षोडशसंस्कार विमर्श तीसवां भाग अशौचकालिक विविध कृत्य

 

     अशौचकालिक विविध कृत्य

            

दाह के दिन किसी को भी अन्नादि ग्रहण नहीं करना चाहिए। विशेष परिस्थिति में  आसपड़ोस  या बाजार से खाद्य सामग्रियों को ग्रहण करने का निर्देश गत प्रसंग में ही दिया जा चुका है।

अब आगे पूरे अशौचकाल में दाहकर्ता सहित सगोत्रियों के लिए किंचित् निर्देश हैं, जिनका अपरिहार्यरूप से पालन होना चाहिए। जिह्वालोलुप, उदरजीवी, भ्रष्टविचारक आजकल इन शास्त्रीय नियमों की खिल्ली उड़ाते हुए अवहेलना कर जाते हैं। जिन्हें विज्ञान का ककहरा भी नहीं मालूम है वे भी नियमों की वैज्ञानिक व्याख्या ढूढ़ने लगते हैं। उन्हें ये जान लेना चाहिए कि शास्त्रीय नियम ऋषियों द्वारा बहुत ही सोच-समझ कर बनाये गए थे। जिनका यथासम्भव पालन होना चाहिए। ऐसा न करने वाले प्राणी को तो कष्ट पहुँचाते ही हैं साथ ही अपना भी भारी अनिष्ट करते हैं। अज्ञानवश, अनजाने में, अदृश्य रूप से पितृदोषों के भयंकर शिकार होते हैं। अतः उचित है कि ऋषि वाक्यों को ब्रह्मवाक्य (अकाट्य) मानकर स्वीकार करें, इसी में उनकी और उनकी सन्तति की भलाई है।

 

दाह के दूसरे दिन का कृत्य—

पुरानी परम्परानुसार दाह के दूसरे दिन चिता-सिंचन, अस्थि-विसर्जन आदि का कार्य किया जाता रहा है। किन्तु आधुनिक परिवेश में, शहरी जीवन की विवशता में, व्यवहार में विशेष कठिनाइयाँ आ रही हैं। फलतः बिना विचारे लोग कुछ के कुछ कर बैठते हैं। विडम्बना ये है कि शास्त्रज्ञान के प्रति अभिरूचि और विचार लुप्त होते जा रहा है। लोकाचार में मनमानापन समाहित होते जा रहा है। कर्मकाण्ड के क्षेत्र में जो लोग लगे हुए हैं, उन्हें सिर्फ येन-केन-प्रकारेण पैसे कमाने में दिलचश्पी है, शास्त्रज्ञान अर्जित करने में नहीं। परिणातः आडम्बर, मूर्खता और ठगी का विस्तार हो रहा है। करने वाले भी शॉर्टकट के चक्कर में हैं और कराने वाले तो ज्यादातर अनपढ़-अज्ञानी हैं ही। योग्य आचार्य मिलना दुर्लभ हो गया है। यदि मिलें भी तो उन्हें योग्यता के अनुरूप दक्षिणा नहीं मिल पाता। कुल मिलाकर देखें तो आडम्बरियों का बाजार गरम है। किन्तु उचित है कि इस नियम का पालन होना चाहिए। यदि सम्भव न हो तो यथास्थिति कार्य करे। चितास्थल का तत्काल विसर्जन कर दें, किन्तु अगले दिन के शेष अनिवार्य कृत्य तो अगले ही दिन होना चाहिए। मूल स्थान से दूर रहने वाले प्रवासियों को एक से अधिक दिन भी विलम्ब हो जाता है, यदि वे दाह कहीं और करते हैं और आगे की क्रियाएं अपने मूल स्थान पर जाकर करना चाहते हैं।

            दाह के दूसरे दिन का मुख्य कृत्य है अस्थिविसर्जन के पश्चात् स्नानोपरान्त पीपलवृक्षशाखा में छिद्रयुक्त जलपूर्ण घटस्थापन (लटकाना) एवं वहीं कुश मूल में तिलाञ्जलि प्रदान करना तथा सायंकाल में अपने घर के प्रवेशद्वार पर प्रवेश के समय दाहिनी ओर गर्तकर्म करके (पक्की जमीन हो तो ईंट आदि से घेरा बनाकर) तिलतैल दीपदान करना। कहीं-कहीं ऐसा भी चलन है कि पीपलवृक्ष शाखा में ही अखण्डदीप भी स्थापित करते हैं, तो कहीं घर में ही मृत्युस्थान या अन्य सुरक्षित स्थान पर। मुख्य उद्देश्य है जलपूर्णघट-स्थापन और दीपदान। कुशमूलस्थापन तो पूर्व दिन ही कर चुके हैं।

