नाड्योपचारतन्त्रम्ःThe Origin Of Accupressure)

नाड्योपचारतन्त्रम्ःThe Origin Of Accupressure)


                             षष्ठम् अध्याय
                        रोगोत्पत्ति सिद्धान्त
    नाड्योपचार (एक्यूप्रेशर) पद्धति में रोगों के उत्पन्न होने के कई कारण कहे गये हैं। यहां उन कारणों पर यत्किंचित विचार करते हुए प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है।
(१)  जीवन को जीव-विद्युत-प्रक्रिया(Bio electric phenomenon) कहा गया है। कहने का तात्पर्य ये है कि हमारा जीवन कायगत विद्युत शक्ति पर ही अवलम्बित है। जब तक यह शक्ति सम्यक् रुप से संचरित होते रहती है,तब तक ही हमारा जीवन है; और जब तक जीवन है,तब तक ही शरीर की सभी क्रियायें- खाना-पीना, श्वासोच्छ्वास, चलना-बोलना, प्रजनन,उत्सर्जन आदि सभी क्रियायें सम्भव है। यही कारण है कि एक्यूप्रेशर विशेषज्ञों ने शरीर में चेतना-शक्ति ची के निर्विघ्न प्रवाहित होते रहने की क्रिया को ही पूर्ण स्वास्थ्य का द्योतक माना है। चाहे मन की आधि हो या तन की व्याधि,दोनों की उत्पत्ति का अर्थ ही है कि कहीं न कहीं ,किसी न किसी रुप में चेतना-शक्ति-प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न हुआ है। अर्थात किंचित कारणों से – आहार-विहार-विपर्यय से प्रभावित (व्यतिक्रमित) होकर चेतना का निर्विघ्न प्रवाह वाधित हो जाता है,तभी उसका प्रभाव शरीर या मन या दोनों पर पड़ता है। चेतना के प्रवाह के लिए मुख्य रुप से दो संस्थान- स्नायुसंस्थान और रक्तपरिभ्रमण- संस्थान (Nervous System & Circulatory System) जिम्मेवार है। और इन दोनों में रक्तवाहिकायें की असली कारण हैं। क्यों कि इनमें किसी न किसी कारण वश संकोच,प्रसार,अवरोध,आदि विकृति के परिणामस्वरुप ही स्नायुमंडल प्रभावित होता है,फलतः निर्विघ्न चेतना प्रवाह वाधित (अवरुद्ध) हो जाता है, और तत्स्थिति के अनुसार कोई न कोई  गड़बड़ी (व्याधि या आधि)उत्पन्न हो जाती है।
(२)  दूसरा तथ्य भी इसका ही समानधर्मी है- रक्तवाहिकाओं में कुछ रवादार           (Crystals) सूक्ष्म रसायनिक पदार्थ एकत्र हो जाते हैं,जिनके परिणामस्वरुप रक्तप्रवाह में वाधा उत्पन्न हो जाती है। रक्तप्रवाह वाधित होने के चलते स्नायुसंस्थान का सम्यक् सम्पर्क ढीला पड़ जाता है। जबतक ये रवेदार पदार्थ अपने स्थान पर उपस्थित रहेंगे,अर्थात वे जिस क्षेत्र,मेरीडियन या जोन में रहेंगे, उससे सम्बन्धित अवयव (अंग) प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से प्रभावित होता रहेगा। किन्तु हां, यहां यह आवश्यक नहीं कि किसी खास भाग के अवरोध के चलते,पूरा जोन(क्षेत्र)(पथ),मेरीडियन ही प्रभावित हो जाये। ऐसा क्यों नहीं होता,या होता है तो क्यों- इसे समझने के लिए गहनता से योगसिद्धान्त व आयुर्वेदशास्त्र के पञ्चतत्त्व मीमांशा को समझना आवश्यक है।(हालांकि यह एक्यूप्रेशर का प्रधान विषय भी नहीं है।अतः इसे समझे बिना भी अच्छा एक्युप्रेशर बना जा सकता है।)
(३)  उपर्युक्त तथ्य के समतुल्य ही एक और बात है- मुख्य कारण तो हुआ- परिसंचरण (Circulatory) का व्यवधान ही,क्यों कि रक्त परिभ्रमण में जरा भी व्यवधान उपस्थित नहीं होना चाहिए। इसका कारण यह है कि रक्त द्वारा ही पूरे शरीर को विभिन्न प्रकार के पौष्टिक (जैविक,रसायनिक) तत्त्व पहुंचते हैं। प्राणकण (ऑक्सीजन) भी पूरे शरीर को इसी से मिलता है। साथ ही रक्त ही वह उपादान है,जो शरीर के विभिन्न भागों से व्यर्थ और अवांछित पदार्थों को समेटकर गुर्दों (Kidney) को लाकर देता है,और गुर्दे की कार्यप्रणाली वांछित-अवांछित का सूक्ष्म विश्लेषण करके,अवांछित (अनुपयोगी) पदार्थों को बाहर भेजने की व्यवस्था करती है,तथा वांछित (उपयोगी) पदार्थों को आवश्यक अवयव (अंग) तक पहुंचाने की भी व्यवस्था करती है। इस गहन प्रक्रिया के परिणामस्वरुप ही हमारा शरीर स्वस्थ और सबल बना रह पाता है। अब विचारणीय है कि किंचित कारणवश यह परिसंचरण प्रक्रिया वाधित हो जायेगी तो गुर्दे अपना चमत्कार क्यों कर दिखला पायेंगे? नतीजा यह होगा कि हमारा शरीर रुग्ण हो जायेगा।
(४)  चीनी विशेषज्ञों का मत है कि शरीर के विभिन्न केन्द्रों पर विभिन्न विकार- शीत, उष्ण, रुक्षता,चेतना-शून्यता, चिकनाई, कठोरता, तरलता आदि एकत्र हो जाया करते हैं, जिसके कारण ही रोग उत्पन्न होता है। ध्यान देने की बात ये है कि उक्त विकारों का जन्मदाता हमारा आहार-विहार ही तो है,जिसके परिणाम से ये समस्या आयी,और ची के उभय बलों – यिन और यांग असंतुलित हो गये। क्यों कि यह पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है कि ची (प्राणऊर्जा) का संतुलन ही प्राकृतिक संतुलन(Natural Balancing of the body) है, और इसका असंतुलन ही रोग के रुप में प्रकट होता है।

