षोडशसंस्कारविमर्श परिशिष्ठ खण्ड पाँच- वेदीसंस्कार एवं हवन विधान

 

 वेदीसंस्कार एवं हवन विधान

 

विगत प्रसंगों में किसी भी संक्षिप्त अथवा विस्तृत पूजा में किए जाने वाले आवश्यक (आंगिक) पूजाक्रम और विधियों की चर्चा की गयी। संस्कारक्रम में कुछ अतिरिक्त पूजाविधानों को यथास्थान निर्देशित कर दिया गया है।

            किसी पूजन के अन्त में होम का विधान है। पूजन की स्थिति (संक्षिप्त, सामान्य, विशेष, नित्य, नैमित्तिक, काम्य आदि) के अनुसार यथोचित होम भी होना चाहिए। अतः आगे हवनविधान की चर्चा करते हैं।

            हवन के सम्बन्ध में एक बात की जानकारी आवश्यक है कि पूजन सामान्य हो या विशेष, किसी भी स्थिति में  पूजा के अन्त में (तत्काल) हवन करने के लिए अग्निवास का विचार करना आवश्यक नहीं है। जैसे भूमिपूजन, गृहप्रवेश, षोडशसंस्कारों में कोई भी संस्कार, नवरात्रों में किया जाने सप्तशतीपाठ, जपादि अनुष्ठान (किसी भी कर्मकाण्ड) के अन्त में अग्निवासविचार किए वगैर ही होमकार्य सम्पन्न कर देना चाहिए। किन्तु यदि बाद में करना हो तो अग्निवास विचार अत्यावश्यक है।  

होमकार्य में अग्निवास विचार—

सैका तिथिर्वारयुता कृताप्ता शेषे गुणेऽभ्रे भुवि वह्निवासः।

सौख्याय होमे शशियुग्मशेषे प्राणार्थनाशौ दिवि भूतले च।। (मु.चि.नक्षत्रप्रकरण ३६) (शुक्लप्रतिपदा से तिथि की गणना करके,उसमें एक और जोड़ दे तथा रव्यादि दिन संख्या भी संयुक्त करके, चार से भाग दे। तीन वा शून्य शेष रहने पर अग्निवास भूमि पर होता है। इसमें होमकरना शुभ है। एक शेष रहने पर अग्निवास स्वर्ग में होता है,जो प्राणनाशक है एवं दो शेष रहने पर पाताल वास की स्थिति में धननाश होता है। ध्यातव्य है कि अग्निवास चार स्थानों पर क्रमशः रहता हैस्वर्ग, पाताल, भूमि और मेघ। इसीलिए चार से भाजित करते हैं।

प्रसंगवश यहाँ ये स्मरण दिलाना अति आवश्यक प्रतीत हो रहा है कि आधुनिक नासमझी और बिनाविचारे, देखादेखी में लोग धड़ल्ले से लोहे के बने हवन कुण्ड का प्रयोग कर देते हैं। बाजारवादी व्यवस्था को इससे कोई मतलब नहीं और आचार्यगण भी इस पर गम्भीर नहीं हैं। किन्तु जान लें कि लौहकुण्ड में किसी प्रकार का नित्य, नैमित्तिक, काम्य, पौष्टिक कर्म होम करना अति अनिष्टकारक है। हालांकि तांबे का कुण्ड भी बाजार में उपलब्ध है,भले ही इसका मूल्य अधिक हो। बड़े यज्ञादि में सुविधानुसार नयी ईंट, मिट्टी, वालु आदि के प्रयोग से यथावश्यक वेदी वा कुण्ड बनायें। छोटे कर्मकाण्डों में सामान्य हवन के लिए सीमेन्ट या टाईल के फर्श वाले कमरों में थोड़ी व्यावहारिक कठिनाई है। ऐसे में पीतल के परात में वालु या मिट्टी भर कर काम लिया जाना चाहिए। सामान्य(लघु) होम के लिए मिट्टी का बड़ा ढकना  प्रयोग किया जा सकता है। 