 

स्थापित कुशमूल में तिलाञ्जलि—अपसव्य, दक्षिणाभिमुख बैठकर, बायें हाथ की अनामिका अंगुली में तीन कुशाओं की एवं दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली में दो कुशाओं की पवित्री (अंगूठीनुमा) धारण करके, तिल, कुश, श्वेतपुष्प, जलादि लेकर संकल्प बोले

(दो अंजलि के लिए संकल्प)—  अद्य...गोत्र (गोत्रे)...प्रेत चितादाह-जनिततापतृषोपशमनाय स्थापित कुशमूले इमौ तिलतोयाञ्जली तो मया दीयेते तवोपतिष्ठताम्।।

(तीन और उससे अधिक अंजलियों के लिए संकल्प)—  

अद्य...गोत्र (गोत्रे)...प्रेत चितादाहजनिततापतृषोपशमनाय स्थापित कुशमूले इमे तिलतोयाञ्जलयः ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठताम्।।

(ध्यान देने की बात है कि दाह के दिन एक अंजलि, दूसरे दिन दो अंजलि और फिर तीन से दस तक। मूल मन्त्र और क्रियाविधि तो एक समान ही है, अन्तर सिर्फ एक वचन, द्विवचन और बहुवचन का है। प्रायः लोग यहीं भूल कर जाते हैं। एष-इमौ-इमे तथा दीयते-दीयेते-दीयन्ते का ध्यान रखना चाहिए। प्रेतकार्य एवं पितृकार्य आन्यान्य देवकार्यों से बिलकुल भिन्न है। यहाँ वाक्यशुद्धि का विशेष ध्यान रखना है। )

 

घटस्थापन क्रिया— दूसरे दिन प्रातः स्नान के पश्चात् पहले स्थापित कुश मूल में तिलतोयाञ्जलि प्रदान करें, तत्पश्चात् पीपलवृक्ष के समीप जाकर घटस्थापन करे। स्थान और सुविधा का विचार करते हुए ये दोनों कार्य एकत्र (एक ही स्थान पर) भी किया जा सकता है, किन्तु दोनों के लिए अलग-अलग मन्त्रों का प्रयोग होना चाहिए।

पन्द्रह-बीस लीटर जल-योग्य काले चिन्हों से रहित सुन्दर घट की पेंदी में छोटा सा छिद्र करके, मौली में गाँठलगा कर उसमें पिरो दें। कुशा में ग्रन्थि लगाकर, उसे भी छिद्रस्थान पर रख दें। घट को मजबूत रस्सी के सहारे पीपलवृक्ष की शाखा में लटका दें। (सिर्फ सुविधा का विचार करते हुए, मूर्खतावश लोग पीपल में लोहे की कील लगा देते हैं रस्सी बाँधने के लिए—ये बहुत ही गलत है। )

अपसव्य, दोनों हाथों में विहित पवित्री धारण किए हुए, दक्षिणाभिमुख खड़े होकर दाहिने हाथ में कुश, तिल, श्वेतपुष्प, जलादि लेकर संकल्प बोले— अद्य...गोत्र(गोत्रे)...प्रेत(प्रेते) दाहजनित तापोपशमनार्थं महापथगमन-जनिताध्वतापश्रम निवर्तकाश्वत्थ शाखावलम्बित-सतिलजलपूर्णघटस्ते मया दीयते, तपोवतिष्ठाताम्। और स्थापित घट में छोड़ दे तथा घट पर ढक्कन रख दे। तदनन्तर हाथ जोड़कर प्रार्थना करे—  

सर्वतापोपशमनमध्वश्रमविनाशनम्।

प्रेततृप्तिकरं वारि पिव प्रेत सुखी भव।।

अब पूर्वाभिमुख, सव्य होकर पुनः प्रार्थना करे— 

अनादिनिधनो देवः शंखचक्रगदाधरः। 

अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

 

