श्रीश्रीझूठेश्वरनाथजी

                   

                   श्रीश्रीझूठेश्वरनाथजी

                     

झूठेश्वरनाथ और झूठाचार्य में कौन सी उपाधि अधिक प्रभावशाली लगती है? — जरा ठीक से सोच-विचारकर बतलाओ तो बबुआ !  ”

अभी-अभी नित्यक्रिया से निवृत्त होकर दालान के बाहर चबूतरे पर सुबह की धूप सेंकने के ख्याल से बैठा ही था कि ठक-ठक लाठी पटकते, खाँय-खूँय करते वटेसरकाका आ विराजे अपना नया-ताजा सवाल लेकर।

हालाँकि ये उनकी रोज वाली दिनचर्या है। खासकर सुबहवाली जाड़े की धूप हमलोग साथ-साथ सेंकते हैं। सुबह का स्नान-ध्यान जरा देर से ही होता है—कोई पहरभर दिन चढ़ने के बाद।

जबकि श्रीमतीजी हररोज टोकती हैं— जड़वा में लड्डूगोपालो के जाड़ा लग हईन का, जे एतना दिन चढ़ला पर घंटी डोलाव ह?

उनकी बातों को नजरअन्दाज करते हुए आज भी झटपट बाहर निकल गया—आज शनिच्चर हे, तनी तेलमालिस कर लीहूँ—कहते हुए।

इसी तरह कोई न कोई नया बहाना रोज गढ़ लेता हूँ देर से नहाने का। जाड़े की सुबहवाली सुनहली धूप सेंकने का आनन्द भला ये जनानियाँ क्या जानें?

 दरअसल घर के चूल्हा-चौका से निबट कर धूप सेंकने वाला काम तो ये सब दोपहर बाद करती हैं, जो तबतक जारी रहता है, जबतक सूर्यदेव अस्ताचल जाने को उतावले न होने लगें।

उँगलियों पर थिरकते ऊन के धागे और स्वेटर बुनने वाले काटों की जोड़ी के साथ-साथ टोले-मुहल्ले की चटकदार खबरों का मजेदार विश्लेषण जब शुरु होता है तो हमारे प्यारे खबर-विश्लेषक सुधीरचौधरी भी दांतों तले अपनी उँगलियाँ दबाने को मजबूर हो जाते हैं।

काश ! अग्रसोची-दूरदर्शी-वाक्पटु इस आधी आबादी को सभी खबरिया चैनलवाले बिना किसी ताम-झाम-इन्टरव्यू के ही सीधे ज्वायनिंग लेटर थमा देते, तो न भड़कदार-चटकदार खबरों का ही टोंटा रहता और न टी.आर.पी. के चक्कर में ऊल-जुलूल विज्ञापन ही घुसेड़ने पड़ते। दर्शकों को भी थोड़ी राहत मिल जाती।

खैर, श्रीमतीजी की टोकाटोकी वाली बात पर, इतनी बातें फिजूल की निकल गई। इन लोगों के चक्कर में रहने पर कुछ न कुछ फिजूल की बातें तो

निकलेंगी ही न ! जबकि बात चली थी वटेसरकाका के विचित्र सवाल की ।

हालाँकि जनानियों पर दोषारोपण करने से पहले, दिल पर हाथ रखकर, पूरी ईमानदारी से कहना चाहता हूँ कि मर्द जात भी कुछ कम थोड़े है गप्पे हाँकने में। एक से एक गप्पोधराचार्य मिल जायेंगे। बस मौका मिलना चाहिए बोलने का और सुनने वाला गलहथिया देकर सिर्फ हाँजी-हाँजी करने वाला हो। गपबाजी का एक जरुरी शर्त है—किसी तरह का क्रॉसचेक न करे, अन्यथा मामला बिलकुल बिगड़ जा सकता है।

 गली-नुक्कड़, चौक-चौराहे पर दिनभर की बैठकी में कहीं कोई सत्यनारायण की कथा थोड़े जो बाँचता है। इन्सानों के प्रपंच कम हैं क्या, जो भगवत प्रपंच की चर्चा हो ! समय निकाल कर, विशेष अवसरों पर, किसी स्वजन-परिजन से मिलने-जुलने भी जाते हैं, तो जरुरी पारिवारिक बातें कम, लोक-प्रपंच ही तो जपते हैं ज्यादातर लोग। 

वटेसरकाका के साथ भी तो रोजदिन यही सब होता हैधूप सेंकने के दौरान हमलोग करते क्या हैं !

