सर्वाङ्गपूजा विधान
सांसारिक
जीवन में पूजन-कार्य
अकेले या सपत्निक दोनों प्रकार से किए जाते हैं। संध्यादि नित्यकर्म अकेले ही करने
वाले कर्म हैं, जबकि नैमित्तिक कर्म या काम्यकर्म सपत्निक किए जाने चाहिए। कुछ ऐसे
भी कर्म हैं जो पति या पत्नी अकेले भी कर सकते हैं। जैसे तीज (हरितालिका) व्रत,
जिउत्पुत्रिकाव्रत, करवाचौथ या गणेश चतुर्थीपूजा
स्त्री अकेले ही करेगी, उसमें पति का सानिध्य आवश्यक नहीं है। सूर्य का
विशेष व्रत (छठ) पति या पत्नी अकेले भी कर सकते हैं या सपत्निक भी। कुलदेवता की
वार्षिक पूजा में अपने कुलाचारानुसार करना चाहिए। जैसे कहीं सपत्निक करने की
परम्परा है, तो कहीं सिर्फ स्त्री ही पूजा करती है।
ध्यातव्य है
कि सपत्निक किए जाने वाले किसी धार्मिक
कार्य में आचार्य द्वारा पत्नी के साथ ग्रन्थिबन्धन क्रिया सम्पन्न कराना
अत्यावश्यक है। आचार्य के अभाव में बहन या फूआ को भी अधिकार है ग्रन्थिबन्धन करने
का। किसी अन्य के अभाव में पति-पत्नि परस्पर भी ग्रन्थिबन्धन कर सकते हैं।
ग्नन्थिबन्धन
से भी पहले शिखाबन्धन और तिलकधारण आवश्यक हैं। शिखाधारण सनातनी परम्परा है।
हिन्दुत्व की पहचान है। किन्तु आजकल इसके अस्तित्व पर ही ग्रहण लग गया है।
शिखाधारण करने में लज्जा आती है। जो लोग शिखा रखते हैं, उन्हें भी शिखा की मर्यादा
का सही ज्ञान नहीं है। ध्यातव्य है कि शिखा सिर्फ स्नान और शयन के समय ही खुलनी
चाहिए। शेष काल में ग्रन्थियुक्त रहे। इसी भाँति स्त्रियों के केश सदा खुले नहीं
रहने चाहिए। विशेष स्थितियों में केशों को खुला छोड़ा जाता है। किसी भी नित्य,
नैमित्तिक, काम्य (देव-पितृकार्य) में आसन ग्रहण करने के पश्चात् शिखाबन्धन करना
चाहिए। जिन्हें शिखा न हो, वे भी शिखास्थल का स्पर्श अवश्य कर लें निम्नांकित
मन्त्रोच्चारण पूर्वक—
शिखाबन्धन
मन्त्र— ऊँ चिद्रूपिणी ! महामाये ! दिव्य तेजः समन्विते ! तिष्ठ देवि
! शिखामध्ये तेजो वृद्धिं कुरुष्वमे।।
स्त्री को
किसी मन्त्रोच्चारण की आवश्यकता नहीं है। केशविन्यास खुले हों तो उन्हें पूजाकार्य
प्रारम्भ करने से पूर्व संवार लेना चाहिए। इच्छानुसार चोटी या जूड़ा बाँध लेना
चाहिए।
तिलकधारण— शिखाबन्धन के पश्चात् पुरुष अपने ललाट पर अपने
कुलाचारानुसार गोपीचन्दन, रोली इत्यादि से तिलक अवश्य कर लें। स्त्रियाँ स्नान के बाद माँग में सिन्दूर लगा कर ही कोई
अन्य कार्य में लगती है—ऐसी शास्त्र सम्मत परम्परा है। ध्यातव्य है कि आचार्य
द्वारा तिलक आगे लगाया जायेगा। तिलक की महत्ता के सम्बन्ध में शास्त्र-वचन हैं—ऊर्ध्वपुण्ड्रं
मृदा कुर्याद् भस्मना तु त्रिपुण्ड्रकम् । उभयं चन्दनेनैव अभ्यङ्गोत्सवरात्रिषु ।।
ललाटे तिलकं कृत्वा संध्याकर्म समाचरेत् । अकृत्वा भालतिलकं तस्य कर्म निरर्थकम्
।।
तिलक
लगाने का मन्त्र—चन्दनस्य महत्पुण्यं पवित्रं पापनाशनम्। आपदं पहते नित्यं
लक्ष्मीस्तिष्ठति सर्वदा।।
तिलक कैसे लगायें इस सम्बन्ध में कहा गया है—अनामिका
शान्तिदोक्ता मध्यमायुष्करी भवेत् । अंगुष्ठः पुष्टिदः प्रोक्तः तर्जनी
मोक्षदायिनी।।
(सपत्निक कार्यों में पत्नी-पत्नी का आसन एकत्र हो तो
अच्छा है। अभाव में दो आसनों का उपयोग भी किया जा सकता है। आजकल जैसा-तैसा आसन
बिना विचारे फैशन में चल रहा है। श्रेष्ठ सर्वग्राह्य आसन कम्बल का ही है। विशेष
कार्यों में (साधनाक्रिया में) क्रियानुसार आसनों का चयन करना अत्यावश्यक होता है।
सामान्यतया नित्य, नैमितिक कर्मों में सफेद कम्बल का आसन ही उपयुक्त है। )
पूर्वाभिमुख आसन पर बैठकर स्वयं या आचार्य द्वारा ग्रन्थिबन्धन की क्रिया सम्पन्न होनी चाहिए। ग्रन्थिबन्धन हेतु निम्नांकित मन्त्र का वाचन होना चाहिए--
ॐ मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरुड़ध्वजः। मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मङ्गलाय तनोहरिः।।— के उच्चारण सहित अक्षत, फूल, सुपारी और द्रव्य लेकर यजमान-पत्नी की चुनरी में डाल कर, गाँठ लगाकर, यजमान की चादर से संयुक्त कर देना — ग्रन्थिबन्धन क्रिया कहलाती है। (अक्षत कहते हैं पाँच बार प्रक्षालित किया गया अरवा चावल, जो हरिद्राचूर्ण मिश्रित हो)
(ग्रन्थिबन्धन
से सम्बन्धित एक खास बात पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ— प्रायः लोगों को पूजन कार्य
में देखा जाता है कि पति कोई कार्य कर रहा होता है, तो पत्नी अपने हाथ से पति के
हाथ को पकड़े रहती है या कोई व्यक्ति जब
हवन कर रहा होता है, उस समय आहुति डालते समय बायें हाथ से अपने ही दायें हाथ को छूए
रहता है— ये दोनों ही कार्य अति मूर्खतापूर्ण हैं। ग्रन्थिबन्धन युक्त पत्नी का
पति के शरीर का स्पर्श किए रहने का कोई प्रयोजन या औचित्य नहीं है। इसी भाँति
दाहिने हाथ से हवन कुण्ड में आहुति प्रदान करते समय या कुछ अन्य कार्य करते समय बायें
हाथ से स्पर्श किये रहना भी व्यर्थ, अविधिक, अविवेकपूर्ण ही है। पत्नी की भूमिका
पूजन कार्य में हर तरह का सहयोग करना है, जितना वह सहजता से कर सके। जीवनरथ के दो
चक्के मिल कर धर्मकार्य में संलग्न हैं। ग्रन्थिबन्धन के पश्चात् किसी एक के
द्वारा भी किया गया कार्य दूसरे के द्वारा किया गया ही माना जायेगा। इसमें जरा भी
संशय नहीं है। एक और बात का ध्यान रखना चाहिए—सपत्निक कर्म का विशेष महत्त्व है। जिसकी
पत्नी जीवित हो उस पुरुष को कोई भी ऐसा कार्य अकेले नहीं करना चाहिए और यही नियम
पत्नी के लिये भी मान्य है। हाँ, विधवा, विधुर, परित्यक्ता आदि के लिए बात अलग
होगी।)
सर्वप्रथम
पूजन कार्यार्थ जलपात्र (कर्मपात्र) स्थापित करे। यथा—तांबे या पीतल के जलपूर्णपात्र
में फूल, अक्षत, सुपारी, दूर्वा, द्रव्य और आम्रपल्लव वा कुशा गंगाजल, अन्य
यथोपलब्ध तीर्थजल आदि डाल कर, निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक जल
को आलोड़ित करे (चलावे)—ऊँ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती, नर्मदे सिन्धुकावेरी जलेस्मिन्सन्निधौकुरु।।
(प्रसंगवश गंगाजलादि पवित्रजल को सामान्य
जल में मिलाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सामान्य जल में गंगाजल को डालें।
न कि गंगाजल में सामान्य जल को। इसी
भाँति अभाववश दूध में जल मिलाना हो यदि तो वहाँ भी दूध में जल न मिलाकर, जल में
दूध मिलावें। अनुलोम-विलोम मिश्रणविधान का तात्विक रहस्य है, जिसे समझने के लिए
योगशास्त्र और तत्वमीमांशा का ज्ञान आवश्यक है। आधुनिक
कुतर्की ये कह सकते हैं कि इसमें क्या फर्क है? वस्तुतः
उनके समझ से बाहर की बात है ये। )
अब, क्रमशः तीन कुशाओं की बंटी हुयी
पवित्री बायें हाथ की अनामिका अंगुली में और दो कुशाओं की बंटी हुयी पवित्री दायें
हाथ की अनामिका अंगुली में धारण करें निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक— ऊँ
पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसवः उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य
रश्मिभिः। तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्।। अथवा
मात्र ऊँ भूर्भुवःस्वः कह कर पहन
लें।
(स्त्री को
पवित्री धारण करने की आवश्यकता नहीं है, उसे सोने की अंगूठी धारण करनी चाहिए।
नान्दीश्राद्ध में कुशा की पवित्री का व्यवहार न करके उसके स्थान पर दूर्वा की
अंगूठी का प्रयोग करना शास्त्र सम्मत है। अज्ञान में लोग कुशा को विष्ण्वंश बताकर
सर्वत्र प्रयोग कर देते है,ये अनुचित है। )
पवित्री
धारण करने के पश्चात् एक या तीन बार गायत्रीमन्त्र से प्राणायाम कर लेना उत्तम
होता है। विशेष प्रकार से न कर सके तो वाम नाशापुट से श्वांस लेकर दक्षिण नाशापुट
से छोड़ दे और पुनः दाँयीं से लेकर बायीं से छोड़ दे। यह प्राणायाम की अति
संक्षिप्त विधि है। विशेष क्षमता और अभ्यास हो तो अधिक भी किया जा सकता है।
अब, दाहिने
और सामने एक-एक दीप प्रज्जवलित कर, जलाक्षतपुष्पद्रव्यादि लेकर विधिवत साक्षी दीप
और रक्षा दीप को स्थापित करे— भो दीप ! देवरूपस्त्वं कर्मसाक्षी ह्यविघ्नकृत् ,
यावत्कर्म समाप्तिः स्यात् तावत्त्वं सुस्थिरो भव। प्रसन्नो भव। वरदा भव।
(सामने या
दायीं ओर साक्षीदीप घी का और बायीं ओर रक्षादीप तिलतैल का होना चाहिए। अज्ञानवश
लोग तिल तैल के स्थान पर सरसो का तेल प्रयोग कर लेते हैं, जो अनुचित है। तिलतेल के
अभाव में घी का प्रयोग किया जा सकता है, किन्तु
सरसो तेल
कदापि नहीं।)
अब, कर्मपात्र
से थोड़ा-थोड़ा जल तीन बार ले लेकर ॐ केशवाय नमः, ॐ माधवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः
कहते हुए तीन आचमन करे और पुनः चौथी बार जल लेकर ॐ हृषीकेशाय नमः कहते
हुए हाथ धोले।
पुनः जल
लेकर विनियोग मन्त्र बोलकर, सामने जल गिरा दे — ऊँ अपसर्पन्त्विति
मन्त्रस्य वामदेव ऋषिः, शिवो देवता, अनुष्टुप छन्दः, भूतादिविघ्नोत्सादने
विनियोगः।
अब, अक्षत
वा पीला सरसो एवं मौली (एक लच्छी) पत्रपुटक (दोने) में, बायें हाथ में लेकर दाहिने
हाथ से ढक कर दिग् रक्षा व भूतोत्सादन मन्त्र बोले—
ॐ
गणाधिपं नमस्कृत्य नमस्कृत्य पितामहम्। विष्णुं रुद्रं श्रियं देवीं वन्दे भक्त्या
सरस्वतीम्।। स्थानाधिपं नमस्कृत्य ग्रहनाथं निशाकरम्। धरणीगर्भसम्भूतं
शशिपुत्रं बृहस्पतिम्।। दैत्याचार्यं नमस्कृत्य सूर्यपुत्रं महाबलम्। राहुं
केतुं नमस्कृत्य यज्ञारम्भे विशेषतः।। शक्राद्या देवताः सर्वाः मुनीं चैव
तपोधनान्। गर्गंमुनिं नमस्कृत्य नारदं मुनिसत्तमम्।। वशिष्ठं मुनिशार्दूलं
विश्वामित्रं च गोभिलम्। व्यासं मुनिं नमस्कृत्य सर्वशास्त्रविशारदम्।। विद्याधिका
ये मुनयः आचार्याश्च तपोधनाः। तान् सर्वान् प्रणमाम्येवं यज्ञरक्षाकरान् सदा।।
अब, इस
अभिमन्त्रित अक्षत/सरसो को थोड़ा-थोड़ा ले-लेकर आचार्य के निर्देशानुसार विभिन्न
दिशाओं में छींटे— पूर्वे रक्षतु वाराहः, आग्नेयां गरुड़ध्वजः । दक्षिणे
पद्मनाभस्तु, नैऋत्यां मधुसूदनः ।। पश्चिमे चैव गोविन्दो, वायव्यां तु जनार्दनः ।
उत्तरे श्रीपतिः रक्षेत्, ईशाने तु महेश्वरः ।। ऊर्ध्वं रक्षतु धाता
वोऽधोऽनन्तश्च रक्षतु। एवं दशदिशो रक्षेद् वासुदेवो जनार्दनः ।। रक्षाहीनं तु
यत्स्थानं रक्षत्वीशो ममाद्रिधृक्। यदत्र संस्थितं भूतस्थानमाश्रित्यसर्वदा ।
स्थानं त्यक्त्वातु तत्सर्वं यत्रस्थं तत्र गच्छतु। अपक्रामन्तु ते भूता ये भूता
भूतले स्थिताः ।। ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया । अपक्रामन्तु
भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम् ।। सर्वेषामविरोधेन पूजाकर्म समारभे ।।
शेष बचे अक्षत और मौली को सामने रखकर, तीन बार
जोर से ताली बजावे।
अब, आचार्य
अपने यजमान को कुमकुमादि तिलक लगावे तथा थोड़ा सा सिन्दूर ॐ गौर्यैः नमः
से मन्त्राभिषिक्त करके यजमान पत्नी के हाथों में दे दे और उसे स्वयं
लगा लेने का निर्देश दें।
(तिलक के सम्बन्ध में भी एक अविवेक पूर्ण
चलन की ओर ध्यान दिलाना उचित प्रतीत हो रहा है—ब्राह्मण जब किसी यजमान को तिलक
लगाने के लिए अपना हाथ बढ़ाता है, तो उस समय यजमान अपना दाहिना हाथ अपने सिर के
पीछे कर लेता है— वस्तुतः यह भी एक प्रकार की अज्ञानता का ही सूचक है। योग के गहन
ज्ञान रखने वाले इस रहस्य (औचित्य-अनौचित्य) को सहज समझ सकते हैं। आम व्यक्ति के लिए
सिर्फ इतना ही सुझाव है कि तिलक लगवाने हेतु दोनों हाथों को जोड़कर, नम्रता पूर्वक
गर्दन थोड़ा आगे झुका दे,वस।)
तिलक धारण
के बाद, पवित्रीकरण हेतु विनियोग करे—
ऊँ
अपवित्रःपवित्रोवेत्यस्य वामदेवऋषिः विष्णुर्देवता गायत्री छन्दः हृदि पवित्रकरणे
विनियोगः।। (कर्मपात्र से आम्रपल्लव, कुशा वा कलछी द्वारा जल लेकर
भूमि पर गिरावे।)
पुनः जल
लेकर मन्त्रोच्चारण करते हुए अपने चारो ओर और सभी पूजन सामग्रियों पर भी जल का
छिड़काव करे— ॐ अपवित्रः पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः
स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स वाह्याभ्यन्तरः शुचिः ।। ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ,
ऊँ पुण्डरीकाक्षः पुनातु , ॐ
पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।।
(पुष्प पर
जल न छिड़के। ध्यातव्य है कि सभी वस्तुयें जल-सिंचन से पवित्र होती हैं, किन्तु
पुष्प अपवित्र हो जाता है।)
पुनः विनियोग—
ॐ पृथ्वीति मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मो देवता आसने विनियोगः
।। आसन के सामने जल गिराकर पुनः अंजुलि
में जल ले ले और मन्त्रोच्चारण पूर्वक अपने (सपत्निक हो तो एकत्र आसनशुद्धि करे) आसन
के चारो ओर जल से बन्धन करे— ॐ
पृथ्वि ! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता। त्वं च धारय मां देवि !
