षोडशसंस्कारविमर्श भाग उनतीसवाँ अन्त्येष्टि संस्कार प्रयोग

 

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                         अन्त्येष्टि संस्कार प्रयोग          

                                  

मृत्यु सुनिश्चित हो जाने के पश्चात् मृतप्राणी के कल्याणार्थ कार्यों में जुट जाना चाहिए। यथासम्भव यथाशीघ्र अन्त्येष्टिसंस्कार सम्पन्न होना चाहिए। पुत्र-परिवारादि आजकल सुदूर प्रवासी प्रायः हो गए हैं। उनकी प्रतीक्षा में अन्त्येष्टिक्रिया में काफी विलम्ब होजाता है, जोकि मृतप्राणी के लिए कष्टकर है। अतः मुख्य दाहकर्ता की उपस्थिति में दाहक्रिया यथासम्भव शीघ्र सम्पन्न कर लेना ही उचित है।  इस सम्बन्ध में समाज में जाने-अनजाने अनेक कुरीतियाँ प्रचलित हैं। काशी, प्रयाग आदि तीर्थस्थानों में ले जाकर लोग शवदाह करते हैं। तीर्थस्थान पर पहुँचकर मनमाने ढंग से निशीथकाल में भी शवदाह कर देते हैं। अन्य शास्त्रीय नियमों की भी घोर अवहेलना होती है। अस्थिसंचयादि कर्म भी सम्पन्न नहीं हो पाते हैं। परिजनों को भी जल्दबाजी रहती है और घटहापंडित को तो दूसरे यजमान को निपटाने की फिक्र होती है।  

इस सम्बन्ध में स्पष्ट कर दूँ कि काशी इत्यादि तीर्थस्थलों में प्राण त्यागने का महत्व है, न कि शवदाह का। दूसरी बात ध्यान देने की है कि काशी तक पहुँचने में मार्ग में जिन-जिन नदियों का उलंघन होता है, उनका भी पापभाजन बनना पड़ता है। शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है कि काशी आदि तीर्थस्थलों में जाकर यदि अस्थिविसर्जन करने की इच्छा हो तो समीपवर्ती नदी से दूर हटकर शवदाह करे, न कि नदीतट पर। ऐसे में स्थानीय (समीपवर्ती) नदी का वहिष्कार करके, शव को सुदूर काशी लेजाना कहाँ तक उचित है—सोचने वाली बात है।  अतः उचित है कि अपने वासस्थान के शवदाहस्थल—समीप के नदीतट पर ही विधिवत, शान्तिपूर्वक अन्त्येष्टिकर्म सम्पन्न करे। धर्म  के नाम पर अधर्म के मार्ग का अनुशरण कदापि न करें। अन्त्येष्टिसंस्कार को भी पिननिक न बनावें और न शवयात्रा को उत्सव।

पाश्चात्य सांयन्सवादियों की मानसिक विकृति का परिणाम है कि आजकल विद्युतशवदाहगृह का प्रचलन हो गया है। ये हमारी भारतीय संस्कृति और परम्परा पर कुठाराघात है। अतः इसका सर्वथा वहिष्कार होना चाहिए। शवदाह विधिवत काष्ठसंचयन करके ही होना चाहिए।

शवदाह में विचारणीय काल—

 

(क) रात्रि के दूसरे और तीसरे प्रहर में शवदाह सर्वथा निषिद्ध है।

(ख) पंचकविचार— धनिष्ठा का उत्तरार्द्ध, शतभिष, पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र और रेवती— इन पाँच नक्षत्रों में पाँच कर्म वर्जित हैं। यथा—शवदाह, दक्षिणदिशा की यात्रा, ईंधन हेतु काष्ठ संचय, शैय्यानिर्माण और गृहछादन। हालाँकि अज्ञानवश लोग पंचक में अन्य कार्यों का भी निषेध करने लगते हैं, तो कुछ लोग शवदाह जैसी निषेध की भी अवज्ञा कर जाते हैं। इस सम्बन्ध में धर्मसिन्धु एवं निर्णयसिन्धु संग्रह ग्रन्थों में स्पष्ट निर्देश है कि—

1) मृत्यु  पंचक के पूर्व हो गयी हो और दाहसंस्कार पंचक में करना पड़े तो पुत्तलदाहविधान का प्रयोग करके, दाह सम्पन्न करे। विशेष शान्तिकर्म करने की आवश्यकता नहीं है। एवं

 2) मृत्यु पंचक में हुयी हो, किन्तु दाह पंचक समाप्ति होने पर हो रहा हो, तो पंचकशान्तिविधान करना चाहिए। पुत्तलदाहविधान की आवश्यकता नहीं है।

3)यदि मृत्यु पंचक में हो और दाह भी पंचक में हो तो पहले पुत्तलदाहविधान और  फिर पंचकशान्ति विधान, यानी दोनों प्रकार की  क्रियाएं करनी चाहिए। ध्यातव्य है कि पंचकशान्ति इसलिए भी अत्यावश्यक हो जाता है, क्योंकि इसका दुष्प्रभाव परिवार के अन्य लोगों पर भी पड़ने की आशंका रहती है।

4) पुत्तलदाह कर्म तो शवदाह का अंग है, किन्तु पंचक शान्ति सूतकान्त का विषय है, यानी बारहवें वा तेरहवें दिन होना चाहिए। पंचकशान्तिप्रयोग एक विस्तृत विधान है। इसके लिए अन्यकर्मपद्धति, श्राद्धविवेक आदि विशेष ग्रन्थों का अवलोकन करें।

शवदाह सामग्री—

१.       शवयात्रा हेतु हरे बाँस के टुकड़े— ११ फीट के दो एवं ढाई फीट के सात।

२.       अर्थी पर विछाने के लिए कुशासन वा कम्बल।

३.       मारकीन २० मीटर ( अर्थी पर विछाने के लिए एवं दाहकर्ता को पहनने के लिए दो जोड़ी—लंगोट, कमरकस एवं उत्तरीय सहित)

४.      शव को ऊपर से ढकने के लिए पीताम्बर इत्यादि।

५.      शव को पहनाने के लिए यथायोग्य धोती,साड़ी इत्यादि।

६.      स्त्री हो तो श्रृंगारसामग्री भी

७.       शव को बांधने हेतु मूँज या सन की रस्सी तथा मौली।

८.      अर्थी सजाने हेतु पुष्प,माला इत्यादि

९.      देवदारधूप, धूना और घी पर्याप्त मात्रा में

१०.   अरवा चावल, जौ का आटा, गोघृत पिण्ड हेतु,

११.    रूईबत्ती, कपूर, माचिस,

१२.    दही, गुड़, मधु, पंचमेवा, तिल, कुश, यज्ञोपवीत,

१३.   मिट्टी का दीया, प्याला, घड़ा, मटका इत्यादि

१४.   पिण्डासन हेतु दस-बारह पलाश का पत्ता

१५.   चन्दन की लकड़ी- यथासम्भव

१६.   चितासजाने हेतु सूखी मोटी लकड़ियाँ—तीन से पाँच क्विंटल

१७.  पीपल, बेल, तुलसी आदि की पवित्र समिधाएँ

१८.   चिताभूमि जैविक शान्ति हेतु दूध एक लीटर

१९.   दाहकर्ता हेतु बाँस का दण्ड एवं जलपात्र

२०.   लोकाचारानुसार अन्य सामग्री.....

