झूठ की भीड़ में झूठ की तलाश
सोढ़नदासजी
भी गज़ब के जीवट इन्सान हैं। हमेशा कुछ न कुछ नया करने-खोजने के धुन में रहते हैं,
भले ही इसके लिए उन्हें कुछ भी सुनना-सहना-झेलना पड़े। खबर है कि फिलहाल वे सबसे
बड़े झूठ की तलाश में हैं।
किन्तु
उलझन ये है कि झूठ की तलाश की शुरुआत कहाँ से करें— अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त ‘ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या’ वाली बात से
या कहीं और से।
दिक्कत
ये भी है कि वेदान्त-उपनिषद् तो सीमित हैं, जबकि ‘कहीं और’ वाला दायरा असीमित ।
साहित्य में कल्पना की उड़ान इतनी ऊँची हो जाती है कभी-कभी कि असली जमीन दिखना
मुश्किल हो जाता है। भूगोल में झूठ को पनाह पाने की गुँजायश बहुत ही कम है। फिर भी कुछ हुनरवान लोग झूठ का ‘एडजस्टमेंट’ कर ही देते
हैं यहाँ भी, जैसे ऑटोवाला पाँच की जगह में पन्द्रह सवारियों को निपटा डालता है
जरुरत के मुताबिक।
जरा
आप ही विचार करें कि पुराणों में वर्णित
कुश, क्रौंच, शाल्मलि, पुष्कर, शाकद्वीपादि दिव्य द्वीप जम्बूद्वीप में है ही नहीं, किन्तु उसे भी ईरान से साईबेरिया तक
जैसे-तैसे एडजस्ट करने पर तुले हुए
हैं लोग ! विष्णु की क्षीरसागर को भी धरती पर
ही बुला लिए हैं पश्चिमी चश्मा लगाये शोधकर्ता । ये सब भूगोल के हुनरवाजों
का ही करिश्मा है न !
अब रही बात इतिहास की । इतिहास में झूठ रसभरी इमरती की तरह रसा-बसा
होता है। रस डाले ही नहीं तो इमरती किस
काम की
! रस यदि निकालना चाहे तो
इमरती का थोबड़ा विगड़ जाय और रस छोड़ दें तो सच्चाई छनाए किस छननी से ?
यही
कारण है कि इतिहास पर शोध करना सबसे कठिन मामला है। गत सदी की ही बात है, अति भाउक
होकर एक जानेमाने ईमानदार लगनशील इतिहासकार ने अपने जीवनभर की पाण्डुलिपियों में
आग लगा दी थी, महज एक अपुष्ट, अ-सत्यापित घटना के छींटे पड़ जाने के कारण।
दरअसल
इतिहास लिखना बहुत ही जिम्मेवारी वाला काम है। क्योंकि इतिहास की नींव पर ही
भविष्य का भवन खड़ा होता है। इतिहास के छत से ही भविष्य का नज़ारा देखा जाता है।
इतिहास की खूबी-खामी का आकलन कर भविष्य की योजना बनायी जाती है। इतिहास से सीखने
और सम्हलने की सीख लेनी चाहिए। इतिहास-लेखन
अति संवेदनशील लोककल्याणकारी साधना है।
किन्तु कटु सत्य ये है कि शब्दशः-सत्यशः इतिहास
लिखा ही बहुत कम जाता है। ज्यादातर इतिहास लिखवाया ही जाता है। लिखने और लिखवाने
का फर्क तो आप समझते ही होंगे...।
प्रेरित
कर लिखवाया गया इतिहास पथ-प्रदर्शक और प्रेरणादायी न होकर भट्ट्प्रशस्तिगाथा
मात्र होकर रह जाता है। लिखवाए गए इतिहास से
कुण्ठा, आत्महीनता या फिर एक पक्षीय अहंकार को ही बल मिलता है।
बेचारे
सोढ़नदासजी इसी उहापोह में हैं—करें तो क्या करें। ऋषि-महर्षि तो तत्वान्वेषी के