पवित्रं कुरु चासनम्।।
स्वस्तिवाचन—
तत्पश्चात्
जलाक्षतपुष्पपूंगीफलद्रव्यादि लेकर स्वतिवाचन मन्त्रोच्चारण करे। इस कार्य में
वहाँ उपस्थित अन्य ब्राह्मण भी सहयोग करें, यानी मन्त्रोच्चारण एक साथ करें। सामूहिक
स्वस्तिवाचन का अधिक महत्त्व है।
ॐ आ नो
भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः । देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो
दिवे दिवे ।। देवानां भद्रा
सुमतिर्ऋजूयतां देवानाꣳ रातिरभि नो निवर्तताम् । देवानाꣳसक्यमुपसेदिमा वयं देवा
न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ।। तान्पूर्वया
निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम् । अर्यमणं वरुणꣳसोममश्विनासरस्वती नः सुभगा
मयस्करत् ।। तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं
तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः । तद्
ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना श्रृणुतं धिष्ण्या युवम् ।। तमाशानं जगतस्त्स्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे
हूमहे वयम् । पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे
रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये। । स्वस्ति
न इन्द्रो वृद्धश्रवाःस्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिरधातु
।। पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं
यावानो विदथेषु जग्मयः । अग्निजिह्वा
मनवः सूरचश्रसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह ।।
भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाश्रभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः ।। शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं
तनूनाम् । पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा
नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ।। अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स
पुत्रः।।विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिरजातमदितिर्जनित्वम् ।। (शुक्ल
यजुर्वेद २५।१४-२३) द्यौः शान्तिरन्तरिक्षꣳशान्तिः पृथिवी
शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म
शान्तिः सर्वꣳशान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।। (शुक्लयजुर्वेद
३६-१७) यतो यतः समीहसे
ततो नो अभयं कुरु । शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः।। सुशान्तिर्भवतु ।। (शु.य.३६-२२) ॐ गणानान्त्वा गणपतिᳫहवामहे
प्रियाणान्त्वा प्रियपतिहवामहे निधीनान्त्वा निधिपतिᳫहवामहे व्यसो
मम। आहमाजानि गर्ब्भधमात्वमजासि
गर्ब्भधम् ।। ॐ अम्बे अम्बिके अम्बालिके न
मा नयति कश्चन। ससस्त्यस्वकः सुभद्रिकाङ्काम्पीलवासिनीम् ।।
ॐ
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः । ॐ लक्ष्मीनारायणाय नमः। ॐ उमामहेश्वराभ्यां नमः। ॐ
वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः । ॐ शचीपुरन्दराभ्यां नमः। ॐ मातृपितृचरणकमलेभ्यो नमः ।
ॐ इष्टदेवताभ्यो नमः । ॐ कुलदेवताभ्यो नमः । ॐ ग्रामदेवताभ्यो नमः । ॐ वास्तुदेवताभ्यो नमः । ॐ स्थानदेवताभ्यो
नमः। ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः । ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः। ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय ॐ श्रीमन्महागणाधिपतये
नमः ।। ॐ सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः । लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः
।। धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः। द्वादशैतानि नामानि यः
पठेच्छृणुयादपि ।। विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । संग्रामे संकटे चैव
विघ्नस्तस्य न जायते ।। शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम्। प्रसन्नवदनं
ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ।। अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं पूजितो यः सुरासुरैः ।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ।। सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये ! शिवे ! सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके ! गौरि नारायणि नमोऽस्तुते।। सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति
तेषाममंगलम्। येषां हृदिस्थो भगवान् मंगलायतनं हरिः।। तदेव लग्नं सुदिनं तदेव
ताराबलं चन्द्रबलं तदेव। विद्याबलं देवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽङ्घ्रियुगं
स्मरामि।। लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः। येषामिन्दवरश्यामो हृदयस्थो
जनार्दनः ।। यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो
भूतिर्धुवा नीतिर्मतिर्मम।। अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां
नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। स्मृतेः सकलकल्याणं भाजते यत्र जायते।
पुरुषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम्।। सर्वेष्वारम्भकार्येषु
त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः। देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दनाः।। विश्वेशं
माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं च भैरवम्। वन्दे काशीं गुहां गङ्गां भवानीं
मणिकर्णिकाम्।। वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु
सर्वदा।। ॐ श्री गणेशाम्बिकाभ्यां नमः।।
उक्त
मन्त्रोच्चारण के पश्चात् हाथ में लिए हुए पुष्पाक्षतादि को गणेशाम्बिका पर चढ़ा दे।
(ध्यातव्य है कि अभी देवावाहन नहीं किया गया है। पूजा की तैयारी क्रम में सामने
पत्ते पर या दोने में मौली, सुपारी, अक्षतादि रखकर सजाया भर गया है।)
संकल्प— अब, पुनः जलाक्षतपूगीफलपुष्पद्रव्यादि
दाहिने हाथ में लेकर संकल्प बोले (बीच में जहाँ कहीं भी....या अमुक शब्द आया है
वहाँ आचार्य निर्दिष्ट शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। जैसे नगर, ग्राम, संवत्सर, मास,
पक्ष, तिथि, दिन, गोत्र आदि। तथा अपने नाम के आगे ब्राह्मणों को शर्मा, क्षत्रियों
को वर्मा, वैश्यों को गुप्त और शूद्रों को दास कहना चाहिए, न कि पाठक, मिश्र, चौबे,
पांडे आदि।)
(निर्णयसिन्धु
एवं भविष्यपुराण में संकल्प की महत्ता और औचित्य पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है
कि संकल्पेन विना विप्र ! यत्किञ्चित् कुरुते नरः। फलं चाप्यल्पकं तस्य
धर्मस्यार्धं क्षयो भवेत् ।। तथा च शान्ति मयूख में कहा गया है – मासपक्षतिथीनां
च निमित्तानां प्रपूर्वकः। उल्लेखनमकुर्वाणो न तस्य फलभाग्भवेत्।। अतः समुचित
फल चाहने वालों को किसी धर्मकार्य में सचेष्ट होकर संकल्प अवश्य करना चाहिए।)
हरि ॐ तत्सत् ॐ विष्णुर्विष्णुविष्णुः
श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे
द्वितीययामे तृतीयमुहूर्ते
श्रीश्वेतवारहकल्पे सप्तमे
वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे
भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तरगते बौद्धावतारे प्रभवादि षष्टिसंवत्सराणां मध्ये, वैक्रमाब्दे...संवत्सरे
श्रीमच्शालिवाहनशाके यथायने सूर्ये यथा ऋतौ च यथा नक्षत्रे यथा-यथा राशि स्थिते
ग्रहेषु सत्सु यथा लग्न मुहूर्त योग करणान्वितायाम् एवं ग्रह गुण विशेषण
विशिष्टायां शुभ पुण्य पर्वणि
वर्तमाने.....नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे....मासे...पक्षे....तिथौ...वासरे...गोत्रः.... शर्मा/वर्मा/
गुप्त/दास नामाऽहम् सपत्नीकोहं.....कर्मं करिष्ये, तङ्गत्वेन तत्पूर्वं स्वस्तिवाचनं/ पुण्याहवाचनं/ प्रधानकलश स्थापन-पूजनं,
विविध मातृकादिपूजनं / वसोर्धारापूजनमायुष्यमन्त्र जपं / सांकल्पिकमाभ्युदयिक-
श्राद्धमाचार्यादिवरणं च करिष्ये, तत्रादौ तन्निर्विघ्नता सिध्यर्थं श्रीगणेशाम्बिकयो
पूजनं च करिष्ये।
(नोट-1. इस
चिह्न / का ध्यान रखते हुए आवश्यकतानुसार वाक्यान्तर प्रयोग करना चाहिए,सुविधा के
लिए संकल्प एकत्र दिया गया है।
2. .....नान्दीश्राद्धं ततः कुर्यात् पुण्याहं
वाचयेत्ततः – मत्स्यपुराण में इसे नान्दीश्राद्ध के पश्चात् करने का संकेत है।
किंचित पूजा पद्यतियों में स्वस्तिवाचन के बाद ही करने की बात आती है, तो कहीं
कलशस्थापन के बाद। ध्यातव्य है कि पुण्याहवाचन के लिए वरुण का आवाहन-पूजन अनिवार्य
है, जिसके लिए अतिरिक्त कलशादि की आवश्यकता होती है। वित्तानुसार यह कलश धातु या
मिट्टी का हो सकता है। साथ ही जल गिराने के लिए दो अलग-अलग पात्र भी तदभाँति ही- धातु
वा मिट्टी के- अनिवार्य हैं।यहाँ मेरा कथन सिर्फ इतना ही है कि सामान्य पूजा में
तो
नहीं,
किन्तु विशेष पूजाकार्य में पुण्याहवाचन कर्म अवश्य किया जाना चाहिए।
3.पुण्याहवाचन
की दो प्रचलित विधियाँ हैं—एक विस्तार से और एक संक्षिप्त । यहाँ दोनों विधियाँ दी
जा रही हैं। सुविधानुसार उपयोग किया जाना चाहिए। अस्तु।
पुण्याहवाचन
विधि
(क)बौधायन
की संक्षिप्त विधि—यह मूल रुप से पुरोहित-यजमान संवाद-शैली में है। आचार्य
के सम्मुख, अक्षतपुष्पादि हाथों में लेकर सपत्निक यजमान पुण्याहवाचन की कामना से
प्रार्थना करे—
यजमान- ब्राह्मं पुण्यं महर्यच्च
सृष्ट्युत्पादनकारकम्। वेदवृक्षोद्भवं नित्यं तत्पुण्याहं ब्रुवन्तु नः।। भो
ब्राह्मणाः मम सकुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे
.....कर्मणः(रिक्तस्थान में अभीष्ट कार्य बोले। जैसे चौल,मुण्डन, विवाह,
यज्ञोपवीत, गृहप्रवेश इत्यादि शब्द का उच्चारण करे) पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ऊँ
पुण्याहं, ऊँ पुण्याहं, ऊँ पुण्याहं।
ऊँ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः।
पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा।।
यजमान- पृथिव्यामुद्धृतायां तु यत्कल्याणं पुरा कृतम्
।
ऋषिभिः सिद्धगन्धर्वैस्तत्कल्याणं ब्रुवन्तु
नः ।।
भो ब्राह्मणाः मम सकुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे .....कर्मणः) कल्याणं
भवन्तो ब्रुवन्तु ।
(रिक्त स्थान में विवाह/यज्ञोपवीत/ भूमिपूजन/गृहप्रवेश आदि किए जा रहे कार्य का उच्चारण करना
चाहिए )
ब्राह्मण- ऊँ कल्याणं, ऊँ कल्याणं, ऊँ कल्याणं। ऊँ
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्याꣳशूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय
च। प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु ।
यजमान- सागरस्य तु या ऋद्धिर्महालक्ष्यादिभिः कृता। सम्पूर्णा
सुप्रभावा च तां च ऋद्धिं ब्रुवन्तु नः।। भो ब्राह्मणाः मम सकुम्बस्य सपरिवारस्य
गृहे ऋद्धिं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ऊँ कर्म ऋध्यताम्, ऊँ कर्म
ऋध्यताम्, ऊँ कर्म ऋध्यताम्। ऊँ सत्रस्य ऋद्धिरस्यगन्म ज्योतिरमृता अभूम। दिवं
पृथिव्याम् अध्याऽरुहामाविदाम देवान्त्स्वर्ज्योतिः।
यजमान- स्वस्तिस्तु याऽविनाशाख्या
पुण्यकल्याणवृद्धिदा। विनायकप्रिया नित्यं तां च स्वस्तिं ब्रुवन्तु नः। भो
ब्राह्मणाः मम सकुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे
स्वस्तिं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ऊँ आयुष्मते स्वस्ति, ऊँ आयुष्मते स्वस्ति,
ऊँ आयुष्मते स्वस्ति। ऊँ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाःस्वस्ति नः पूषा
विश्ववेदाः। स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिरधातु।।
यजमान- मृकण्डसूनोरायुर्यद्ध्रुवलोमशयोस्तथा। आयुषा
तेन संयुक्ता जीवेम शरदः शतम्।।
ब्राह्मण- जीवन्तु भवन्तः, जीवन्तु भवन्तः,जीवन्तु
भवन्तः। ऊँ शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्र्चक्रा जरसं तनूनाम्। पुत्रासो
यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः।।
यजमान- समुद्रमथनाज्जाता जगदानन्दकारिका। हरिप्रिया च
माङ्ल्या तां श्रियं च ब्रुवन्तु नः।। शिवगौरीविवाहे तु या श्रीरामे नृपात्मजे। धनदस्य
गृहे या श्रीरस्माकं सास्तु सद्मनि ।।
ब्राह्मण- अस्तु श्रीः, अस्तु श्रीः, अस्तु
श्रीः। ऊँ मनसः कामनाकूतिं वाचः सत्यमशीय
पशूनाᳫरुपमन्नस्य रसो यशः श्रीः श्रयतां मयि स्वाहा।
यजमान- प्रजापतिर्लोकपालो धाता ब्रह्मा च देवराट्। भगवाञ्छाश्वतो
नित्यं स नो रक्षतु सर्वतः।। योऽसौ प्रजापतिः पूर्वे यः करे पद्मसम्भवः। पद्मा वै
सर्वलोकानां तन्नोऽस्तु प्रजायते।।
तत्पश्चात्
हाथ में लिया हुआ अक्षतपुष्पादि सामने छोड़ दे और बोले—
भगवान्
प्रजापतिः प्रीयताम्।
ब्राह्मण- ॐ प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रुपाणि
परि ता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्त्वयममुष्य पितासावस्य पिता वयꣳस्याम
पतयो रयीणाꣳ स्वाहा। आयुष्मते स्वस्तिमते यजमानाय दाशुषे। कृताः सर्वाशिषः सन्तु
ऋत्विग्भिर्वेदपारगैः। या स्वस्तिर्ब्राह्मणो भूता या च देवे व्यवस्थिता।
धर्मराजस्य या पत्नी स्वस्तिः शान्तिः सदा तव।। देवेन्द्रस्य यथा स्वस्तिस्तथा
स्वस्तिर्गुरोर्गृहे। एकलिंगे यथा स्वस्तिस्तथा स्वस्तिः सदा तव।। ॐ आयुष्मते
स्वस्ति, ॐ आयुष्मते स्वस्ति, ॐ आयुष्मते स्वस्ति।। ॐ प्रति पन्थामपद्महि स्वस्तिगामनेहसम्। येन
विश्वाः परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु। पुण्याहवाचनकर्मणः समृद्धिरस्तु।।
(इस प्रकार संक्षिप्त
पुण्याहवाचन विधि सम्पन्न हुयी)
(ख)पुण्याहवाचन
(विस्तृत विधि)— विस्तृत रुप से पुण्याहवाचन करने के लिए सर्वप्रथम
यथाशक्ति पीतल/तांबा/कांसा/मिट्टी का वरुण-कलश स्थापित करे, जिसका आकार कम से कम
आधा लीटर जल ग्रहण-योग्य हो। कलश के दांये और बांये एक-एक कटोरी भी रखे, जिसमें
पुण्याहवाचन के बीच जल गिराना होगा। दांयी कटोरी का आकार बांयीं की तुलना में कुछ
बड़ा होना चाहिए। दांयी कटोरी में पुण्य-जल और वांयी कटोरी में पापजल को गिराना
होता है। कलश और दोनों कटोरियों के नीचे कुशा रखनी चाहिए। अभाव में दुर्वा भी
व्यवहृत हो सकता है। अब सर्वप्रथम कलश में जल , गंगाजल, चन्दन, पुष्प, दूर्वा, सुपारी,
द्रव्य आदि डाल कर हाथों में अक्षतपुष्पादि लेकर वरुण का आवाहन करें—
वरुण प्रार्थना— ॐ पाशपाणे नमस्तुभ्यं
पद्मिनीजीवनायक। पुण्याहवाचनं यावत् तावत् त्वं सुस्थिरो भव ।
अब, यजमान अपनी दाहिनी ओर पुण्याहवाचक
आचार्य/पुरोहित का सांगोपांग वरण (वस्त्र, द्रव्यादि से) करके आसन पर विठावे, जिसका
मुंह उत्तर की ओर हो और स्वयं सपत्निक पूर्वाभिमुख घुटने टेक कर (नीलडाउन), दोनों
हाथों में अक्षत, पुष्प, द्रव्यादि लेकर अञ्जलिबद्ध होकर सिर से लगाकर तीन बार
प्रणाम करे।
अब आचार्य अपने दाहिने हाथ से उक्त वरुण कलश
को उठाकर यजमान की अञ्जलि में स्थापित कर दे। यजमान उस कलश को अपने सिर से लगावे।
अब आचार्य-यजमान में परस्पर निम्नांकित संवाद
होंगे—
यजमान- ॐ दीर्घा नागा नद्यो गिरयस्त्रीणि विष्णुपदानि
च। तेनायुः प्रमाणेन पुण्यं पुण्याहं दीर्घमायुरस्तु।
ब्राह्मण- अस्तु दीर्घमायुः।
यजमान- ॐ त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।
अतो धर्माणि धारयन्। तेनायुःप्रमाणेन पुण्यं पुण्याहं दीर्घमायुरस्तु इति भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- पुण्यं पुण्याहं दीर्घमायुरस्तु।
नोटः-
आचार्य-यजमान का यह संवाद इसी भाँति यहाँ पर दो बार और होना चाहिए।
यजमान- ॐ अपां मध्ये स्थिता देवाः
सर्वमप्सु प्रतिष्ठितम्। ब्राह्मणानां करे न्यस्ताः शिवा आपो भवन्तु नः।। ॐ शिवा
आपः सन्तु।।
(ऐसा कहकर यजमान आचार्च के हाथों में बारीबारी से जल,
पुष्प, अक्षत, चन्दन, पान, सुपारी, द्रव्य आदि देता जाये और ब्राह्मण क्रमशः उसे
स्वीकारते हुए, स्वीकारोक्ति वाक्य कहकर यजमान की मंगलकामना करता जाये, जैसा कि
आगे
दर्शाया गया
है)—
ब्राह्मण-सन्तु शिवा आपः। (जल दे)
यजमान- लक्ष्मीर्वसति पुष्पेषु लक्ष्मीर्वसति
पुष्करे। सा मे वसतु वै नित्यं सौमनस्यं सदास्तु मे।। सौमनस्यमस्तु।। (पुष्प
दे)
ब्राह्मण- अस्तु सौमनस्यम्।
यजमान- अक्षतं चास्तु मे पुण्यं दीर्घमायुर्यशोबलम्। यद्यच्छ्रेयस्करं
लोके तत्तदस्तु सदा मम।। अक्षतं चारिष्टं चास्तु।। (अक्षत दे)
ब्राह्मण-अस्त्वक्षतमरिष्टं च।
यजमान- गन्धाःपान्तु। (चन्दन दे)
ब्राह्मण- सौमङ्गल्यं चास्तु।
यजमान- अक्षताः पान्तु। (पुनःअक्षत दे)
ब्राह्मण- आयुष्यमस्तु।
यजमान- पुष्पाणि पान्तु। (पुष्प दे)
ब्राह्मण- सौश्रियमस्तु।
यजमान- सफलताम्बूलानि पान्तु। (पान-सुपारी दे)
ब्राह्मण- ऐश्वर्यमस्तु।
यजमान- दक्षिणाः पान्तु। (द्रव्य दक्षिणा दे)
ब्राह्मण- बहुदेयं चास्तु।
यजमान- आपः पान्तु। (पुनः जल दें)
ब्राह्मण- स्वर्चितमस्तु।
यजमान- (हाथ जोड़कर प्रार्थना करे)- दीर्घमायुः
शान्तिः पुष्टिस्तुष्टिः श्रीर्यशो विद्या विनयो वित्तं बहुपुत्रं बहुधनं चायुष्यं
चास्तु।
ब्राह्मण- तथास्तु। (कहते हुए आचार्य यजमान के
सिर पर कलश का जल छिड़क कर आशीर्वचन बोले)— ॐ दीर्घमायुः शान्तिः
पुष्टिस्तुष्टिश्चास्तु।
यजमान- (पुनः अक्षत लेकर हाथ जोड़कर बोले)— यं कृत्वा
सर्ववेदयज्ञक्रिया-करणकर्मारम्भाः शुभाःशोभनाः प्रवर्तन्ते,तमहमोङ्कारमादिंकृत्वा
यजुराशीर्वचनं बहुऋषिमतं समनुज्ञातं भवद्भिरनुज्ञातः पुण्यं पुण्याहं वाचयिष्ये।
ब्राह्मण- ‘वाच्यताम्’ – कहते हुए अग्र मन्त्रों
का वाचन करे— ॐ द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत। नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत। सविता
त्वा सवानाꣳ सुवतामग्निर्गृहपतीनाꣳ सोमो वनस्पतीनाम्। बृहस्पतिर्वाच इन्द्रो
ज्यैष्ठ्याय रुद्रः पशुभ्यो मित्रः सत्यो वरुणो धर्मपतीनाम्। न तद्रक्षाꣳ सि न
पिशाचास्तरन्ति देवानामोजः प्रथमजꣳ ह्येतत्। यो बिभर्ति दाक्षायणꣳ हिरण्यꣳ स देवेषु
कृणुते दीर्घमायुः स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः। उच्चा ते जातमन्धसो दिवि
सद्भूम्या ददे। उग्रꣳ शर्म महि श्रवः।। उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे। अभि
देवाँ देवाँ इयक्षते।
यजमान-व्रतजपनियमतपःस्वाध्यायक्रतुशमदमदयादानविशिष्टानांसर्वेषां-
ब्राह्मणानां मनः समाधीयताम्।
ब्राह्मण- समाहितमनसः स्मः।
यजमान- प्रसीदन्तु भवन्तः।
ब्राह्मण- प्रसन्नाः स्मः।
(अब, पुण्याहवाचनकलश के दायें-बायें रखे दो
जलपात्र (कटोरी) में से सिर्फ दाहिने पात्र में आम्रपल्लव या दूर्वा से या सीधे
कलश से ही, थोड़ा-थोड़ा जल डालता जाय- कलश से ले लेकर और ब्राह्मण मन्त्र बोलते
जायें। ध्यातव्य है कि बीच-बीच में थोड़ा जल बायें पात्र में भी डालना है। सुविधा
के लिए दोनों पात्रों का संकेत दिया जा रहा है। जल डालने में बिलकुल सावधानी
वरतें। दायें-बायें के भेद को समझें। दायें में शुद्ध-पवित्र कामना का जल डाल रहे