  इस प्रकार उपर्युक्त सभी तथ्यों में मुख्यरुप से एक ही बात स्पष्ट हुयी- रोगोत्पत्ति का एक ही कारण नजर आया- जैवऊर्जा(Bioelectricity) का व्यवधान। इस सम्बन्ध में यूनानी विद्वान हिपोक्रेटीज का कथन है कि मानव शरीर के भीतर वस्तुतः प्राकृतिक शक्तियां ही रोग-निवारण या रक्षण का कार्य करती हैं। हमारे आयुर्वेद मनीषियों की भी यही मान्यता है। प्रथमतः शरीर स्वयं ही अपनी रक्षा का उपाय करता है,क्यों कि शरीर के भीतर ही रक्षा के सारे उपादान उपस्थित हैं। वे सही तरीके से अपना कार्य भी निरन्तर करते रहते हैं। किन्तु उन्हें जो कुछ बाहर से ले जाना पड़ता है- अन्न,जल,वायु,विचार(भी)...इसमें ही गड़बड़ी होने पर भीतर की प्राकृतिक व्यवस्था गड़बड़ा जाती है,अन्यथा कोई कारण नहीं कि हमारा ये सुन्दर शरीर कभी रोगी हो। आमतौर पर आहार का सामान्य शाब्दिक अर्थ सिर्फ भोजन से लिया जाता है,किन्तु उसका व्यापक अर्थ है- वह सारा कुछ जिसे हम आहरित करते हैं- बाहर से लेते हैं- पंच ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की सहायता से। और इस प्रकार ठोस,तरल और वायु के अतिरिक्त सूक्ष्म आहरण- विचार,व्यवहार,दर्शन, स्पर्शन,अनुभूति आदि सभी आहार की सीमा में समाहित  होजाते हैं। और फिर शेष ही क्या रह जाता है- जिसे रोगोत्पत्ति का कारण कहा जाय?
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 क्रमशः...

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