दूध लगाने का लोकाचार— अश्वत्थघटांजलि प्रदान करने के बाद, घर आकर करने की ये क्रिया है। इसके लिए शास्त्रीय मन्त्र निर्देश नहीं मिलता। सम्भवतः लोकाचार है। ध्यातव्य है कि गत रात्रि घर में भोजन नहीं बना है। दूसरे दिन प्रातः स्त्रियाँ स्नान करके पवित्रता पूर्वक चावल, दाल और सिर्फ एक सब्जी (बिना हल्दी तेल का) बनाती है। एक पंक्ति में परिवार (सगोत्र-सपिण्ड) एक साथ बैठते हैं। सबको पत्रावली में भोजन परोसा जाता है। सबके सामने पास में ही पीपल का एक-एक पत्ता भी रखा जाता है। सबसे पहले दाहकर्ता अपने पत्तल से सिर्फ चावल का एक ग्रास निकाल कर पीपल के उस पत्ते पर रखता है। परोसने वाली स्त्री (पुरुष) उसके दाहिने हाथ की अंजलि में थोड़ा सा कच्चा दूध देता है, जिसे दाहकर्ता पीपल के पत्ते पर रखे चावल पर पितृतीर्थ से गिरा देता है। इसी भाँति अन्य सदस्य भी करते हैं। फिर सभी लोग अपने-अपने पत्रग्रास को उठा कर कहीं एकान्त में रख देते हैं और प्राणी को मानसिक प्रणाम करते हैं। हाथ-पैर धोकर, आचमन करके, पूर्व आसन पर बैठकर मौन होकर भोजन करते हैं। इस दिन के भोजन में परोसन (दुबारा लेना) नहीं चलता और न जूठा ही छोड़ना चाहिए। पुरुषों के बाद स्त्रियाँ भी इसी भाँति करती हैं। इस क्रिया में गैरगोत्रीय कदापि भाग नहीं लेते। संयोग से यदि कोई सम्बन्धी उपस्थित भी हों तो वे बाद में भोजन करते हैं।

 

दुग्ध-जल प्रदान की परम्परा— कहीं-कहीं उक्त से भिन्न परम्परा भी है। बित्ते भर की तीन सरकंडे की पतली लकड़ियों को मध्य में मौली से बाँध कर त्रिपादिका बना देते हैं। उस पर पत्ते के दोनिएं या मिट्टी की प्याली में दूध और जल भर कर रख देते हैं ।

ध्यातव्य है कि प्रेत के निमित्त किया जाने वाला कोई भी कार्य सव्य, दक्षिणाभिमुख, तिलकुशादि युक्त ही होना चाहिए।

तदर्थ संकल्प—अद्य...गोत्रः... शर्माहं...गोत्रस्य (गोत्रायाः) ...प्रेतस्य (प्रेतायाः) क्षुत्पिपाशावारणार्थं विहायसि दुग्धजल-पूर्णपात्रे ते मया दीयेते, तवोपतिष्ठेताम्।।

संकल्प के पश्चात् प्रार्थना करे—श्मशानानल दग्धोऽसि परित्यक्तोऽसि बान्धवैः। इदं नीरं इदं क्षीरमत्र स्नाहि इदं पिव।।

पुनः सव्य, पूर्वाभिमुख होकर प्रार्थना करे— अनादिनिधनो देवः शंखचक्रगदाधरः। अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

 

सायंकालीन दीपदान— सायंकाल (गोधुलिबेला)में प्रवेश द्वार पर दाहिनी ओर हाथभर गड्ढा बनाकर (या ईंट से घेरा लगाकर) प्राणी के निमित्त तिलतैल का दीपक जलाते हैं।  तदर्थ पुनः स्नान करके दूसरा वस्त्र (कौपीन) एवं पवित्री (कुश की अंगूठी) धारणकर, सव्य, दक्षिणाभिमुख बैठकर त्रिकुश, तिल, श्वेतपुष्प, जलादि सहित तिलतैल पूरित मिट्टी का दीपक दाहिने हाथ में लेकर संकल्प करे—  अद्यः... गोत्र (गोत्रे) ....प्रेत (प्रेते) यममार्गघोरान्धकारसंतरणोपकारकः द्वारदेशे एष दीपस्ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम्।