उक्त सामग्रियों की समुचित व्यवस्था करके शवसंस्कार, दाहकर्तासंस्कार आदि क्रियाएं सम्पन्न करे।  

 

दाहकर्ता सम्बन्धी ज्ञातव्य बातें— अपने कुलाचार के अनुसार दाहकर्ता सर्वप्रथम विधिवत मुण्डन करावे। ध्यातव्य है कि पिता यदि जीवित हो तो मूँछ न मुड़ावे। माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-बन्धु गोत्र, परिजन किसी का भी दाह करने का अधिकार है। जिसका कोई गोत्र-परिजन न हो तो ग्राम पुरोहित, मुखिया, राजा आदि का कर्त्तव्य है कि वैसे मृतक का दाहादि संस्कार सम्पन्न करे। लौकिक परम्परानुसार पति द्वारा पत्नी का दाहसंस्कार उत्तम माना जाता है, किन्तु ये शास्त्रसम्मत नहीं है। पति को पत्नी का दाहसंस्कार कदापि नहीं करना चाहिए, जबकि लौकिक भ्रामक प्रचलन के ठीक विपरीत पत्नी को सर्वप्रथम अधिकार है पति का दाहकर्म करने का। इसी भाँति पिता पुत्र का दाहसंस्कार न करे। बड़ा भाई छोटे भाई का दाहसंस्कार न करे।

इस सम्बन्ध में हेमाद्रि, श्राद्धकल्पलता, मार्कण्डेपुराण, विष्णुपुराणादि में ऋषि निर्देश हैं—पितुः पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया। पुत्राभावे तु पत्नीस्यात् पत्न्यभावे तु सोदरः।। सर्वाऽभावे तु नृपतिः कारयेत् तस्य रिक्थतः। तज्जातीयेन वै सम्यग् दाहाद्याः सकलाः क्रियाः।। सर्वेषामेव वर्णानां बान्धवो नृपतिर्यतः.....। स्मृतिसंग्रह एवं श्राद्धकल्पलता में श्राद्धाधिकारियों का क्रम स्पष्ट किया गया है— पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र, पत्नी, भाई, भतीजा, पिता, माता, पुत्रवधू, बहन, भानजा, सपिण्ड और सोदकादि पूर्वोत्तर क्रमसे श्राद्धाधिकारी हैं।

प्रसंगवश स्पष्ट कर दूँ कि स्वयं से सातपीढ़ी तक को सपिण्ड एवं आठ से चौदहपीढ़ी पर्यन्त को सोदक कहते हैं। आगे पन्द्रह से इक्कीशवीं पीढ़ी तक को सगोत्र कहा जाता है। यथा— मूलपुरुषमारम्भ सप्तमपर्यन्तं सपिण्डाः, अष्टममारम्भ चतुर्दश पुरुषपर्यन्तं सोदकाः, पञ्चदशमारम्भ एकविंशतिपर्यन्तं सगोत्राः। पित्रादयस्त्रयश्र्चैव तथा तत्पूर्वजास्त्रयः।।  तथाच सप्तमः स्यात्स्वयं चैव तत्सापिण्ड्यं बुधैः स्मृतम्। सापिण्ड्यं सोदकं चैव सगोत्रं तच्च वै क्रमात् ।। एकैकं सप्तकं चैकं सापिण्ड्यकमुदाहृतम्।। (लघ्वाश्वलायनस्मृति २०। ८२-८४)

 

दाहकर्ता दक्षिणाभिमुख आसन पर बैठकर क्षौरकर्मार्थ जलादि लेकर संकल्प करे— ऊँ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः नमः परमात्मने पुरुषोत्तमाय ऊँ तत्सत् अद्यैतस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोह्निद्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवश्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे...क्षेत्रे (यदि काशी में हो तो—अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे विकण्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या गङ्गाया वामभागे)....संवत्सरे ...अयने..ऋतौ... मासे...पक्षे..तिथौ...वासरे.. गोत्रः...शर्मा...गोत्रस्य (गोत्रायाः)... प्रेतस्य(प्रेतायाः) और्ध्वदैहिक संस्कार-योग्यतासम्पादनार्थं क्षौरपूर्वकं स्नानकर्मं करिष्ये।  

क्षौरोपरान्त स्नान करके लाए गए मारकीन से कौपीन, लंगोट, कटिबन्ध आदि खण्ड करके, धारण करे। नूतन यज्ञोपवीत भी धारण कर ले। किन्तु ध्यान रहे यहाँ हल्दी नहीं लगाना है यज्ञोपवीत में। इसी भाँति दशगात्रपिण्डोपरान्त क्षौरकर्म करके यज्ञोपवीत बदलते समय हल्दी का प्रयोग नहीं किया जाता।

            इस बीच अन्य परिजन शव को भी विधिवत स्नान कराकर, शरीर में घृत, गोपीचन्दनादि लेपन कर दें। अनुकूल नूतन वस्त्र धारण कराकर, शवको कपूर, अगर, चन्दन, कस्तूरी, पुष्पादि से अलंकृत कर दें। यथाशक्ति मुख, दोनों आँखों, दोनों नासिकाछिद्रों, दोनों कानों आदि में स्वर्ण-रजतादि डाल दें। यज्ञोपवीती हो तो नूतन यज्ञोपवीत धारण करा दे। मृतका सौभाग्यवती स्त्री  हो तो उसे सौभाग्यसामग्रियों से भी अवश्य अलंकृत करें। लोकाचार है कि स्त्रीके विवाहकालिक सिन्दूरदानी से सिन्दूर लेकर पति उसकी माँग भरे। उक्त शवालंकार के सम्बन्ध में निर्णयसिन्धु के वचन हैं— घृतेनाऽभ्यक्तमाप्लाव्य शुद्धवस्त्रोपवीतिनम्। चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं सुमनोभिर्विभूषयेत्।। हिरण्यशकलान्यस्य क्षिप्त्वा छिद्रेषु सप्तसु। मुखेष्वथाभिधायैनं निर्हरेयुः सुतादयः।।

            इस प्रकार अलंकृत शव को मजबूती से बाँधे गए हरे ताजे बाँस की ठटरी (अर्थी) पर समुचित कुश-कम्बलादि आसन देकर, आँगन या घर के खुले भाग में उत्तराभिमुख सुला दे। शव को सिर से पैर तक पूरी तरह ढक दे, किन्तु तलवे खुले रहें।

