जूते की जिज्ञासा
सोढ़नदासजी
से मेरी मुलाकात शहर के सबसे बड़े कबाड़ीवाले की दुकान पर हो गई आज। कबाड़ीवाला
गुर्राये जा रहा था और सोढ़नदासजी मिमियाये जा रहे थे—“ बस, अभी तो मात्र सौ जोड़े पुराने जूते माँग रहा हूँ भाई मेरे ! और अगले ही सप्ताह पाँच सौ जोड़े की बुकिंग कराऊँगा। हर जोड़े के लिए दस
रुपये खुशी से देने को भी राजी हूँ। तुम कहो तो ज्यादा भी...।”
किन्तु
कबाड़ीवाला पल्लेझाड़ रहा था—“ ऐसा ऑडर तो आज पहली
बार मुझे मिला है...मेरे पास अभी कोई स्टाफ भी खाली नहीं है...दीपावली का भीड़ चल
रहा है...।”
आप
जानते ही होंगे कि झोपड़ीवाला झाड़ू-पोंछा लगाना कभी नहीं भूलता और दाई-नौकर की
सुविधावाले महलों के कोने-कोने में हर दिन झाड़ू-पोछा भी नहीं फिरता। ‘हम दो हमारे दो’ वाले भी आलीशान विल्डिंगें तो
उठा लेते हैं, किन्तु उनके ड्राईंगरुम के अलावे बाकी के हिस्से झाड़ू की झँकार और
पोंछे की पुचकार के लिए तरसते ही रह जाते हैं । किन्तु वैसे लोग भी लक्ष्मी की अकूत
आकांक्षा से दीपावली के नाम पर सफाई प्रेमी हो जाते हैं। नतीजन सालभर का जमा कचरा—लोहा-लक्कड़, प्लास्टिक कबाड़ीवाले के
यहाँ जमा हो जाता है और बचा-खुचा कचरा टोले-मुहल्ले के नुक्कड़ों पर नुमाइश के लिए
रख दिया जाता है। धनतेरस से लेकर दीपावली या कहें छठतक सड़क की दुर्दशा और बाजार
का रेलमठेल देखने लायक होता है।
परन्तु
अभी तो हमारे सोढ़नदासजी की मायूश शक्ल ही देखने लायक है, जिसे देखकर मेरी
जिज्ञासा घुसपैठियों की तरह सीमा लाँघने को बेताब हो रही है। फलतः टोकना पड़ा—क्या
बात है सोढ़नुकाका ! सभी लोग कबाड़ा बाहर फेंक रहे
हैं और आप कबाड़ा बटोरने को बेताब हैं। आँखिर क्या करना है इतने सारे पुराने जूतों
का?
सोढ़नदासजी
की बदसूरत हो रही शक्ल पर एकाएक लाली छा गई मेरी बातों से, जैसे काले झुर्रीदार
गाल भी गुलाबी लगने लगते हैं फेशपाउडर पोत कर।
आँखें
तरेर कर, झल्लाते हुए, मेरे कान से अपना मुँह सटाकर आहिस्ते से बोले—“ तुम्हें तो देश-दुनिया की कुछ खबर ही नहीं रहती। एक जाने-माने ज्योतिषी
की भविष्यवाणी है कि आने वाले समय में पुराने जूतों की हैवी डिमाँड होने वाली है। पुराने
जूते में इन्वेस्टमेंट, गोल्ड इन्वेस्टमेंट से भी तगड़ा रिटर्न देने वाला होगा।”
पुराने
जूते की हैवी डिमाँड की बात पर मेरा चौंकना वाजिब था, किन्तु कुछ पूछने का मौका
नहीं दिया सोढ़नदासजी ने और अपने अन्दाज में चालू रहे —“
…खैर, जाने दो इन्वेस्टमेंट और रिटर्न की बात। ताजा-तरीन खबरों में
रूचि नहीं रखते, किन्तु साहित्य-वाहित्य से तो रूचि है न थोड़ा बहुत या इतिहास से ? ”
मैंने
गिरगिट सा गर्दन हिलाते हुए कहा— पुराने जूते की बावत एक रोचक ऐतिहासिक घटना की
जानकारी है मुझे। पण्डित मदन मोहन मालवीयजी हिन्दूविश्वविद्यालय की परियोजना लेकर
लोगों से मिल-जुल रहे थे—सहयोग के लिए। इसी क्रम में वे निज़ाम हैदराबाद के शाही
दरबार में भी दाखिल हुए। हिन्दूविश्वविद्यालय के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते, आँखें
तरेरते निज़ाम ने अपने जूते की ओर इशारा करते हुए कहा—हिन्दुओं के लिए तो मेरे पास
यही है...।
उस
ज़ाहिल ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ऐसा भी हो सकता है—महामना ने उसकी बात पर
बिना नाराज़गी ज़ताए, अपनी चादर उतारी और कहा—इज़ाजत हो तो इस जूते को बाँध लूँ...और
फिर किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए वगैर ही सहर्ष बाँध लिए निज़ाम के जूतों की जोड़ी
को।
निज़ाम
का जूता बनारस के चौराहे पर एक ऊँचे मँच पर रख दिया गया और नगर में मुनादी फिरा दी
गई कि निज़ाम हैदराबाद का जूता नीलामी के लिए रखा जा रहा है।
जूता
तो जूता ही होता है, किन्तु निज़ाम का जूता ! हीरे-ज़वाहिरात
जड़ा जूता ! वो जूता जिसे श्रीराम-पादुका की तरह कंधे पर उठा