हैं और बायें में अशुद्ध-पापादि जनित जल क्षेपित किया जा रहा है। यहाँ ऋटि होने
का अर्थ ये होगा कि आप कूड़े को तिजोरी में और सोने को कूड़े में स्थान दे रहे
हैं। अतः सावधानीपूर्वक पुण्याहवाचन कर्म करें। सामान्यतौर पर अन्य प्रकार की
परेशानियों की स्थिति में भी पुण्याहवाचन का कर्म किया जा सकता है। इसके अनेक लाभ
हैं।)
(एक पात्र में एक समूह में कई मन्त्र हैं।
प्रत्येक मन्त्र के साथ जल डालना है। ऐसा नहीं कि एकत्र सबके बदले डाल दिया जाए।
इस बात का ध्यान पूरे पुण्याहवाचनक्रम में रखना चाहिए।)
दाहिने
पात्र में- ॐ शान्तिरस्तु। ॐ पुष्टिरस्तु। ॐ तुष्टिरस्तु। ॐ
वृद्धिरस्तु। ॐ अविघ्नमस्तु। ॐ आयुष्यमस्तु। ॐ आरोग्यमस्तु।ॐ शिवमस्तु। ॐ शिवं
कर्मास्तु। ॐ कर्मसमृद्धिरस्तु। ॐधनधान्यसमृद्धिरस्तु।
ॐ पुत्रपौत्रसमृद्धि- रस्तु। ॐ इष्टसम्पदस्तु।
बायें पात्र
में- ॐ अरिष्टनिरसनमस्तु। ॐ यत्पापंरोगोऽशुभकल्याणं तद् दूरे
प्रतिहतमस्तु।
पुनः दाहिने
पात्र में- ॐ यच्छ्रेयस्तदस्तु। ॐ उत्तरे कर्मणि निर्विघ्नमस्तु । ॐ
उत्तरोत्तरमहरहरभिवद्धिरस्तु । ॐ उत्तरोत्तराः क्रियाः शुभाः शोभनाः सम्पद्यन्ताम्
। ॐ तिथिकरणमुहूर्तनक्षत्रग्रहलग्नसम्पदस्तु । ॐ तिथिकरण-
मुहूर्तनक्षत्रग्रहलग्नाधिदेवता प्रीयन्ताम् । ॐ तिथिकरणे सुमुहूर्ते सनक्षत्रे
सग्रहे साधिदैवतै प्रीयेताम् । ॐ दुर्गापाञ्चाल्यौ प्रीयेताम् । ॐ अग्निपुरोगा
विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम् । ॐ इन्द्रपुरोगा मरुद्गणाः प्रीयन्ताम् । ॐ वशिष्ठपुरोगा
ऋषिगणाः प्रीयन्ताम् । ॐ माहेश्वरीपुरोगा उमामातरः प्रीयन्ताम् । ॐ अरुन्धतीपुरोगा
एकपत्न्यः
प्रीयन्ताम् । ॐ ब्रह्मपुरोगाः सर्वे वेदाः प्रीयन्ताम् । ॐ विष्णुपुरोगा
सर्वे देवाः
प्रीयन्ताम् । ॐ ऋषयश्छन्दांस्याचार्या वेदा देवा यज्ञाश्च प्रीयन्ताम् । ॐ ब्रह्म
च ब्राह्मणाश्च प्रीयन्ताम् । ॐ श्रीसरस्वत्यौ प्रीयेताम् । ॐ श्रद्धामेधे
प्रीयेताम् । ॐ भगवती कात्यायनी प्रीयताम् । ॐ भगवती माहेश्वरी प्रीयताम् । ॐ
भगवती ऋद्धिकरी प्रीयताम् । ॐ भगवती वृद्धिकरी प्रीयताम् । ॐ भगवती पुष्टिकरी
प्रीयताम्। ॐ भगवती तुष्टिकरी प्रीयेताम् । ॐ भगवन्तौ विघ्नविनायकौ प्रीयेताम् । ॐ
सर्वाः कुलदेवताः प्रीयन्ताम् । ॐ सर्वा ग्रामदेवताः प्रीयन्ताम् । ॐ सर्वा
इष्टदेवताः प्रीयन्ताम् ।
अब बायें पात्र में- ॐ हताश्च ब्रह्मद्विषः।ॐ हताश्च परिपन्थिनः । ॐ
हताश्च कर्मणो विघ्नकर्तारः । ॐ शत्रवः पराभवं यान्तु । ॐ शाम्यन्तु घोराणि । ॐ
शाम्यन्तु पापानि । ॐ शाम्यन्त्वीतयः । ॐशाम्यन्तूपद्रवाः ।।
अब दाहिने
पात्र में- ॐ शुभानि वर्धन्ताम्। ॐ शिवा आपःसन्तु । ॐ शिवा ऋतवः सन्तु
। ॐ शिवा ओषधयः सन्तु । ॐ शिवा वनस्पतयः सन्तु । ॐ शिवा अतिथयः सन्तु । ॐ शिवा
अग्नयः सन्तु । ॐ शिवा आहुतयः सन्तु । ॐ अहोरात्रे शिवे स्याताम् । ॐ निकामे
निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ।। ॐ
शुक्राङ्गारकबुधबृहस्पति-शनैश्चरराहुकेतुसोमसहिता आदित्यपुरोगाः सर्वे ग्रहाः
प्रीयन्ताम्। ॐ भगवान् नारायणः प्रीयताम्। ॐ भगवान् पर्जन्यः प्रीयताम्। ॐ भगवान्
स्वामी महासेनः प्रीयताम्। ॐ पुरोऽनुवाक्यया यत्पुण्यं तदस्तु। ॐ याज्यया
यत्पुण्यं तदस्तु। ॐ वषट्कारेण यत्पुण्यं तदस्तु। ॐ प्रातः सूर्योदये यत्पुण्यं
तदस्तु।।
इसके बाद यजमान कलश को यथास्थान रख दे और
दाहिने पात्र में गिराये गए जल से मार्जन करे (अपने सिर पर आम्रपल्लव से छिड़के। आचार्य
मन्त्रोच्चारण करें—ॐ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः। पुनन्तु विश्वा
भूतानि जातवेदः पुनीहि मा।।)
इस कार्य को परिवार के अन्य सदस्यों को भी
करना चाहिए। साथ ही पूरे दाहिने पात्र के जल को भवन/भूमि पर भी छिड़काव किया जाना
चाहिए। दूसरे, यानी बायें पात्र के जल को नापित वा किसी अन्य के
द्वारा बाहर कहीं दूर जाकर एकान्त में रखवा देना चाहिए। लोकाचार में प्रायः देखा
जाता है कि नापित ही इस कार्य को करता है और जल बाहर फेंक कर उपयोगी पात्र रख लेता
है। साथ ही कुछ विशेष नेग (उपहार) भी मांग करता है, जिसका उसे अधिकार है। ध्यातव्य है कि यदि यह कार्य
मिट्टी के पात्र से कर रहे हों तो नापित को तद् मूल्य स्वरूप विशेष द्रव्य अवश्य
देना चाहिए। ध्यातव्य है कि अलग-अलग कार्यों के अलग-अलग अधिकारी होते हैं और उनका
पारिश्रमिक भी हुआ करता है ऐसा नहीं कि सब कुछ ब्राह्मण ही ले लें। कर्मकाण्ड में
आचार्य, पुरोहित, होता, नापित, कुम्भकार, मालाकार आदि का कार्य विभाजित है। तदनुसार
सबका पारिश्रमिक भी शास्त्रकारों ने निर्धारित किया है। सामाजिक व्यवस्था में सभी
वर्णों(जातियों)के योगदान और महत्व को हमारे ऋषियों ने सुव्यवस्थित किया है।
अज्ञान या लोभवश ये व्यवस्था शनैःशनैः चरमरा रही है। कलुषित राजनीति प्रेरित लोग
शास्त्र-नियमों की उल्टी-सीधी व्याख्या करके आमजन को भ्रमित करने में लगे हैं।
आधुनिक प्रबुद्ध विचारकों को इन बातों पर ध्यान देना चाहिए।) अस्तु।
अब यजमान
हाथ जोड़कर ब्राह्मण से प्रार्थना करे और ब्राह्मण प्रतिवचन कहें—
यजमान- ॐ एतत्कल्याणयुक्तं पुण्यं पुण्याहं
वाचयिष्ये।
ब्राह्मण- वाच्यताम्।
यजमान- ॐ ब्राह्यं पुण्यमहर्यच्च
सृष्ट्युत्पादनकारकम्। वेदवृक्षोद्भवं नित्यं तत्पुण्याहं ब्रुवन्तु नः। भो
ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य.....कर्मणः पुण्याहं
भवन्तो ब्रुवन्तु।
(रिक्तस्थानपर कार्योद्येश्य—विवाह/ यज्ञोपवीत/
भूमिपूजन/गृहप्रवेश/अन्यकार्य का उच्चारण करे। एक ही वाक्य तीन बार दोनों को बोलना
चाहिए। अन्तिम यानी तीसरी बार में कुछ अतिरिक्त वाक्य भी संलग्न है— इसपर ध्यान
दें)
ब्राह्मण- ॐ पुण्याहम्।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य
गृहे करिष्यमाणस्य .....कर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ पुण्याहम्।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य
गृहे करिष्यमाणस्य .... कर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ पुण्याहम्। ॐ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु
मनसा धियः। पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः
पुनीहि मा।
यजमान- पृथिव्यामुद्धृतायां तु यत्कल्याणं पुरा
कृतम्। ऋषिभिः सिद्धगन्धर्वैस्तत्कल्याणं ब्रुवन्तु नः।। भो ब्राह्मणाः ! मम
सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ...... कर्मणः पुण्याहं भवन्तो
ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ कल्याणम्।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य
गृहे करिष्यमाणस्य ...../ .....शान्तिकर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ कल्याणम्।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य
गृहे करिष्यमाणस्य ..... कर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ कल्याणम्।
(ध्यातव्य है
कि उक्त संवाद की तीन आवृत्ति हुयी है, यानी एक ही वाक्य उभय पक्ष ने उच्चरित किया
है। अब अन्तिम बार के ऊँ कल्याणम् के बाद आगे का मन्त्र भी आचार्य को बोलना
चाहिए)— ॐ यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याँ् शूद्राय
चार्याय च स्वाय चारणाय च। प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः
समृद्ध्यतामुपमादो नमतु।
यजमान- ॐ सागरस्य तु या ऋद्धिर्महालक्ष्म्यादिभिः
कृता।सम्पूर्णा सुप्रभावा च तामृद्धिं प्रब्रुवन्तु नः।। भो ब्राह्मणाः ! मम .....कर्मणः
ऋद्धिं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ ऋद्ध्यताम्।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम करिष्यमाणस्य .....कर्मणः ऋद्धिं
भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ ऋद्ध्यताम्।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम करिष्यमाणस्य
.....कर्मणःऋद्धिं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ ऋद्ध्यताम्। (पुनः ध्यातव्य है कि
उक्त संवाद की तीन आवृत्ति हुयी है, यानी एक ही वाक्य उभय पक्ष ने उच्चारित किया
है।
अब अन्तिम
बार के ऊँ ऋद्ध्यताम् के बाद आगे का मन्त्र भी आचार्य को बोलना चाहिए)— ॐ
सत्रस्य ऋद्धिरस्यगन्म ज्योतिरमृता अभूम। दिवं पृथिव्या अध्याऽरुहामाविदाम
देवान्त्स्वर्ज्योतिः।।
यजमान- ॐ स्वस्तिस्तु याऽविनाशाख्या
पुण्यकल्याणवृद्धिदा।विनायकप्रिया नित्यं तां च स्वस्तिं ब्रुवन्तु नः।। भो
ब्राह्मणाः ! मम करिष्यमाणस्य..... कर्मणःस्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ आयुष्मते स्वस्ति।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम करिष्यमाणस्य ..... कर्मणः
स्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ आयुष्मते स्वस्ति।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम .....कर्मणः स्वस्ति
भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ आयुष्मते स्वस्ति। (पुनः एक ही वाक्य
की तीन आवृत्ति हुयी है। अन्तिम बार इस मन्त्र को भी आचार्य को बोलना चाहिए)- ॐ
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाःस्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो
अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
यजमान- ॐ समुद्रमथनाज्जाता जगदानन्दकारिका। हरिप्रिया
च माङ्गल्या तां श्रियं च ब्रुवन्तु नः। भो ब्राह्मणाः ! मम ....कर्मणः श्रीरस्तु
इति भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ अस्तु श्रीः।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम ....कर्मणः श्रीरस्तु इति
भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ अस्तु श्रीः।
यजमान— भो ब्राह्मणाः ! मम ....कर्मणः श्रीरस्तु इति
भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ अस्तु श्रीः।। (पुनः एक ही वाक्य की
तीन आवृत्ति हुयी है। अन्तिम बार इस मन्त्र को भी आचार्य को बोलना चाहिए)- ॐ
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रुपमश्विनौ व्यात्तम्।
इष्णन्निषाणामुम इषाण सर्वलोकम्म इषाण।।
यजमान- ॐ मृकण्डुसूनोरायुर्यद् ध्रुवलोमशयोस्तथा। आयुषा
तेन संयुक्ता जीवेम शरदः शतम्।
ब्राह्मण- ॐ शतं जीवन्तु भवन्तः। ॐ शतमिन्नु शरदो
अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्। पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या
रीरिषतायुर्गन्तोः।।
यजमान- ॐ शिवगौरीविवाहे या या श्रीरामे नृपात्मजे। धनदस्य
गृहे या श्रीरस्माकं सास्तु सद्मनि।।
ब्राह्मण- ॐ अस्तु श्रीः। ॐ मनसः कामनाकूतिं वाचः
सत्यमशीय। पशूनाँरुपमन्नस्य रसो यशः श्रीः श्रयतां मयि स्वाहा।।
यजमान- प्रजापतिर्लोकपालो धाता ब्रह्मा च देवराट्। भगवाञ्छाश्वतो
नित्यं नो वै रक्षतु सर्वतः।। (‘नो वै रक्षतु’ के स्थान पर ‘स नो रक्षतु’
पाठ भेद भी मिलता है)
ब्राह्मण- ॐ भगवान् प्रजापतिः प्रीयताम्। ॐ प्रजापते
न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परि ता बभूव। यत्कामास्ते जहुमस्तन्नो अस्तुवयꣳ
स्याम पतयो रयीणाम्।
यजमान- आयुष्मते
स्वस्तिमते यजमानाय दाशुषे। कृताः सर्वाशिषः सन्तु ऋत्विग्भिर्वेदपारगैः। देवेन्द्रस्य
यथा स्वस्तिस्तथा स्वस्तिर्गुरोर्गृहे। एकलिंगे यथा स्वस्तिस्तथा स्वस्तिः सदा
मम।।
ब्राह्मण- ॐ आयुष्मते स्वस्ति। ॐ प्रति पन्थामपद्महि
स्वस्तिगामनेहसम्। येन विश्वा परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु। ॐ
पुण्याहवाचनसमृद्धिरस्तु।।
यजमान- अस्मिन पुण्याहवाचने न्यूनातिरिक्तोयो
विधिरुपविष्टब्राह्मणानां वचनात् श्री महागणपतिप्रसादाच्च परिपूर्णोऽस्तु।
अब यजमान
जलाक्षतपुष्पद्रव्यादि लेकर पुण्याहवाचन का विशेष दक्षिणासंकल्प करे—
ॐ अद्य कृतस्य पुण्याहवाचनकर्मणः
समृद्ध्यर्थं पुण्याहवाचकेभ्यो ब्राह्मणेभ्य इमां दक्षिणां विभज्य अहं दास्ये।
ब्राह्मण- ॐ
स्वस्ति।
(नोट-1.सामान्य
कर्मों में पुण्याहवाचन किया जाये तो क्रिया के अन्त में अभिषेक का विधान है। ध्यातव्य
है कि विवाह, यज्ञोपवीतादि विविध संस्कार, भूमिपूजन या गृहप्रवेश के प्रारम्भ में
ही यह कार्य किया जाता है, अतः अभिषेक-कार्य क्रियान्त में ही करना व्यावहारिक
होगा।
2.अभिषेक के
समय पत्नी को बायें बैठ जाना चाहिए, जबकि अन्यान्य पूजाकार्य में दायें बैठना
चाहिए। इस सम्बन्ध में शास्त्र वचन हैः— आशीर्वादेऽभिषेकेच पादप्रक्षालने
तथा,शयने भोजने चैव पत्नी तूत्तरतो भवेत्।।)
गणेशाम्बिका पूजन
कार्य
छोटा हो या बड़ा, किसी भी कार्य का शुभारम्भ गौरीगणेश पूजन से होना चाहिए। सबसे
पहले सामने रखे दोने या आम्रपल्लव पर गणेशाम्बिका पूजन करना चाहिए। पूजन यथोपलब्ध-
पंचोपचार, षोडशोपचार, शतोपचार, सहस्रोपचार.... कुछ भी किया जा सकता है।
षोडशोपचार
पूजाक्रम निम्नांकित है—
आवाहनासने
पाद्यमर्घ्यमाचमनीयकम्। स्नानं वस्त्रोपवस्त्रं च गन्धमाल्यादिके क्रमात्।। धूपं
दीपं च नैवेद्यं ताम्बूलं च प्रदक्षिणम्। पुष्पाञ्जलिं षोडशकमेवं देवार्चने
विधिः।। (आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्रोपवस्त्र,
यज्ञोपवीत, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, प्रदक्षिणा और पुष्पाञ्जलि।
इसमें अवान्तर उपचार भी समाहित हैं—वस्त्रोपवस्त्र, यज्ञोपवीत और नैवेद्य के बाद
भी आचमन हेतु जल प्रदान करना अनिवार्य है।)
१.(क) ध्यान-(अक्षतपुष्प
लेकर गौरी-गणेश का ध्यान करें) —
गजाननं
भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि
विघ्नेश्वरपादपकजम्।। नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै
भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।
(ख) आवाहन-(पुनः
अक्षतपुष्पादि लेकर आवाहन करें—ॐ हे हेरम्ब त्वमेह्येहि अम्बिकात्र्यम्बकात्मज।
सिद्धिबुद्धिप्रते त्र्यक्ष लक्षभालपितुः पितः ।। ॐ गणानान्त्वा गणपतिᳫहवामहे
प्रियाणान्त्वा प्रियपतिᳫहवामहे निधीनान्त्वा निधिपतिᳫहवामहे
व्यसो मम। आहमाजानि गर्ब्भधमात्वमजासि गर्ब्भधम् ।। ॐ अम्बे अम्बिके अम्बालिके न
मा नयति कश्चन । ससस्त्यस्वकः सुभद्रिकाङ्काम्पीलवासिनीम्।। ॐभूर्भुवःस्वः
सिद्धिबुद्धिसहिताय श्रीमन्महागणाधिपतये नमः गणाधिपतिमावाहयामि। ॐभूर्भुवःस्वः
गौर्यै नमः गौरी मावाहयामि ।– कहते हुए हाथ के पुष्पाक्षतादि सामने दोने में रख कर
दोनों हाथों को उल्टा एकत्र कर स्थापित भावमुद्रा का प्रदर्शन करे और पुनः
मन्त्रोच्चारण करे— ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं
तनोत्वरिष्टंयज्ञꣳसमिमं दधातु। विश्वे देवास इह मादयन्तामोमप्रतिष्ठ। ॐभूर्भुवःस्वः
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः गणेशाम्बिके इहागच्छतमिह तिष्ठतं मम कृतां पूजां गृह्णीतं मम
सकुटुम्बस्य सपरिजनस्य च सर्वात्मना कल्याणं च कुरुतम् ।
२.आसन-उक्त
मन्त्रोच्चारण के पश्चात् पुनः सूत्र सहित पुष्पाक्षत लेकर आसनार्थ
मंत्र बोले— ॐ विचित्ररत्नखचितं दिव्यास्तरणसंयुतम्। स्वर्णसिंहासनं
चारु गृह् णीष्वसुरपूजित।। और आवाहित गणेशाम्बिका पर छोड़े दें।
३.पाद्य- आचमनी या
आम्रपल्लव से जल लेकर पाद्यमन्त्रोच्चारण करते हुए जल प्रदान करे- ॐ सर्वतीर्थसमुदभूतं
पाद्यं गन्धादिभिर्युतम्। विघ्नराज ! गृहाणेमं भगवन् ! भक्तवत्सलः।। ॐ
भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः पादयोः पाद्यं समर्पयामि।
४.अर्ध्य— चन्दनादि
मिश्रित जल पुनः लेकर, मन्त्रोच्चारण पूर्वक अर्घ्य प्रदान करे— ॐ गणाध्यक्ष !
नमस्तेऽस्तु गृहाण करुणाकर, अर्घ्यं च फल संयुक्तं गन्धपुष्पा- क्षतैर्युतम्। ॐभूर्भुवःस्वः
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, हस्तयोर्घ्यं समर्पयामि।
५.आचमन- चन्दनादि
मिश्रित जल पुनः लेकर,मन्त्रोच्चारण पूर्वक आचमन प्रदान करे- ॐविनायक !
नमस्तुभ्यं त्रिदशैरभिवन्दित।गंगोदकेन देवेश कुरुष्वाचमनं प्रभो। ॐभूर्भुवःस्वः
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, आचमनीयं समर्पयामि।
६.स्नान-(क)दूध, दही, घी,
गुड़ और मधु मिश्रित पंचामृत से एकत्र वा पाँचों चीजों से अलग-अलग स्नान करावे, सुविधा
के लिए यहाँ दोनों प्रकार के मन्त्रों की चर्चा कर रहे हैं—
# ऊँ देवस्य
त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। ॐ भूर्भुवःस्वः
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः एतानि पाद्यार्घ्याचमनीयस्नानीयपुनराचमनीयानि समर्पयामि।–कहते हुए
पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, पुनराचमनीय जलार्पण करें।
#.दुग्धस्नान-
ऊँ पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयश्वतीः प्रदिशः सन्तु
मह्यम्।।
अथवा-
कामधेनुसमुद्भूतं सर्वेषां जीवनं परम्। पावनं यज्ञहेतुश्च पयः
स्नानार्थमर्पितम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः स्नानार्थं दुग्धं
समर्पयामि । (गणेशाम्बिका को दुग्ध चढ़ावे)
#.दधिस्नान-
ऊँ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखा करत्प्रणआयुँ्षि
तारिषत्।।
अथवा- पयस्सतु समुद्भूतं मधुराम्लं शशिप्रभम्। दध्यानीतं
मया देव स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः दधि
स्नानं समर्पयामि। (दधि से स्नान करावे)
#.घृतस्नान-
ऊँ घृतं मिमिक्षे घृतमस्य योनिर्घृते श्रितो घृतम्वस्य धाम। अनुष्वधमा वह मादयस्व स्वाहाकृतं
वृषभ वक्षि हव्यम्।।
अथवा- नवनीतसमुत्पन्नं सर्वसंतोषकारकम्। घृतं तुभ्यं
प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, घृतस्नानं
समर्पयामि। (घृतस्नान करावे)
# मधुस्नान-
ऊँ मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः। मधु
नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवꣳरजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता।।
अथवा- पुष्परेणुसमुद्भूतं सुस्वादु मधुरं मधु। तेजः
पुष्टिकरं दिव्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां
नमः, मधुस्नानं समर्पयामि।। (मधु से स्नान करावें)
#शर्करास्नान-
ऊँ अपाꣳरसमुद्वयसꣳसर्ये सन्तꣳसमाहितम्। अपाꣳरसस्य यो रसस्तं वो
गृह्णाम्युत्तमुपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय
त्वा जुष्टतमम्।
अथवा- इक्षुरससमुद्भूतां शर्करां पुष्टिदां शुभाम्। मलापहारिकां
दिव्यां स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, शर्करास्नानं
समर्पयामि।
# पञ्चामृत
स्नान- ॐ पञ्चामृतं मया नीतं पयो दधि घृतं मधु। शर्करा च समायुक्तं
स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, पञ्चामृतंसमर्पयामि।
(ख)शुद्धस्नान-
अब शुद्धजल
से स्नान करावे-मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरं शुभम्। तदिदं कल्पितं देव !
