भक्तों की वेराइटी
शायद
आप नहीं जानते कि हमारे परम शुभेच्छु श्री श्री सोढ़नदास जी प्रायः किसी न किसी अछूते
गम्भीर विषय पर (जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता) शोध की गहराइयों में गोता लगाते
रहते हैं। विगत महीने भर से वे भक्ति और भक्तों की वेराइटी पर शोध करने में जुटे
हुए थे, जिसका परिणाम अभी-अभी प्रकाशित हुआ है सोशल मीडिया पर । V2 के तर्ज पर भक्ति और भक्त की भी वेराइटी होती है—हमें भी आज ही पता चला
उनकी बातों से।
आप
जानते ही हैं कि भूतभावन भोलेनाथ का प्रिय मास श्रावण अभी हाल में ही समाप्त हुआ
है। सनातन परम्परा में अभिरुचि यदि आपकी हो तो आप ये भी जानते होंगे कि वस चन्द दिनों बाद ही पितरों का उद्धार
करने वाला पितृपक्ष और फिर उसे धकियाते हुए देवीभक्तों का शारदीय नवरात्र और उसके थोड़े
ही दिनों बाद पर्व से महापर्व बन गया छठपर्व भी आने को उतारु है।
शोधकर्ता
सोढ़नदासजी का मानना है कि पर्वों-महापर्वों के धक्का-मुक्की में बेचारा आम भक्त
परेशान हो जाता है। असमंजस में पड़ जाता है। हैरान रह जाता है। उसे समझ नहीं आता
कि किस-किस देवी-देवता को रिझावे-लुभावे, जिससे जल्दी से जल्दी ऊपरी आमदनी वाला सरकारी
नौकरी हासिल हो, या कि मोटे-गोटे दहेज के साथ पढ़ी-लिखी, मिल्कीवाईट, सुरारीदार
गर्दन वाली कमाऊ बीबी मिल जाए, या कि मोटी रकम वाली कोई लॉट्री ही निकल जाय, ताकि
रातों-रात लखपति ही नहीं करोड़पति बन जाऊँ, बिना पसीना बहाए...।
भक्त के लिए अहम समस्या है कि तैंतीसकोटि
देवी-देवताओं की भीड़ में वो किसे चुने, किसे छोड़े। रंग-विरंगे बहुरूपिये बाबाओं
में किसे गुरु माने, किसे न माने...किसके सत्संग में खिंचा चला जाए...किससे कान
फुँकवाए...।
और
इस जटिल चुनावी घनचक्कर में हरे-भरे जीवन का वसन्त पतझड़ में कब बदल जाता है पता
भी नहीं चलता। चेहरे की लुनाई रूठकर चली जाती है, जिसे वापस लाने में अभागा ‘फेयर एन लवली’ भी नाकामयाब साबित होता है। सरकारी नौकरी की उम्र एक्सपायर कर जाती है और इसके
साथ ही शादी की भी। निठल्ले पप्पू को भला कौन अपना हाथ देना चाहेगी...किस माँ का
कलेजा इतना पोख्ता होगा, जो किसी बेरोजगार को अपनी लाडली सौंपेगी ! और ऐसी विकट परिस्थिति में थक-हार कर, मन मारकर वैकल्पिक व्यवस्था ‘लीव-इन-रिलेशनशिप’ से तन-मन बहलाना पड़ता है—भक्तों
को भी और भक्तिनों को भी। भक्तों की समस्या पर अपने आप में मस्त-व्यस्त-त्रस्त क्रूर
स्वार्थी समाज को ही न तो दया आती है और न किसी शोधकर्ता ने ही कलम उठायी है कभी।
सच
कहें तो सनातन परम्परा-पोषक-प्रवर्तक ऋषियों ने भक्तों के साथ बड़ा ही अन्याय किया
है। क्या जरुरी था लागातार इतने सारे पर्वों और व्रतों के आयोजन का ?
क्या उन ऋषियों को पता नहीं
था कि कलिकाल में लोगों के प्राण विविध भोगों में ही अटके रहेंगे? श्री सत्यनारायण व्रतकथा का वो वाक्यांश उन्होंने ही तो लिखा था— ‘कलौ अन्नगताः प्राणाः लोकाः स्वल्पायुषस्तथा...और
ये भी तो कहा था — कलौ सर्वे भविष्यन्ति पापकर्मपरायणाः...। अर्थात् अन्न
में ही प्राण बसते हैं...पाप में ही मन रमा रहता है...।
‘ज’
कार से शुरू होने वाले महज दो इन्द्रियों पर भी नियन्त्रण कर ले यदि तो कलियुग को
जीत ले—उन्होंने ही तो सुझाया था । कहा सो तो ठीक, किन्तु उन दोनों पर लगाम कसने के
लिए अनुष्ठानों, व्रतों और पर्वों का इतना बखेड़ा...बाप रे बाप! कुछ तो रहम किया होता कलियुगी भक्तों पर...। दोनों ‘ज’ कारों पर काबू पाना क्या इतना आसान है ! !