गड्ढे में दीपक को दक्षिणाभिमुख सुरक्षित रखकर, हाथ जोड़कर प्रार्थना करे— अन्धकारे महाघोरे रविर्यत्र न दृश्यते । तत्रोपकरणार्थाय दीपोऽयं दीयते मया।

पुनः सव्य होकर पूर्वाभिमुख बैठकर प्रार्थना करे— अनादिनिधनो देवः शंखचक्रगदाधरः। अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

आगे दशगात्र पर्यन्त प्रातः-सायं यही क्रियाएं चलती रहेंगी—प्रातःकाल कुशमूल एवं अश्वत्थशाखावलम्बित घट में जलाञ्जलि एवं सायंकाल तिलतैलदीप दान। ध्यातव्य है कि जलाँजलि का कार्य तो दसवें दिन भी होगा, किन्तु चुँकि दशगात्रकर्म दिन में ही सम्पन्न हो चुका है, अतः उस दिन सायंकालीन दीपदानकर्म नहीं होगा। परन्तु दीपक वाला गड्ढा यथावत सुरक्षित रहेगा। उसका विसर्जन अगले दिन एकादशाह पिण्ड के पश्चात् प्रेतकर्मकाण्डीब्राह्मण वा नापित द्वारा किया जायेगा। लौकिक-व्यावहारिक आपत्ति हो तो दाहकर्ता स्वयं भी कर सकता है, किन्तु तत्पश्चात् स्नान आवश्यक होगा।

 

अशौच में पालनीय अन्य बातें—

१.       सभी प्रकार के भोगों का यथासम्भव त्याग करके, दैन्यभाव से समय व्यतीत करते हुए, अन्य सांसारिक चिन्ताएं छोड़कर सिर्फ प्राणी की सद्गति सम्बन्धी कृत्यों पर ही शास्त्रविहित कर्म करें।  

२.       कठोर ब्रह्मचर्य पालन अशौच के दिनों में अत्यावश्यक है।

३.       दाहकर्ता शैय्या का परित्याग करके, भूमि पर मौसम के अनुसार तृण, कम्बल आदि विछाकर शयन करे। विशेषकर दाहकर्ता को ये नियम अवश्य पालन करना चाहिए। उसे सबसे अलग रहना चाहिए। न किसी का स्पर्श करे और न किसी को करने दे। किन्तु बिलकुल एकान्त में भी न रहे।

४.      अपनी कुल परम्परानुसार स्वयं भोजन बनावे या माता-पत्नी आदि द्वारा निर्मित पारिवारिक भोजन ग्रहण करे। दाहकर्ता का भोजन अलग बने ऐसा नियम नहीं है। बात सिर्फ शुद्धता की है। पहले की भाँति ही घर की स्त्रियाँ रसोईघर में ही भोजन बना सकती हैं। ध्यान रहे कि दाहकर्ता भोजन कर ले इसके बाद ही अन्य लोग भोजन करें। व्रत-त्योहार में भगवान के लिए प्रसाद बनाने में जिनती शुचिता का ध्यान रखते हैं, उससे कहीं अधिक शुचिता का ध्यान रखना आवश्यक है, क्योंकि देवकार्यों में अज्ञान और भूल की क्षमा हो सकती है, प्रेतकार्य और पितृकार्य में क्षमा नहीं है। भ्रष्ट हो गया तो हो गया। शुचिता के इस कठोर नियम के कारण ही लोग सुविधा का रास्ता निकाल लिए कि दाहकर्ता स्वयं भोजन बनावे या उसकी पत्नी सिर्फ उसके लिए भोजन बनाकर दे।

५.      भोजन बिलकुल शुद्ध-सात्विक होना चाहिए। ये नियम सिर्फ दाहकर्ता ही नहीं, बल्कि सगोत्र-सपिण्ड सबके लिए है।

६.      दाहकर्ता सिर्फ दिन में अन्न ग्रहण करे और रात्रि में फलाहार करे तो अति उत्तम है। अन्नाहार लेना ही हो तो सूर्यास्त से पूर्व ले ले ।

७.      दाहकर्ता अपने सामने परोसे गए भोजन में से किंचित् अंश पत्ते पर निकाल कर किसी नियत स्थान में प्रतिदिन दोनों काल में रख दिया करे—थोड़ा जल गिराकर। प्राणी के निमित्त प्रथम ग्रास देने के पश्चात् हाथ-पैर धोकर, आचमन करके भोजन ग्रहण करे। भोजन रखने का मन्त्र एवं प्रार्थना— अद्य...गोत्र(गोत्रे)...प्रेत(प्रेते) क्षुत्पिपाशादि निवृत्यर्थं इदमन्नोदकं ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम्।।

