परिशिष्ट खण्ड - एक
दीपश्राद्ध : लुप्तप्राय परम्परा
हमारी
परम्पराओं में बहुत सी बातें ऐसी हैं, जिनके बारे में हम नहीं जानते। कुछ के बारे
में जानते भी हैं, तो आधे-अधूरे गलत रूप से। दीपश्राद्ध भी उन्हीं में एक है।
प्रस्तुत प्रसंग में थोड़ी चर्चा किए देता हूँ।
नित्यकर्मों में देव और पितृ दोनों कार्य आते हैं। कई कारणों से
देवकार्य की तुलना में पितृकार्य अधिक आवश्यक माना गया है। पितृकर्मों के लिए
पितरों की महती कृपा है हम पर कि काफी सुविधा दे रखा है उन्होंने। यथा— नित्य
तर्पण की विधि है। ये नहीं कर पाते तो कम से कम प्रत्येक अमावस्या को कर लेना
चाहिए। ये मासिक कृत्य भी यदि नहीं कर पाते तो आश्विन और चैत्र मास के पितृपक्षों
में पूरे पन्द्रह दिन जलादि प्रदान करें। ये भी नहीं करते तो आश्विन अमावस्या को
विधिवत मुण्डनादि सम्पन्न करके तर्पण और पिण्डदान कर लें। यदि ये भी नहीं कर
पाते, वैसी स्थिति में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को सायंकाल दीपश्राद्ध का विधान
है—ये पितरों का आशीष प्राप्त करने का अन्तिम उपाय है। ये भी नहीं करते तो समझ
लें कि पितरों को बहुत निराशा होगी और वे हमें शापित भी कर सकते हैं।
प्रसंगवश
एक और बात यहाँ स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जाने-अनजाने अपने कर्मों का दुष्प्रभाव
हम भोगते रहते हैं। हमें पता भी नहीं चलता कि कष्ट और समस्या का कारण क्या है।
किन्तु सच्चाई ये है कि कुलदेवता और पितृदेवता की अवहेलना का बहुत बड़ा योगदान है
हमारी समस्याओं में। जीवन की बहुत सी जटिल समस्यायें भी इन दोनों की प्रसन्नता और
कृपा से प्राप्त की जा सकती है। अतः इन कृत्यों को अत्यावश्यक और अपरिहार्य समझकर
अंगीकार करना चाहिए। अस्तु।
ऊँ नमः पितृभ्यः
दीपश्राद्ध विधि (कार्तिक कृष्ण
चतुर्दशी-सायंकालीन-कृत्य)
शौचाचारोपरान्त (स्नान, पवित्र वस्त्र-धारण, शिखा-बन्धन)
पूर्वाभिमुख कम्बलासन पर बैठ कर— ऊँ केशवाय नमः, ऊँ नारायणाय नमः, ऊँ माधवाय
नमः -मन्त्रों से क्रमशः तीन बार आचमन करें, तत्पश्चात् ऊँ हृषिकेशाय नमः
मन्त्रोच्चारण पूर्वक अँगूठे की जड़ से होठों को पोंछ कर हाथ धो ले।
पवित्री धारण-- तीन कुशाओं का बटा हुआ पवित्री
बायें हाथ की अनामिका अँगुली में एवं दो कुशाओं का दायें हाथ की अनामिका अँगुली
में इस मन्त्र से धारण करें— ऊँ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव
उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः।तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य
यत्कामः।।
अब
यह मन्त्र बोल कर विनियोग करें -ऊँ अपवित्रः पवित्रोवेत्यस्य वामदेव ऋषिः
विष्णुर्देवता गायत्री छन्दः हृदि पवित्रकरणे विनियोगः ।।
इस मन्त्र से शरीर पर
जल छिड़के - ऊँ अपवित्रः पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। यः
स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स वाह्याभ्यन्तरः शुचिः ।।
पुनः विनियोग:- ऊँ पृथ्वीति मन्त्रस्य
मेरूपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मो देवता आसने विनियोगः ।।
इस
मन्त्र से आसन के चारो ओर जल छिड़कें - ऊँ पृथ्वि! त्वया धृता लोकाः, देवि! त्वं
विष्णुनाधृता। त्वं च धारय मां देवि! पवित्रं कुरु चासनम् ।।
तत्पश्चात्
कुशा, तिल, अक्षत, जल,श्वे त पुष्पादि (रंगीन वर्जित) लेकर संकल्प करे – हरिः
ऊँ तत्सत् अद्य श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य
ब्रह्मणोह्नि द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराह कल्पे
वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगेकलिप्रथम चरणे बौद्धावतारे जम्बूद्वीपे
भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशान्तरगते ...नगरे.... ग्रामे....क्षेत्रे....विक्रमसम्वत्सरे
शालिवाहनशाकेकार्तिक मासे कृष्ण पक्षे चतुर्दश्याम्तिथौ.... वासरे.... गोत्रोत्पन्न....शर्माहं,
मम कायिक-वाचिक-मानसिक ज्ञाताज्ञात सकलदोष परिहारार्थं श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त फलप्रापत्यर्थं
श्रीपितृणाम् प्रीत्यर्थं च पितृदीपावली सुअवसरे सायं काले दीपश्राद्धकर्ममहं
करिष्ये।
तत्पश्चात् तीन बार अपने सामने और दाहिने, इस मन्त्र से जौ का छिड़काव करें—ऊँ श्राद्ध
भूम्यै नमः । ऊँ श्राद्ध भूम्यै नमः। ऊँ श्राद्ध भूम्यै नमः।
तत्पश्चात् पितृगायत्री (अथवा देव गायत्री)
मन्त्र का तीन बार जप करे—
पितृगायत्री- ऊँ देवताभ्यः पितृभ्यःच महायोगिभ्य
एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो
नमः।।
तत्पश्चात् विश्वेदेवा एवं अपने पितरों का
ध्यान करते हुए दो कुशा पूरब की ओर और बारह कुशा दक्षिण की ओर स्थापित करें। आगे
इन्हीं कुशाओं पर बारी-बारी से संकल्प बोलकर प्रज्वलित दीपों को स्थापित करते जाना
है।
अब
जल, कुश का टुकड़ा और जौ तथा प्रज्वलित दीप हाथ में लेकर सर्वप्रथम पितृपक्ष(अपने
कुल)के विश्वेदेवा के निमित्त संकल्प करे। यहाँ और इससे आगे भी जहाँ संकल्प बोलना
है, ऊपर दिये गये पूरा संकल्प बोलना आवश्यक नहीं है। अतः संक्षिप्त संकल्प—
ऊँ
अद्य....गोत्र....शर्माऽहं....गोत्राणाम् अस्मद् पितृ पितामह प्रपितामहानाम् (क्रमशःअपने पिता,दादा एवं परदादा के
नामों का उच्चारण करना चाहिए)....शर्मन्....शर्मन्.....शर्मादीनाम्वसुरुद्रादित्य
स्वरूपानाम् एवं..गोत्राणाम् अस्मद् मातृ पितामही प्रपितामहीनाम् (क्रमशः अपनी
माता,दादी एवं परदादी का नामोच्चारण करना चाहिए)....देवी...देवी...देवीनाम्
गायत्री सावित्री सरस्वती स्वरूपानाम् श्राद्ध सम्बन्धिनो विश्वेदेवा एतम्
प्रज्वलितं दीपं वो नमः—बोलकर पूरब में रखे गए एक कुशा पर दीपक रख दे।
पुनः
जौ, कुश, जल और दीपक लेकर मातृपक्ष (ननिहाल कुल) के विश्वेदेवा के निमित्त संकल्प
करे। संक्षिप्त संकल्प—
ऊँ
अद्य...गोत्र...शर्माऽहं....गोत्राणाम् अस्मद् मातामह, प्रमातामह,
वृद्धप्रमातामहादीनाम् (क्रमशः
अपने नाना,परनाना और छरनाना के नामों का उच्चारण करें)...शर्मन्...शर्मन्...शर्मादीनाम्
वसुरुद्रादित्य स्वरूपानाम् एवं अस्मद् मातामही, प्रमातामही, वृद्धप्रमातामहीनाम्(क्रमशः
अपनी नानी, परनानी, छरनानी का नामोच्चारण करें। सही नाम गोत्र ज्ञात न रहने पर
रिक्त स्थान पर अमुक शब्द का उच्चारण करे) गायत्री सावित्री सरस्वती स्वरूपाणां
श्राद्ध सम्बन्धी विश्वेदेवा एतम्
प्रज्वलितं दीपं वो नमः - बोलकर पूरब में रखे दूसरे कुश पर दीपक रख दे। (अब तक
पूर्वाभिमुख बैठे हैं तथा जनेऊ और गमछा सव्य यानी बायें कंधे पर है और सुखासन,
अर्धपद्मासन या पद्मासन की मुद्रा है)।
अब
आगे दिशा, मुद्रा, गमछा और जनेऊ सभी बदल जायेंगे। बैठने की मुद्रा होगी- बायें पैर
को पीछे की ओर मोड़ कर एवं दाहिने पैर को खड़ा रखते हुए उकड़ू बैठे, यहाँ यह भी
ध्यान रहे कि दाहिना हाथ घुटने के अन्दर हो, बाहर नहीं। जनेऊ और गमछा दाहिने कंधे
पर हो। दक्षिणाभिमुख हो जायें। संकल्प में कुश और जल तो होंगे, किन्तु अब जौ के
स्थान पर तिल-चावल का प्रयोग किया जाएगा।
आगे
के बारह दीप दक्षिण की ओर पहले रखे गए बारह कुशाओं पर क्रमशः अलग-अलग संकल्प
वाक्यों के साथ स्थापित किए जायेंगे। रिक्त स्थानों में क्रमशः पिता, दादा,