स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, शुद्ध
स्नानीयं जलं समर्पयामि।
(ग) स्नानांग
आचमन- (स्नान के पश्चात् भी आचमन का विधान है) अतः प्रदान करे— ॐ
सर्वतीर्थसमायुक्तं सुगन्धिनिर्मलं जलम्। आचम्यतां मया दत्तं गृहाण परमेश्वर। ॐ
भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, स्नानांगाचमनीयं जलं समर्पयामि।
(७)वस्त्रोपवस्त्र-
(स्नान के
पश्चात् वस्त्र और उपवस्त्र समर्पित करे)-
ॐ
शीतवातोष्णसन्त्राणं लज्जाया रक्षणं परम्। देहालङ्कारणं वस्त्रं अतः शान्तिं
प्रयच्छ मे। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि।
वस्त्रोपवस्त्र के बाद पुनः आचमनीय जल प्रदान करे- ॐ
भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, वस्त्रोपवस्त्रान्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि।
(८)उपवीत- अब
यज्ञोपवीत समर्पित करे-
ॐ
नवभिस्तन्तुभिर्युक्तं त्रिगुणं देवतामयम्। उपवीतं मया दत्तं गृहाण गणनायक ।। ॐ
भूर्भुवःस्वः गणेशाय नमः, उपवीतं समर्पयामि।
उपवीत के बाद पुनः आचमनीय जल प्रदान करे- ॐ
भूर्भुवःस्वः गणेशाय नमः, उपवीतान्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि।
(९)चन्दनं—(क)
श्रीखण्डचन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम्। विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं
प्रतिगृह्यताम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, चन्दनं
समर्पयामि। (श्वेतचंदन समर्पित करें)
(ख) ॐ
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये
श्रियम्। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, रक्तचन्दनं समर्पयामि। (रक्तचन्दन
समर्पित करें)
(ग) ॐ
कुङ्कुमं कामना नित्यं कामिनीकामसम्भवम्। कुङ्कुमेनार्चनं
देव गृहाण परमेश्वर। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, कुङ्कुमम् समर्पयामि। (कुंकुम समर्पित
करें)
(घ) ॐ
नानापरिमलैर्द्रव्यैर्निर्मितं चूर्णमुत्तमम्। अबीरनामकंदिव्यं गन्धं चारु
प्रगृह्यताम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः नानापरिमलद्रव्याणि च
समर्पयामि। (अबीर, हरिद्राचूर्ण इत्यादि विविध सुगन्धित द्रव्य
सपर्पित करें)
(ङ) ऊँ
सिन्दूरं शोभनं रक्तं सौभाग्यसुखवर्धनम्। शुभदं कामदं चैव सिन्दूरं
प्रतिगृह्यताम्।। (अथवा- ऊँ सिन्धोरिव प्राध्वने शूघनासो वातप्रमियः
पतयन्ति यह्वाः। घृतस्य धारा अरुषो न वाजी काष्ठा भिन्दन्नूर्मिभिः पिन्वमानः।।)
ॐ
भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः सिन्दूरं समर्पयामि। (उक्त दो में
से किसी एक मन्त्रोच्चारण पूर्वक सिन्दूर समर्पित करे। ध्यातव्य है कि पुरुष देवता
होते हुए भी गणेशजी एवं हनुमानजी को सिन्दूर अर्पित किया जाता है।)
(१०) ॐ
अक्षताश्च सुरश्रेष्ठाः कुङ्कुमाक्ताः सुशोभनाः। मया निवेदिता भक्त्या गृहाण
परमेश्वर। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः अक्षतान् समर्पयामि। (हरिद्रा
मिश्रित अक्षत समर्पित करें)
(११) ॐ
माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो। मयाऽऽहृतानि पुष्पाणि पूजार्थं
प्रतिगृह्यताम् । ॐ भूर्भुवःस्वः
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः पुष्पं, पुष्पमाल्यांच समर्पयामि । (विविधपुष्प
एवं पुष्पमाला समर्पित करें)
(१२) ॐ त्वं
दूर्वेऽमृतजन्मासि वन्दितासि सुरैरपि। सौभाग्यं सन्ततिं देहि सर्वकार्यकरी भव। दूर्वाङ्कुरान्
सुहरितानमृतान् मङ्गलप्रदान्। आनीतांस्तव पूजार्थं गृहाण गणनायक। काण्डात्काण्डात्
प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि। एवानो दूर्वे प्रतनु सहस्रेण शतेन च। ॐ भूर्भुवःस्वः
गणेशाय नमः दूर्वांदूर्वांकुरान् च समर्पयामि । (गणेशजी को
तीन, पाँच, सात की संख्या में दूर्वा और तद्अंकुर समर्पित करें। पुष्पमाला की तरह
दुर्वा की माला भी अर्पित कर सकते हैं—विशेष गणेशोपासना में। )
(१३) बिल्वपत्र-
ऊँ अमृतोद्भवं च श्रीवृक्षं शङ्करस्य सदा
प्रियम्। बिल्वपत्रं प्रयच्छामि पवित्रं ते सुरेश्वर।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाय नमः
बिल्वपत्रं समर्पयामि। (गणेशजी को बिल्वपत्र समर्पित करें)
(१४)
शमीपत्र- ऊँ शमी शमय मे पापं शमी लोहितकंटका। धारिण्यर्जुनबाणानां रामस्य
प्रियवादिनी।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः शमीपत्रं समर्पयामि। (शमी पत्र
पाँच या ग्यारह की संख्या में अर्पित करें)
(१५)अबीरगुलाल—
अबीरं च गुलालं च चोवाचन्दनमेव च। अबीरेणार्चितो देव! अतः शान्तिं प्रयच्छमे।। ॐ
भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः अबीरंगुलालं च समर्पयामि। (अबीरगुलाल
समर्पित करें)
(१६)
सुगन्धित तैल-इत्रादि— चम्पकाशोकवकुलमालतीमोगरादिभिः। वासितं स्निग्धताहेतु तैलं
चारु प्रगृह्यताम्।। (अथवा - स्नेहं गृहाण सस्नेह लोकेश्वर दयानिधे। भक्त्या
दत्तं मया देव स्नेहं ते प्रतिगृह्यताम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः
सुगन्धित द्रव्यादि समर्पयामि। (विविध सुगन्धित तैल, इत्र आदि समर्पित करें)
(१७)धूप- ॐ
धूरसि धूर्व धूर्वन्तं धूर्व तं योऽस्मान् धूर्वति तं धूर्व यं वयं धूर्वामः।
देवानामसि वह्नितमꣳसस्नितमं पप्रितमं जुष्टतमं देवहूतमम्।।
अथवा- वनस्पतिरसोद्भूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः। आघ्रेयः
सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्। ॐ
भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, धूपमाघ्रापयामि।
(देवदार धूप, धूना, गूगल, नागरमोथा अथवा अन्य सुगन्धित
अगरु आदि धूप दिखावे। ध्यातव्य है कि बाँस की तिल्लियों में लपेट कर बनायी गयी
अगरबत्तियों का आजकल चलन है। इसका उपयोग कदापि न करें। प्रायः अगरबत्तियों
में लोहवान का प्रयोग होता है, यह भी सर्वथा निषिद्ध है। बांस की तिल्लियाँ जलाना
वंशनाशक है।)
(१८)दीप—ॐ
अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निःस्वाहा सूर्योज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा। अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा सूर्यो
वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।।
अथवा- साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया ।
दीपं गृहाण देवेश त्रैलोक्यतिमिरापहम् ।। भक्त्या दीपं प्रयच्छामि देवाय परमात्मने
। त्राहि मां निरयाद् घोराद् दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ।। ॐ भूर्भुवःस्वः
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, दीपं दर्शयामि। (दीपक दिखावे और ऊँ हृषीकेशाय नमः
कह कर हाथ अवश्य धोले।)
(१९)
नैवेद्य-(क)(नैवेद्य को जल रक्षित (घेरालगाकर) कर, गन्ध-पुष्पादि से
आक्षादित करके, सामने रखकर, चतुष्कोण जल का घेरा लगावे और मन्त्र बोलते हुए
तुलसीदल छोड़े। ध्यातव्य है कि गणेश को तुलसी दल अर्पित नहीं किया जाता, अतः इनके
नैवेद्य में पुष्प डाले। शेष सभी देवों के लिए तुलसीपत्र का ही उपयोग होना चाहिए। इसके
वगैर प्रसाद अधूरा है।)
ॐ नाभ्या
आसीदन्तरिक्षꣳ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत । पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ
अकल्पयन् । ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा । ॐ प्राणाय स्वाहा । ॐ अपानाय स्वाहा । ॐ
समानाय स्वाहा । ॐ उदानाय स्वाहा । ॐ व्यानाय स्वाहा । ॐअमृतापिधानमसि स्वाहा ।
अथवा- शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च। आहारं
भक्ष्य भोज्यं च नैवेद्यं
प्रतिगृह्यताम्
। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, नैवेद्यं निवेदयामि ।
नैवेद्यान्ते
आचमनीयं जलं समर्पयामि। (नैवेद्य के बाद आचमनीय जल समर्पित करें)
(ख) अखण्ड
ऋतुफल— ॐ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः। बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो
मुञ्चन्त्वꣳहसः।।
(कटा हुआ कोई भी फल कदापि देवताओं को अर्पित
न करें। अखण्ड यानी बिना कटा हुआ मौसमी फल-केला, अंगूर, अमरुद, सेव, नारंगी जो भी
उपलब्ध हो, अर्पित करे। किसी भी पूजन कार्य में मूली, गाजर, चुकन्दर आदि का उपयोग
न करें। ये सर्वदा त्याज्य कन्द हैं। अज्ञानता वश आजकल लोग धड़ल्ले से प्रयोग कर
लेते हैं। किन्तु शक्करकन्द या मिश्रीकन्द उपयोग में लाया जा सकता है। सुथनी (आलू
के आकार का एक कन्द विशेष जिस पर छोटे-छोटे रोंये होते हैं) भी उपयोगी कन्द है।)
अथवा- इदं
फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव। तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि । ॐ
भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, ऋतुफलानि समर्पयामि ।
पुनराचमनीयं
जलं समर्पयामि। (पुनः आचमनीय जल समर्पित करें)
(२०)
ताम्बूलादि मुखशुद्धि— ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसन्तोऽस्यासीदाज्यं
ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः।।
अथवा- पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम्। एलाचूर्णसंयुक्तं
ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, मुखवासार्थम्
एलालवंगपूगीफलसहितं ताम्बूलं समर्पयामि। (पान, सुपारी, लौंग, इलाइची, कपूर
इत्यादि युक्त बीड़ा समर्पित करे। यहाँ भी अनजाने में लोग भूल कर देते हैं—स्वयं
खाने के लिए जैसे पान में चूना-कत्था आदि लगाते हैं, उसी भाँति सीधे उस पर सुपारी
आदि रखें।)
(२१)
दक्षिणा- ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। सा दाधार पृथिवीं
द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम्। ऊँ हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः। अनन्तपुण्यफलदमतः
शान्तिं प्रयच्छ मे।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, कृतायाः पूजायाः
साद्गुण्यार्थे द्रव्यदक्षिणां समर्पयामि। (दक्षिणा
स्वरूप यथाशक्ति द्रव्य समर्पित करे)
(२२) आरती— ॐ
आ रात्रि पार्थिवꣳरजः पितुरप्रायि धामभिः। दिवः सदाꣳसि बृहती वि तिष्ठस आ त्वेषं
वर्तते तमः। (ययु.३४-३२)
अथवा- कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम्। आरार्तिकमहं
कुर्वे पश्य मे वरदो भव। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, आरार्तिकं
समर्पयामि। (कपूर, घृतवर्तिकादि से आरती दिखावे और आरती के बाद थोड़ा
जल गिरावे।) (आरती दिखलाने के बाद प्रायः लोग हथेली से आरती पर हवा करते हैं,
भाव होता है देवता की ओर आरती के लौ को ईंगित करना। ये भी नासमझीपूर्ण
परम्परा है।)
(२३)
पुष्पाञ्जलि—ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं
महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।
अथवा- नानासुगन्धि पुष्पाणि यथाकालोद्भवानि च। पुष्पाञ्जलिर्मया
दत्तो गृहाण परमेश्वर। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः,पुष्पाञ्जलिं
समर्पयामि। (दोनों हाथ की अञ्जलि बनाकर पुष्पाञ्जलि समर्पित करें)
(२४)
प्रदक्षिणा- (व्यावहारिक रुप में इस कार्य को प्रायः क्रिया समाप्ति
के बाद किया जाता है। वैसे, विधान है गणेशाम्बिकापूजन के पश्चात् भी कर लेने का। प्रदक्षिणा
की विधि है- सुविधानुसार देवमूर्ति के चारो ओर दक्षिणावर्ती, वा अपने ही आसन पर
खडे-खड़े (घड़ी की सूई की तरह) परिक्रमा करे। परिक्रमा की संख्या अलग-अलग
देवी-देवताओं के लिए अलग-अलग है। यथा— एका चण्ड्या,रवौ सप्त,तिस्रो
दद्याद्विनायके,चतस्रः केशवे दद्याच्छिवस्याऽर्धा प्रदक्षिणा। अर्थात् देवी
की एक, सूर्य की सात, गणेश की तीन, विष्णु की चार और शिव की आधी
परिक्रमा होनी चाहिए। यहाँ निहितार्थ ये है कि शेष देवों की पाँच परिक्रमा की जाय।
शिव की आधी परिक्रमा का आशय ये है कि अर्घा का उलंघन नहीं होना चाहिए, यानी अपने
स्थान से उठकर अर्घ्यमुख पर्यन्त जाकर वापस लौट आवे—
यही आधी
प्ररिक्रमा हुयी।) प्रदक्षिणा हेतु इस मन्त्र का उच्चारण करे—
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च। तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिण पदे पदे
।। ॐ भूर्भुवःस्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, प्रदक्षिणां समर्पयामि ।
(२५) प्रार्थना-
विघ्नेश्वराय
वरदाय सुरप्रियाय, लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय ।
नागाननाय
श्रुतियज्ञविभूषिताय गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ।।
भक्तार्तिनाशनपराय
गणेश्वराय सर्वेश्वराय शुभदाय सुरेश्वराय ।
विद्याधराय
विकटाय च वामनाय भक्तप्रसन्नवरदाय नमो नमस्ते ।।
नमस्ते
ब्रह्मरूपाय विष्णुरूपाय
ते नमः,
नमस्ते
रुद्ररूपाय करिरूपाय ते नमः ।
विश्वरूपस्वरूपाय
नमस्ते ब्रह्मचारिणे,
भक्तप्रियाय
देवाय नमस्तुभ्यं विनायक ।।
त्वां
विघ्नशत्रुदलनेति च सुन्दरेति भक्तप्रियेति सुखदेति फलप्रदेति ।
विद्याप्रदेत्यघहरेति
च ये स्तुवन्ति तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेव ।।
त्वं
वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं
देवि समस्तमेतत् त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ।।
(प्रार्थना के पश्चात् प्रणाम करें। तत्पश्चात् प्रधान
कलशादि का पूजन कार्य किया जाना चाहिए)
कलश-स्थापन
गौरीगणेश
की पूजा के बाद प्रधान कलश की स्थापना करनी चाहिए। कार्य के अनुसार कलश का आकार
सुनिश्चित करना चाहिए। सामान्य पूजन में छोटे कलश से भी काम चल सकता है, किन्तु
विशेष यज्ञानुष्ठान में तदनुसार कलश भी बड़ा होना चाहिए। कलश-प्रमाण-लक्षण के सम्बन्ध में शास्त्रीय वचन
हैं—
सौवर्णं
राजतं वापि ताम्रं मृन्मयजं तु वा। अकालमव्रणं चैव सर्व लक्षणसंयुतम्।।
पञ्चाशाङ्गुलवैपुल्यमुत्सेधे षोडशाङ्गुलम्। द्वादशाङ्गुलकं मूलं मुखमष्टाङ्गुलं
तथा।।
अभिप्राय यह
है कि कलश बहुत छोटे आकार का कदापि नहीं होना चाहिए। कम से कम सवा किलो जल
ग्रहण-योग्य अवश्य हो। यज्ञोपवीत, विवाह, गृहप्रवेशादि विशेष कार्यों में कई कलश
हुआ करते हैं। जैसे विवाहदि में कल्याणी के समय छोटे कलश से काम चल सकता है,
किन्तु विवाहादि मण्डप का प्रधान कलश का आकार अपेक्षाकृत काफि बड़ा होना चाहिए।
भूमिपूजन के समय छोटे कलश से काम चलाया जा सकता है, किन्तु गृहप्रवेशादि में बड़े
कलश का प्रयोग करना चाहिए। विशेष कार्यों में जहाँ की कलश का प्रयोग किया जाता है,
उसमें प्रधान कलश को सर्वाधिक श्रेष्ठ होना चाहिए। कम से कम सात या नौ या ग्यारह
किलो जलग्रहण योग्य अवश्य हो।
श्रद्धा
और आर्थिक स्थिति के अनुसार समस्त पूजन-पात्र धातु के ही उपयोग में लाये जायें। कम
से कल प्रधान कलश और उसका पूर्णपात्र (ढक्कन) तो धातु निर्मित हो ही। अभाव में
मिट्टी का उपयोग हो सकता है। शास्त्र वचन है— वित्तशाठ्यं न कारयेत- पूजन
में धन की कंजूसी न करे। व्यावहारिक रुप में देखा जाता है कि मकान बनाने में तो
लोग औकात लगा देते हैं, किन्तु वास्तुपूजा या अन्य पूजा में घोर कंजूसी वरतते हैं।
विवाहादि के तामझाम में पैसे पानी के तरह बहा देते हैं, किन्तु पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड
पर सबसे कम खर्च करते हैं।
अज्ञानवश लोग मिट्टी की प्याली, सकोरा आदि कुछ भी रखकर कलश का काम चला लेते
हैं, जो सर्वथा गलत है। हालाँकि मिट्टी का कलश ग्राह्य है, किन्तु बनावट और आकार
पर तो ध्यान देना ही चाहिए, जिसे आजकल लोग बिलकुल भूल गए हैं। और जब आचार्य ही भूल
गए हैं, फिर नयी पीढ़ी के कलाकार (कुम्भकार) भला
इस बारीकी को समझे कैसे ?
कलश
तांबें या पीतल का हो तो अति उत्तम। कलश के आकार के सम्बन्ध एक और बात का ध्यान
रखा जाना अनिवार्य है कि कलश की ग्रीवा उचित ऊँचाई वाला हो, उदर प्रान्त भी प्रशस्त
हो। बेडौल, चपटे, कम गर्दन वाले, ठिगने काठी के कलश का उपयोग सर्वदा वर्जित है। मिट्टी
के कलश में पकाते समय का काला धब्बा-दाग आदि कदापि नहीं होना चाहिए। इसे ढकने के
लिए कुम्हार रंग-रोगन कर दिया करते हैं।
कलश की
ग्रीवा में तीन तन्तुओं का वेष्ठन अवश्य करे, साथ ही वक्ष-प्रान्त में स्वस्तिकादि
मांगलिक चिह्नों का लेखन भी अनिवार्य है। प्रायः लोग गोबर से गौरी-गणेश की लम्बी
पिड़िया बना कर कलश पर चिपका देते हैं। वस्तुतः यह प्रतीक भी मान्य है। आजकल नाना
प्रकार के चिह्नों, चित्रकारियों से युक्त कलश भी
बाजार में उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग किया जा सकता है। कलश स्थापन के स्थापन
पर चौरेठ, हल्दी, कुमकुम, अबीर आदि से मांगलिक चिह्न- स्वस्तिक, अष्टदल आदि भी
चित्रित कर देना चाहिए। यज्ञादि में विशेष अलंकार पूर्वक करना हो तो प्रधान कलश के
लिए सर्वतोभद्र एवं रुद्रकलश के लिए एकलिंगतोभद्रवेदी इत्यादि का निर्माण किया जा
सकता है। किन्तु ध्यान रहे रंगीन वेदियाँ सजा देने भर से कर्मकाण्ड पूरा नहीं हो
जाता। प्रत्युत वेदियों के अधिष्ठातृ देवों का समुचित आवाहन पूजन भी अनिवार्य है।
अस्तु।
कलश
हेतु सुनिश्चित भूमि का स्पर्श निम्नांकित मन्त्र से करे—
भूमि का
स्पर्श- ॐ भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य
धर्त्री। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृँ्ह पृथिवीं मा हिꣳ सीः।।
(कलश को सप्तधान्य अथवा सुविधानुसार किसी एक धान्य पर
स्थापित किया जाना चाहिए। सप्तधान्य के सम्बन्ध में कई शास्त्रीय वचन हैं। यथा—
1.यवधान्यतिलाः कंगु मुद्गचणकश्यामकाः। एतानि
सप्तधान्यानि सर्वकार्येषु योजयेत्।।
2.यवगोधूमधान्यानि तिलाः कङ्गुस्तथैव च। श्यामाकाश्चणकश्चैव
सप्तधान्यानि संविदुः।।
3.श्यामाकयवगोधूममुद्गमाषप्रियङ्गवः।
धान्यानि सप्तसङ्ख्याता व्रीहयः सप्त सूरिभिः।।
(जौ, धान, तिल, कँगुनी, मूंग, चना और सांवा- ये सात अन्न
कहे गये हैं। दूसरे और तीसरे श्लोक में क्रमशः गेहूँ और उड़द को भी ग्रहण किया गया
है। उपलब्धि और सुविधानुसार इनमें किसी को ग्रहण किया जा सकता है। युगानुसार इनमें
कंगुनी और सांवा सुलभ प्राप्त नहीं हैं। इसके स्थान पर दुकानदार कुछ-के कुछ अन्न
डाल देते हैं। गलत धान्य के प्रयोग से कहीं अच्छा है कि सुलभ प्राप्त जौ अथवा धान
का प्रयोग किया जाय। अभाव में गेहूँ या सिर्फ रंगीन चावल का प्रयोग भी किया जा सकता है। निम्नांकित
मन्त्रों में किसी एक का उच्चारण करते हुए भूमि पर सप्तधान्यादि विखेरे—
धान्यप्रक्षेप(विकिरण)- (क) ॐ
धान्यमसि धिनुहि देवान् प्राणाय त्वो दानाय त्वा व्यानाय त्वा। दीर्घामनु
प्रसितिमायुषे धां देवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रति गृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना
चक्षुषे त्वा महीनां पयोऽसि ।।
अथवा (ख) ॐ
ओषधयः समवन्दत सोमेन सह राज्ञा। यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्तꣳराजान्पारयामसि।।
कलश-स्थापन— ॐ आ जिघ्र
कलशं मह्या त्वा विशन्त्विन्दवः। पुनरुर्जा नि वर्तस्व सा नः सहस्रं धुक्ष्वोरुधारा
पयस्वती पुनर्मा विशताद्रयिः।। (इस मन्त्र के साथ कलश को स्थापित कर दें और आगे क्रमशः
कहे गये मन्त्रों के उच्चारण सहित एक-एक कर सभी वस्तुयें कलश में डालते जायें)
कलश में जल—
ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो वरुणस्य
ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमासीद ।।
कलश में
चन्दन— ॐ त्वां गन्धर्वा अखनँस्त्वामिन्द्रस्त्वां बृहस्पतिः। त्वामोषधे
सोमो राजा विद्वान् यक्ष्मादमुच्चत ।।
कलश में
सर्वौषधि— ॐ या ओषधीः पूर्वाजातादेवेभ्यस्त्रियुगं पुरा। मनै नु
बभ्रूणामहꣳशतं धामानि सप्त च।।
(सर्वौषधि
के सम्बन्ध में कहा गया है— मुरा
माँसी वचा कुष्ठं शैलेयं रजनीद्वयम् । सठी चम्पकमुस्ता च सर्वौषधिगणः स्मृतः।। अग्निपुराण १७७-१७ के अनुसार मुरामांसी,
चम्पक जटामांसी, वच, कुठ, शिलाजीत, हल्दी, दारुहल्दी, सठी, और नागरमोथा- इन दस
ओषधियों को ग्रहण किया गया है। अन्यत्र एक प्रमाण में कहा गया है— कुष्ठं मांसी
हरिद्रे द्वे मुरा शैलेय चन्दनम्। वचा चम्पक मुस्ता च सर्व्वौषध्यो दश स्मृताः।। यानी
कुठ, जटामांसी, हल्दी, दारुहल्दी, मुरामांसी, शिलाजीत, श्वेतचन्दन, वच, चम्पा और
नागरमोथा इन दस औषधियों को ही सर्वौषधि कहा गया है। एक अन्य सूची में ऊपरोक्त सभी
द्रव्य तो यथावत हैं, किन्तु चम्पक के स्थान पर आंवला लिया गया है। जटामांसी के
सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि कहीं-कहीं इसके नाम पर छड़ीला दे दिया जाता है, जबकि
असली जटामांसी ठीक जटा की तरह और अति तीक्ष्ण गंधी होता है। अतः उसे ही प्रयोग
करना चाहिए। सर्वौषधीनां दुष्प्राप्तौ क्षिपेदेकां शतावरीम् अथवा सर्वाभावे शतावरी- यानी
सर्वौषधी के अभाव में सिर्फ शतावरी का प्रयोग किया जा सकता है। शतावरी जड़ी-
बूटी की दुकानों में सुलभ प्राप्य है।)
कलश में दूर्वा— ॐ काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि। एवा नो
दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च।।
कलश में पञ्चपल्लव— ॐ अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता। गोभाज
इत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम्।।
(प़ञ्चपल्लव के सम्बन्ध
में शास्त्र वचन है- न्योग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थः चूतप्लक्षस्तथैव च – अर्थात आम,
बरगद, गूलर, पीपल और पाकड़ इन पाँच प्रकार
के पल्लवों को कलश में डालना चाहिए। सामान्य संक्षिप्त पूजा में तो सिर्फ आम के
पल्लव से काम चल जाता है, किन्तु विशेष पूजा में पाँचों अनिवार्य हैं।)
कलश में कुशा— ॐ पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव
उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य
यत्कामः पुने तच्छकेयम् ।।
कलश में सप्तमृत्तिका- ॐ स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरा निवेशनी। यच्छा नः शर्म
सप्रथा।। अथवा ॐ उधृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना। मृत्तिके
हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम्।।
(सप्तमृत्तिका
के सम्बन्ध में शास्त्र वचन है— अश्वस्थानाद्गजस्थानाद्वल्मी-कात्सङ्गमाद्ध्रदात्।
राजद्वाराच्च गोष्ठाच्च मृदमानीय निक्षिपेत्।। अर्थात् घुड़शाल, हाथीशाल, दीमक
की बॉबी, नदियों के संगम, तालाब, राजद्वार, और गोशाला- इन सात स्थानों की मिट्टी
को कलश में डालने का विधान है। युगानुसार ये अलभ्य या दुर्लभ नहीं हैं ,फिर भी
सुलभ भी नहीं कहे जा सकते। इनके स्थान पर दुकानदार जो सो दे दे, इससे अच्छा है-
इनमें जो भी सुलभ प्राप्य हो, उसी का प्रयोग किया जाय। कहीं-कहीं वेश्यालय की
मिट्टी को भी पूजाकार्य में पवित्र माना गया है। अपने आप में इसका भी विशिष्ट
स्थान है।)
कलश में सुपारी- ॐ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः। बृहस्पतिप्रसूतास्ता
नो मुञ्चन्त्वꣳहसः ।।
कलश में पञ्चरत्न- ॐ परि वाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत्। दधद्रत्नानि
दाशुषे ।।
(पञ्चरत्न के सम्बन्ध में शास्त्र वचन है— 1.कनकं
कुलिशं मुक्ता पद्मरागं च नीलकम्। एतानि पञ्चरत्नानि सर्वकार्येषु योजयेत्।।
अर्थात् सोना, हीरा, मोती, पद्मराग और नीलम- ये पंचरत्न कहे गये हैं।)
2.वज्रमौक्तिकवैदूर्यं प्रवालं चन्द्रनीलकम्। अलाभे
सर्वरत्नानां हेम सर्वत्र योजयेत्।। अर्थात् हीरा, मोती, वैदूर्य (विल्लौर), मूंगा, नीलम ये
पाँच रत्न हैं। इन सबके अभाव में सोने का प्रयोग करना चाहिए।
3.माणिक्यं मौक्तिकं हेमं प्रवालं रजतादिकम्। पञ्चरत्नाङ्गमित्येतत्
सर्वं शान्तिकरं परम्।। अर्थात् माणिक्य, मोती,
मूंगा, सोना, चाँदी ये पाँच रत्न कहे गये हैं, जिनका उपयोग सभी प्रकार के
शान्तिकर्मों में किया जाता है। विभिन्न पूजापाठ, यज्ञादि में इनका प्रयोग होता
है। आजकल इनके नाम पर कृत्रिम रत्नों की पुड़िया दुकानदार थमा देता है और अज्ञानता
या मूढ़ता वस लोग ले लेते हैं। यदि श्रद्धा और औकाद हो तो रत्नों की दुकान से असली
रत्न लें। अन्यथा नकली के प्रयोग का कोई औचित्य नहीं है।)
कलश में द्रव्य- ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स
दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।
उपरोक्त पदार्थ का कलश में प्रक्षेपण करने के पश्चात्
कलश को वस्त्रालंकृत करे, निम्नाकित मन्त्रोच्चारण करते हुए—
कलश पर वस्त्र- ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरुथमाऽसदत्स्वः। वासो अग्ने
विश्वरूप ꣳसं
व्ययस्व विभावसो।।
कलश पर पूर्णपात्र— ॐ पूर्णादर्वी परा पत सुपूर्णा पुनरा पत। वस्नेव
विक्रीणावहा इषमूर्जꣳशतक्रतो।।
(कलश के ऊपर ढक्कन में अक्षतादि भर कर रखे। ध्यातव्य है
कि यह पात्र पूर्ण हो, ऐसा नहीं कि आधा किलो चावल की क्षमता वाले ढक्कन में मुट्ठी
भर चावल मात्र रख दिया जाय, जैसा कि प्रायः लोग अज्ञानता में किया करते हैं।)
अब, पूर्णपात्र
रखने के पश्चात्, निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक उसके ऊपर वस्त्रवेष्ठित जलदार
नारियल (अभाव में सूखा गड़ीगोला) रखे। मुख्य कलश के अतिरिक्त सहायक कलशों पर भी
ऐसा ही किया जाता है, किन्तु अभाव में वहाँ सुपारी भी रख सकते हैं। पूर्णपात्र
रिक्त नहीं रहना चाहिए। अज्ञानता में प्रायः कलश के ऊपर दीपक रख दिया जाता है।
किन्तु विवाहादि यज्ञ में कलश के ऊपर चौमुख दीपक का अपना महत्त्व है। इसमें पहले
घी से चारो वर्तिका प्रज्ज्वलित करे, बाद में उसमें खड़ा यानी छिलका सहित उड़द के
मुट्टी भर दाने डालकर, सरसो का तेल डाल दे और ध्यान रहे कि वो हमेशा प्रज्वलित
रहे। )
कलश पर नारियल— ॐ याः फलिनीर्या
अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः। बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्वꣳहसः।। (इस मन्त्र के उच्चारण पूर्वक कलश पर वस्त्र-वेष्ठित
जलदार नारियल रखना चाहिए। जलदार नारियल के स्थान पर सूखा गड़ीगोला भी रखा जा सकता
है। अभाव में या सामान्य पूजा में सुपारी भी रख दिया जाता है।)
अब, अक्षत-पुष्पादि लेकर कलश में देवी-देवताओं
का आवाहन करना चाहिए, जिसके लिए निम्नांकित मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए—
ॐ तत्त्वा यामि ब्राह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो
हविर्भिः। अडेहमानो वरुणेह बोध्वुरुशꣳस मा न आयुः प्रमोषी।। अस्मिन् कलशे
वरुणं साङ्गं सपरिवारं सायुधं सशक्तिकमावाहयामि। ॐ भूर्भुवः स्वः भो वरुण !
