाती है, जिसकी नित्य पूजा माता द्वारा अगले सवा महीने तक की जाती थी। 

क्रमशः............

                                  

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