            अब भगवन्नाम उद्घोष के साथ अर्थी को कंधे पर सादर रखकर शवयात्रा प्रारम्भ करें। इस उद्घोष का सामाजिक अर्थ और प्रयोजन भी है—मार्ग में अन्य यात्रियों को सावधान करना भी है। उनके स्पर्श से स्वयं को बचाना भी है और उन्हें भी स्पर्श न होने देना है। इस स्पर्श-विज्ञान की विशद विवेचना है, जो अभी यहाँ मेरा अभीष्ट नहीं है। शवयात्रा जीवन की महायात्रा है। इसे अतिशय सम्मान पूर्वक सम्पन्न होना चाहिए, किन्तु ध्यान रहे आडम्बर पूर्वक नहीं। शंखनाद, घंटावादन, शोकधुनवादन आदि यथासम्भव उचित है। किन्तु शवयात्रा शोकाकुल शान्तिपूर्वक हो तो अधिक महत्वपूर्ण है।  मार्गीय कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए ये आवश्यक नहीं है कि शवयात्रा में साथ चलने वाले सभी लोग खाली पैर रहें, किन्तु जिनके कंघे पर शव है, उन्हें अनिवार्य (अपरिहार्य) रूप से खाली पैर रहना चाहिए। इसका यौगिक, तान्त्रिक और वैज्ञानिक कारण है। इस नियम का पालन न करने से शव ढोने वाले को शारीरिक-मानसिक परेशानी हो सकती है। उन्हें तन्त्रिकातन्त्र (नर्वससिस्टम) की समस्या उत्पन्न हो सकती है।

           

ध्यातव्य है कि गैरगोत्री, रजस्वला स्त्री आदि के स्पर्श से शव की यत्नपूर्वक रक्षा करे। अनजाने में स्पर्श हो जाने पर इसके लिए प्राश्यचित्त का विधान है।  

            (आधुनिक सामाजिक स्थिति की विडम्बना है कि स्पर्शदोष का ये विचार ही लुप्त हो गया है। परिवार-परिजन की कौन कहें, दाह से पूर्व सैकड़ों अवांछित स्पर्श झेलने पड़ते हैं शव को। अतः विवेकी पुरुष को चाहिए कि शवस्नान एवं अलंकरण के पश्चात् अवांछित स्पर्श कदापि न होने दे।)

            प्रसंगवश यहाँ एक अत्यावश्यक निर्देश देना आवश्यक प्रतीत हो रहा है कि सतयुगी राजा हरिश्चन्द्र का पौराणिक उदाहरण देते हुए लोकाचार बन गया है डोम के हाथों से चिताभूमि में अग्नि ग्रहण करने का। ये सर्वथा अनुचित और अशास्त्रीय रीति है। ध्यातव्य है कि वहाँ साक्षात् धर्मराज ही डोम का स्वरूप धारण किए हुए थे सत्यव्रती राजा की परीक्षा हेतु। अतः सामाजिक परम्परा का आंशिक निर्वहण करते हुए हमें चाहिए कि घटहा सेवक की अवहेलना न करे। उसे समुचित द्रव्यादि प्रदान कर संतुष्ट कर दे और चितादाह हेतु स्वयं अग्नि प्रज्ज्वलित करे। निर्णयसिन्धु में स्पष्ट वचन हैं— चाण्डालाग्निरमेद्याग्निः सूतिकाग्निश्च कर्हिचित् । पतिताग्निश्चिताग्निश्च शिष्टग्रगणोचितः।।  

 

            अब अर्थी की दाहिनी ओर दक्षिणाभिमुख, अपसव्य (जनेऊ दाहिने कंधे पर) होकर बैठ जाए और पत्रावली में लोकाचारानुसार जौ का आटा या चावल, तिल, दही, मधु, गोघृत आदि का मिश्रण कर छः कुकुटाण्डप्रमाण पिण्ड निर्माण करे । आगे यथास्थान इन सभी पिण्डों का उपयोग करना है। इन छः पिण्डों के अलग-अलग नाम हैं। यथा—मृत्युस्थान में शव नामक पिण्ड, द्वारदेश में पान्थ नामक पिण्ड, मार्ग में चौराहे पर खेचर नामक पिण्ड, मार्ग में विश्रामस्थल पर भूत नामक पिण्ड, चिताभूमि पर साधक नामक पिण्ड तथा अस्थिसंचय निमित्तक छठा पिण्ड प्रदान करना चाहिए। इन छः पिण्डों का अपने-अपने स्थान पर महत्त्व है। यथा— (1)मृतस्थान में पिण्ड देने से भूम्यादिष्ठातृदेवता संतुष्ट होते हैं। (2)  द्वारदेश में पिण्डदान से गृहवास्त्वधिष्ठातृदेवता प्रसन्न होते हैं। (3) चौराहे पर पिण्डदान से शव सम्बन्धी कोई उपद्रव नहीं होता। (4) विश्रामस्थल पर पिण्डदान से और (5) चिताभूमि में पिण्डदान से राक्षस, पिशाच आदि हवनीय देह को अपवित्र नहीं करते। तथा (6) अस्थिसंचय जनित पिण्डदान से दाहजनित पीड़ा का शमन होता है और प्राणी को तुष्टि मिलती है। अतः सभी पिण्डविधान सम्यक् रूप से सम्पन्न करना चाहिए।

 लुप्त होती जा रही परम्पराओं के क्रम में एवं व्यावहारिक सुविधा-असुविधा को ध्यान में रखते हुए प्रायः ये छः पिण्ड एकत्र रूप से चिताभूमि में ही प्रदान कर दिए जाते हैं। किन्तु ध्यान रहे संक्षेपण और सुविधा का ये अर्थ नहीं कि मूल को ही नष्ट कर दिया जाए। मृतस्थान में और द्वारदेश में तो विधिवत पिण्डदान कर ही सकते हैं। पुनः चिताभूमि में आकर शेष चार पिण्ड की विधि सम्पन्न करना उचित है। यदि सभी पिण्ड एकत्र भी कर रहे हैं, तो उन्हें एकतन्त्र से न करके, बारी-बारी से पूरे विधान से करना श्रेयस्कर है।

(नोट— (क) चितापिण्डप्रभृतितः प्रेतत्वमुपजायते ...तदादि तत्र तत्रापि प्रेतनाम्ना प्रदीयते।। (गरुड़पुराण १५।३७-३८) के अनुसार चितापिण्ड प्रदानोपरान्त ही संकल्पवाक्य में मृतप्राणी के लिए प्रेत संज्ञा होती है, किन्तु सूत्रशाटकन्याय से भावी प्रेतत्व का आरोप करते हुए संकल्पवाक्य में प्रारम्भ से ही प्रेत शब्द का प्रयोग करने का चलन है। इन सब बातों की विस्तृत चर्चा गरुड़पुराण के प्रेतखण्ड में है। जिज्ञासुओं को मूल ग्रन्थ का अवलोकन अवश्य करना चाहिए। यहाँ संक्षिप्त चर्चा मात्र की जा रही है।