८.      दाहकर्ता भोजन पत्रावली में करे । थाली वगैरह अन्य पात्रों का प्रयोग यदि करता हो तो दशगात्र के दिन पिण्डदान के बाद उसका प्रयोग कदापि न करे। त्याग दे।

९.      दशगात्र पिण्ड के पश्चात्  अब तक प्रयोग में लायी गई अन्य सामग्री—वस्त्र, विस्तर आदि का भी परित्याग अनिवार्यतः कर देना चाहिए।

१०.  ध्यान रहे कि जिन वस्तुओं का त्याग न कर सके, वैसी किसी वस्तु का उपयोग ही न करे इन दस दिनों में ।

११.    लवण रहित भोजन करे तो अधिक अच्छा है। यदि लवण लेना हो तो सिर्फ सेन्धा नमक ही लें। आधुनिक आयोडाइज्ट साल्ट का प्रयोग न करें। काला नमक और हींग का प्रयोग भी सात्विक नहीं है।

१२.   किसी तरह का तैलाभ्यंग एवं तैल भक्षण अशौच में सर्वथा निषिद्ध है। किन्तु घी का प्रयोग वर्जित नहीं है।

१३.     भोजन बनाने में तलने, छौंकने आदि का कार्य भी निषिद्ध है। किन्तु ऊपर से घी का उपयोग किया जा सकता है।

१४.   हल्दी का प्रयोग सर्वथा वर्जित है, किन्तु अन्य मसालों का प्रयोग किया जा सकता है।

१५.   लोहे को गरम करना वर्जित है, इससे प्राणी को घोर पीड़ा होती है। यही कारण है कि रोटी बनाने-खाने को मना किया जाता है। आटा गूंथ कर अंगारे पर लिट्टी सेंक कर खाया जा सकता है।

१६.   भूँजा-सत्तू आदि भी अशौच में प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे अशौचकाल में अन्तरिक्षीय बाधाओं का खतरा रहता है।

१७.  मृतक प्राणी (प्रेत) के निमित्त नित्य पिण्डदान भी शास्त्र सम्मत है। इसी कार्य को सुविधानुसार सीधे दशगात्र को दश पिण्ड एकत्र देकर पूरा करते हैं। ध्यातव्य है कि दाहदिवसीय छः पिण्ड एवं दशगात्र (दसवें दिन) के दश पिण्ड कुल सोलह पिण्डों को मलिनषोडशीश्राद्ध कहा गया है। प्रेतत्व-विमुक्ति के लिए ये अत्यावश्यक (अपरिहार्य) प्रारम्भिक कृत्य है।  

१८.   मृतप्राणी के निमित्त नित्य विधिवत स्नान करे और यथासम्भव सभी लोग तिलाञ्जलि प्रदान करें। दाहकर्ता को तो नित्य तिलाञ्लि देना ही है।

१९.   शरीर में या कपड़े धोने के लिए साबुन-क्षार आदि का प्रयोग न करें। मिट्टी लगाकर स्नान करें तो अच्छा है।

२०.   केशसज्जा, स्त्रियों का श्रृंगार आदि भी सर्वथा वर्जित है।

२१.   अशौच काल में किसी से प्रणाम कराना या किसी को प्रणाम करना निषिद्ध है। ये नियम पालन दशगात्र पिण्ड तक मान्य है।

२२. अशौच काल में सगोत्र-सपिण्ड से बाहर के किसी व्यक्ति के यहाँ भोजन करना या कराना भी वर्जित है। यहाँ तक कि भिखारी को भीख देना भी मना है—भिक्षु भिक्षा न गृह्णीयात् सपिण्डीकर्मं बिना।

२३.  मन्दिर प्रवेश, किसी देवमूर्ति का स्पर्श एवं पूजन या दूर से प्रणाम करना भी वर्जित है। दान-स्वाध्याय भी नहीं करे।