संक्षिप्त हवन में ढकना या वेदी के मध्य में घी-रोली मिश्रित कर  अधोत्रिकोण बनाकर,उसके मध्य में अग्निबीज रँ लिख देना चाहिए। विस्तृत हवनकार्य में आवश्यकतानुसार सवाबित्ता, सवाहाथ....का वेदी (एक पादीय या त्रिपादीय) बनाना चाहिए। वेदी को चावलचूर्ण, हल्दी,रोली आदि से चित्रित- अलंकृत अवश्य करना चाहिए। तत्पश्चात् ही वेदी का पंचभूसंस्कार किया जाना चाहिए। नित्यहोम या संक्षिप्त होम में ये सब अलंकार आवश्यक नहीं है।

 

वेदी का पंच भूसंस्कार—

विधिवत वेदी निर्माण करने के बाद उसके कुछ आवश्यक संस्कार भी हैं। यथा—

१.      परिसमूहन—तीन कुशों के द्वारा दक्षिण से उत्तर की ओर वेदी पर सफाई का भाव करे और उस उपयोग किए गए कुशा को ईशानकोण में फेंक दें— त्रिभिर्दभैः परिसमुह्य तान् कुशानैशान्यां परित्यज्य।

२.       उपलेपन— गाय के गोबर और जल के मिश्रण का किंचित् छिड़काव वेदी पर करे।

३.       उल्लेखन—काष्ठ निर्मित स्रुवा (अभाव में आम्रडंठल में बंधा पल्लव) के मूल भाग (उल्टे तरफ से) वेदी के मध्यभाग में प्रादेशमात्र परिमाण लम्बी तीन रेखाएँ बनायें। (अँगूठे से तर्जनी के बीच की दूरी को प्रादेश कहते हैं) ये रेखाएँ क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर हथेली ले जाते हुए बनानी हैं।

रेखांकन पश्चिम से पूरब होंगी—इस बात का भी ध्यान रहे।   

४.      उद्धरण— अब उन खींची गयी तीनों रेखाओं पर से एक-एक चुटकी वालुका (अनामिका और अँगुष्ठ के सहारे उठाकर) बायीं हथेली पर इकट्ठा करें और अन्त में उसे भी ईशान कोण की ओर फेंक कर हाथ धो लें। (अनामिकाङ्गुष्ठाभ्याम् मृदमुद्धृत्य)

५.      अभ्युक्षण व उल्मुखभ्रमण —गंगादि पवित्र जल अँजुलि में भरकर वेदी पर छिड़काव कर दें तथा थोड़ा सा कपूर अग्निकोण पर जलाकर, कुशा के सहयोग से, वेदी पर भ्रमण कराते हुए, ईशान की ओर फेंक दें।

     (इस प्रकार पंचभूसंस्कार हो जाने पर वेदी पर अग्निस्थापन करें। अग्नि लाने के लिए किसी वालिका का चयन करना शास्त्र सम्मत है। उससे अग्रि ग्रहण करने के बाद समुचित दक्षिणा भी देनी चाहिए)

अग्निस्थापन— किसी कांस्य अथवा ताम्रपात्र में (अभाव में मिट्टी का सिकोरा) प्रज्ज्वलित अग्नि मंगाकर वेदी पर पात्र सहित अग्निकोण में रखे और इसमें से किंचित् क्रव्यादांश निकाल पर वेदी के नैऋत्य कोण में डाल दे। तत्पश्चात् अपनी ओर पात्र का मुख किए हुए अग्नि को वेदी पर मन्त्रोच्चारण पूर्वक स्थापित करे— ऊँ मङ्गलनामाग्नये सुप्रतिष्ठितो वरदो भव।

तत्पश्चात् ऊँ मङ्गनामाग्नये नमः – इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए गन्धपुष्पादि से पंचोपचार पूजन करे।

(नोट— विविध संस्कारों में भिन्न-भिन्न नाम वाले अग्नि को आहूत किया जाता है, जिसकी चर्चा यथास्थान संस्कार प्रकरण में किया गया है।)

 