ख)  श्राद्धप्रयोग क्रम में दाहदिवसीय छःपिण्डों के साथ-साथ आगे दशगात्र दिवसीय दस पिण्ड यानी कुल सोलह पिण्डों को मलिनषोडशी क्रिया कहते हैं। इसके बाद मध्यषोडशी एवं उसके बाद उत्तमषोडशी—कुल तीन क्रमों में श्राद्ध की क्रिया सम्पन्न होती है। नारायणबली, पंचकशान्ति आदि आपातकालीन विशेष श्राद्धीय कर्म इनसे बिलकुल भिन्न क्रियाएं हैं। )  

 

दाहदिवसीय छःपिण्ड विधान—  ध्यातव्य है कि ये सभी क्रियाएँ अपसव्य यानी दाहिने कंधे पर जनेऊ और गमछा रखते हुए, दक्षिणाभिमुख पितृमुद्रा में बैठकर ही होना चाहिए। संकल्प का जल, पिण्डादि पितृतीर्थ (तर्जनी और अंगूठे के मध्यभाग से) ही प्रदान करना चाहिए। दाहकर्ता अपने बायें हाथ की अनामिका अंगुली में तीन कुशाओं की एवं दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली में दो कुशाओं की पवित्री (अंगूठीनुमा) धारण अवश्य करे। ध्यातव्य है अन्यान्य शुभकार्यों में अनामिका में सोने की अंगूठी (अभाव में दूर्वा) से काम चल जाता है, किन्तु श्राद्धीय कार्य (प्रेत-पितृकार्य) में कुशा का कोई विकल्प नहीं हो सकता।  पुनः संकल्प जलतिलादि के साथ अतिरिक्त कुशतन्तु भी रखना है और  सामने पलाशपत्र पर कुशाधार पर ही पिण्डादि कार्य सम्पन्न होने चाहिए—इस नियम के लिए भी सावधान रहे। प्रदत्त पिण्डों को बाद में उठाकर यथास्थान रखना चाहिए। इन छः पिण्डों की मूल क्रियाविधि एक समान ही है, सिर्फ संकल्पवाक्य में अलग-अलग पिण्डों के नामोच्चारण का भेद है। विधिक्रम इस प्रकार है— प्रतिज्ञासंकल्प > अवनेजन > पिण्डदानसंकल्प > प्रत्यवनेजन > प्रार्थना।

 

(१)शवनामकपिण्ड—प्रतिज्ञासंकल्प—त्रिकुश, तिल, जल, श्वेत पुष्पादि लेकर संकल्प करे— ऊँ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः नमः परमात्मने पुरुषोत्तमाय ऊँ तत्सत् अद्यैतस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोह्निद्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवश्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे...क्षेत्रे (यदि काशी में हो तो—अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे विकण्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या गङ्गाया वामभागे)....संवत्सरे ...अयने ..ऋतौ ...मासे... पक्षे ..तिथौ... वासरे.. गोत्रः... शर्मा... गोत्रस्य (गोत्रायाः)...प्रेतस्य प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वक शास्त्रोक्त फलप्राप्त्यर्थ भूम्यादिदेवतातुष्ट्यर्थं च मृतिस्थाने शवनामकं पिण्डदानं करिष्ये। संकल्पवाक्य बोलकर, पितृतीर्थ (तर्जनी और अंगूठे के मध्यभाग से) जल भूमि पर गिरा दे और आसपास की भूमि पर जल का छिड़काव भी कर दे।

पुनः त्रिकुश, जल, तिल, श्वेतपुष्पादि अवनेजनपात्र (पुटक) में लेकर संकल्प बोले। (अब बार-बार समूचा संकल्प वाक्य न बोलकर संक्षिप्त रीति से भी काम चल सकता है।)

 ऊँ अद्य...गोत्र (स्त्री के लिए गोत्रे)...प्रेत (स्त्री के लिए प्रेते) मृतिस्थाने शवनामकपिण्डस्थाने अत्रावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम्। अवनेजन जल भूमि पर गिराकर, संकल्प वाला त्रिकुश भी वहीं छोड़ दे।

पुनः पूर्व में बनाकर रखे गए पिण्ड के साथ त्रिकुश, जल, तिल, श्वेतपुष्पादि लेकर संकल्प बोले— ऊँ अद्य...गोत्र (स्त्री के लिए गोत्रे)...प्रेत (स्त्री के लिए प्रेते) मृतिस्थाने शवनामक एष पिण्डस्ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम्।

आम्रपत्र से बने दोनियें (पुटक) में त्रिकुश, तिल, पुष्प, जलादि लेकर पुनः संकल्प बोले—ऊँ अद्य...गोत्र (स्त्री के लिए गोत्रे)...प्रेत (स्त्री के लिए प्रेते) मृतिस्थान शवनामक पिण्डोपरि अत्र प्रत्यवनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम्। संकल्प वाक्य बोलकर त्रिकुशजलादि को दिए गए पिण्ड पर छोड़ दे एवं कुश सहित पिण्ड को उठाकर शव के समीप रख दे।

तदनन्तर सव्य होकर (जनेऊ और गमछा को पूर्ववत बाएँ कंधे पर लाकर) पूर्वाभिमुख होकर प्रार्थना करे— अनादिनिधनो देवः शंखचक्रगदाधरः। अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

 

ध्यातव्य है कि ये प्रार्थना बहुत ही महत्वपूर्ण है। दाहकर्ता को चाहिए कि यथासम्भव निरन्तर इस प्रार्थना का मानसिक उच्चारण श्राद्धपर्यन्त करता रहे । इससे जाने-अनजाने की गयी गलतियों का शमन और मार्जन होकर, प्रेत के और्ध्वदैहिकक्रिया में यथेष्ट सहयोग मिलता है।  

इस प्रकार मृतकस्थान पर ये पहला पिण्डदानक्रिया सम्पन्न हुआ। इसी भाँति आगे की क्रियाएँ भी करनी है। मूल क्रियाविधि यही रहेगी, स्थानानुसार संकल्पवाक्य में पिण्डनामभेद होते जायेगा।

 

(२) पान्थनामक दूसरा पिण्ड— पुनः अपसव्य, दक्षिणाभिमुख बैठकर, त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य ...गोत्र (गोत्रायाः)...प्रेतस्य(प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्ति पूर्वकशास्त्रोक्त फलप्राप्त्यर्थं गृहवास्त्वधिदेवतातुष्ट्यर्थं निर्गमद्वारे पान्थनामकं पिण्डदानं करिष्ये।

संकल्पजलादि भूमि पर छोड़ कर, पुनः त्रिकुशजलादि अवनेजनपात्र (पुटक) में लेकर अवनेजन संकल्प करे— ऊँ अद्य ...गोत्र (गोत्रायाः)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्ति पूर्वक शास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं गृहवास्त्वधिदेवतातुष्ट्यर्थं निर्गमद्वारे पान्थनामक पिण्डस्थाने अत्रावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम्।