काठ की मलिया में उँगुलियाँ डुबो-डुबोकर सरसोतेल की मालिस के साथ-साथ टोला-परोसा के हालचाल, सास-बहू के नोक-झोंक, गली-नाली-खेत-खलिहान के लिए टुंन-टान से लेकर गांव-जेवार, देश-दुनिया तक की बातें हररोज होती हैं। इस बीच वटेसरकाका आठ-दस दफा खैनी की ताल ठोंक चुके होते हैं।

आज शायद किसीने छपरहिया खैनी खिला दिया था—एकदम कड़कवाली। क्योंकि बार-बार हिचकियाँ ले रहे हैं अभी भी।

संयोग से कभी-कभी श्रीमतीजी का मन-मिज़ाज़ दुरूस्त व खुशहाल रहा यदि तो इनके आते ही पीतल वाली सेरही गिलास में गर्दनभर चाय हाज़िर हो जाती है, मेरे चाय की प्याली के साथ। आज का संयोग भी अच्छा ही निकला। गला हुच्च-हुच्च करते, हाथों के इशारे से ही श्रीमतीजी को ढेरों आशीष दिए और तब मेरी ओर कनखियों से देखते हुए बोले— तुम्हारी बहुरिया चाय बड़ी अच्छी बनाती है...बड़े घर की बेटी जो ठहरी। हमारी वाली तो भुच्च देहातन-गंवार है...चाय के नाम पर जानो तो एकदम से बकरी का....।

चाय की प्याली और गिलास चबूतरे पर रखकर, श्रीमतीजी वापस जा चुकी थी ड्योढ़ी तक, किन्तु वटेसरकाका की बाहबाही वाले शब्दों ने चुम्बक की तरह पीछे खींच लिया उनकी गर्दन को और मेरी ओर देख, होंठ-मुँह बिचकाती अन्दर चली गई आँचल झटकती हुई।

अपने हिस्से का गिलास उठाते हुए वटेसरकाका ने अपना सवाल फिर से दुहराया, जिसके जवाब के बदले मैंने सवाल दाग दिया—क्या बात है काका ! ये झूठेश्वरनाथ या कि झूठाचार्य की उपाधि से किसे नवाज़ने का विचार है ?  

अबतक मैं अपनी छोटी प्याली में ही उलझा रहा, जबकि काका अपना सवावित्ते वाल गिलास खाली कर चबूतरे के हवाले कर चुके थे। एकदम गरम चाय भी इन्हें ठंढी ही लगती है। इनकी इसी आदत के कारण श्रीमतीजी कहती है— वस चले तो काका के मुँह पर ही छननी धर कर सीधे चाय उढेल दूँ...।

अदरख-इलाइची वाली चाय की मीठी चुस्की से गले की खिचखिच बन्द हो चुकी थी। फिर भी आदतन दो-तीन दफा जोर से खँखारे, फिर सिर हिलाते हुए कहने लगे— हमारे सम्पर्क में तीन-चार जन हैं बबुआ ! जिनसे आये दिन पाला पड़ते रहता है। वैसे तुम भी सबको जानते ही हो, लेकिन मेरा अनुभव इस मामले में तुमसे कहीं ज्यादा है। बीसियों साल से लगाव रहा है उन लोगों से। शायद ही कोई छुट्टी का दिन शान्ति से एकान्त सेवन में गुजरता हो। उनके बकवासों को सुनते-सुनते कान पक जाते हैं—बड़ी-बड़ी बातें करने, डींग हाकने में इतने माहिर हैं कि कोई जवाब नहीं। दिक्कत तो तब होती है, जब कोरे हाँ-हूँ से उन्हें सन्तोष नहीं होता और उनकी बातों की प्रतिक्रिया में कुछ विशेष कहना-बोलना पड़ जाता है। बोलें तो मुशीबत, न बोलें तब भी परेशानी। अब तुम ही जरा बताओ न— व्रितानी प्रधानमंत्री ने सुबह से तीन बार उन्हें फोन किया...अमेरिका के राष्ट्रपति ने डीनर पर इन्वाइट किया...रुस वाले तो हाय-हेलो रोज ही करते रहते हैं...। ऐसे महान लोगों से मेरे जैसा अदना आदमी भला क्या पंगा ले !