मजेदार
बात ये कि तुलसीबाबा तो कह कर निकल गए—‘कलियुग केवल
नाम अधारा’ किन्तु क्या बोलबम-बोलबम बोलने भर
से ही भोलेबाबा प्रसन्न हो जायेंगे? ‘जय मातादी ’ का रट लगाने से ही वैष्णोमाता खुश हो जायेंगी? नहीं न । जीभ दागना ही पड़ेगा। काँवर उठाना ही
पड़ेगा। पहाड़ चढ़ना ही पड़ेगा। और इन सबके लिए रोज दिन का घठिआया हुआ लत — चिकेन-चिखना,
दारु-सारु, यहाँ तक कि पिज्जा-वर्गर, चाट-फुचका पर भी बैन लगाना ही पड़ेगा। भले ही
’आशुतोष’ कहलाते हैं यानी जल्दी खुश
होने वाले , किन्तु कितना जल्दी खुश होते हैं वो बेचारा भुक्तभोगी भक्त ही जानता
है। पहाड़ चढ़ते-चढ़ते टाँगे घठिया जाती हैं, देवी की आँखें नहीं खुलती...।
भक्त
की छटपटाहट का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अनुष्ठान-व्रत-त्योहार के
अगले ही दिन चाट-फुचका के ठेले पर सबसे अधिक भीड़ होती है। दारु की दुकान पर उससे
भी अधिक भीड़ होती है। भक्तों की छटपटाहट का असली अनुमान इस बात से लगाया जा सकता
है कि उस दिन कितनी मुर्गियाँ तड़पती हैं, कितने बकरे मिमियाते हैं और कितने रसोलू
मुस्कुराते हैं—आज तो मजा आ जायेगा...।
गली-नुक्कड़ की ‘ठेहों’ पर गूँजती खचाखच-खटाखट की बीभत्स
ध्वनि, दुकानों पर लगी लम्बी लाइनें पुराने जमाने के बॉक्स ऑफिस की भीड़ की यादों
को तरोताजा कर देती है।
वाह
! कितना धैर्यवान है सनातनी—महीने
भर से ‘पाउच’ या ‘पौआ’ को हाथ भी नहीं लगाया। चिखने की ओर तो ताक-झाँक
भी नहीं किया।
हालाँकि
‘काकतालीय न्याय’ की तरह ऐसे धैर्यवान भक्तों
के धैर्य पर ही भोलेनाथ फिदा हो जाते हैं कभी-कभी। ‘खसी माल मूरत मुसकानी’ की
पुनरावृत्ति हो जाती है कभी-कभी।
भक्त-वेराइटी
के शोधकर्ता सोढ़नदासजी का कहना है कि भक्तों के कई वेराइटी हुआ करते हैं। जिस तरह
फुल टाईम, हाफ टाईम, पार्ट टाईम जॉब हुआ करते हैं न, उसी तरह भक्त भी फुलटाईमर,
हाफटाईमर, पार्टटाईमर हुआ करते हैं। आप चाहें तो इन्हें ‘सीज़नल भक्त’ भी कह सकते हैं। जैसे श्रावण का महीना आया तो चूल्हे की राख पोत
लिए भर लिलार या हल्दी का ‘डीप कोटिंग’ ही कर लिए । आश्विन आया तो रोली-कुमकुम
या बीबी के सिन्दूरदान से चुराकर लाल वाले सिन्दूर की बड़ी सी विन्दी ही लगा ली, जो
दूर से ही नजर आए। कार्तिक के महीने में ‘देवउठनी’ एकादशी मनाने विष्णुपद या गौड़िया मठ जाने का मन हुआ तो गोपी चन्दन थोप
लिया। जमाने के अनुसार बदलते ‘ड्रेशकोड’ की तरह एरिया वाइज या सीजन वाइज रूप-श्रृंगार हुआ करता है भक्तों का—यही
तो सनातन की खूबसूरती है ।
अपने
लघुशोधप्रबन्ध के अन्त में सोढ़नदास जी अपना ‘कन्क्लूजन’ देते हुए कहते हैं कि भक्ति कोई खेल नहीं है, मनोरंजन नहीं है, अनुबन्ध
नहीं है। व्यवसाय तो बिलकुल ही नहीं है—जैसा लोग समझे बैठे हैं—मन्नत पूरा होने पर
लड्डु चढ़ाऊँगा...चुनरी चढ़ाऊँगा... इत्यादि प्रलोभन भगवान को कदापि नहीं रिझा
सकता। भगवान सचिवालय के किरानी बाबू नहीं, जिन्हें लिफाफा थमाने से विभागीय काम बन
जायेगा।
भक्ति
समर्पण का ‘ककहरा’ है, जहाँ पल-पल निज स्वार्थ और अहं की आहूति
देनी होती है। ‘दम्भ’ ही नहीं ‘दर्प’ की भी तिलाँजलि देनी होती है। ज्ञान की महोदधि में छलांग लगाने से पूर्व भक्ति
रसायन का अनुपान आवश्यक है। भक्ति एक सेतु है। शुद्ध भक्ति...निष्काम भक्ति...अनन्य
भक्ति सबके बस की बात नहीं है। भक्ति को लोगों ने जितना सरल समझ रखा है उतना है
नहीं।
अतः
भक्त कहलाने के लिए मत मरो। भक्त दिखाने के लिए मत बेचैन होओ। भक्त का कोई
ड्रेशकोड नहीं होता। भक्त का कोई साईनवोर्ड नहीं होता। टीक-टीका-त्रिपुण्ड को
भक्ति से कुछ लेना-देना नहीं है। भूल से भी भक्ति में कामना को पिरोए कि गए काम से—माया
मिली न राम...। निःस्वार्थ भाव से निरन्तर प्रयास करो—निष्काम भक्त बनने का । दिन...
महीने... साल... आजीवन । अस्तु।।
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