परदादा, माता, दादी, परदादी तथा नाना, परनाना, छरनाना, नानी, परनानी, छरनानी का
नामोच्चारण संकल्प वाक्य में करते जाना है।
१. ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्रः पितः
...शर्मन् वसु स्वरूप प्रीत्यर्थं दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्मै स्वधा।
२. ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्रः
पितामहः ...शर्मन् रूद्र स्वरूप प्रीत्यर्थं दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्मै
स्वधा।
३. ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्रः
प्रपितामहः ...शर्मन् आदित्य स्वरूप प्रीत्यर्थं दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः
तस्मै स्वधा।
४. ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्राः मातः
...देव्याः गायत्री स्वरूपा प्रीत्यर्थं दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्यै
स्वधा।
५.
ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्राः पितामही सावित्री स्वरूपा प्रीत्यर्थं
दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्यै स्वधा।
६.
ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्रः प्रपितामहीः ....देव्याः सरस्वती स्वरूपा
प्रीत्यर्थं दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्यै स्वधा।
७.
ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्रः मातामहः ...शर्मन् वसु स्वरूप प्रीत्यर्थं
दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्मै स्वधा।
८.
ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्रः प्रमातामहः ...शर्मन् रूद्र स्वरूप
प्रीत्यर्थं दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्मै स्वधा।
९.
ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्रः वृद्धप्रमातामहः ...शर्मन् आदित्य स्वरूप
प्रीत्यर्थं दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्मै स्वधा।
१०.
ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्राः मतामही ...देव्याः गायत्री स्वरूपा प्रीत्यर्थं
दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्यै स्वधा।
११.
ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्राः प्रमातामही...देव्याः सावित्री स्वरूपा
प्रीत्यर्थं दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्यै स्वधा।
१२.
ऊँ अद्य....गोत्रः ...शर्माऽहं...गोत्रः वृद्धप्रमातामही...देव्याः सरस्वती
स्वरूपा प्रीत्यर्थं दीपश्राद्धे अयम् प्रज्वलित दीपः तस्यै स्वधा।
इस
प्रकार चौदह दीपों का दीपश्राद्ध कर्म पूरा हुआ। प्रसंगवश यहाँ यह भी कहदेना
आवश्यक लग रहा है कि पार्वणश्राद्ध की तरह, यहाँ चाचा,चाची,सास,ससुर आदि अन्य सम्बन्धियों के नाम से दीपदान आवश्यक
नहीं
है, ऋषियों ने प्रधान चौदह में ही सबको समाहित कर लिया है।
अब
पुनः सबका स्मरण करते हुए आशीष याचना करे।तत्पश्चात् पुनः तिल,चावल कुश जलादि लेकर यथाशक्ति दक्षिणा
संकल्प करे—
ऊँ
अद्य....गोत्रः....शर्माऽहं कृत दीपश्राद्ध सिद्ध्यर्थं यथाशक्ति दक्षिणाद्रव्यं
यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दातुमहमुत्सृजे। (यह संकल्प पूर्वाभिमुख एवं सव्य
जनेऊ और गमछे से करना चाहिए)
क्षमा प्रार्थना—प्रमादात् कुर्वतां कर्म
प्रच्यवेताध्वरेषु यत् ।स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादितिश्रुतिः।।
पुनः
दण्डवत प्रणाम करने के बाद अक्षत छिड़क कर विसर्जन करे।
***इति
दीपश्राद्धम्***
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