वटेसरकाका के इशारों से मैं अबतक कुछ-कुछ समझ चुका था कि बातें किनके बावत हो रही हैं। बाबू खेलावन प्रसाद कभी-कभी हमसे भी मिलने आ जाते हैं झूठ की पिटारी लिए। उनके साथ ही होते हैं—घिनावनभाई भी। कभी-कभी घुरफेकनभाई भी साथ हो लेते हैं। बातें बनाने में इन तीनों का जोड़ नहीं। एक दिन कहने लगे कि नेशनल हेरर्ड उनके सत्प्रयासों का ही परिणाम है और उनकी उदाशीनता ही उसे मिट्टी में मिला दिया।

घिनावनभाई अपने नाम को सार्थक करने-रखने में यकीन रखते हैं। भीषण गर्मी में भी पखवाड़ा स्नान करते हैं, धरती के भावी जल-संकट के मद्देनजर, नयी पीढ़ी को सीख देना चाहते हैं कि जल-संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए। पुरानपंथी लोगों की तरह त्रिकालस्नान-संध्या-तर्पण जघन्य अपराध है आज के जमाने में । इनकी कुप्रथा के कारण ही आज पानी की इतनी किल्लत हो गई है कि दूध के भाव पानी विकने लगा है बोतलों में। पचासों तरह के उठक-बैठक-आसन-प्राणायाम कर-करके ऑक्सीजन इतना सोख लिए हैं पुराने लोग कि भविष्य में ऑक्सीजन-सिलिंडर भी पीठ पर टांगने की नौबत आ ही जानी है...।

घिनावनभाई की इन बातों में हाँ में हाँ मिलाते रहें तो ठीक और यदि बतकटई किए तो आयी शामत।

 घुरफेकनभाई हमेशा एलबमनुमा एक मोटी डायरी लिए फिरते हैं, जिसके ज्यादातर पन्नों पर कुँआरियों की तस्वीरें करीने से सजी होती हैं। उनका दावा है कि ये सभी उन लड़कियों के फोटो हैं, जो विवाह-प्रस्ताव के वायोडाटा के साथ उनके पास आए हैं। किन्तु अभी गार्जीयनी लेबल पर निश्चित नहीं हो पा रहा है। माँ को कोई लड़की पसन्द ही नहीं पड़ी है इनमें...।

किन्तु उनकी बातों पर मुझे रत्तीभर भी यकीन नहीं हुआ। मुझे लगा कि वो सब किसी शादी.कॉम से उठायी गयी तस्वीरें हैं।

एक दिन संयोग से घुरफेकनभाई की गैरहाजिरी में ही खेलावन प्रसाद आ धमके और उनकी मोटी डायरी का राज खोल गए। वेचारे बेताब हैं शादी के लिए, किन्तु अपनी विरादरी वाला कोई पुट्ठे पर हाथ ही नहीं धरने दे रहा है। चुँकि खानदानी हैं, इसलिए अभिभावक राजी नहीं हो रहे हैं विरादरी से बाहर झाँकने को। अन्यथा इनकी वस चलती तो अब तक किसी को उड़ा ही लाते। करनी-धरनी कुछ है नहीं, केवल ब्लूब्लड के नाम पर कितना बेवकूफ बनाओगे समाज को ! समाज भी अब बहुत सजग हो गया है। जमींदार घरानों की वर्तमान में कैसी दुर्गति है—इसका चित्रण तो मुंशीप्रेमचन्द ने बहुत पहले ही कर दिया है। बड़े घर के लाडले ज्यादातर पढ़ाई-लिखाई से सख्त परहेजी होते हैं । हाँ, पिताओं ने डिग्रियाँ खरीद दी तो बात अलग है। किन्तु खरीदी गई डिग्रियाँ कार्पोरेटी दुनिया में एकदम घुटने टेक देती हैं और सरकारी नौकरियों में भाई-भतीजेवाद और आरक्षणकोटे के बाद जगह कितना बचता है—इससे तो आप सभी वाकिफ ही होंगे। कुल मिलाकर कहें तो व्यवस्था को कोसने में जिन्दगी गुजर जाती है। यही हाल घुरफेकनभाई का भी है। चारदशक पूरे होने को आए। अभी तक न मनमाफिक नौकरी ही मिली और न सुराहीदार गर्दन वाली छोकरी ।

खेलावन प्रसाद अपने आप में धुरंधराचार्य हैं बतफरोशी में। गले में प्रेस का विल्ला लटकाए फिरते हैं। कभी दाँत निपोर कर, कभी दुम हिलाकर, कभी अपनी जेब ढीलीकर, चाय-पान-गुटका-तम्बाकू के बदौलत थाने-चौकी का चक्कर जरुर लगाते हैं। बड़ाबाबू या कमसिन महिला सिपाहियों के साथ सेल्फी लेना कभी नहीं भूलते। उनकी मोटरसायकिल पर भी बोल्डफॉन्ट में प्रेस लिखा हुआ है। उन्हें भलीभाँति पता है कि हमारे देश में इस तरह की छोटी-मोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता—कौन भला किसी का आईकार्ड चेक करने जाता है यहाँ ! अपने को सम्पादकजी कहलाना उन्हें बहुत ही प्रीतिकर लगता है। हाँ इतनी सच्चाई जरुर है कि बहुत पहले एक सांध्य समाचार का प्रवेशांक छापे थे। दो-तीन साल बाद फिर एक साप्ताहिकी का प्रवेशांक भी किसी तरह छाप-छूप लिए, किन्तु आगे RNI के चक्कर में चक्कर लगाते रहे, जो आजतक मिला नहीं या लेना नहीं चाहे—केवल कहते रहे कि मिल नहीं रहा है।