इहागच्छ, इह तिष्ठ, स्थापयामि, पूजयामि, मम पूजां गृहाण। ॐ अपां पतये वरुणाय नमः। कहकर पूर्व ग्रहित अक्षत पुष्पादि कलश के समीप छोड़ दे और पुनः
अक्षतपुष्पादि ग्रहण करके मन्त्र बोले—
ॐ कला कलाहि देवानां दानवानां कलाःकलाः। सङ्गृह्य
निर्मितो यस्मात् कलशस्तेन कथ्यते ।। कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः
। मूले त्वस्य स्थिरो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः ।। कुक्षौ तु सागराः सर्वे
सप्तदीपा वसुन्धरा। अर्जुनी गोमती चैव चन्द्रभागा सरस्वती ।। कावेरी कृष्णवेणा च
गंगा चैव महानदी। तापी गोदावरी चैव माहेन्द्री नर्मदा तथा।। नदाश्च विविधा जाता नद्यः
सर्वास्तथाऽपराः । पृथिव्यां यानि तीर्थानि कलशस्थानि तानि वै ।। सर्वे समुद्राः
सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः । आयान्तु मम शान्त्यर्थं दुरितक्षयकारकाः ।। ऋग्वेदोऽथ
ययुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः । अङ्गैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः ।।
गायत्री चात्र सावित्री शान्तिः पुष्टिकरी तथा ।। आयान्तु मम शान्त्यर्थं
दुरितक्षयकारकाः ।।
अक्षतपुष्पादि को कलश के समीप छोड दें। ध्यातव्य है कि
अब तक वस्त्र, चन्दन, पुष्प, पल्लवादि सामग्रियाँ पूजन-कलश तैयार करने के निमित्त
व्यवहृत हुयी हैं, कलश की पूजा अभी शेष है।
अतः कलश-प्राणप्रतिष्ठा हेतु पुनः अक्षतपुष्पादि ग्रहण
करें और निम्नांकित मन्त्रोच्चारण करके, अक्षतपुष्पादि को कलश के समीप रख दें। —
ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं
तनोत्वरिष्टं यज्ञꣳसमिमं
दधातु। विश्वेदेवा स इह मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ। कलशे वरुणाद्यावाहितदेवताः
सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु। ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः।।
अथवा- ॐ अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः
क्षरन्तु च। अस्यै देवत्वमर्चायै मामेहति न कश्चन।। अस्मिन कलशे
विष्ण्वाद्यावाहितदेवाः सुप्रतिष्ठता वरदा भवन्तु ॐ भूर्भुवः स्वः
वरुणाद्यावाहितेभ्यो विष्ण्वाद्यावाहितेभ्यो देवेभ्यो नमः।।
अब षोडशोपचार
पूजन करे—(गणेशपूजन प्रसंग में निर्दिष्ट वैदिक वा पौराणिक मन्त्रों से पूजन
करें तो अति उत्तम। अन्यथा निम्नांकित सामान्य नाममन्त्र से भी कर सकते
हैं।)
ध्यान- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, ध्यानार्थे
पुष्पं समर्पयामि।
आसन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, आसनार्थे अक्षतान्
समर्पयामि।
पाद्य- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, पादयोः पाद्यं
समर्पयामि।
अर्घ्य- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, हस्तयोर्घ्यं
समर्पयामि।
स्नान- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, स्नानीयं जलं
समर्पयामि।
स्नानाङ्ग आचमन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, स्नानान्ते
आचमनीयं जलं समर्पयामि।
पञ्चामृत-स्नान- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, पञ्चामृतस्नानं
समर्पयामि।
गन्धोदक-स्नान- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, गन्धोदक
स्नानं समर्पयामि। (चन्दन मिश्रित जल से
स्नान करावे)
शुद्धोदक स्नान- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, स्नानान्ते
शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि । (शुद्धजल से स्नान करावे)
आचमन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, आचमनीयं जलं
समर्पयामि । (आचमनार्थ जल प्रदान
करें)
वस्त्र-उपवस्त्र- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, वस्त्रोपवस्त्रं
समर्पयामि। (ध्यातव्य है कि यज्ञ-कार्यानुसार
कलश हेतु विशेष वस्त्र की व्यवस्था होनी चाहिए। सर्वत्र सिर्फ मौली धागे से काम
चलाना उचित नहीं है। )
आचमन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, वस्त्रान्ते
आचमनीयं जलं समर्पयामि।
यज्ञोपवीत- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, यज्ञोपवीतं
समर्पयामि।
आचमन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, यज्ञोपवीतान्ते
आचमनीयं जलं समर्पयामि। (यज्ञोपवीत के
बाद भी आचमनार्थ जल देना चाहिए)
आचमन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, आचमनीयं जलं
समर्पयामि । (यहाँ पुनः आचमन देना चाहिए)
चन्दन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, चन्दनं
समर्पयामि।
रक्तचन्दन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, रक्तचन्दनं
समर्पयामि।
हल्दीचूर्ण- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, हरिद्राचूर्णं
समर्पयामि।
रोली- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, कुमकुमं
समर्पयामि।
अबीर-गुलाल- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,अबीरंगुलालं
च समर्पयामि।
सिन्दूर- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, सिन्दूरं
समर्पयामि।
(यहाँ ‘देवता’ और ‘सिन्दूर’ शब्द से भ्रमित न हों ।
ध्यातव्य है कि कलश पर सभी उपस्थित हैं । अतः सिन्दूर चढ़ावें। दूसरी बात
यह कि देवता पद उभयलिंगी है।)
अक्षत- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, अक्षतं समर्पयामि
।
पुष्प-पुष्पमाला- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, पुष्पं-पुष्पमाल्यां
च समर्पयामि ।
तुलसी- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, तुलसीपत्रं
समर्पयामि ।
शमीपत्र- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, शमीपत्रं
समर्पयामि ।
विल्वपत्र- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, विल्वपत्रं
समर्पयामि ।
दूर्वा- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, दूर्वां
समर्पयामि ।
नानापरिमल द्रव्य, सौभाग्यद्रव्य— ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, नानापरिमल द्रव्याणि
सौभाग्यद्रव्याणि च समर्पयामि।
(इत्र, सुगन्धित तेल, आलता,
सिन्दूर, अन्य श्रृंगार प्रसाधन समर्पित करें)
धूप- ॐ
वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, धूपमाघ्रापयामि । (सुगन्धित धूप प्रदान करे)
दीप- ॐ
वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, दीपं दर्शयामि।
(दीप दिखाकर हाथ धो लें)
नैवेद्य- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, नैवेद्यं निवेदयामि।
(मिष्टान्नादि विविध
नैवेद्य अर्पित करें। नैवेद्य-पात्र सामने रखने के बाद, पहले उसे जल से घेरा
लगाकर, तब तुलसीपत्र छोड़े। बिना तुलसीपत्र के नैवेद्य ग्राह्य नहीं होता, किसी भी
देवता को। ध्यातव्य है कि गणेश इसमें अपवाद है, उन्हें नैवेद्यार्पण करके पुष्प
डालना चाहिए।)
मध्यपानीय-ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, मध्यपानीयं समर्पयामि।
अखण्ड ऋतुफलं- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, अखण्ड ऋतुफलं
समर्पयामि। (विविध प्रकार के
उपलब्ध मौसमी फल- केला, सेव, अमरुद आदि बिना काटे हुए चढ़ावें। इस सम्बन्ध में
गणेशपूजन क्रम में बतलायी गयी बातों का ध्यान रखें)
आचमन- ॐ
वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, नैवेद्यान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
ताम्बूलपूगीफलएलालवंगकर्पूरादि— (मुखशुद्धि)— ॐ वरुणाद्यावाहित- देवताभ्यो नमः,
मुखशुद्ध्यर्थं ताम्बूलंपूगीफलंएलालवंगकर्पूरादि समर्पयामि।
दक्षिणा— ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, दक्षिणाद्रव्यं
समर्पयामि।
आरती—ॐ
वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, आरार्तिकं समर्पयामि।
पुष्पाञ्जलि— ॐ
वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि।
प्रदक्षिणा- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, प्रदक्षिणां
समर्पयामि।
अब, हाथों में अक्षत-पुष्प लेकर प्रार्थना करें—
प्रार्थना- देवदानवसंवादे मथ्यमाने महोदधौ। उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो
विष्णुना स्वयम्।। त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः। त्वयि
तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः।। शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं
च प्रजापतिः। आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवाः सपैतृकाः।। त्वयि तिष्ठन्ति
सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः। त्वत्प्रसादादिमां पूजां कर्तुमीहे जलोद्भव।। सानिध्यं
कुरु मे देव प्रसन्नो भव सर्वदा।। नमो नमस्ते स्फटिकप्रभाय सुश्वेतहाराय
सुमङ्गलाय। सुपाशहस्ताय झषासनाय जलाधिनाथाय नमो नमस्ते।। ॐ अपां पतये वरुणाय नमः।।
नमस्कार- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, प्रार्थनापूर्वकं
नमस्कारान् समर्पयामि। (सादर नमस्कार पूर्वक,
प्रार्थना-पूर्व हाथ में लिए गये अक्षत पुष्पादि को समर्पित कर दें)
अब पुनः अक्षतपुष्पादि लेकर
निम्नांकित वाक्योच्चारण पूर्वक अबतक किए गये पूजन कर्म को समर्पित करे— कृतेन
अनेन पूजनेन कलशे वरुणाद्यावाहितदेवताः प्रीयन्तां न मम।
(नोट— पुण्याहवाचन हेतु भी इसी भाँति कलश का स्थापन पूजन
करना चाहिए।)
षोडशमातृकापूजन
कलशस्थापनपूजन के पश्चात् षोडशमातृका
पूजन का क्रम है। विविध कार्यानुसार इनकी व्यवस्था होनी चाहिए । सामान्य रूप से
संक्षिप्त पूजा में संक्षिप्त रीति से कलश के पास ही पत्रावली पर सभी आंगिक
पूजनकार्य सम्पन्न कर लिए जाते हैं, जबकि विवाह, यज्ञोपवीत, गृहप्रवेशादि विशेष
यज्ञों में स्थिति बिलकुल भिन्न होती है। वास्तुशान्ति कर्म में स्वतन्त्र वेदी
बनायी जाती है वास्तुमण्डल के अग्निकोण में। इसी भाँति विवाहादि में मण्डप में
सामान्य रूप से आवाहन पूजन कर देते हैं, फिर भी कुलदेवता स्थान में दीवार पर अपने
कुलाचारानुसार आकृतियाँ बनाकर विशेष रूप से पूजा करते हैं। विवाहादि में इन्हीं
स्थानों पर ऐपन में भिंगोकर नूतन पीतवस्त्र चिपकाकर, ऊपर से आँटे की गोलियाँ
(पितरौली) चिपकाकर, घृतधारा प्रवाहित (घृतढारी) करते हैं।
षोडशमातृकापीठ
(दीवार अथवा पत्रावली) पर गौर्यादिषोडशमातृका का आवाहन-पूजन करेंगे। ध्यातव्य है
कि यहाँ सोलह कोष्ठक बने हुए हैं, किन्तु संख्या सत्रह है। प्रथम कोष्ठक में
गौरी-गणेश दोनों हैं। गौरी-गणेश की पुनरावृति से
संशय नहीं करना चाहिए। कलश पूजन से पूर्व जो गौरी-गणेश पूजन हुआ है, वह
विघ्ननाशक आद्य गौरी-गणेश हैं और यहाँ षोडशमातृका में भी वे शामिल हैं, इस कारण
पूजा पुनः करनी है। शास्त्रवचन है— गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया।
देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः।। धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः
कुलदेवताः।। गणेशेनाधिका ह्येता वृद्धौ पूज्यास्तु षोडशः।। कर्मादिषु च
सर्वेषु मातरः सगणाधिपाः। पूजनीयाः प्रयत्नेन पूजिता पूजयन्ति ताः।। अतः
बारीबारी से पुष्पाक्षत ले लेकर निम्नांकित 4446मन्त्रोच्चारण पूर्वक सबका आवाहन
करे और प्रत्येक कोष्ठकों में छोड़ता जाय। आवाहन के बाद, एकतन्त्र से पूजा करे (
संक्षेप में करना हो तो— ॐ गौर्यादिषोडशमातृकेभ्यो नमः आवाहयामि,
प्रतिष्ठापयामि, पूजयामि च —मन्त्रोच्चारण पूर्वक संक्षिप्त पूजन भी कर सकते
हैं।)
१.
ॐ आगच्छ भगवन्देव ! स्वस्थानात् परमेश्वर। अहं त्वां
पूजयिष्यामि सदा त्वं सम्मुखो भव।।
२. ॐ हेमाद्रितनयां देवीं वरदां भैरवप्रियाम्। लम्बोदरस्य
जननीं गौरीमावाहयाम्यहम्।।
३.