रूप में प्रसिद्ध हैं। वैज्ञानिक भी वर्तमान समय के ऋषि-महर्षि तुल्य ही हैं।
दार्शनिकों का भला क्या कहना, वे तो जन्मजात चिन्तनशील होते हैं। यहाँ तक कि कवि-लेखक के विचारों का घोड़ा
भी किसी से कम कुलाँचे नहीं मारता। हालाँकि इन सबके ‘रेस’ में धकिया-मुकिया कर राजनेता
प्रायः सबसे आगे निकल जाता है—ऐसा मानना है सोढ़नदासजी का।
ऐसा
मानने का ठोस कारण भी है। जैसा कि आप
जानते ही हैं कि हमारा ‘भारत’ कभी
खोया नहीं था, जबकि एक धूर्त ऐयाश नेता
द्वारा ‘भारत की खोज’ की गई। मजे की बात
ये कि ये खोजी रिपोर्ट बहुत प्रचारित-प्रसारित हुई, ताकि जन-जन तक संदेश पहुँच
सके। भारत को अपनी गरीबी, बदहाली और कमजोरी का भान हो सके। भावी भारतीय आत्महीनता और
कुण्ठाओं में जीने का अभ्यासी हो सके। अपने ही धर्म वा सम्प्रदाय को पानी पी-पीकर गरिया
सके। जाति और वर्ग-विभेद की दुधारी तलवार से अपने अपनों का ही कत्ल कर सके। जिनमें
मार-काट-हत्या करने की हिम्मत न हो, वो भी कम से कम कलह की चिंगारी को हवा तो दे ही
सकता है न !
सच
तो ये है कि भारत कभी खोया नहीं, किन्तु ‘भारतीयता’
निरन्तर खोती ही रही। यहाँ तक कि ‘भारत’ भारत न रहकर ‘इण्डिया’
बन गया। और इसके लिए मुख्य रूप से चन्द राजनेता ही जिम्मेवार हैं, भले ही वे इसका
श्रेय-अश्रेय लेना कदापि न चाहें ।
विगत
सहस्राब्दियों की पराधीनता के कचड़े की अम्बार
तले हमारा गौरवमय सत्य दबा कराह रहा
है। दब इसलिए गया क्योंकि झूठ का गन्धाता कचरा उसपर लाद दिया गया।
बाकी
कचरों का कितना हिसाब लिया जाए, दो-चार बानगी ही काफी है—दुर्गन्ध के भभाके के
लिए।
पुस्तैनी ‘हाईब्रीड’
भी ‘पंडित’ की चौबन्दी-चादर में देश-दुनिया की
सैर किया...
‘ मेरा क्या होगा कालिया’ वाले फिल्मी अन्दाज
में ‘गोहत्या बन्द हो जायेगी तो मेरा क्या होगा...मैं तो
गोमांस के बिना रह ही नहीं सकता’— कह कर सबका मुँह बन्द कर दिया अपने कुटिल
कृपाण से। ‘नायक’ नकाबपोश हो
गया, ‘खलनायक’ की ताज़पोशी हो
गई...और इससे भी मजेदार बात— ‘ दे दी हमें आजादी बिना
खड्ग विना ढाल...साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल...’ कमाल का करिश्मा तो कर ही दिखाया न...गोरंडों ने नील की खेती शुरू करायी
थी, उसके पोसपूतों ने ‘जहर’ की
खेती को बढ़ावा दिया...आरक्षण का जहर...खूब लहलहाया इस जहर का पौधा । इसके साथ ही ‘हरिजन’ का बीज दो-चार छोटे गमले में टेस्ट किया
गया। उसकी अच्छी बढ़त से प्रफुल्लित होकर अगड़ा, पिछड़ा, दलित, महादलित और न जाने
किन-किन कटीली झाड़ियों का बाड़ लगाया गया सामाजिक घेरेबन्दी के लिए। ‘वसुदैवकुटुम्बकम्’ वाला आर्यावत भाई का निवाला
छीनने को आतुर हो गया...भाई का खून पीने को मचल उठा...चार वर्णों वाला सनातनी,