              अब एक कलश में चावल भर कर और एक कुशा में गांठबांध कर (मानवाकृतिस्वरुप) चावल में ऊपर से खोंस दें और वेदी के अग्निकोण और दक्षिण के ठीक बीच में स्थापित कर दें। ये इस सीमन्तोन्नयन यज्ञरक्षक ब्रह्मा हुए।

 

               ब्रह्मा के स्थान के सम्बन्ध में  मतान्तर है। प्रायः लोग इन्हें ईशान में रख देते हैं- जैसा कि वास्तुमंडल में ईशान और पूर्व में स्थान है, तो कुछ लोग अग्नि कोण में, कुछ लोग सीधे दक्षिण में। अतः प्रसंगवश इसका भ्रमनिवारण अत्यावश्यक प्रतीत हो रहा है। वास्तु मंडल, दिक्पालमंडल वा ग्रहमंडल में ब्रह्मा का स्थान निर्विवाद रुप से ईशान-पूर्व मध्य में ही है; किन्तु अग्निवेदी के साथ यह नियम मान्य नहीं है। अतः, प्रश्न उठता है कि क्या इसे अग्निकोण में रखें, जैसा कि सूक्ष्मपरख के अभाव में लोग रख दिया करते हैं या कि दक्षिण में ?

              इस सम्बन्ध में भारतीय विवाह पद्धति में एक रोचक प्रश्नोत्तर है, जिसे यहाँ उद्धृत किया जा रहा है—

प्रश्न— उत्तरे सर्वतीर्थानि, उत्तरे सर्व देवता, उत्तरे प्रोक्षणी प्रोक्ता, किमर्थं ब्रह्म दक्षिणे?

उत्तर— दक्षिणे दानवा प्रोक्ता, पिशाचाश्चैव राक्षसाः। तेषां संरक्षणार्थाय ब्रह्मस्थाप्य तु दक्षिणे।। यानी सभी तीर्थ, देवादि, प्रोक्षणी-प्रणीता जब उत्तर में है, तो ब्रह्मा को दक्षिण में क्यों? तदुत्तर में कहा गया कि दक्षिण में दानव, राक्षस, पिशाचादि वास करते हैं, अतः यज्ञ में इनसे रक्षार्थ ब्रह्मा को यहीं स्थान देना चाहिए।

 

उक्त मूल तथ्यों का किंचित् भेद सहित चर्चा भी अन्यत्र मिलती है—

१. प्रतीकात्मक ब्रह्मकलश का परिमाण है दो सौछप्पन मुट्ठी चावलों से भरा हुआ घट, जिसपर पचास कुशों को ग्रन्थियुक्त करके आरोपित कर देना चाहिए। यथा— पञ्चाशत्कुशैः ब्रह्मा तदर्धेन तु विष्टरः । दक्षिणावर्तको ब्रह्मा वामावर्तस्तु विष्टरः । ऊर्ध्वकेशो भवेत् ब्रह्मा लम्बकेशस्तु विष्टरः।

२. सभी देवादि,पूजन सामग्री,पात्रादि उत्तर की ओर हैं, ऐसे में ब्रह्मा को दक्षिण की ओर क्यों स्थान दें? उत्तरे सर्वपात्राणि उत्तरे सर्वदेवताः । उत्तरेपां प्रणयनं किमर्थं ब्रह्म दक्षिणे ।।  

इसका उत्तर है कि यज्ञविघ्नकर्ता यम, राक्षसादि दक्षिण की ओर ही उपस्थित हैं। अतः  यज्ञरक्षार्थ ब्रह्मा को दक्षिण की ओर स्थापित करना चाहिए—यमो वैवश्वतो राजा वसते दक्षिणां दिशि। तस्य संरक्षणार्थाय ब्रह्मा तिष्ठति दक्षिणे।। )