सच कहें तो पुलिस-चौकी और सरकारी ऑफिसों की दलाली की हिस्सेदारी से ही दाल-रोटी चलती है। आप जानते ही हैं कि हमारे यहाँ दलाली का सेंसेक्स सबसे ऊपर रहता है। जिनकी नेतागिरी नहीं चलती, वे लोकसेवा में दलाली के कारोबार में उतर जाते हैं । और हाँ, सौभाग्य की बात है कि अच्छा-खासा ससुराली छत भी मिल गया है जिला मुख्यालय में ही खेलावन प्रसादजी को। इसके कारण अकड़ थोड़ा और बढ़ा-चढ़ा है। तिमंजिले मकान के ऊपरी छत से सारी दुनिया ठिगनी ही नजह आती है उन्हें।

एक विशेष बात और है खेलावनप्रसादजी के बारे में कि आजकल कुछ दिनों से अपने को सिद्ध तान्त्रिक घोषित कर दिए हैं। सामाजिक गतिविधियों का यदि थोड़ा भी अनुभव होगा तो जानते ही होंगे कि तान्त्रिक बनने से पहले झूठ और आडम्बर की दक्षता जरुरी होती है। समाज में मानसिक रोगियों की कमी नहीं है। लैला-मजनुओं की भी भरमार है। रातोंरात लखपति बनने का ख्वाब देखने वाले भी हर नुक्कड़ पर भीड़ लगाये मिल ही जायेंगे। ऐसे में तन्त्र-मन्त्र के जानकारों का काफी डिमांड है। दौलत और शोहरत दोनों है तान्त्रिकों

के पल्ले में, वशर्ते कि उन्हें सहेजने की कला आती हो।

यही सब सोच-विचार कर खेलावनप्रसादजी ने अपनी नयी सिद्धि को उजागर किया। महीने भर शहर से गायब रहे और वापस आए तो बिलकुल चोला बदलकर—पैन्ट-शर्ट मौके-बेमौके, लालझूल हमेशा। अद्धा-पौआ अब हरदम जवाहरबंडी की जेब में रखने लगे हैं। और हाँ, महानिर्वाणतन्त्र का बहुचर्चित श्लोक कहीं से जान कर घोख लिए हैं—मद्यं मासं च मीनं च, मुद्रा मैथुन मेव च। मकार पञ्चकं प्राहुर्योगिनां मुक्ति दायकम् ।।

अब भला इस मूर्खाधिराज झूठाचार्यजी को कौन बतलाए कि ये निर्देश तन्त्रकूट शैली में है, जिसका गूढ़ार्थ समझना मक्कार आडम्बरी तान्त्रिकों के वश की बात नहीं है। और जहाँ तथाकथित गुरु ही अन्धा हो वहाँ चेले की क्या गति होगी—सोचने वाली बात है। हाँ, जाहिल समाज में, अकूत कामनाओं की ललक में, कर्महीन भिखारियों की भीड़ में ठगहारी बाजार तो जमेगा ही न !

कुल मिलाकर कहें तो खेलावनप्रसादजी की चाँदी ही चाँदी है। नेता हो कि पत्रकार, दानेदार हो कि चौकीदार सबको सिद्ध तान्त्रिकों की जरुरत रहती ही है। बाबागिरी के सामने सब नतमस्तक हैं। अतः मेरे विचार से ये खिताब तो इन्हें ही मिलना चाहिए। रही बात झूठेश्वरनाथ या झूठाचार्यजी में शब्द-श्रेष्टता की, तो इसमें कोई खास अन्तर नहीं लगता मुझ अल्पज्ञ को।

किन्तु मेरे जवाब से वटेसरकाका को सन्तोष नहीं हुआ। दायें-बायें सिर झुमाते हुए बोले— आचार्य की उपाधि तो बहुत छोटी लग रही है मुझे। झूठों के ईश्वर और फिर उसके भी नाथ...झूठेश्वरनाथ विशेष गरिमामयी उपाधि है—ये साधारण सी बात तुम्हें समझ नहीं आ रही है? और अब इसके आगे अनन्त श्री नहीं तो कम से कम युगल श्री तो होना ही चाहिए— श्रीश्रीझूठेश्वरनाथजी।

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