लाया है महामना पण्डितजी ने....घटना बड़ी रोचक हो गई।
अपार
जनराशि के बीच धनराशि इकट्ठी होने लगी—किसी ने निज़ाम द्वारा किए गए अपमान के
आक्रोश में धन लुटाने की घोषणा की तो किसी ने निज़ाम की इज्ज़त पर आँच न आने की
आड़ में धन लुटाने की कस़में खायीं।
पता
नहीं, फिलहाल वो जूता कहाँ है—किस संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहा है, किन्तु हमारे
सोढ़नदासजी की चिन्ता है दिल्ली-पुलिस की जूता-तलाश अभियान के बावत।
ताज़ा
खबरों से अपडेट कराते हुए सोढ़नदासजी ने कहा— “ कल से ही
दिल्ली पुलिस और ख़ुफ़ियाविभाग उस जूते की तलाश में हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय के
मुख्य नायाधीश को आईना और औकात दिखलाने के काम आया था। इतना ही नहीं उस जूते के रॉ-मेटेरियल
और ब्रान्ड पर रिसर्स कराने के लिए जे.एन.यू. के विद्यार्थियों का याचना-प्रपत्र
भी दाख़िल हुआ है। अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं मिल पाया है कि वो जूता ‘मेड-इन-इण्डिया’ था या ‘इम्पोर्टेड ब्रान्ड’ वाला। खबर ये भी है कि सर्वोच्च
न्यायालय ने आपातकालीन स्पेशल ऑडर जारी करते हुए कहा है कि जिस तरह से कम्प्यूटर-सर्वर-रुम,
ओ.टी. या धार्मिक स्थलों में जूते का प्रवेश वर्जित होता है, उसी भाँति न्याय-कक्ष
में भी जूते का प्रवेश वर्जित होना चाहिए, ताकि आइन्दे किसी उन्मादी का गरमखून कुछ
करामात न दिखला दे...। ”
खबरों
का डी.एन.ए. करने के ख्याल से मैं कुछ पूछना चाहा, किन्तु सोढ़नदासजी ने मौका न
दिया। नवसिखुए कवि जैसे धर-पकड़कर अपनी कविता सुनाने लगते हैं, उसी तरह एकदम
साहित्यिक मोड में आकर बोले— “ राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत
श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी की कविता— ‘
पुष्प
की अभिलाषा ’ तो जरुर पढ़े होगे बचपन में—चाह
नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ....। उसीकी पैरोडी अभी हाल में
सोशलमीडिया पर वायरल हुआ है—‘ जूते की
अभिलाषा’—चाह नहीं मैं विश्वसुन्दरी के
पग में पहना जाऊँ...बस निकालकर मुझे पैर से उस मुँह पर तुम देना फेंक...जिस
मुँह से भी निकल रहा हो देशद्रोह का नारा एक...। दोनों कवियों की वेदना एक ही
है। आकाँक्षा एक ही है। दोनों वस्तुओं की आकांक्षा भी एक ही है। फूल की चाहत है—देवता
के सिर पर चढ़ने के वजाय, राष्ट्र-बलिदानियों के शव पर चढ़ने की और ऐसी ही चाहत
जूते की भी है—ए.सी. में कालीन पर घूमने या सुन्दरी के कोमल पांवों की शोभा बढ़ाने
से कहीं अधिक सौभाग्यशाली मानता है जूता, किसी राष्ट्रद्रोही के मृँह पर अपनी छाप
छोड़ने को...। ”
सोढ़नदासजी
की पहेली अब कुछ-कुछ समझ आने लगी थी मुझे। टोक-टाक करने से कहीं ज्यादा अच्छा लगा
मुझे उनकी बातों के तह तक गोता लगाने में ही।
उनका
वक्तव्य जारी था —“ अभिलाषा और जिज्ञासा मानव का सहज स्वभाव है, किन्तु यदि
गैरमानव का भी मानवीकरण कवि और साहित्यकार करने लगें, तो सहज ही उसमें भी ये मानवी
गुण-दोष आ ही जायेंगे। फूल हो या कि जूता, अभिलाषा है यदि उसे, तो जिज्ञासा भी होगी ही—इस बार तो CJI के मुँह का सामना किया है, अगली बारी किसकी होगी?— खुफ़ियाविभाग
को इसकी जानकारी जुटानी चाहिए और जे.एन.यू. के विद्यार्थियों को इस पर शोध जरुर
करना चाहिए। राष्ट्रभक्त गोटसे ने भी अपने दमदार बयानों का जूता मारा था तत्कालीन न्यायाधीश
के मुँह पर, जिसकी धूल बेशर्मों ने झाड़-झूड़ कर इतना दिन गुजार दिया। कानून और
कॉलेजियम अभी भी उसी ‘व्रिटिश-बार’ के नशे में धुत्त है। जूते मार कर नश़ा तो तोड़ना ही पड़ेगा न किसी न
किसी राष्ट्रभक्त को, किसी न किसी धर्म धुरन्धर
को। धैर्य और सहनशीलता की भी तो सीमा नियत होती है न? ”
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