संकल्पजलादि भूमि पर छोड़कर दक्षिणाग्र तीन कुशा विछा दे। तदुपरान्त पुनः त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि लेकर पिण्डदानार्थ संकल्प करे— ऊँ अद्य ...गोत्र (गोत्रायाः)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्ति पूर्वक शास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं गृहवास्त्वधिदेवता तुष्ट्यर्थं निर्गमद्वारे पान्थनामक एष पिण्डस्ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम्। बोलकर दूसरा पिण्ड प्रदान करे।

पुनः त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि पूर्व में रखे गए अवनेजनपात्र (पुटक) में लेकर प्रत्यनेजन संकल्प करे— ऊँ अद्य ...गोत्र (गोत्रायाः)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्ति पूर्वक शास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं गृहवास्त्वधिदेवता तुष्ट्यर्थं निर्गमद्वारे पान्थनामक पिण्डोपरि अत्र प्रत्यवनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम्। बोलते हुए प्रत्यनेजनजल छोड़ दे। तथा पिण्ड को उठाकर शव के समीप रख दे।

अब पूर्वाभिमुख अपसव्य होकर भगवान की प्रार्थना करे पूर्व निर्दिष्ट श्लोक का उच्चारण करते हुए— अनादिनिधनो देवः शंखचक्रगदाधरः। अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

 

(३) खेचर नामक तीसरा पिण्ड— पुनः अपसव्य, दक्षिणाभिमुख बैठकर, त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य ...गोत्र (गोत्रायाः)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्ति पूर्वक शास्त्रोक्तफलप्राप्त्यर्थं उपघातकभूतापसारणार्थं चतुष्पथे  खेचरनामकं पिण्डदानं करिष्ये।

संकल्प जल भूमि पर छोड़कर पुनः तिल, कुश, पुष्प, जलादि अवनेजनपात्र (पुटक) में लेकर अवनेजन मन्त्र बोलें— ऊँ अद्य... गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत (प्रेते) चतुष्पथे खेचरनामकपिण्डस्थाने अत्रावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्। प्रोक्षित भूमि पर तीन कुशा दक्षिणाग्र बिछा दे।

अब, पुनः त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि सहित पिण्ड को लेकर संकल्प वाक्य बोलकर पितृतीर्थ (तर्जनी-अंगूठे के मध्यभाग) से कुशा पर छोड़ दे— ऊँ अद्य... गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत(प्रेते) चतुष्पथे खेचरनामक एष पिण्डस्ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्।

पुनः पूर्व में रखे गए अवनेजनपुटक में कुश, तिल, पुष्प, जलादि लेकर प्रत्यवनेजन मन्त्र बोले— ऊँ अद्य... गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत (प्रेते) चतुष्पथे खेचरनामकपिण्डोपरि अत्र प्रत्यवनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्। बोलते हुए प्रत्यनेजनजल छोड़ दे। तथा पिण्ड को उठाकर शव के समीप रख दे।

एवं पूर्वाभिमुख सव्य होकर भगवान की प्रार्थना करे पूर्व निर्दिष्ट श्लोक का उच्चारण करते हुए— अनादिनिधनो देवः शंखचक्रगदाधरः। अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

 

(४) भूत नामक चौथा पिण्डदान—ध्यातव्य है कि ये विश्रामस्थल है। यहाँ शव को कंधे से उतार कर नीचे रखकर आगे की क्रियाएं करनी है। यदि सभी पिण्ड एकत्र रूप से चिताभूमि पर ही करना हो तो मार्ग में सिर्फ विश्राम करके, कंघा बदल कर, आगे की शवयात्रा करेंगे।

श्मशानभूमि की दूरी के अनुसार एकाधिक बार भी विश्राम करने में कोई निषेध नहीं है। ध्यान रहे कि विश्राम गन्दे स्थान पर न हो एवं शव को एकान्त न छोड़े, यानी परिजन आसपास ही उपस्थित रहें।

 पुनः अपसव्य, दक्षिणाभिमुख बैठकर, त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य ...गोत्र (गोत्रायाः)...प्रेतस्य (प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वकशास्त्रोक्तफल प्राप्त्यर्थं देहस्याहवनीययोग्यता भाव सम्पादक यक्षराक्षसपिशाचादि तुष्ट्यर्थं विश्रामस्थाने भूत नामकं पिण्डदानं करिष्ये।

उक्त संकल्प जल भूमि पर छोड़कर पुनः तिल, कुश, पुष्प, जलादि अवनेजनपात्र (पुटक) में लेकर अवनेजन मन्त्र बोलें— ऊँ अद्य...गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत (प्रेते) विश्रामस्थाने भूतनामक पिण्डस्थाने अत्रावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्। प्रोक्षित भूमि पर तीन कुशा दक्षिणाग्र बिछा दे।  

अब, पुनः त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि सहित पिण्ड को लेकर संकल्प वाक्य बोलकर पितृतीर्थ (तर्जनी-अंगूठे के मध्यभाग) से कुशा पर छोड़ दे—  ऊँअद्य...गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत(प्रेते)देहस्याहवनीययोग्यताभावसम्पादक यक्ष- राक्षसपिशाचादि तुष्ट्यर्थं विश्रामस्थाने भूतनामक एष पिण्डस्ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्।

पुनः पूर्व में रखे गए अवनेजनपुटक में कुश, तिल, पुष्प, जलादि लेकर प्रत्यवनेजन मन्त्र बोले— ऊँ अद्य... गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत (प्रेते) विश्रामस्थाने भूतनामकपिण्डोपरि अत्र प्रत्यवनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्। बोलते हुए प्रत्यवनेजन जल छोड़ दे। तथा पिण्ड को उठाकर शव के समीप रख दे।

एवं पूर्वाभिमुख सव्य होकर भगवान की प्रार्थना करे पूर्व निर्दिष्ट श्लोक का उच्चारण करते हुए— अनादिनिधनो देवः शंखचक्रगदाधरः। अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

 

(५) साधक नामक पाँचवा पिण्डदान— अब शवयात्रा पूरी हो चुकी है। चिताभूमि में पहुँचकर पहले उस स्थान की साफ-सफाई करना चाहिए। ये कार्य पहले से कुछ लोग पहुँच कर भी सम्पन्न कर ले सकते हैं। मुख्य उद्देश्य है कि स्वच्छ भूमि पर दाहसंस्कार हो। स्वच्छ भूमि पर गोबर-मिट्टी आदि जल में घोल कर छिड़काव कर दे। एवं भूमि की प्रार्थना करे—अपसर्पन्तु ते प्रेता ये केचिदिह पूर्वजाः।

तदनन्तर दाहकर्ता स्वयं एवं गोत्र-परिजनों के सहयोग से चिता सजाए। आजकल अज्ञानवश,आलस्यवश इस महत्वपूर्ण बात को भी लोग भूल गए हैं। जो काम स्वयं करना है, उसके लिए भी नौकर-चाकर या पेशेवरों का सहयोग लेने लगे हैं। स्वयं जब हम आलसी और अकर्मण्य हो जायेंगे तो समाज में नये-नये पेशेवर पैदा होने लगेंगे ही और फिर हर जगह अवांछित रूप से वाजारवाद पैदा होगा, जहाँ सही कम, गलत ज्यादा होंगे।