              उक्त प्रश्नोत्तर का थोड़ा और विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि अग्नि कोण में अग्निदेव का स्थान है, साथ ही ग्रहों में शुक्र का स्थान भी यहीं है। ये महाशय ही दानवादि के प्रिय गुरु हैं। आदरणीय यज्ञ-रक्षक पितामह ब्रह्माजी को इनके समीप ही कहीं स्थान देना उचित है, इस बात का ध्यान रखते हुए कि अग्नि और शुक्र दोनों का सामीप्य भी मिले, तथा यम के क्षेत्र में अतिक्रमण भी न हो। इस प्रकार सुनिश्चित स्थान पर चावल-हल्दीचूर्ण, कुमकुमादि से अष्टदल कमल बना कर, उस पर पीत रंजित चावल से परिपूर्ण एक कलश की स्थापना करे।

             

              इस ब्रह्मकलश के आकार और चावल की मात्रा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश है कि यजमान की मुट्ठी से दोसौछप्पन मुट्ठी चावल होना चाहिए, जो कि करीब साढ़ेबारह किलो होता है। अज्ञान या अभाव में लोग एक छोटा सा कलश मात्र रख देते हैं। इस विशेष कलश पर पूर्णपात्र रखने का विधान नहीं है, प्रत्युत कुशा में

गांठबांध कर (मानवाकृतिस्वरूप) ऊपर से खोंस देना चाहिए।

 

ब्रह्मावरण— अब यथोपलब्ध वस्त्र, द्रव्य, अक्षत, पुष्पादि वरण सामग्री लेकर, सुविधानुसार पूर्व पूजित ब्राह्मणों में से किसी को ब्रह्मा कलश के समीप आसन देकर बैठावे और संकल्प बोलकर ब्रह्मा नियुक्त करे— ऊँ अद्य ..... होमकर्मणि कृता कृतावेक्षण रूपकर्मकर्तुम्...... गोत्र......शर्माणं ब्राह्मणमेभिः पुष्प चन्दन ताम्बूलयज्ञोपवीत- वासोभिर्ब्रह्मत्वेन भवन्तमहं वृणे।   यहाँ उक्त ब्राह्मण का नामगोत्रादि उच्चारण करते हुए, वरण सामग्री उनके हाथ में सुपुर्द करके, हाथ जोड़कर प्रार्थना करे।

यजमान द्वारा दिए गए वरणसामग्री को ग्रहण करते हुए उक्त नियुक्त ब्रह्मा बोलें— वृतोऽस्मि।

यजमान बोलें— यथाविहितकर्म कुरु।

ब्रह्मा कहें—ऊँ यथाज्ञानं करवाणि।  

तदुपरि वेदी के दक्षिण भाग में कुशासन पर विराजते हुए ब्रह्मा से यजमान बोलें—— यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः। तथा त्वं अस्मन् सीमन्तोन्नयनहोमकर्मणि भवान् मे ब्रह्मा भव !

ब्रह्मा बोलें— ऊँ भवानि ।

अब उक्त ब्रह्माकलश के समीप आसनासीन ब्रह्मा से गायत्र्यादि जप हेतु निवेदन करे।

 

कुशकण्डिका—

अब, अग्निवेदी के उत्तर भाग में प्रणीतापात्र (मिट्टी की प्याली) को रखकर, उसे जल पूरित करके, कुशा से ढक दे।

अब, अग्निवेदी के चारो तरफ कुशाच्छादन (कुशपरिस्तरण) करे। (यहाँ नियमतः इक्यासी  कुशा की आवश्यता होती है। अभाव में एक-एक कुशा का ही प्रयोग करे, किन्तु करे अवश्य। यदि ये भी सम्भव न हो तो ताजा दूर्वा भी ग्राह्य है) — अग्निकोण से ईशानकोण

तक उत्तराग्र कुशा, फिर ब्रह्मा से अग्निकोण तक पूर्वाग्र कुशा, फिर

नैऋत्यकोण से वायव्यकोण तक उत्तराग्र कुशा, फिर वायव्यकोण से ईशानकोण तक पूर्वाग्र कुशा क्रमशः रखें ।

पात्रासादन— अब, हवनकार्य में प्रयोग होने वाले सभी सामग्रियों को वेदी से उत्तर या पूर्व की ओर रख दें।

