Posted by kamlesh punyark
punyarkkriti.blogspot.com
विलखता श्मशान :: विहंसता इन्सान कड़ाके की ठंढ में ऐन गोधूली बेला में स्वनामधन्य भोंचूशास्त्रीजी अपने कंधे पर छोटी सी गठरी लिए, विष्णुनगरी, गयाधाम के श्मशान परिसर की ओर जाते हुए नजर आए । उत्सुकतावश मैं भी उनके पीछे-पीछे लपकता चल दिया। पता नहीं किसकी अन्तिमयात्रा में शामिल होने जा रहे हैं वे। चुँकि पीछे से किसी वरीय बन्धु को आवाज लगाना सभ्यता के विपरीत है, भले ही आजकल ये सब औपचारिताएँ गधे की सींग की तरह गायब हो गई हैं। यात्रा श्मशान की ओर हो रही है, इसलिए चरणवन्दन तो उचित नहीं। अतः हाथों के संकेत से ही सवाल करना मुनासिब लगा। समीप पहुँचकर पूछा—क्या बात है शास्त्री जी ! किसे विदा करने जा रहे हैं इस भयंकर शीतलहरी में ? मुँह विचकाते हुए शास्त्री ने कहा — “ ढोंगी बाबाओं की तरह राख लपेटकर, श्मशान साधना तो करनी नहीं है और न योग्य गुरु ही मिलने वाले हैं असली साधना सिखाने वाले। दरअसल लकड़ी बहुत महंगी हो गई है। कान कंपकपाने वाली शीतलहरी में आग तापने जा रहा हूँ बचवा ! मुझे भला किसे विदा करने की पड़ी है...कौन है मेरा यहाँ अपना...मानो तो सब अपने ही हैं, न मानों तो इस दुनिया में किसी...
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