चिता उत्तर-दक्षिण लगभग चार-पाँच हाथ लम्बी हो। पूरब-पश्चिम की चौड़ाई अपेक्षाकृत कम हो। लकड़ियों को इस भाँति सजावे कि अग्नि की ज्वाला से लकड़ियाँ आसानी से विखर न जाएँ। मोटी लकड़ी को सबसे नीचे सजावे ,ऊपर से पतली लकड़ियों को रखे। आड़ी-तिरछी, दांए-बांए क्रमिक रूप से सजाने पर विखरने की आशंका नहीं रहती है। कहीं-कहीं लोग सुरक्षा के विचार से चारों ओर ताजी (कच्ची) मजबूत लकड़ी के चार खूंटे गाड़ देते हैं। किन्तु पेशेवर चिता सजाने वाले ऐसा नहीं करते।

चिता पर शव को लिटाने के सम्बन्ध में भी कई ऋषिमत हैं—

 1.प्राक् शिरसं उदक् शिरसं वा भूमौ निवेशयेत् (हरिहरभाष्य)

2.ततो नीत्वा श्मशानेषु स्थापयेदुत्तरामुखम्। (गरुड़पुराण)

3.दक्षिणशिरसं कृत्वा सचैलं तु शवं तथा। (श्राद्धतत्व) किन्तु ये नियम सबके लिए नहीं है, सिर्फ सामवेदियों के लिए है।

4. भूप्रदेशे शुचौ देशे पश्चाच्चित्यदिलक्षणे । तत्रोत्तानं निपात्यैनं दक्षिणाशिरसं मुखे। (छन्दोगपरिशिष्ट)

5.अधोमुखो दक्षिणादिक् चरणस्तु पुमानिति। स्वगोत्रजैः गृहीत्वातु चितामारोप्यते शवः।। उत्तानदेहा नारी तु सपिण्डैरपि बन्धुभिः। (आदिपुराण)

(शवदाह के समय सिरहाना उत्तर अथवा पूर्व की ओर होना चाहिए, किन्तु परम्परा से उत्तर ही प्रशस्त है। सामवेदियों में दक्षिणसिर का ही चलन है। शव को उत्तान ही लिटाना चाहिए। ऐसा भी नियम है कि पुरुष को अधोमुख एवं स्त्री को ऊर्ध्वमुख लिटाना चाहिए। यहाँ ध्यान देने की बात है कि स्त्री का स्तन भूमिपर स्पर्श नहीं करना चाहिए। इसका भार पृथ्वीदेवी सह नहीं सकती—ऐसा भगवानविष्णु का कथन है। अतः साष्टांग दण्डवत भी स्त्रियों के लिए निषिद्ध है। उन्हें घुटनों के बल झुककर देवताओं को प्रणाम करना चाहिए। किन्तु शवशयन के लिए अपनी लोकरीति का पालन करना चाहिए।

चिता सजाने के बाद, शव को उसपर यथारीति लिटा दे, तत्पश्चात् दाहकर्ता अपसव्य, दक्षिणाभिमुख बैठकर, त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य ...गोत्र (गोत्रायाः) ...प्रेतस्य (प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वकशास्त्रोक्तफल प्राप्त्यर्थं चितायां शवहस्ते साधकनामकं पिण्डदानं करिष्ये।

उक्त संकल्प जल भूमि पर छोड़कर पुनः तिल, कुश, पुष्प, जलादि अवनेजनपात्र (पुटक) में लेकर अवनेजन मन्त्र बोलें— ऊँ अद्य... गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत(प्रेते) चितायां साधकनामकपिण्डस्थाने अत्रावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्। प्रोक्षित भूमि पर तीन कुशा दक्षिणाग्र बिछा दे।

अब, पुनः त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि सहित पिण्ड को लेकर संकल्प वाक्य बोलकर पितृतीर्थ (तर्जनी-अंगूठे के मध्यभाग) से कुशा पर छोड़ दे— ऊँ अद्य... गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत (प्रेते) चितायां साधकनाम एष पिण्डस्ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्।

पुनः पूर्व में रखे गए अवनेजनपुटक में कुश, तिल, पुष्प, जलादि लेकर प्रत्यवनेजन मन्त्र बोले— ऊँ अद्य... गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत(प्रेते) चितायां साधकनामकपिण्डोपरि अत्र प्रत्यवनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्। बोलते हुए प्रत्यवनेजनजल पिंडपर छोड़ दे। तथा पिण्ड को उठाकर शव के समीप रख दे।

एवं पूर्वाभिमुख सव्य होकर भगवान की प्रार्थना करे पूर्व निर्दिष्ट श्लोक का उच्चारण करते हुए— अनादिनिधनो देवः शंखचक्रगदाधरः। अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

 

इस प्रकार पाँचो पिण्डक्रिया सम्पन्न हो जाने के पश्चात् पूर्वाभिमुख सव्य होकर चिता के समीप अनुकूल स्थान पर छोटी सी बालुकावेदी बनाकर, गोबर के उपले (गोइठा) पर घी, कपूर आदि डाल कर अग्नि प्रज्वलित करे और क्रव्यादनामक अग्नि का स्थापन-पूजन करे—ऊँ क्रव्यादग्नये नमः मन्त्र से आवाहन करके इसी मन्त्र से पंचोपचार (जल, मौली,चन्दन, पुष्प,अक्षतादि) पूजन करे।

पूजनोपरान्त अग्नि की प्रार्थना करे— त्वं भूतकृज्जगद्योने त्वं लोकपरिपालकः उक्तः संहारकस्तस्मादेनं स्वर्गं मृतं नय।।

अब पुनः अपसव्य होकर चिता पर जल का छिड़काव करे। तत्पश्चात् सरपत (काशी,कंडा,पतेला—कुश की प्रजाति विशेष) की लुकाठी बनाकर, उसके सहयोग से निम्नांकित मन्त्रोच्चारण करते हुए चिता की तीन वा एक परिक्रमा करे और शव के सिर की ओर चिता को प्रज्वलित करे— कृत्वा तु दुष्कृतं कर्म जानता वाऽप्यजानता। मृत्युकालवशं प्राप्तं नरं पञ्चत्वमागतम्।। धर्माऽधर्मसमायुक्तं लोभमोहसमावृतम्। दहेयं सर्वगात्राणि दिव्यान् लोकान् स गच्छतु।। असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा।।

पर्याप्त मात्रा में कपूर, रालधूप, देवदार आदि चिता के चारो ओर विखेरे हुए हों उन्हें भी उसी लुकाठी के सहयोग से प्रज्वलित कर दें, ताकि सम्यक् रूप से चिता दग्ध होने लगे। प्रज्वलित चिता से किंचित् दूरी बनाकर, परिजन एकत्रित रहें और जबतक सांगोंपांग जल न जाए चिताभूमि का त्याग न करे।