ॐ
आवाहयाम्यहं पद्मां पद्मास्थां पद्ममालिकाम्। पद्मावासां जगद्वन्द्यां
पद्मनाभोरुसंस्थिताम्।।
४. ॐ दिव्यरुपां दिव्यवस्त्रां दिव्यालङ्कारसंयुताम्।
शतक्रतो महोरस्स्थां शचीमावाहयाम्यहम्।।
५. ॐ आवाहयाम्यहं
मेधां मेधाशक्तिप्रवर्धिनीम्। वरप्रदां सौम्यरुपां जरां निर्जरसेविताम्।।
६. ॐ आवाहयाम्यहं देवीं धात्रीं प्रणवमातृकाम्। वेदगर्भां
यज्ञमयीं सावित्रीं लोकमातरम्।।
७. ॐ आवाहयाम्यहं देवीं विजयां देवसंस्तुताम्।
सर्वास्त्रधारिणीं वन्द्यां सर्वाभरणभूषिताम्।।
८. ॐ आवाहयाम्यहं देवीं जयां त्रैलोक्यपूजिताम्।
सुरारिमथिनीं वन्द्यां देवानामभयं प्रदाम्।।
९. ॐ आवाहयाम्यहं देवीं देवसेनां महाबलाम्।
तारकासुरसंहारकारिणीं बर्हिवाहनाम्।।
१०. ॐ
आवाहयाम्यहं देवीं पितृणां तोषदायिनीम्। स्वधां देवाग्रजां देवैः कव्यार्थं या
प्रतिष्ठिता।।
११. ॐ आवाहयाम्यहं स्वाहां वरदां दिव्यरुपिणीम्। हविरादाय
सततं देवेभ्यो या प्रयच्छति।।
१२. ॐ आवाहयाम्यहं मातृः पूजिता या सुरासुरैः।
सर्वकल्याणरुपिण्यः सर्वाभरणभूषिताः।।
१३. ॐ सर्वाभीष्टप्रदा वन्द्याः सर्वलोकहिते
रताः। जयन्तीप्रमुखाः लोकमातृरावाहयाम्यम्।।
१४. ॐ आवाहयाम्यहं देवीं धृतिं भक्ताऽभयप्रदाम्।
हर्षोत्फुल्लास्यकमलां सर्वसन्तोषदायिनीम्।।
१५. ॐ
आवाहयाम्यहं पुष्टिं पोषयन्तीं जगत्त्रयम्। स्वदेहजैः फलैः शाकैः जलैः
रत्नैर्मनोरमैः।।
१६. ॐ आवाहयाम्यहं तुष्टिं वन्दितामसुरारिभिः। सदा
सन्तोषदां शान्तां प्रसन्नास्यां महाबलाम्।।
१७. ॐ देशे
ग्रामे गृहे बाह्ये विपिने पर्वते रणे। आवाहयामि तां
दुर्गां या पाति यातनार्णवात्।।
अब, प्रतिस्थापन मुद्रा (दोनों हथेलियों को उलटा रखकर)का
प्रदर्शन करते
हुए बोले—ॐ अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः
क्षरन्तु च। अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति न कश्चन।। ॐ भूर्भुवः स्वः गणपितसहिताः
गौर्यादि आत्मनः कुलदेवतान्ताःषोडशमातरः सुप्रतिष्ठता वरदा भवन्तु।
इस प्रकार सबका आवाहन करके, प्रतिष्ठापूर्वक
एकतन्त्र से ही षोडशोपचार पूजन करे। पूजन करने के बाद पुनः अक्षतपुष्पादि लेकर
बोले—
एभिरासनपाद्यार्घाचमनीय
जल-वस्त्रोपवस्त्र–गन्धाक्षत-पुष्प-धूप-दीप-नैवेद्य-आचमनीयजल-ताम्बूल-पूगीफल-दक्षिणा-प्रदक्षिणा-पुष्पाञ्जलिभिः
गणपति सहिता आत्मनः कुलदेवतान्ताः षोडश मातरः प्रीयन्तां न मम।।
(नोट—ऊँ गणपतये नमः,ऊँ गौर्यैःनमः,ऊँ पद्मायै नमः,ऊँ
शच्यैनमः,ऊँ मेधायै नमः,ऊँ सावित्र्यैनमः,ऊँ विजयायै नमः, ऊँ जयायै नमः, ऊँ
देवसेनायै नमः, ऊँ स्वधायै नमः, ऊँ स्वाहायै नमः, ऊँ मातृभ्यो नमः, ऊँ लोकमातृभ्यो
नमः, ऊँ धृत्यै नमः, ऊँ पुष्ट्यै नमः, ऊँ तुष्ट्यै नमः, ऊँ आत्मनः कुलदेवतायै नमः—
इन संक्षिप्त नाम मन्त्रों के साथ आवाहयामि,स्थापयामि,पूजयामि बोलते
हुए भी संक्षिप्त कार्यों में मातृकापूजन कर सकते हैं। )
(इति
षोडशमातृकापूजनम्)
सप्तघृतमातृकापूजनम् (वसोर्धारापूजनम्)
श्री, लक्ष्मी,
धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, सरस्वती—ये सात घृतमातृकाएँ हैं। ध्यातव्य है कि यहाँ श्री
लक्ष्मीबोधक न होकर, भिन्न नाम है देवी का। यानी श्रीदेवी अलग हैं और लक्ष्मीदेवी
अलग है। सामान्य
पूजन में सप्तमातृका पूजन की आवश्यकता नहीं है। किन्तु विशेष कार्यों में
अत्यावश्यक है। उक्त मातृकावेदी के समीप ही अग्निकोण में, अथवा सुविधानुसार प्रधान
कलश के समीप, काष्ठपट्टिका पर घृतमिश्रित सिन्दूर से ऊपर में ‘‘श्री’’
लिखकर, नीचे क्रमशः एक से सात पंक्तियों में एक-एक विन्दु वृद्धिक्रम से चित्रित
करे, यानी श्री के नीचे एक विन्दु, उसके नीचे दूसरी पंक्ति में दो विन्दु, तीसरी
पंक्ति में तीन विन्दु, चौथी में चार, पांचवीं में पांच, छठी में छः और सातवीं
पंक्ति में सात विन्दु डाले— इस प्रकार विन्दुसमूह एक ऊर्ध्व त्रिकोण बन जायेगा। अब
निम्न लिखित मन्त्रोच्चारण करते हुए घी की सात धारायें इस पर दें— ॐ वसोः
पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्। देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः
पवित्रेण शतधारेण सुप्वा।। तथा गुड़ के टुकड़े से ‘‘ॐ
कामधुक्षः’’— इस मन्त्रखण्ड का
उच्चारण करते हुए, दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर बायीं ओर तक की सभी विन्दुओं पर की घृतरेखाओं को मिलावे। तदुपरान्त
इसमें सात घृतमात्रिकाओं का क्रमशः आवाहन-पूजन एकतन्त्र से करे। यथा—
१. ॐ
सर्वसौभाग्यजननीं परमोल्लासदायिनीम्। भक्ताभीष्टप्रदां देवीं श्रियमावाहयाम्यहम्।।
२. ॐ
समुद्रतनयां देवीं विष्णोर्वक्षोविलासिनीम्। सर्वकल्याणजननीं
लक्ष्मीमावाहयाम्यहम्।।
३. ॐ
धैर्योत्साहप्रदां शान्तां भक्ताभीष्टफलप्रदाम्। सर्व श्रेयकरीं देवीं
धृतिमावाहयाम्यहम्।।
४. ॐ
आवाहयाम्यहं मेघां सिद्धिबुद्धिप्रदायिनीम्। सुरासुरनुतं दिव्यां
भक्तानामभयप्रदाम्।।
५. ॐ आवाहयामहं
देवीं स्वाहां दिव्यस्वरुपिणीम्। हविरादाय सततं या देवेभ्यो प्रयच्छति।।
६. ॐ
आवाहयाम्यहं देवीं प्रज्ञां वाग्विभवप्रदाम्। विश्वाधारां जगद्वन्द्यां महाघौघ
विनासीनीम्।।
७. ॐ
आवाहयाम्यहं देवीं भारतीमभयप्रदाम्। सुरासुरार्चितपदां सर्वकामदुधां वराम्।।
ॐ अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै
प्राणाः क्षरन्तु च। अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति न कश्चन।। ॐ भूर्भुवः स्वः
वसोर्धारादेवताः सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु।। —प्रतिष्ठापनमुद्रा
का प्रदर्शन करके, पुष्पाक्षत छोड़े। तदन्तर निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक
एकतन्त्र से षोडशोपचार पूजन करे—
ॐ भूर्भुवः स्वः सप्तघृतमात्रिकाभ्यो
नमः ।।
तथा पुनः पुष्पाक्षत लेकर मन्त्र बोले —
एभिरासनपाद्यार्घाचमनीय
जल-वस्त्रोपवस्त्र–गन्धाक्षत-पुष्प-धूप-दीप-नैवेद्य-आचमनीयजल-ताम्बूल-पूगीफल-
दक्षिणा-प्रदक्षिणा-पुष्पाञ्जलिभिः सप्तघृतमातरः प्रीयन्तां न मम।।
एवं निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक प्रार्थना
करे— ॐ यदङ्गत्वेन भो देव्यः पूजिता विधिमार्गतः। कुर्वन्तु कार्यमखिलं
निर्विघ्नेन क्रतूद्भवम्।।
(इति वसोर्धारापूजनम्)
आयुष्यमन्त्रजप
आयुष्यमन्त्रजप— पुनः
पुष्पाक्षतजलादि लेकर लघु संकल्प वोले— ॐ अद्य करिष्यमाण...निमित्तकसग्रहयाग...कर्माङ्गतयाऽमङ्गलशान्त्यर्थमायुष्यमन्त्रजपं
करिष्ये।— तदन्तर अञ्जलिवद्ध पुष्पाक्षत लेकर आचार्य की ओर देखे। आचार्य तथा
तदुपस्थित अन्य विप्र निम्नांकित मन्त्रोच्चारण करें—
ॐ आयुष्यं
वर्चस्यꣳरायस्पोषमौद्भिदम्। इदहिꣳरण्यंवर्चस्वज्जैत्रायाविशतादु माम्। ॐ न
तद्रक्षाꣳसि न पिशाचास्तरन्ति देवानामोजः प्रथमजꣳह्येतत्। यो बिभर्ति
दाक्षायणꣳहिरण्यꣳस देवेषु कृणुते दीर्घमायुः स मनुष्येषु क्रीणुते दीर्घमायुः।। ॐ यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्यꣳशतानीकाय
सुमनस्यमानाः। तन्म आ बध्नामि शतशारदायायुष्माञ्जरदष्टिर्यथासम्।। (शुक्लययुर्वेद३४/५०-५२)
यदायुष्यं
चिरं देवाः सप्तकल्पान्तजीविषु। ददुस्तेनायुषा युक्ता जीवेम शरदः शतम्।। दीर्घा
नागा नगा नद्योऽनन्ताः सप्तार्णवा दिशः। अनन्तेनायुषा तेन जीवेम शरदःशतम्।।
सत्यानि पञ्भूतानि विनाशरहितानि च। अविनाश्यायुषा तद्वज्जीवेम शरदः शतम्।। शतं
जीवन्तु भवन्तः।।— हाथ में लिया हुआ पुष्पाक्षत सप्तघृतमात्रिकावेदी पर
छोड़ दे और पुनः स-द्रव्यजलपुष्पाक्षतादि लेकर तदर्थ दक्षिणा संकल्प करे— ॐ
अद्य करिष्यमाण ..... निमित्तकसग्रहयाग कर्माङ्गतयाऽमङ्गलशान्त्यर्थं कृतैतदायुष्यमन्त्रवाचनकर्मणः
साङ्गतासिद्ध्यर्थं तत्सम्पूर्णफलप्राप्त्यर्थं चायुष्यवाचकेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो
यथाशक्ति मनसोद्दिष्टां दक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृजे।
-इत्यायुष्यकर्मः-
नवग्रहादिदेव आवाहन-पूजन
सामान्य पूजन में कलश के सामने पत्रावली पर
मन्त्रोच्चारण पूर्वक अक्षत छोड़ते हुए सबका एकत्र आवाहन पूजन कर दिया जाता है,
किन्तु यज्ञोपवीत, विवाह, गृहप्रवेश या अन्यान्य यज्ञों में विधिवत अलग-अलग
वेदियाँ बना कर कार्य करना चाहिए। संक्षिप्त पूजन में तो मात्र हरिद्रारंजित अक्षत
से काम चला लिया जाता है, किन्तु विशेष कार्यों में वेदियाँ बनाने पर, तत्तत्
रंगों और आकृत्तियों का ध्यान भी रखना पड़ता है। विशेष कार्य में पुनः संकल्प करने
की आवश्यकता होती है, किन्तु सामान्य पूजन में आवश्यक नहीं, क्योंकि
गणेशाम्बिकासहित समेकित क्रिया के लिए संकल्प किया जा चुका होता है ।
संकल्प— ॐ
अद्य करिष्यमाण .... कर्माङ्गतया आदित्यादिग्रहाणाम्
अधिदेवता-प्रत्यधिदेवता-पञ्चलोकपाल-वास्तोष्पति-क्षेत्रपाल
क्रतुरक्षक-दशदिक्कपालसहितामावाहनं पूजनं च करिष्ये।
अब, विविध
रंगों के चावल में से निर्देशानुसार रंग लेकर, क्रमशः निर्दिष्ट कोष्ठकों में
डालते जायेंगे, आचार्य तत्-तत् मन्त्रोच्चार करेंगे—
१.सूर्य-(लालरंग)- ॐ
जपाकुसुमसङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम्। तमोऽरिं सर्वपापघ्नं सूर्यमावाहयाम्यहम्।
ॐ भूर्भुवःस्वः कलिङ्गदेशोद्भव काश्यपगोत्र रक्तवर्ण भो सूर्य ! इहागच्छ, इह
तिष्ठ, ॐ सूर्याय नमः, श्री सूर्यमावाहयामि, स्थापयामि ।
२.चन्द्रमा-(दूधिया रंग)-
ॐ दधिशङ्खतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम्। ज्योत्स्नापतिं निशानाथं चन्द्रमावाहयाम्यहम्। ॐ भूर्भुवःस्वः यमुनातीरोद्भव
आत्रेयगोत्र शुक्लवर्ण भो सोम ! इहागच्छ, इह तिष्ठ, ॐ सोमाय नमः, श्री
सोममावाहयामि, स्थापयामि ।
३.मंगल-(लालरंग)-
ॐ धरणीगर्भसम्भूतं विद्युतकान्तिसमप्रभम्। कुमारं शक्तिहस्तं च भौममावाहयाम्यहम्।
ॐ भूर्भुवःस्वः अवन्तिदेशोद्भव भारद्वाजगोत्र रक्तवर्ण भो भौम ! इहागच्छ, इह
तिष्ठ, ॐ भौमाय नमः, श्री भौममावाहयामि, स्थापयामि
।
४.बुध-(हरारंग)-
ॐ प्रियंगुकलिकाभासं रुपेणाप्रतिमं बुधम्। सौम्यं सौम्यगुणोपेतं
सौम्यमावाहयाम्यहम्। ॐ भूर्भुवःस्वः मगधदेशोद्भव आत्रेयगोत्र हरितवर्ण भो बुध !
इहागच्छ, इह तिष्ठ, ॐ बुधाय नमः, श्री बुधमावाहयामि, स्थापयामि।
५.बृहस्पति-(पीलारंग)-
ॐ देवानां च ऋषीणाञ्च गुरुं काञ्चनसन्निभम्। बन्धुभूतं त्रिलोकानां
गुरुमावाहयाम्यहम्। ॐ भूर्भुवःस्वः सिन्धुदेशोद्भव आंगिरसगोत्र पीतवर्ण भो गुरो !
इहागच्छ, इह तिष्ठ, ॐ बृहस्पतये नमः, श्रीबृहस्पतिमावाहयामि, स्थापयामि ।
६.शुक्र-(हीरे जैसा
सफेद रंग)- ॐ हिमकुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्। सर्वशास्त्रप्रवक्तारं
शुक्रमावाहयाम्यहम्। ॐ भूर्भुवःस्वः भोजकटदेशोद्भव भार्गवगोत्र शुक्लवर्ण भो शुक्र
! इहागच्छ, इह तिष्ठ, ॐ शुक्राय नमः, श्री शुक्रमावाहयामि, स्थापयामि ।
७.शनि-(गहरा नीला रंग)-
ॐ नीलाम्बुजसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। छायामार्तण्डसम्भूतं शनिमावाहयाम्यहम्। ॐ
भूर्भुवःस्वः सौराष्ट्रदेशोद्भव काश्यपगोत्र नीलाभकृष्णवर्ण भो शनैश्चर ! इहागच्छ,
इह तिष्ठ, ॐ शनैश्चराय नमः, श्री शनैश्चरमावाहयामि, स्थापयामि।
८.राहु-(कालारंग)-
ॐ अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्। सिंहिकागर्भसम्भूतं
राहुमावाहयाम्यहम्। ॐ भूर्भुवःस्वः राठिनपुरोद्भव पैठीनसगोत्र कृष्णवर्ण भो राहो !
इहागच्छ, इह तिष्ठ, ॐ राहवे नमः, श्री
राहुमावाहयामि, स्थापयामि।
९.केतु- (हल्का आसमानी-धुएं
का रंग)- ॐ पलाशधूम्रसंकाशं तारकाग्रह-मस्तकम्। रौद्रं रौद्रात्मकमं घोरं
केतुमावाहयाम्यहम् ॐ भूर्भुवःस्वः अन्तर्वेदिसमुद्भव जैमिनिगोत्र धूम्रवर्ण भो
केतो ! इहागच्छ, इह तिष्ठ, ॐ केतवे नमः, श्री
केतुमावाहयामि, स्थापयामि।
(नोटः- सामान्य
पूजन में नवग्रहों के साथ उनके अधिदेवता-प्रत्यधिदेवतादि की पूजा आवश्यक नहीं है,
किन्तु विशेष कार्यों इनकी पूजा भी अत्यावश्यक है। नवग्रह वेदी पर सूर्यादि
नवग्रहों के आवाहन के पश्चात् इच्छा हो तो यथोपलब्ध पंचोपचार/ षोडशोपचार पूजन अभी
ही सम्पन्न कर लें, अथवा इसी वेदी पर अधिदेवता-प्रत्यधिदेवताओं के आवाहन के
पश्चात् एकतन्त्र से सबकी पूजा एकत्र भी कर सकते हैं। एकत्र करने से समय की काफी
बचत हो सकती है और विधान में भी कोई विशेष त्रुटि नहीं आती)
नवग्रहपूजन—
ॐ
आवाहितसूर्यादिनवग्रहेभ्यो देवेभ्यो नमः.......समर्पयामि — इस
नाममन्त्र से क्रमशः (रिक्त स्थानों में अर्पण-वस्तु का उच्चारण करते हुए) पाद्य, अर्घ्य,
आचमन, स्नान, पंचामृत, शुद्धस्नान, वस्त्र, उपवस्त्र, यज्ञोपवीत, वस्त्रान्त आचमन,
चन्दन, रक्त चन्दन, अबीर-गुलाल, रोली, पुष्प, माला, दुर्वा, तुलसीपत्र, बेलपत्र (सूर्य
को छोड़ कर), शमीपत्र, नाना परिमलद्रव्यादि, धूप, दीप, नैवेद्य, ऋतुफल, मध्य
पानीयजल, आचमन, मुखशुद्धि, दक्षिणाद्रव्य,
पुष्पाञ्जलि आदि प्रदान करने के पश्चात् प्रार्थना करे— ॐ
ब्रह्मामुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुःशशी भूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्रः
शनिराहुकेतवः सर्वे ग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु।। सूर्यः शौर्यमथेन्दुरुच्चपदवीं
सन्मङ्गलं मङ्गलः, सद् बुद्धिं च बुधो गुरुश्च गरुतां शुक्रः सुखं शं शनिः।
राहुर्बाहुबलं करोतु ससतं केतुः कुलस्योन्नतिं, नित्यं प्रीतिकरा भवन्तु मम ते
सर्वेऽनुकूला ग्रहाः।। पुनः वेदी (वा पत्रावली) पर अक्षत छोड़ते हुए बोले— अनया
पूजया सूर्यादि नवग्रहाः प्रीयन्तां न मम।।
----इतिनवग्रहपूजनम्----
अधिदेवता-आवाहन-पूजन
सामान्य पूजन में इनकी आवश्यकता नहीं
होती, किन्तु विशेष कार्यों में अनिवार्य है। इनके लिए अलग वेदी निर्माण की
अवश्यकता नहीं है, प्रत्युत नवग्रहवेदी पर ही स्थान दिया जाता है। स्थानों का
निर्देश यथास्थान वर्णित है।
नवग्रहों की स्थापन-पूजन के पश्चात् नवग्रहवेदी
पर ही क्रमशः प्रत्येक निर्दिष्ट कोष्ठकों में दायीं ओर अधिदेवताओं का
आवाहन करेंगे।
स्कन्दपुराण
में इनका स्थान इस प्रकार निर्दिष्ट है— शिवः
शिवा गुहो विष्णुर्ब्रह्मेन्द्रयमकालकाः। चित्रगुप्तोऽथ भान्वादेर्दक्षिणे
चाधिदेवता।। इन सबके लिए सिर्फ
हरिद्रारंजित चावल का प्रयोग करना चाहिए। आवाहन और प्रतिष्ठा पूर्वक्रम
(नवग्रहक्रम) से ही करना है—
१.शिव-(सूर्य के
दायें भाग में)- ॐ एह्येहि विश्वेश्वर नस्त्रिशूलकपालखट्वा- ङ्गधरेण सार्धम्।
लोकेश यक्षेश्वर यज्ञसिद्ध्यै गृहाण पूजां भगवन् नमस्ते।। ॐ भूर्भुवःस्वः ईश्वराय
नमः, ईश्वरमावाहयामि,स्थापयामि।
२.उमा-(चन्द्रमा के
दायें भाग में)-ॐ हेमाद्रितनयां देवीं वरदां शंकरप्रियाम्। लम्बोदरस्य
जननीमुमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः
उमायै नमः, उमामावाहयामि,स्थापयामि।
३.स्कन्द-(मंगल के
दायें भाग में)-ॐ रुद्रतेजःसमुत्पन्नं देवसेनाग्रगं विभुम्। षण्मुखं
कृत्तिकासूनुं स्कन्दमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः स्कन्दाय नमः, स्कन्दमावाहयामि, स्थापयामि।
४.विष्णु-(बुध के
दायें भाग में)—ॐ देवदेवं जगन्नाथं भक्तानुग्रहकारकम्। चतुर्भुजं रमानाथं
विष्णुमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः विष्णवे नमः, विष्णुमावाहयामि,स्थापयामि।
५.ब्रह्मा-(बृहस्पति के
दायें भाग में)—ॐ कृष्णाजिनाम्बरधरं पद्मसंस्थं चतुर्मुखम्। वेदाधारं निरालम्बं
विधिमावाहयाम्यहम्। ॐ भूर्भुवःस्वः
ब्रह्मणे नमः, ब्रह्माणमावाहयामि,स्थापयामि।
६. इन्द्र-(शुक्र के
दायें भाग में)— ॐ देवराजं गजारुढं शुनासीरं शतक्रतुम्। वज्रहस्तं
महाबाहुमिन्द्रमावाहयाम्यहम्। ॐ भूर्भुवःस्वः
इन्द्राय नमः, इन्द्रमावाहयामि,स्थापयामि।
७. यम-(शनि के
दायें भाग में)— ॐ धर्मराजं महावीर्यं दक्षिणादिक्पतिं प्रभुम्। रक्तेक्षणं
महाबाहुं यममावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः
यमाय नमः, यममावाहयामि,स्थापयामि।
८. काल-(राहु के
दायें भाग में)— ॐ अनाकारमन्ताख्यं वर्तमानं दिने-दिने। कलाकाष्ठादिरुपेण
कालमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः कालाय नमः, कालमावाहयामि,स्थापयामि।
९.