प्रोक्षणीपात्रसंस्कार— अब, प्रोक्षणी पात्र का संस्कार करे— प्रोक्षणी को अपने

सामने पूर्वाग्र रखे। प्रणीता में रखे गए जल के आधे भाग को आचमनी वा पल्लव से प्रोक्षणीपात्र में तीन बार डाले। अब, कुशा के अग्रभाग को बायें हाथ की अनामिका और अंगुष्ठ से पकड़कर, उसके मध्य भाग से प्रोक्षणी के जल का तीन बार उत्प्लवन करे (उछाले) और पवित्रक (कुश) को प्रोक्षणीपात्र पर पूर्वाग्र रख दें एवं प्रोक्षणीपात्र को बायें हाथ में उठाकर, पुनः पवित्रक के द्वारा प्रणीता के जल से प्रोक्षणी को प्रोक्षित करे तथा इसी प्रोक्षणीजल से आज्यस्थाली, स्रुवा इत्यादि सामग्रियों पर भी प्रोक्षण करे (जल के छींटे डाले)। तत्पश्चात् प्रोक्षणीपात्र को प्रणीतापात्र तथा अग्निवेदी के मध्य स्थापित कर दे।

 

स्रुवा सम्मार्जन और प्रतपन —अब दायें हाथ में स्रुवा को पूर्वाग्र,अधोमुख रखते हुए अग्नि में किंचित् तपाये। अब स्रुवा को बायें हाथ में पूर्वाग्र, ऊर्ध्वमुख रखते हुए दायें हाथ से सम्मार्जन कुश के अग्रभाग से स्रुवा के अग्रभाग को, मध्यभाग से मध्य भाग को एवं मूल भाग से मूल भाग का स्पर्श करे। तत्पश्चात् उस कुश को अग्नि में डाल दे। पुनः अधोमुख रखते हुए स्रुवा को अग्नि में तपाये और दाहिनी ओर किसी पात्र या कुश पर स्थापित कर दे।

           

            अब, घृतपात्र को सामने रखकर, प्रोक्षणी पर रखी गयी  पवित्री को लेकर, मूलभाग को दाहिने हाथ के अंगुष्ठ-अनामिका से तथा बायें हाथ के अंगुष्ठ-अनामिका से अग्रभाग को पकड़कर पात्रस्थित घृत को तीनबार उछाले, घृत का अवलोकन करे, कुछ विजातीय वस्तु हो तो बाहर निकाल फेंके। पुनः प्रोक्षणी के जल को तीन बार उछाले और पुनः पवित्री को यथास्थान प्रोक्षणीपात्र पर रख दे।

            अब, ब्रह्मा का स्पर्श करते हुए, बायें हाथ में सात उपयमन कुशा लेकर, हृदयस्थल पर बायाँ हाथ रखते हुए, तीन समिधाओं को घी में डुबोकर, प्रजापतिदेवता का मानसिक ध्यान करते हुए, खड़े होकर, मौन रूप से  समिधाओं को अग्नि में डाले। तदनन्तर बैठ कर पवित्रक सहित प्रोक्षणीपात्र के जलको दाहिने हाथ की अंजलि में लेकर अग्नि के ईशानकोण से ईशानकोण पर्यन्त (प्रदक्षिणक्रम से) जलधारा गिराये।

अब, पवित्रक को बायें हाथ में लेकर, फिर दाहिने खाली हाथ को उलटेक्रम से (ईशानकोण से उत्तर होते हुए ईशानकोण तक) ले आए। और पवित्रक को दायें हाथ में लेकर, प्रणीता में पूर्वाग्र रख दे। इस क्रिया को इतरधावृत्ति कहते हैं।