ध्यातव्य है कि अभी कपालक्रिया भी शेष है। शव का अधिकाधिक भाग दग्ध हो जाने के पश्चात् अर्थी वाले बाँस से (यतियों का बिल्वफल से) कपालक्रिया सम्पन्न करे एवं शव के सिरो भाग पर पर्याप्त मात्रा में घृतधारा प्रवाहित करे एवं यज्ञीय समिधाएं (पीपल, विल्व आदि) की एक-एक वित्ते के सात टुकड़े लेकर, चिता की सात परिक्रमा करते हुए चिता में छोड़ता जाए। गच्छेत् प्रदक्षिणा सप्त समिद्भिः सप्तभिःसह।  इस प्रकार शवदाहक्रिया सम्पन्न हुयी।

ध्यातव्य है कि शव का किंचित् अंश जल में अवश्य प्रवाहित करना चाहिए। यानी शव को पूर्वतः निष्पादित नहीं करना चाहिए—निःशेषस्तु न दग्घव्यः शेषं किंचित् त्यजेत् ततः।।

कपालक्रिया के पश्चात् ही उच्चस्वर से विलाप करना चाहिए। इससे पूर्व कदापि नहीं।

 

(६) अस्थिसंचयननिमित्तक छठा पिण्डदान— अपरेद्युस्तृतीये वा दाहानन्तरमेव वा (अन्त्यकर्मदीपक) कथन का अभिप्राय है कि सुविधा और स्थितिनुसार तत्काल वा दूसरे दिन गोदुग्ध से चिता का सिंचन करके, तब जल से चिताग्नि को शीतल करे एवं अस्थिसंचयन करे। तन्निमित्त ये छठापिण्डदान भी करना आवश्यक है।

        (स्थिति और सुविधानुसार इस छठे पिण्ड को शवदाह निमित्त पिण्डों के साथ ही सम्पन्न कर दे सकते हैं,या अगले दिन अस्थिसंचयन के पूर्व भी कर सकते हैं।)

पुनः दाहकर्ता अपसव्य, दक्षिणाभिमुख बैठकर, त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य ...गोत्र (गोत्रायाः) ...प्रेतस्य (प्रेतायाः) अस्थिसंचयननिमित्तक पिण्डदानं करिष्ये।

उक्त संकल्प जल चिताभूमि पर छोड़कर पुनः तिल, कुश, पुष्प, जलादि अवनेजनपात्र (पुटक) में लेकर अवनेजन मन्त्र बोलें— ऊँ अद्य... गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत (प्रेते) अस्थिसंचयननिमित्तक पिण्डस्थाने अत्रावनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्। प्रोक्षित भूमि पर तीन कुशा दक्षिणाग्र बिछा दे।  

अब, पुनः त्रिकुश, तिल, जल, पुष्पादि सहित पिण्ड को लेकर संकल्प वाक्य बोलकर पितृतीर्थ (तर्जनी-अंगूठे के मध्यभाग) से कुशा पर छोड़ दे— ऊँ अद्य... गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत (प्रेते) अस्थिसंचयननिमित्तक एष पिण्डस्ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्।

(इस अन्तिम पिण्ड के बाद भी थोड़ा सा पिंड सामग्री बचा लेना चाहिए, जिसका आगे उपयोग करना है। )

पुनः पूर्व में रखे गए अवनेजनपुटक में कुश, तिल, पुष्प, जलादि लेकर प्रत्यवनेजन मन्त्र बोले— ऊँ अद्य... गोत्र..(गोत्रे)...प्रेत (प्रेते) अस्थिसंचयननिमित्तक पिण्डोपरि अत्र प्रत्यवनेनिक्ष्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठाताम्। बोलते हुए प्रत्यवनेजनजल पिंड पर छोड़ दे। तथा पिण्ड को उठाकर शव के समीप रख दे।  

एवं पूर्वाभिमुख सव्य होकर भगवान की प्रार्थना करे पूर्व निर्दिष्ट श्लोक का उच्चारण करते हुए— अनादिनिधनो देवः शंखचक्रगदाधरः। अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

अब पिण्डशेष अन्न को हाथ में लेकर श्मशानवासी देवों के निमित्त इस मन्त्र के उच्चारण सहित बलि प्रदान करे। साथ ही प्रज्वलित दीपक भी रख ले — येऽस्मिन् श्मशाने देवाः स्युर्भगवन्तः सनातनाः। तेऽस्मत् सकाशाद् गृह्णीयुर्वलिमष्टाङ्ग- मक्षयम्।। प्रेतस्यास्य शुभाँल्लोकान् प्रयच्छन्तु च शाश्वतम्। अस्माकमायुरारोग्यं सुखं च दत्त मे चिरम्।। श्मशानवासिभ्यो देवेभ्यो नमः । सर्वस्वीयभागं सदीपं बलिं गृह्णन्तु।।  

अब मौन होकर पलाश की दो लकड़ियों के सहयोग से कोयला-राख आदि हटाकर शेष अस्थियों को एकत्र करे। सबसे पहले कनिष्ठिका अंगुली के सहयोग से शिरोभाग की अस्थियों का चयन करे, तत्पश्चात् क्रमशः ग्रीवा, वक्ष, नाभि एवं पाद क्रम से संचयन होना चाहिए— शिरसो वक्षसः पाण्योः पार्श्वाभ्यां चैव पादतः। अस्थियों को बारी-बारी से उठाकर रेशमी (वा तीसी के डंठल के रेशे से बने वस्त्र—भागलपुरी सिल्क के नाम से उपलब्ध) पर कुशा बिछाकर रखता जाए और अन्त में उन्हें गोघृत, मधु, तिल, पंचगव्य, सुगन्धित द्रव्यादि तथा यथाशक्ति सुवर्ण-रजतादि मिश्रित कर पोटली बनाकर, मिट्टी के बर्तन में रख दे। तदनन्तर दक्षिणदिशा का अवलोकन करते हुए— नमोऽस्तु धर्माय कहकर जल में प्रवेश करे और स मे प्रीतो भवतु कहकर पात्र को जल में डुबो दे। तदनन्तर सूर्य का दर्शन करे और यथाशक्ति द्रव्यादि दान करे।

(ध्यातव्य है कि ये दान अपने आचार्य या पुरोहित को नहीं देना है, प्रत्युत घटहाब्राह्मण को ही देना है। भले ही सारा कर्मकाण्ड अपने पुरोहित द्वारा ही क्यों न कराया जा रहा हो ।)