चित्रगुप्त-(केतु के दायें भाग में)- ॐ धर्मराजसभासंस्थं कृताकृतविवेकिनम्।आवाहये
चित्रगुप्तं लेखनीपत्रहस्तकम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः
चित्रगुप्ताय नमः, चित्रगुप्तमावाहयामि, स्थापयामि।
प्रत्यधिदेवता
आवाहन-पूजन
अधिदेवताओं के आवाहन-पूजन के पश्चात्
अब, उसी नवग्रहवेदी पर क्रमशः प्रत्येक निर्दिष्ट कोष्ठकों में वायीं ओर प्रत्यधिदेवताओं
का आवाहन करेंगे। बायें हाथ में अक्षत लेकर, दायें हाथ से थोड़ा थोड़ा छोड़ते
जायेंगे कथित स्थानों पर।
इस सम्बन्ध
में शान्तिमयूष में निर्देश है— अधिदेवा दक्षिणतो वामे प्रत्यधिदेवताः।
स्थापनीया प्रयत्नेन व्याहृतीभिः पृथकपृथक ।
अग्निरापः क्षितिर्विष्णुरिन्द्रश्चैन्द्री प्रजापतिः। सर्पो ब्रह्मा च
निर्दिष्टा प्रत्यधिदेवा यथाक्रम्।। अन्यत्रश्च— अग्निरापो धरा
विष्णुः शक्रेन्द्राणी पितामहाः। पन्नगाः कः क्रमाद् वामे ग्रहप्रत्यधिदेवताः।। अर्थात
सूर्यादि नवग्रहों के वाम भाग में क्रमशः अग्नि, जल, पृथ्वी, विष्णु, इन्द्र
इन्द्राणी, प्रजापति, सर्प और ब्रह्मा की स्थापना करे। ये प्रत्यधिदेवता कहे गये
हैं।
(ध्यातव्य
है कि कुछ नामों की पुनरावृत्ति हो रही है— जैसे विष्णु अधिदेवता सूची में आचुके
हैं, साथ ही प्रत्यधिदेवता सूची में भी हैं। ध्यातव्य है कि बुध के
अधिदेवता-प्रत्यधिदवता दोनों विष्णु ही हैं, अतः दो बार इनका आवाहन पूजन होगा। ठीक
वैसे ही जैसे एक ही व्यक्ति दो पदभार सम्भाल रहा हो। इससे भ्रमित नहीं होना चाहिए।
एक ही देवता का दो स्थानों पर यानी दो बार आवाहन-पूजन किया जायेगा। आगे अन्य
स्थानों पर भी इस प्रकार की स्थिति मिलेगी। जैसे—प्रारम्भ में गणेशाम्बिका पूजन कर
चुके है, पुनः पंचलोकपाल में भी गणेश है, दिक्पाल में इन्द्र, ब्रह्मा, यम, अग्नि
आदि की आवृत्ति हुयी है।)
प्रत्यधिदेवता-आवाहन-पूजन
१. अग्नि(सूर्य के
बायें)- रक्तमाल्याम्बरधरं रक्तपद्मासनस्थितम्। वरदाभयदं
देवमग्निमावाह याम्यहम् ।। ॐ
भूर्भुवःस्वः अग्नये नमः, अग्निमावाहयामि, स्थापयामि।
२.अप्(जल)-(चन्द्रमा
के बायें)-आदिदेवसमुद्भूतजगच्छुद्धिकराः शुभाः। ओषध्याप्यायनकरा अप
आवाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः अद्भ्यो नमः, अप आवाहयामि,स्थापयामि।
३.पृथ्वी-(मंगल के
बायें)- शुक्लवर्णां विशालाक्षीं कूर्मपृष्ठोपरिस्थिताम्। सर्वशस्याश्रयां
देवीं धरामावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः पृथिव्यै नमः, पृथिवीमावाहयामि, स्थापयामि।
४.विष्णु-(बुध के
बायें)- शङ्खचक्रगदापद्महस्तं गरुडवाहनम्। किरीटकुण्डलधरं
विष्णुमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः विष्णवे नमः, विष्णुमावाहयामि,स्थापयामि।
५.इन्द्र–(बृहस्पति के
बायें)- ऐरावतगजारुढ़ं सहस्राक्षं शचीपतिम्। वज्रहस्तं
सुराधीशमिन्द्रमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः इन्द्राय नमः,
इन्द्रमावाहयामि,स्थापयामि।
६.इन्द्राणी-(शुक्र के
बायें)- प्रसन्नवदनां देवीं देवराजस्य वल्लभाम् । नानालङ्कारसंयुक्तां
शचीमावाहयाम्य-हम् ।। ॐ भूर्भुवःस्वः
इन्द्राण्यै नमः, इन्द्राणीमावाहयामि,स्थापयामि।
७.प्रजापति-(शनि के
बायें)- आवाहयाम्यहं देव देवेशं च प्रजापतिम्। अनेकव्रतकर्तारं सर्वेषां च
पितामहम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः प्रजापतये नमः,
प्रजापतिमावाहयामि,स्थापयामि।
८.सर्प-(राहु के
बायें)-अनन्ताद्यान् महाकायान् नानामणिविराजितान्। आवाहयाम्यहमं सर्पान्
फणासप्तकमण्डितान्।। ॐ भूर्भुवःस्वः
सर्पेभ्यो नमः, सर्पानावाहयामि,स्थापयामि।
९.ब्रह्मा-(केतु के
बायें)- हंसपृष्ठसमारुढ़ं देवतागण पूजितम्। आवाहयाम्यहं देवं ब्रह्माणं
कमलासनम्।। ॐ भूर्भुवःस्वः ब्रह्मणे नमः, ब्रह्माणमावाहयामि, स्थापयामि।
अधिदेवता-प्रत्यधिदेवताओं
का एकतन्त्र पूजनः- नवग्रह वेदी के दायें अधिदेवता और बायें भाग में
प्रत्यधिदेवताओं का समन्त्र आवाहन सम्पन्न हो जाने के पश्चात् अब दोनों के एकत्र
नाम मन्त्रों से यथोपलब्ध पूजन करें- ॐ ईश्वराग्नेयादि अधिदेवप्रत्यधिदेवेभ्यो नमः- इस नाम मन्त्र
से क्रमशः पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्रोपवस्त्र, यज्ञोपवीत, पुनराचमन, चन्दन,
रोली, अबीर, पुष्प, पुष्पमाल्यादि,धूप-दीप, नैवेद्य, ऋतुफल, पुनराचमन, ताम्बूलादि
मुखशुद्धि, द्रव्य दक्षिणा समर्पित करके, पुष्पाक्षत लेकर प्रार्थना
करे— ॐ ईश्वराग्नेयादि अधिदेवताप्रत्यधिदेवताः
प्रीयन्ताम् न मम।।
---(इति
अधिदेवता-प्रत्यधिदेवतापूजनम्)---
पञ्चलोकपाल
आवाहन-पूजन
अब पुनः मध्य वेदी के समीप आकर
प्रधान कलश के सामने, गणेशाम्बिका के समीप, पत्रावली या छोटी वेदिका बनाकर पंचलोकपालों
को पुष्पाक्षत से आहूत कर यथास्थिति संक्षिप्त वा विस्तार से पूजन करेंगे। हालाँकि
स्कन्दपुराण में कहा गया है— गणेशश्चाम्बिका वायुराकाशश्चाश्विनौ तथा। ग्रहाणामुत्तरे
पञ्चलोकपाला प्रकीर्तिताः।। इस निर्देशानुसार तो इन्हें भी नवग्रहवेदी पर ही (उत्तरीभाग
में यानी केतुखंड में गणेश-दुर्गा, गुरुखंड में वायु, आकाश और अश्विनी इन पाँच को
स्थान देना चाहिए तथा बुधखंड में वस्तोष्पति और क्षेत्रपाल को भी आहूत करना चाहिए।
ध्यातव्य है कि गृहप्रवेशादि विशेष कार्यों में क्षेत्रपाल के लिए स्वतन्त्र वेदी
भी वास्तु पूजा मंडल में वायु कोण पर बनाया जाता है; एवं वास्तोष्पति को समाहित कर
लिया गया है— नैऋत्यकोण की मुख्य वास्तुवेदी में। अतः सुविधा/लोकरीति के अनुसार, इन्हें
नवग्रह वेदी पर ही समुचित स्थान दें और पुनः स्वतन्त्र वेदियों पर भी आहूत कर
पूजित करें। गृहारम्भादि पद्धतियों के प्रारम्भ में वास्तुपूजामंडल मुख्यकलश के
सामने ही इन्हें दर्शाया जाता है, साथ ही सप्तघृतमातृका को भी यहीं रखा गया है, जब
कि आगे इनके पूजा प्रसंग में अग्निकोण में षोडशमातृका के समीप रखने का संकेत भी
दिया गया है। यहाँ पुनः स्पष्ट कर दूँ कि इनका आवाहन-पूजन अनिवार्य है। लोकरीति के
अनुसार किंचित् स्थान भेद पर अधिक संशय नहीं करना चाहिए।
आवाहनः- बायें हाथ
में अक्षत लेकर,दायें हाथ से क्रमशः निर्दिष्ट कोष्टकों में छोड़ते जायेंगे।
आचार्य मन्त्रोच्चारण करेंगे—
१.गणेश—(केतुखंडमें)ॐ
लम्बोदरं महाकायं गजवक्त्रं चतुर्भुजं। आवाहयाम्यहं देवं गणेशं सिद्धिदायकम्
।। ॐ भूर्भुवः स्वः गणपते ! इहागच्छ, इह
तिष्ठ, गणपतये नमः, गणपतिमावाहयामि, स्थापयामि ।
२.दुर्गा— (केतुखंडमें)-
पत्तने नगरे ग्रामे विपिने पर्वते गृहे। नानाजातिकुलेशानीं दुर्गामावाहयाम्यहम्
।। ॐ भूर्भुवः स्वः दुर्गे ! इहागच्छ, इह तिष्ठ, दुर्गायै नमः, दुर्गामावाहयामि, स्थापयामि।
३.वायु —(गुरुखंडमें)—आवाहयाम्यहं
वायुं भूतानां देहधारिणाम्। सर्वाधारं महावेगं मृगवाहनमीश्वरम् ।। ॐ भूर्भुवः स्वः वायो ! इहागच्छ, इह तिष्ठ,
वायवे नमः, वायुमावाहयामि, स्थापयामि।
४.आकाश—(गुरुखंडमें)—अनाकारं
शब्दगुणं द्यावाभूम्यन्तरस्थितम्। आवाहयाम्यहं देवमाकाशं सर्वगं शुभम्।। ॐ
भूर्भुवः स्वः आकाश ! इहागच्छ, इह तिष्ठ,
आकाशाय नमः, आकाशमावाहयामि, स्थापयामि।
५.अश्विनी—(गुरुखंडमें)-देवतानां
च भैषज्ये सुकुमारौ भिषग्वरौ। आवाहयाम्यहं देवावश्विनौ पुष्टिवर्द्धनौ ।। ॐ
भूर्भुवः स्वः अश्विनौ ! इहागच्छ, इह तिष्ठ, अश्विभ्याम् नमः, अश्विनामावाहयामि, स्थापयामि ।
तदन्तर, ॐ
गणेशादिपञ्चलोकपालेभ्यो नमः — इस नाम मन्त्रोच्चारण पूर्वक यथोपचार पूजन करे, जैसा
कि अन्य देवों का करते आए हैं। तदन्तर, पुष्पाक्षत लेकर- अनया पूजया गणेशादि
पञ्चलोकपालाः प्रीयन्ताम्, न मम— बोलते हुए छोड़ दे।
तथाच—
पंचलोकपालों की भाँति इन दोनों को भी नवग्रहवेदी के बुधखंड में आहूत करें। गीताप्रेस
नित्यकर्मपूजाप्रकाश में कहा गया है—यज्ञादि विशेष अनुष्ठानों में वास्तोष्पति एवं
क्षेत्रपाल देवता का पृथक्-पृथक चक्र बनाकर विशेष पूजा की जाती है। नवग्रहमंडल के
देवगणों में भी इनकी पूजा करने का विधान है। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि दोनों
प्रकार से इनकी पूजा होनी चाहिए, क्यों कि वास्तुशान्ति-गृहप्रवेश एक महान यज्ञ ही
है। किन्तु विवादि में मुख्य कलश के पास ही संक्षिप्त रूप से पूजा कर लेते हैं।
१.वास्तोष्पति—
वास्तोष्पतिं विदिक्कायं भूशय्याभिरतं प्रभुम्। आवाहयाम्यहं देवं
सर्वकर्मफलप्रदम्।।
ॐ भूर्भुवः
स्वः वास्तोष्पते ! इहागच्छ, इह तिष्ठ, वास्तोष्पतये नमः, वास्तोष्पतिमावाहयामि, स्थापयामि।
२.क्षेत्रपाल—भूतप्रेतपिशाचाद्यैरावृतं
शूलपाणिनम्। आवाहये क्षेत्रपालं कर्मण्यस्मिन् सुखाय नः।। ॐ भूर्भुवः स्वः क्षेत्राधिपते ! इहागच्छ, इह तिष्ठ, क्षेत्राधिपतये
नमः, क्षेत्राधिपतिमावाहयामि, स्थापयामि।
तदन्तर, ॐ
वास्तोष्पतये नमः, ॐ क्षेत्रपालाय नमः —इस नाम मन्त्रोच्चारण पूर्वक यथोपचार
पूजन करे, तत्पश्चात् पुष्पाक्षत लेकर- अनया पूजया वास्तोष्पति एवं
क्षेत्राधिपति प्रियेताम् न मम—बोलते हुए दोनों देवों पर छोड़ दे।
----इति
पञ्चलोपालादिपूजनम्---
दशदिक्पाल आवाहन-पूजन
गृहप्रवेश-वास्तुशान्ति-पूजा क्रम में
दशदिक्पालों की विशेष रीति से पूजा करनी चाहिए। विवादि यज्ञ में यज्ञमण्डप के दशों
दिशाओं( आकाश-पाताल निमित्त् मध्य स्तम्भ पर) किन्तु सामान्य पूजाकर्मों में संक्षिप्त
रूप सामान्य विधि इन्हें भी नवग्रहमण्डल में ही यथास्थान स्थापित कर पूजित कर लेना
चाहिए ।
अति संक्षिप्त पूजनकर्म में कलश के समीप
ही सामने एक ही पत्रावली पर अनेक देवी-देवताओं को आहूत कर पूजित कर देने की
परम्परा है। थोड़े विस्तार में जाने पर नवग्रह मंडल पर आते हैं। कहीं-कहीं
आचार्यगण अधिक अलंकारिक स्वरूप देते हुए, बड़े यज्ञों, गृहप्रवेशादि कर्म में
यज्ञ-मंडप/भवन के बिलकुल बाहर पूर्वादि क्रम से दसों दिशाओं में स्थापित कर पूजित
करते हैं। नवग्रहमंडल हो या पूरा वास्तुमंडल (भवन) इनके निश्चित स्थान में
परिवर्तन नहीं होगा। वे यथावत वहीं रहेंगे। सुविधा और स्थितिनुसार पूरा वास्तुमंडल
या नवग्रहवेदी या कि वास्तुपूजा स्थल पर बनाया गया घेरा—इन तीनों में किसी का भी
चयन किया जा सकता है।
आगे, आवाहन मन्त्रों के साथ दिशा और
वर्ण भी निर्दिष्ट है। साथ ही भवन के ऊपरी भाग में या पूजाकक्ष में निर्मित वास्तुपूजामंडल
में दिक्पालों का पताका स्थापित करने हेतु विहित वर्णों का उपयोग करना चाहिए।
बायें हाथ में पुष्पाक्षत लेकर, आचार्य
के आवाहन-मन्त्रोच्चार सहित यजमान (पूजनकर्ता) निर्दिष्ट स्थानों पर अक्षत छोड़ते
जायें—
१.
इन्द्र–(पूर्व, पीतवर्ण)- ॐ इन्द्रं सुरपतिश्रेष्ठं
वज्रहस्तं महाबलम्। आवाहये यज्ञसिद्ध्यै शतयज्ञाधिपं प्रभुम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः
इन्द्राय नमः, इन्द्रमावाहयामि, स्थापयामि।
२.
अग्नि-(अग्निकोण,रक्तवर्ण)- ॐ त्रिपादं सप्तहस्तं च
द्विमूर्धानं द्विनासिकम्। षण्नेत्रं च चतुः श्रोत्रमग्निमावाहयाम्यहम्।। ॐ
भूर्भुवः स्वः अग्नये नमः, अग्निमावाहयामि, स्थापयामि।
३.
यम-(दक्षिण,कृष्णवर्ण)-ॐ महामहिषमारुढं दण्डहस्तं
महाबलम्। यज्ञसंरक्षनार्थाय यममावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः यमाय नमः,
यममावाहयामि, स्थापयामि।
४.
निर्ऋति-(नैर्ऋत्यकोण, नीलवर्ण)- ॐ निर्ऋत्यां खड्गहस्तं च
नरारुढ़ं वरप्रदम्। आवाहयामि यज्ञस्य रक्षार्थं नीलविग्रहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः
निर्ऋतये नमः, निर्ऋतिमावाहयामि, स्थापयामि।
५.
वरुण-(पश्चिम,कृष्णवर्ण)-ॐ शुद्धस्फटिकसंकाशं जलेशं यादसां
पतिम्। आवाहये प्रतीचीशं वरुणं सर्वकामदम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः वरुणाय नमः, वरुणमावाहयामि,
स्थापयामि।
६.
वायु-(वायुकोण, धूम्रवर्ण)-ॐ अनाकारं महौजस्कं व्योमगं
वेगवद् गतिम्। प्राणिनां प्राणदातारं वायुमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः वायवे
नमः, वायुमावाहयामि, स्थापयामि।
७.
कुबेर-(उत्तर, पीतवर्ण)-ॐ आवाहयामि देवेशं धनदं यक्षपूजितम्।
महाबलं दिव्यदेहं नरयानगतिं विभुम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः कुबेराय नमः,
कुबेरमावाहयामि, स्थापयामि।
८.
ईशान-(ईशान,श्वेतवर्ण)-ॐ सर्वाधिपं महादेवं भूतानां
पतिमव्ययम्। आवाहये तमीशानं लोकानामभयप्रदम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः ईशानाय नमः,
ईशानमावाहयामि, स्थापयामि।
९.
ब्रह्मा-(ईशान-पूर्व के बीच में, पीतवर्ण)- ॐ पद्मयोनिं चतुर्मूर्तिं
वेदगर्भं पितामहम्। आवाहयामि ब्रह्माणं यज्ञसंसिद्धिहेतवे।। ॐ भूर्भुवः स्वः ब्रह्मणे नमः, ब्रह्मामावाहयामि, स्थापयामि।
१०. अनन्त- (नैर्ऋत्य-पश्चिम
के मध्य, नीलवर्ण, मतान्तर से पीत वर्ण)-ॐ अनन्तं सर्वनागानामधिपं
विश्वरुपिणम्। जगतां शान्तिकर्तारं मण्डले स्थापयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः अनन्ताय नमः, अनन्तमावाहयामि, स्थापयामि।
इस प्रकार
आवाहन करने के पश्चात् ॐ इन्द्रादिदशदिक्पालेभ्यो नमः – इस नाम मन्त्र का
उच्चारण करते हुए पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, पंचामृत, शुद्धोदक स्नान, वस्त्रोपवस्त्र,
यज्ञोपवीत, पुनराचमन, गन्धादि, पुष्पादि, धूप-दीप, नैवेद्य, आचमन, ऋतुफल, पुनराचमन,
ताम्बूलादि मुखशुद्धि, द्रव्य दक्षिणा प्रदान करें और पुनः पुष्पाक्षत लेकर अनया
पूजया इन्द्रादिदशदिक्पालाः प्रीयन्ताम्, न मम कहते हुए छोड़ दें। एवं पुनः
अक्षतपुष्पादि लेकर हाथ जोड़ कर पूजित देवताओं की प्रार्थना करे— विरञ्चिनारायणशङ्करेभ्यः
शचीपतिस्कन्दविनायकेभ्यः। लक्ष्मीभवानीकुलदेवताभ्यो नमोऽस्तु दिक्पालनवग्रहेभ्यः।।
आदित्यसोमौ बुधभार्गवौ च शनिश्चरो वा गुरुलोहिताङ्गौ। प्रीणन्तु सर्वे
ग्रहराहुकेतुभिः सर्वे सुराः शान्तिकरा भवन्तु।।
---इतिदिक्पालपूजनम्----
चतुःषष्टियोगिनी आवाहन
पूजन
सामान्य पूजन में प्रधानकलश के आगे ही
पत्रावली में इन्हें भी आहूत कर लेने की परम्परा और विधान है। जबकि विविध
वास्तुपूजनपद्धतियों में चतुःषष्टि योगिनीपूजन की अलग से चर्चा ही नहीं है। इनके अ-समावेशन
का कारण भी स्पष्ट नहीं है। वशिष्ठसंहिता, विश्वकर्मप्रकाश, मत्स्य पुराणादि का
पूजा-निर्देश है— आदौ सम्पूज्य गणपं दिक्पालान् पूजयेत्ततः। धरित्रीकलशं
स्थाप्य मातृकापूजयेत्ततः....ततोग्रहार्चन वास्तुपूजाविधिमतः परम्....आदि
निर्देशवाक्यों में स्पष्ट चर्चा न होने कारण सम्भवतः ऐसा हुआ हो। सामान्य ज्ञान
वाले विप्र तो यह सोच कर निश्चिन्त हो जाते हैं कि चौंसठपद वास्तुमंडल में इनकी
पूजा हो जाती है, इस कारण अलग से जरुरी नहीं, किन्तु वास्तु विशेषज्ञ जानते हैं कि
वास्तुवेदी के चौंसठ देवताओं को चौंसठ योगिनियों से कोई मतलब नहीं है, क्योंकि ये
बिलकुल भिन्न हैं, अतः अलग से पूजा अनिवार्य है।
सामान्य पूजा में षोडशमातृकाओं के
साथ-साथ इनकी भी पूजा होती है एवं यज्ञादि विशेष अनुष्ठानों में विशेष वेदी बनाकर
पूजा करने का भी निर्देश मिलता है। ऐसी स्थिति में वास्तुशान्ति-गृहप्रवेशादि कर्म
में इन्हें समाहित न करना अनुचित प्रतीत हो रहा है। अतः अब इनकी चर्चा करते हैं।
इनका स्थान सुविधानुसार प्रधान कलश के पास अथवा मातृकावेदी के समीप रखा जा सकता
है। अन्य देवावाहन की तरह ही इनके लिए भी बायें
हाथ में पुष्पाक्षत लेकर, दायें हाथ से मन्त्रोच्चारण करते हुए छोड़ते जायें—
१.
ॐ दिव्ययोगायै नमः।
२.
ॐ महायोगायै नमः।
३.
ॐ सिद्धयोगायै नमः।
४.
ॐ महेश्वर्यै नमः।
५.
ॐ पिशाचिन्यै नमः।
६.
ॐ डाकिन्यै नमः।
७.
ॐ कालरात्र्यै नमः।
८.
ॐ निशाचर्यै नमः।
९.
ॐ कंकाल्यै नमः।
१०. ॐ
रौद्रवेताल्यै नमः।
११. ॐ हुँकार्यै
नमः।
१२. ॐ
ऊर्ध्वकेश्यै नमः।
१३. ॐ
विरुपाक्ष्यै नमः।
१४. ॐ
शुष्काङ्ग्यै नमः।
१५. ॐ
नरभोजिन्यै नमः।
१६. ॐ फटकार्यै
नमः।
१७. ॐ
वीरभद्रायै नमः।
१८. ॐ धूम्राक्षस्यै
नमः।
१९. ॐ
कलहप्रियायै नमः।
२०. ॐ
रक्तक्ष्यै नमः।
२१. ॐ राक्षस्यै
नमः।
२२. ॐ घोरायै
नमः।
२३. ॐ
विश्वरुपायै नमः।
२४. ॐ भयङ्कर्यै
नमः।
२५. ॐ
कामाक्ष्यै नमः।
२६. ॐ
उग्रचामुण्डायै नमः।
२७.ॐ भीषणायै
नमः।
२८. ॐ
त्रिपुरान्तकायै नमः।
२९. ॐवीरकौमारिकायै
नमः।
३०. ॐ चण्ड्यै
नमः।
३१. ॐ वाराह्यै
नमः।
३२. ॐ मुण्डधारिण्यै
नमः।
३३. ॐ भैरव्यै
नमः।
३४. ॐ हस्तिन्यै
नमः।
३५. ॐ
क्रोधदुर्मुकख्यै नमः।
३६. ॐ
प्रेतवाहिन्यै नमः।
३७. ॐखट्वाङ्गदीर्घलम्बोष्ठ्यै
नमः।
३८. ॐ मालत्यै
नमः।
३९. ॐ
मन्त्रयौगिन्यै नमः।
४०. ॐ अस्थिन्यै
नमः।
४१. ॐ चक्रिण्यै
नमः।
४२. ॐ ग्राहायै
नमः।
४३. ॐ
भुवनेश्वर्यै नमः।
४४.ॐ कण्टक्यै
नमः।
४५. ॐ कारक्यै
नमः।
४६.ॐ शुभ्रायै
नमः।
४७.