चौआलिस हजार जातियों में बँट गया...।
किन्तु
जरा गौर फरमायें तो पता चले कि जाति तो दो ही है—भोग करने वाला और भुगतने वाला।
शोषण करने वाला और शोषित होने वाला। ठगने वाला और ठगाने वाला। लूटने वाला और लुट
जाने वाला।
दार्शनिक
लोग द्वैत और अद्वैत की बात करते हैं, यानी ब्रह्म और जीव की बात। सृष्टि में दो
ही तो हैं और इसे ही अद्वैतवादी मोड़-चमोड़कर एक बना देते हैं—ब्रह्म सत्यम्
जगत् मिथ्या । यानी जो कुछ दिखलायी
पड़ रहा है, जो कुछ सुनायी पड़ रहा है सब कुछ झूठा ही झूठा । फिर कहाँ कोई शोषक,
कहाँ कोई शोषित, कहाँ कोई दलित, कहाँ कोई सवर्ण, कहाँ कोई चोर, कहाँ कोई ईमानदार,
कहाँ कोई अपराधी, कहाँ कोई बलात्कारी...।
है
न मजेदार बात
!
‘बुक’ की
बात मानें तब तो स्त्रियों में आत्मा ही नहीं होती। ‘किताब’ बहत्तर
हूर्रों में लुभाए हुए है जन-मन को। रही बात ‘ ग्रन्थ और पुस्तक’
की तो इसमें भी घनघोर घालमेल है—‘उपमा’ और ‘अतिशयोक्ति’ के जल-बहुल
दूध से शुद्ध मक्खन निकालने में मॉडर्न मशीनें भी फेल। और पुरानी शैली सुपाच्य
नहीं प्रायः लोगों के लिए। जितने खेमे, उतने राग। अन्धों की नगरी में हाथी पर
व्याख्यान जैसा...।
बुक,
किताब, ग्रन्थ, पुस्तक—सब तो झूठे ही हैं। फिर भला चेहरा क्यों सच वाला दिखलाया
जाए ! यही कारण है कि भैंसें भी पालर से ‘ब्यूटीक्वीन’ बन कर निकलती है। गँजे भी ‘बिग’ लगाकर जुल्फ़ों वाले नज़र आते हैं। कौए बगुले को पीछे छोड़ हंस से होड़
लगाते हैं। सियार, सिंह का अभिनय करता नजर आता है। सियारों से घिरा हुआ बेचारा सिंह
अपना असली पहचान भूल गया है।
दिक्कत
सिर्फ इसी बात की है कि एक आदमी को अनेक मुखौटे रखने की जरुरत पड़ती है। किन्तु
उपाय ही क्या है?
सोढ़नदासजी का कहना है कि अद्वैतवेदान्त
दावा करता ही है कि एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है , बाकी सारा जगत मिथ्या है, ऐसी
स्थिति में जब सब कुछ झूठ ही है संसार में तो नेता यदि झूठ बोलता है तो इसमें गलती
क्या है? झूठे वायदे करता है, झूठा इतिहास लिखवाता है, झूठा इतिहास पढ़वाता है,
झूठे इतिहास का प्रचार-प्रसार करवाता है, तो इसमें गलती कहाँ है?
अपने
इसी उलझन का हल निकालने के लिए सोढ़नदासजी आज सुबह-सुबह ही दाखिल हुए थे मेरे
यहाँ। दोपहर हुआ। दिन ढ़ला। शाम होने को आयी। उलझन का अन्धेरा सिर पर मंडरा ही रहा
है। कोई निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे हैं। हम भी उनकी मदद करने में असमर्थ हैं।
ऐसे में आप ही सुझाव दें—झूठे संसार में झूठ की तलाश की जाए तो कैसे?
बेचारी मछली यदि तलाब की खोज में निकलना चाहे तो क्या हश्र होगा !
चिन्ता इसी बात की है ।
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