अन्यत्र तीर्थादि में ले जाकर अस्थि प्रवाहित करने का विचार हो तो अस्थिकलश को सुरक्षित स्थान पर किसी वृक्ष पर लटका दे। किन्तु ध्यान रहे अस्थिकलश विसर्जन की ये क्रिया दशगात्रपिण्ड (दसवें दिन) से पूर्व ही हो जानी चाहिए। यात्रा में विविध अपृश्यता का भी विचार रखना आवश्यक है।  गंगादि पवित्र नदियों के किनारे यदि दाहक्रिया सम्पन्न होती हो तो अस्थिसंचयन की विशेष क्रिया करने की आवश्यकता नहीं होती, प्रत्युत तत्काल ही चिताभस्म-अंगारादि को जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। अस्थिकलश को भूमि में गाड़ने की भी कहीं-कहीं परम्परा है। अपनी लोकरीति के अनुसार इसे सम्पन्न करना चाहिए।

चिताभूमि पर विखरे अंगार-भस्मादि को हटाकर, प्रवाहित कर, भूमि को साफ-सुथरा कर देना चाहिए। ये सामाजिक और धार्मिक कर्तव्य है। चिताभूमि स्वच्छ करने के पश्चात् परम्परा है कि जलपूर्ण घट दाहकर्ता अपने कंघे पर रखकर, पीछे देखे बिना एवं कदापि माऽभूत् कहते हुए पीछे की ओर गिरा दे। इसे घटस्फोटक्रिया कहते हैं।

इन सबके बाद सभी शवयात्रियों को विधिवत स्नान करना चाहिए। स्नान के पश्चात् प्राणी के निमित्त अपसव्य होकर कुश सहित तिलाञ्जलि प्रदान करनी चाहिए इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक — अद्य...गोत्र (गोत्रे)...प्रेत चितादाहजनिततापतृषोपशमनाय एष तिलतोयाञ्लिस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्।

 

नोट— श्मशान भूमि से किंचित् दूर हटकर, नदीतट पर ही सुरक्षित स्थान देखकर गाँठ लगाकर एक कुशा स्थापित कर देना चाहिए। दाहोपरान्त स्नान करके सभी परिजन उस कुशमूल में ही प्राणी के निमित्त एक तिलतोञ्जलि प्रदान करते हैं। अगले दिन से दशगात्र पर्यन्त सिर्फ दाहकर्ता वृद्धिक्रम में उसी स्थापित कुशमूल में तिलतोयाञ्जलि प्रदान करता है यानी दाह के दिन एक अंजलि, दूसरे दिन दो अंजलि, तीसरे दिन तीन अंजलि के क्रम से। एवं दशगात्र दिन पिण्डप्रदान करने से पूर्व दस अँजलि जल दाहकर्ता द्वारा दिया जाता है। वर्तमान समय ये भीड़भाड़, अव्यवस्था के कारण ये स्थिति बदल गयी है। स्थापित कुशमूल का सुरक्षित रहना कठिन हो गया है। ऐसे में लोग सुविधाजनक व्यवस्था अश्वत्थमूल में ही कुशमूल स्थापित करके कर लेते हैं। मूलतः ये दोनों दो क्रियाएं हैं—कुशमूल में जल प्रदान करना और अश्वत्थमूल में जल प्रदान करना। ध्यातव्य है कि अश्वत्थशाखा में छिद्रयुक्त एक जलपूर्ण घट भी दूसरे दिन स्थापित करते हैं और उसमें प्रतिदिन जल भरते हैं, ताकि पूरे अहोरात्र निरन्तर अश्वत्थमूल में बूंद-बूंद कर जल गिरता रहे। मान्यता ये है कि अशरीरी तृषित प्राणी उन जलबूंदों से ही तृप्ति लाभ करता है।

 

शवयात्रियों के लिए ज्ञातव्य—आजकल ये परम्परा प्रायः लुप्त होती जा रही है। शवगमन को सामान्य पिकनिक-हवाखोरी की तरह लोग मना लेते हैं और अपने-अपने घर लौट जाते हैं। संस्कारहीनता का निकृष्ट उदाहरण है ये। प्रसंगवश यहाँ ये स्पष्ट करना उचित है कि सपिण्ड-सगोत्रादि के लिए तो सपिण्डनकर्म (बारहवेंदिन) पर्यन्त सूतक है। अतः दशगात्रपिण्डोपरान्त ही उन्हें क्षौर कराना है, किन्तु अन्य शवयात्रियों को तत्काल मुण्डन अवश्य करना लेना चाहिए, तत्पश्चात् ही स्नान करें। यानी शवयात्रा भी आंशिक (तात्कालिक) अशौच ही है, जिसकी पूर्ण शुद्धि आवश्यक है। स्नान करके, यज्ञोपवीत बदलकर, यथासंख्या गायत्रीजप अनिवार्यतः करना चाहिए।  

अनत्येष्टिक्रिया के पश्चात् कर्म—श्मशानभूमि की सभी क्रियाएं सम्पन्न हो जाने के पश्चात् बच्चों को आगे करके, अन्य लोग एक साथ घर की ओर प्रस्थान करें। पीछे मुड़कर देखें नहीं और मार्ग में किंचित् विश्राम अवश्य करें। मृतक के घर के दरवाजे पर थोड़ी देर रुकें। पहले से रखी गयी नीम की पत्तियाँ लेकर चबायें और आचमन करें। कुलपरम्परानुसार जल, गोबर, लालमिर्च, पीली सरसो, लौह और अग्नि का स्पर्श करें। तत्पश्चात् शिलारोहण करते हुए घर में प्रवेश करें। आँगन में थोड़ी देर बैठ कर भगवन्नामचिन्तन करें एवं प्राणी का गुणगान करते हुए शोक मनाएँ। इस सम्बन्ध में याज्ञवलक्यस्मृति प्रायश्चित्ताध्याय एवं पारस्करगृहसूत्र में विशद निर्देश है। यथा— अनवेक्षमाणा ग्राममायान्ति रोतीभूताः कनिष्ठापूर्वाः। निवेशनद्वारे पिचुमन्दपत्राणि विदश्याचम्योदकमग्निं गोमयं गौरसर्षपांस्तैलमालभ्याश्मानमाक्रम्य प्रविशन्ति । तथा च इति संश्रुत्य गच्छेयुर्गृहं बालपुरःसराः । विदश्य निम्बपत्राणि नियता द्वारि वैश्मनः।। आचम्याग्न्यादि सलिलं गोमयं गौरसर्षपान् । प्रविशेयुः समालभ्य कृत्वाऽश्मनि पदं शनैः।। प्रवेशनादिकं कर्म प्रेतसंस्पर्शिनापपि।। तथाच क्रीतलब्धाशना भूमौ स्वपेयुस्ते पृथक् पृथक् ।  

ध्यान रहे उस दिन घर में भोजन कदापि न बनायें। सर्वोचित ये है कि उस दिन चौबीस घंटे का उपवास किया जाए। विशेष परिस्थिति में सगे-सम्बन्धियों के यहाँ से या बाजार से सामान्य खाद्यपदार्थ की व्यवस्था करके काम चलावें। सुस्वादु व्यंजनादि का प्रयोग न करे। ऐसा करने से प्राणी को अतिशय क्लेश होता है।

 क्रमशः......

                       

 


 

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