२४. आचार्य को बुलाकर या योग्य (सक्षम) हो तो स्वयं गरुड़पुराण (प्रेतखण्ड) का नित्य पाठ दाह के दूसरे दिन से लेकर दशगात्रपिण्ड पूर्व तक अवश्य करना चाहिए। इससे प्रेत को तुष्टि मिलती है। पाठ के समय परिवार के अन्य सदस्य भी पाठ श्रवण करें।

२५. ध्यातव्य है कि अज्ञानवश आधुनिक आचार्च गरुड़पुराण पाठ के समय धूप, अगरबत्ती, फूल, प्रसाद, आरतीमंगल आदि का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं। ये बिलकुल ही मूर्खतापूर्ण है। अधिक से अधिक इतना ही करें कि पाठ के समय घी का दीपक जलाकर समीप में रख दें और किसी तरह का आडम्बर नहीं होना चाहिए।

२६. घर में कोई देवमूर्ति हो तो उसे यथायोग्य स्थान पर किसी गैरगोत्री के यहाँ रखवा दें। या यथावत घर में ही रहने दें, कोई हर्ज नहीं है। उसकी पूजा-अर्चना-स्पर्श न करें और पूर्ण शुद्धि के पश्चात् उन्हें पंचामृत स्थान कराकर, विधिवत पूर्व की भाँति पूजा-अर्चना प्रारम्भ करें।

२७.जो लोग आजीवन नित्य संध्या-गायत्री आदि के कृतसंकल्पित हों, उनके लिए अशौचसंध्या का अलग नियम है। जिसमें संध्या-विधि किंचित् भिन्न हो जाती है—अमन्त्रक प्राणायाम, जल रहित सूर्याघ्य आदि की पूरी विधि गीताप्रेस के नित्यकर्मपूजाप्रकाश आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। इसी भाँति आजीवन संकल्पित एकादशी आदि व्रती भी व्रत का त्याग नहीं करेंगे। किन्तु सामान्यजन के लिए तो पूजा, अर्चना, जप, तप, स्वाध्याय, दान आदि सबकुछ  वर्जित है। संध्यां दानं जपं होमं स्वाध्यायं पितृतर्पणम् । ब्राह्मभोज्यं व्रतं नैव कर्तव्यं मृतसूतके।। (गरुड़पुराण सारोद्धार) तथा च सूतके मृतके कुर्यात् प्राणायाममन्त्रकम्। तथा मार्जनमन्त्रांस्तु मनसोच्चार्य मार्जयेत्।। गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायार्घ्यं निवेदयेत् ।। (भारद्वाज, आचार्यभूषण)

२८. दाह के सातवें दिन से घर की साफ-सफाई, धोबी को देकर कपड़ों की धुलाई आदि का कार्य प्रारम्भ हो जाता है। किन्तु ध्यान रहे—ये पूर्ण शुद्धि नहीं है। गणितीय रूप से समझें तो कह सकते हैं कि सातवें दिन पचीस प्रतिशत शुद्धि मान ली जाती है। दसवें दिन पचास प्रतिशत, ग्यारहवें दिन पचहत्तर प्रतिशत एवं बारहवें दिन पितृमेलन कर्मोपरान्त, ब्राह्मणभोजन के बाद पूर्ण शुद्ध हो जाती है।

२९. अपनी कुल परम्परानुसार दाहके दूसरे, तीसरे दिन, पाँचवें दिन, सातवें दिन, दसवें दिन एवं ग्यारहवें दिन  भी सगोत्र-सपिण्ड का सामूहिक भोजन होना चाहिए। इससे प्राणी को तृप्ति मिलती है। बारहवें दिन के शैय्यादान, होम, ब्राह्मणभोजन के बाद तो दाहकर्ता सहित सभी सगोत्र-सपिण्ड भोजन करते ही है।

३०.  ध्यातव्य है कि प्राणी को गोत्र-भोजन भी बहुत प्रिय है। प्रथमेऽह्नि तृतीये च सप्तमे दशमे तथा। ज्ञातिभिः सह भोक्तव्यमेतत् प्रेतेषु दुर्लभम्।। (शंखस्मृति)

 


इस प्रसंग के साथ ही षोडशसंस्कार विमर्श का मूल 41वां अध्याय सम्पन्न हुआ। 

 अब परिशिष्ठ खंड के अन्तर्गत कुछ अन्य उपयोगी बातों की चर्चा करेंगे अगले प्रसंग में। 

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