हवन विधि— होम क्रम में सर्वप्रथम प्रजापतिदेवता के निमित्त आहुति दी जाती है। तदनन्तर इन्द्र, अग्नि, सोमादि के निमित्त आहुति का विधान है। इन चार आहुतियों में प्रथम दो को आधारभाग और अन्तिम दो को आज्यभाग कहा  जाता है। ये चारों आहुतियाँ सिर्फ घी से ही दी जानी चाहिए, न कि तिलादि शाकल्य से। इन आहुतियों को प्रदान करते समय नियुक्त ब्रह्मा द्वारा होमकर्ता के दाहिने हाथ को कुश से स्पर्श किए रहना चाहिए। इस क्रिया को ब्रह्मणान्वारब्ध कहते हैं। होम के समय दाहिना घुटना पृथ्वी पर टिका रहे, स्रुवा में घी लेकर, प्रजापतिदेव का ध्यान करते हुए निम्नांकित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए आहुतियाँ प्रदान करें— ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। ऊँ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न मम। ऊँ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये न मम। ऊँ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम।

(ध्यान रहे कि वेदी के मध्यभाग में आहुति प्रदान करना चाहिए और स्रुवा में शेष घी की बून्दों को प्रोक्षणीपात्र में छिड़क देना चाहिए। ये क्रिया आगे की तीन आहुतियों में भी करें )

            तदुपरान्त निम्नांकित मन्त्रोच्चारणपूर्वक नव आहुतियाँ प्रदान करें एवं स्रुवाशेष सामग्री को पूर्ववत प्रोक्षणीपात्र में छिड़कता जाए।

नवाहुति मन्त्र—

१.      ऊँ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम।

२.      ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम।

३.      ऊँ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।

४.     ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा ᳭᳴᳴ सि प्रमुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

५.      ऊँ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुण ᳭᳴᳴रराणो वीहि मृडीक  ᳭᳴ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

६.     ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भषज  ᳭᳴᳴ स्वाहा। इदमग्नये अयसे न मम।

७.     ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो  मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।

८.      ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यम ᳭᳴᳴  श्रधाय । अथा वयमादित्य  व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं वरुणायादित्यायादितये न मम।

९.      ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। (यहाँ प्रजापति देवता का मानसिक ध्यान कर,  आहुति डाले)

 

स्विष्टकृत आहुति— तदनन्तर ब्रह्मा द्वारा कुशस्पर्शित (ब्रह्मणान्वारब्ध) निम्न मन्त्र से स्विष्टकृताहुति दे— ऊँ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।

 

संस्रवप्राशन— होम पूर्ण होने पर प्रोक्षणीपात्र प्रक्षेपित घृत को दाहिने हाथ से ग्रहण कर, यत्किंचित् पान करे। तदनन्तर आचमन करके, निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक प्रणीतापात्र के जल से अपने सिर पर मार्जन करे— ऊँ सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु ।

तदनन्तर ऊँ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्वष्पः मन्त्रोच्चारण पूर्वक जल नीचे छिड़के। अब पवित्रक को अग्नि में छोड़ दे और पूर्व स्थापित ब्रह्मापूर्णपात्र में दक्षिणा द्रव्य रखकर संकल्प करे— ऊँ अद्य सीमन्तोन्नयनहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूप- ब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदं वृषनिष्क्रयद्रव्यसहितं पूर्णपात्रं प्रजापति दैवतं...गोत्राय...शर्मणे ब्रह्मणे भवते सम्प्रददे ।

नियुक्त ब्रह्मा स्वति कहकर उस पूर्णपात्र को ग्रहण करें।

 

प्रणीताविमोक एवं मार्जन — अब, प्रणीतापात्र को ईशानकोण में उलटकर रख दे और उपयमनकुशा द्वारा उस जल से सिर पर मार्जन करे, इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक— ऊँ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।( मार्जनोपरान्त उस कुशा को अग्नि में छोड़ दे।) 

 

बर्हिहोम— अव अग्निवेदी के चारो ओर जिस क्रम से कुशाओं को बिछाये थे, उसी क्रम से उठा-उठाकर, घृत में डुबोकर, इस मन्त्र के उच्चारण पूर्वक अग्नि में डाल दे— ऊँ देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित मनसस्पत इमं देव यज्ञ ᳭᳴᳴ स्वाहा वाते धाः स्वाहा । 

                                   000--000

क्रमशः......

                     

                 

          


 

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