ॐ क्रियायै नमः।
४८. ॐ दूत्यै
नमः।
४९. ॐ करालिन्यै
नमः।
५०. ॐ शङ्खिन्यै
नमः।
५१. ॐ पद्मिन्यै
नमः।
५२. ॐ क्षीरायै
नमः।
५३. ॐ असन्धायै
नमः।
५४. ॐ
प्रहारिण्यै नमः।
५५. ॐ ॐ
लक्ष्म्यै नमः।
५६. ॐ कामुक्यै
नमः।
५७.न ॐ लोलायै
नमः।
५८. ॐ
काकदृष्ट्यै नमः।
५९. ॐ अधोमुख्यै
नमः।
६०. ॐ धूर्जट्यै
नमः।
६१. ॐ मालिन्यै नमः।
६२. ॐ घोरायै
नमः।
६३. ॐ कपाल्यै
नमः।
६४.ॐ
विषभोजिन्यै नमः
उक्त चौसठयोगिनियों के नाममन्त्रों से
आवाहन करने के बाद पुनःपुष्पाक्षत लेकर—आवाहयाम्यहं देवीर्योगिनीः परमेश्वरीः।
योगाभ्यासेन संतुष्टाः परं
ध्यानसमन्विताः।।
दिव्यकुण्डलसंकाशा
दिव्यज्वालास्त्रिलोचनाः।
मूर्तिमतीर्ह्यमूर्त्ताश्च
उग्राश्चैवोग्ररुपिणीः ।।
अनेकभावसंयुक्ताः संसारार्णवतारिणीः।
यज्ञे कुर्वन्तु निर्विघ्नं श्रेयो यच्छन्तु
मातरः।।
ॐ चतुःषष्टियोगिनीभ्यो नमः, युष्मान्
अहम् आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि च— बोलते हुए छोड़ दे और पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन करे—
ॐ
चतुःषष्टियोगिनीभ्यो नमः कहते हुए।
पूजन के बाद
हाथ जोड़कर प्रार्थना करे— यज्ञे कुर्वन्तु विर्विघ्नं श्रेयो यच्छन्तु
मातरः।
पुनः अक्षत लेकर— अनया पूजया ॐ
चतुःषष्टियोगिन्यः प्रीयन्ताम्, न मम - कहकर छोड़ दें।
---इति
चतुःषष्टियोगिनीपूजनम्---
वेदीसंस्कार एवं हवन विधान
विगत प्रसंगों
में किसी भी संक्षिप्त अथवा विस्तृत पूजा में किए जाने वाले आवश्यक (आंगिक) पूजाक्रम
और विधियों की चर्चा की गयी। संस्कारक्रम में कुछ अतिरिक्त पूजाविधानों को
यथास्थान निर्देशित कर दिया गया है।
किसी पूजन के अन्त में होम का विधान
है। पूजन की स्थिति (संक्षिप्त, सामान्य, विशेष, नित्य, नैमित्तिक, काम्य आदि) के
अनुसार यथोचित होम भी होना चाहिए। अतः आगे हवनविधान की चर्चा करते हैं।
हवन के सम्बन्ध में एक बात की जानकारी
आवश्यक है कि पूजन सामान्य हो या विशेष, किसी भी स्थिति में पूजा के अन्त में (तत्काल) हवन करने के लिए
अग्निवास का विचार करना आवश्यक नहीं है। जैसे भूमिपूजन, गृहप्रवेश, षोडशसंस्कारों
में कोई भी संस्कार, नवरात्रों में किया जाने सप्तशतीपाठ, जपादि अनुष्ठान (किसी भी
कर्मकाण्ड) के अन्त में अग्निवासविचार किए वगैर ही होमकार्य सम्पन्न कर देना
चाहिए। किन्तु यदि बाद में करना हो तो अग्निवास विचार अत्यावश्यक है।
होमकार्य
में अग्निवास विचार—
सैका तिथिर्वारयुता कृताप्ता शेषे
गुणेऽभ्रे भुवि वह्निवासः।
सौख्याय होमे शशियुग्मशेषे प्राणार्थनाशौ
दिवि भूतले च।। (मु.चि.नक्षत्रप्रकरण ३६) (शुक्लप्रतिपदा
से तिथि की गणना करके,उसमें एक और जोड़ दे तथा रव्यादि दिन
संख्या भी संयुक्त करके, चार से भाग दे। तीन वा शून्य शेष
रहने पर अग्निवास भूमि पर होता है। इसमें होमकरना शुभ है। एक शेष रहने पर अग्निवास
स्वर्ग में होता है,जो प्राणनाशक है एवं दो शेष रहने पर
पाताल वास की स्थिति में धननाश होता है। ध्यातव्य है कि अग्निवास चार स्थानों पर
क्रमशः रहता है—स्वर्ग, पाताल, भूमि और मेघ। इसीलिए चार से भाजित करते हैं।
प्रसंगवश
यहाँ ये स्मरण दिलाना अति आवश्यक प्रतीत हो रहा है कि आधुनिक नासमझी और बिनाविचारे,
देखादेखी में लोग धड़ल्ले से लोहे के बने हवन कुण्ड का प्रयोग कर देते हैं। बाजारवादी
व्यवस्था को इससे कोई मतलब नहीं और आचार्यगण भी इस पर गम्भीर नहीं हैं। किन्तु जान
लें कि लौहकुण्ड में किसी प्रकार का नित्य,नैमित्तिक,काम्य,पौष्टिक कर्म होम करना
अति अनिष्टकारक है। हालांकि तांबे का कुण्ड भी बाजार में उपलब्ध है,भले ही इसका
मूल्य अधिक हो। बड़े यज्ञादि में सुविधानुसार नयी ईंट, मिट्टी, वालु आदि के प्रयोग
से यथावश्यक वेदी वा कुण्ड बनायें। छोटे कर्मकाण्डों में सामान्य हवन के लिए सीमेन्ट
या टाईल के फर्श वाले कमरों में थोड़ी व्यावहारिक कठिनाई है। ऐसे में पीतल के परात
में वालु या मिट्टी भर कर काम लिया जाना चाहिए। सामान्य(लघु) होम के लिए मिट्टी का
बड़ा ढकना प्रयोग किया जा सकता है।
संक्षिप्त
हवन में ढकना या वेदी के मध्य में घी-रोली मिश्रित कर अधोत्रिकोण बनाकर,उसके मध्य में अग्निबीज रँ लिख
देना चाहिए। विस्तृत हवनकार्य में आवश्यकतानुसार सवाबित्ता, सवाहाथ....का वेदी (एक
पादीय या त्रिपादीय)बनाना चाहिए। वेदी को चावलचूर्ण,हल्दी,रोली आदि से चित्रित-
अलंकृत अवश्य करना चाहिए। तत्पश्चात् ही वेदी का पंचभूसंस्कार किया जाना चाहिए।
नित्यहोम या संक्षिप्त होम में ये सब अलंकार आवश्यक नहीं है।
वेदी का पंच भूसंस्कार—
विधिवत वेदी निर्माण करने के बाद उसके कुछ
आवश्यक संस्कार भी हैं। यथा—
१. परिसमूहन—तीन
कुशों के द्वारा दक्षिण से उत्तर की ओर वेदी पर सफाई का भाव करे और उस उपयोग किए
गए कुशा को ईशानकोण में फेंक दें— त्रिभिर्दभैः परिसमुह्य तान् कुशानैशान्यां
परित्यज्य।
२. उपलेपन—
गाय के गोबर और जल के मिश्रण का किंचित् छिड़काव वेदी पर करे।
३. उल्लेखन—काष्ठ
निर्मित स्रुवा (अभाव में आम्रडंठल में बंधा पल्लव) के मूल भाग (उल्टे तरफ से)
वेदी के मध्यभाग में प्रादेशमात्र परिमाण लम्बी तीन रेखाएँ बनायें। (अँगूठे से
तर्जनी के बीच की दूरी को प्रादेश कहते हैं) ये रेखाएँ क्रमशः दक्षिण से उत्तर की
ओर हथेली ले जाते हुए बनानी हैं।
रेखांकन
पश्चिम से पूरब होंगी—इस बात का भी ध्यान रहे।
४. उद्धरण—
अब उन खींची गयी तीनों रेखाओं पर से एक-एक चुटकी वालुका (अनामिका और अँगुष्ठ के
सहारे उठाकर) बायीं हथेली पर इकट्ठा करें और अन्त में उसे भी ईशान कोण की ओर फेंक
कर हाथ धो लें। (अनामिकाङ्गुष्ठाभ्याम् मृदमुद्धृत्य)
५. अभ्युक्षण
व उल्मुखभ्रमण —गंगादि पवित्र जल अँजुलि में भरकर वेदी
पर छिड़काव कर दें तथा थोड़ा सा कपूर अग्निकोण पर जलाकर, कुशा के सहयोग से, वेदी
पर भ्रमण कराते हुए, ईशान की ओर फेंक दें।
(इस प्रकार पंचभूसंस्कार हो जाने पर वेदी पर
अग्निस्थापन करें। अग्नि लाने के लिए किसी वालिका का चयन करना शास्त्र सम्मत है।
उससे अग्रि ग्रहण करने के बाद समुचित दक्षिणा भी देनी चाहिए)
अग्निस्थापन—
किसी कांस्य अथवा ताम्रपात्र में (अभाव में मिट्टी का सिकोरा) प्रज्ज्वलित अग्नि
मंगाकर वेदी पर पात्र सहित अग्निकोण में रखे और इसमें से किंचित् क्रव्यादांश
निकाल पर वेदी के नैऋत्य कोण में डाल दे। तत्पश्चात् अपनी ओर पात्र का मुख किए हुए
अग्नि को वेदी पर मन्त्रोच्चारण पूर्वक स्थापित करे— ऊँ मङ्गलनामाग्नये
सुप्रतिष्ठितो वरदो भव।
तत्पश्चात्
ऊँ मङ्गनामाग्नये नमः – इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए गन्धपुष्पादि
से पंचोपचार पूजन करे।
(नोट—
विविध संस्कारों में भिन्न-भिन्न नाम वाले अग्नि को आहूत किया जाता है, जिसकी
चर्चा यथास्थान संस्कार प्रकरण में किया गया है।)
अब
एक कलश में चावल भर कर और एक कुशा में गांठबांध कर (मानवाकृतिस्वरुप) चावल में ऊपर
से खोंस दें और वेदी के अग्निकोण और दक्षिण के ठीक बीच में स्थापित कर दें। ये इस
सीमन्तोन्नयन यज्ञरक्षक ब्रह्मा हुए।
ब्रह्मा के स्थान के सम्बन्ध में मतान्तर है। प्रायः लोग इन्हें ईशान में रख देते
हैं- जैसा कि वास्तुमंडल में ईशान और पूर्व में स्थान है, तो कुछ लोग अग्नि कोण
में, कुछ लोग सीधे दक्षिण में। अतः प्रसंगवश इसका भ्रमनिवारण अत्यावश्यक प्रतीत हो
रहा है। वास्तु मंडल, दिक्पालमंडल वा ग्रहमंडल में ब्रह्मा का स्थान निर्विवाद रुप
से ईशान-पूर्व मध्य में ही है; किन्तु अग्निवेदी के साथ यह नियम मान्य नहीं है। अतः,
प्रश्न उठता है कि क्या इसे अग्निकोण में रखें, जैसा कि सूक्ष्मपरख के अभाव में
लोग रख दिया करते हैं या कि दक्षिण में ?
इस
सम्बन्ध में भारतीय विवाह पद्धति में एक रोचक प्रश्नोत्तर है, जिसे यहाँ
उद्धृत किया जा रहा है—
प्रश्न— उत्तरे सर्वतीर्थानि, उत्तरे
सर्व देवता, उत्तरे प्रोक्षणी प्रोक्ता, किमर्थं ब्रह्म दक्षिणे?
उत्तर— दक्षिणे दानवा प्रोक्ता, पिशाचाश्चैव
राक्षसाः। तेषां संरक्षणार्थाय ब्रह्मस्थाप्य तु दक्षिणे।। यानी सभी तीर्थ, देवादि, प्रोक्षणी-प्रणीता
जब उत्तर में है, तो ब्रह्मा को दक्षिण में क्यों? तदुत्तर में कहा गया कि दक्षिण
में दानव, राक्षस, पिशाचादि वास करते हैं, अतः यज्ञ में इनसे रक्षार्थ ब्रह्मा को
यहीं स्थान देना चाहिए।
उक्त मूल तथ्यों का किंचित् भेद सहित
चर्चा भी अन्यत्र मिलती है—
१. प्रतीकात्मक ब्रह्मकलश का परिमाण है दो
सौछप्पन मुट्ठी चावलों से भरा हुआ घट, जिसपर पचास कुशों को ग्रन्थियुक्त करके
आरोपित कर देना चाहिए। यथा— पञ्चाशत्कुशैः ब्रह्मा तदर्धेन तु विष्टरः ।
दक्षिणावर्तको ब्रह्मा वामावर्तस्तु विष्टरः । ऊर्ध्वकेशो भवेत् ब्रह्मा
लम्बकेशस्तु विष्टरः।
२. सभी देवादि,पूजन सामग्री,पात्रादि
उत्तर की ओर हैं, ऐसे में ब्रह्मा को दक्षिण की ओर क्यों स्थान दें?—
उत्तरे सर्वपात्राणि उत्तरे सर्वदेवताः । उत्तरेऽपां
प्रणयनं किमर्थं ब्रह्म दक्षिणे ।।
इसका
उत्तर है कि यज्ञविघ्नकर्ता यम, राक्षसादि दक्षिण की ओर ही उपस्थित हैं। अतः यज्ञरक्षार्थ ब्रह्मा को दक्षिण की ओर स्थापित
करना चाहिए—यमो वैवश्वतो राजा वसते दक्षिणां दिशि। तस्य संरक्षणार्थाय ब्रह्मा
तिष्ठति दक्षिणे।। )
उक्त
प्रश्नोत्तर का थोड़ा और विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि अग्नि कोण में
अग्निदेव का स्थान है, साथ ही ग्रहों में शुक्र का स्थान भी यहीं है। ये महाशय ही
दानवादि के प्रिय गुरु हैं। आदरणीय यज्ञ-रक्षक पितामह ब्रह्माजी को इनके समीप ही
कहीं स्थान देना उचित है, इस बात का ध्यान रखते हुए कि अग्नि और शुक्र दोनों का
सामीप्य भी मिले, तथा यम के क्षेत्र में अतिक्रमण भी न हो। इस प्रकार सुनिश्चित
स्थान पर चावल-हल्दीचूर्ण, कुमकुमादि से अष्टदल कमल बना कर, उस पर पीत रंजित चावल
से परिपूर्ण एक कलश की स्थापना करे।
इस
ब्रह्मकलश के आकार और चावल की मात्रा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश है कि यजमान
की मुट्ठी से दोसौछप्पन मुट्ठी चावल होना चाहिए, जो कि करीब साढ़ेबारह किलो होता
है। अज्ञान या अभाव में लोग एक छोटा सा कलश मात्र रख देते हैं। इस विशेष कलश पर
पूर्णपात्र रखने का विधान नहीं है, प्रत्युत कुशा में
गांठबांध कर (मानवाकृतिस्वरूप) ऊपर
से खोंस देना चाहिए।
ब्रह्मावरण— अब यथोपलब्ध वस्त्र, द्रव्य, अक्षत,
पुष्पादि वरण सामग्री लेकर, सुविधानुसार पूर्व पूजित ब्राह्मणों में से किसी को ब्रह्मा
कलश के समीप आसन देकर बैठावे और संकल्प बोलकर ब्रह्मा नियुक्त करे— ऊँ अद्य .....
होमकर्मणि कृता कृतावेक्षण रूपकर्मकर्तुम्......गोत्र......शर्माणं ब्राह्मणमेभिः
पुष्प चन्दन ताम्बूलयज्ञोपवीत- वासोभिर्ब्रह्मत्वेन भवन्तमहं वृणे। – यहाँ उक्त ब्राह्मण का नामगोत्रादि उच्चारण
करते हुए, वरण सामग्री उनके हाथ में सुपुर्द करके, हाथ जोड़कर प्रार्थना करे।
यजमान
द्वारा दिए गए वरणसामग्री को ग्रहण करते हुए उक्त नियुक्त ब्रह्मा बोलें— वृतोऽस्मि।
यजमान
बोलें— यथाविहितकर्म कुरु।
ब्रह्मा
कहें—ऊँ यथाज्ञानं करवाणि।
तदुपरि
वेदी के दक्षिण भाग में कुशासन पर विराजते हुए ब्रह्मा से यजमान बोलें—— यथा
चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः। तथा त्वं अस्मन् सीमन्तोन्नयनहोमकर्मणि भवान्
मे ब्रह्मा भव !
ब्रह्मा
बोलें— ऊँ भवानि ।
अब
उक्त ब्रह्माकलश के समीप आसनासीन ब्रह्मा से गायत्र्यादि जप हेतु निवेदन करे।
कुशकण्डिका—
अब,
अग्निवेदी के उत्तर भाग में प्रणीतापात्र (मिट्टी की प्याली) को रखकर, उसे जल
पूरित करके, कुशा से ढक दे।
अब,
अग्निवेदी के चारो तरफ कुशाच्छादन (कुशपरिस्तरण) करे। (यहाँ नियमतः इक्यासी कुशा की आवश्यता होती है। अभाव में एक-एक कुशा का
ही प्रयोग करे, किन्तु करे अवश्य। यदि ये भी सम्भव न हो तो ताजा दूर्वा भी ग्राह्य
है) — अग्निकोण से ईशानकोण
तक
उत्तराग्र कुशा, फिर ब्रह्मा से अग्निकोण तक पूर्वाग्र कुशा, फिर
नैऋत्यकोण
से वायव्यकोण तक उत्तराग्र कुशा, फिर वायव्यकोण से ईशानकोण तक पूर्वाग्र कुशा
क्रमशः रखें ।
पात्रासादन— अब, हवनकार्य में प्रयोग होने वाले
सभी सामग्रियों को वेदी से उत्तर या पूर्व की ओर रख दें।
प्रोक्षणीपात्रसंस्कार— अब, प्रोक्षणी पात्र का संस्कार करे—
प्रोक्षणी को अपने
सामने
पूर्वाग्र रखे। प्रणीता में रखे गए जल के आधे भाग को आचमनी वा पल्लव से
प्रोक्षणीपात्र में तीन बार डाले। अब, कुशा के अग्रभाग को बायें हाथ की अनामिका और
अंगुष्ठ से पकड़कर, उसके मध्य भाग से प्रोक्षणी के जल का तीन बार उत्प्लवन करे
(उछाले) और पवित्रक (कुश) को प्रोक्षणीपात्र पर पूर्वाग्र रख दें एवं
प्रोक्षणीपात्र को बायें हाथ में उठाकर, पुनः पवित्रक के द्वारा प्रणीता के जल से
प्रोक्षणी को प्रोक्षित करे तथा इसी प्रोक्षणीजल से आज्यस्थाली, स्रुवा इत्यादि
सामग्रियों पर भी प्रोक्षण करे (जल के छींटे डाले)। तत्पश्चात् प्रोक्षणीपात्र को
प्रणीतापात्र तथा अग्निवेदी के मध्य स्थापित कर दे।
स्रुवा
सम्मार्जन और प्रतपन —अब
दायें हाथ में स्रुवा को पूर्वाग्र,अधोमुख रखते हुए अग्नि में किंचित् तपाये। अब
स्रुवा को बायें हाथ में पूर्वाग्र, ऊर्ध्वमुख रखते हुए दायें हाथ से सम्मार्जन
कुश के अग्रभाग से स्रुवा के अग्रभाग को, मध्यभाग से मध्य भाग को एवं मूल भाग से
मूल भाग का स्पर्श करे। तत्पश्चात् उस कुश को अग्नि में डाल दे। पुनः अधोमुख रखते
हुए स्रुवा को अग्नि में तपाये और दाहिनी ओर किसी पात्र या कुश पर स्थापित कर दे।
अब, घृतपात्र को सामने रखकर,
प्रोक्षणी पर रखी गयी पवित्री को लेकर,
मूलभाग को दाहिने हाथ के अंगुष्ठ-अनामिका से तथा बायें हाथ के अंगुष्ठ-अनामिका से
अग्रभाग को पकड़कर पात्रस्थित घृत को तीनबार उछाले, घृत का अवलोकन करे, कुछ
विजातीय वस्तु हो तो बाहर निकाल फेंके। पुनः प्रोक्षणी के जल को तीन बार उछाले और
पुनः पवित्री को यथास्थान प्रोक्षणीपात्र पर रख दे।
अब, ब्रह्मा का स्पर्श करते हुए,
बायें हाथ में सात उपयमन कुशा लेकर, हृदयस्थल पर बायाँ हाथ रखते हुए, तीन समिधाओं
को घी में डुबोकर, प्रजापतिदेवता का मानसिक ध्यान करते हुए, खड़े होकर, मौन रूप
से समिधाओं को अग्नि में डाले। तदनन्तर
बैठ कर पवित्रक सहित प्रोक्षणीपात्र के जलको दाहिने हाथ की अंजलि में लेकर अग्नि
के ईशानकोण से ईशानकोण पर्यन्त (प्रदक्षिणक्रम से) जलधारा गिराये।
अब,
पवित्रक को बायें हाथ में लेकर, फिर दाहिने खाली हाथ को उलटेक्रम से (ईशानकोण से
उत्तर होते हुए ईशानकोण तक) ले आए। और पवित्रक को दायें हाथ में लेकर, प्रणीता में
पूर्वाग्र रख दे। इस क्रिया को इतरधावृत्ति कहते हैं।
हवन
विधि— होम क्रम
में सर्वप्रथम प्रजापतिदेवता के निमित्त आहुति दी जाती है। तदनन्तर इन्द्र, अग्नि,
सोमादि के निमित्त आहुति का विधान है। इन चार आहुतियों में प्रथम दो को आधारभाग
और अन्तिम दो को आज्यभाग कहा जाता
है। ये चारों आहुतियाँ सिर्फ घी से ही दी जानी चाहिए, न कि तिलादि शाकल्य से। इन
आहुतियों को प्रदान करते समय नियुक्त ब्रह्मा द्वारा होमकर्ता के दाहिने हाथ को
कुश से स्पर्श किए रहना चाहिए। इस क्रिया को ब्रह्मणान्वारब्ध कहते हैं।
होम के समय दाहिना घुटना पृथ्वी पर टिका रहे, स्रुवा में घी लेकर, प्रजापतिदेव का
ध्यान करते हुए निम्नांकित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए आहुतियाँ प्रदान करें— ऊँ
प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। ऊँ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न
मम। ऊँ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये न मम। ऊँ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।
(ध्यान रहे कि वेदी के मध्यभाग में
आहुति प्रदान करना चाहिए और स्रुवा में शेष घी की बून्दों को प्रोक्षणीपात्र में
छिड़क देना चाहिए। ये क्रिया आगे की तीन आहुतियों में भी करें )
तदुपरान्त निम्नांकित
मन्त्रोच्चारणपूर्वक नव आहुतियाँ प्रदान करें एवं स्रुवाशेष सामग्री को पूर्ववत
प्रोक्षणीपात्र में छिड़कता जाए।
नवाहुति
मन्त्र—
१. ऊँ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम।
२. ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम।
३. ऊँ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।
४. ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्
देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा ᳭᳴᳴ सि
प्रमुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
५. ऊँ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती
नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुण ᳭᳴᳴रराणो वीहि मृडीक ᳭᳴ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न
मम।
६. ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च
सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भषज ᳭᳴᳴ स्वाहा। इदमग्नये अयसे न मम।
७. ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं
यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु
मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।
८. ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि
मध्यम ᳭᳴᳴ श्रधाय । अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं
वरुणायादित्यायादितये न मम।
९. ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये
न मम। (यहाँ
प्रजापति देवता का मानसिक ध्यान कर, आहुति
डाले)
स्विष्टकृत आहुति— तदनन्तर ब्रह्मा द्वारा कुशस्पर्शित
(ब्रह्मणान्वारब्ध) निम्न मन्त्र से स्विष्टकृताहुति दे— ऊँ अग्नये स्विष्टकृते
स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।
संस्रवप्राशन—
होम पूर्ण होने पर प्रोक्षणीपात्र
प्रक्षेपित घृत को दाहिने हाथ से ग्रहण कर, यत्किंचित् पान करे। तदनन्तर आचमन करके,
निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक प्रणीतापात्र के जल से अपने सिर पर मार्जन करे— ऊँ
सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु ।
तदनन्तर
ऊँ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्वष्पः मन्त्रोच्चारण
पूर्वक जल नीचे छिड़के। अब पवित्रक को अग्नि में छोड़ दे और पूर्व स्थापित
ब्रह्मापूर्णपात्र में दक्षिणा द्रव्य रखकर संकल्प करे— ऊँ अद्य सीमन्तोन्नयनहोमकर्मणि
कृताकृतावेक्षणरूप- ब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं
पूर्णपात्रं प्रजापति दैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे ।
नियुक्त
ब्रह्मा स्वति कहकर उस पूर्णपात्र को ग्रहण करें।
प्रणीताविमोक
एवं मार्जन —
अब, प्रणीतापात्र को ईशानकोण में उलटकर रख दे और उपयमनकुशा द्वारा उस जल से सिर पर
मार्जन करे, इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक— ऊँ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः
शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।( मार्जनोपरान्त उस कुशा को अग्नि
में छोड़ दे।)
बर्हिहोम— अव अग्निवेदी के चारो ओर जिस क्रम
से कुशाओं को बिछाये थे, उसी क्रम से उठा-उठाकर, घृत में डुबोकर, इस मन्त्र के
उच्चारण पूर्वक अग्नि में डाल दे— ऊँ देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित
मनसस्पत इमं देव यज्ञ ᳭᳴᳴ स्वाहा वाते धाः स्वाहा ।
Comments
Post a Comment