जरा चैन से मरने दो मेरे लाल ! हमारे वैदिक-पौराणिक शास्त्रों ने एक ओर सुखमय जीवन-यापन की कला सिखलायी है, विधि बतलाया है, तो दूसरी ओर आसन्न मृत्यु-काल के अपरिहार्य कृत्य भी सुझाए हैं। इतना ही नहीं, जीवन के बाद के यानी मृत्योपरान्त के अत्यावश्यक कृत्यों पर भी विशद प्रकाश डाला है। किन्तु खेद और चिन्ता की बात है कि स्वयं को शिक्षित, ज्ञानवान, समृद्ध माने बैठे आधुनिक विचारवान इन तीनों सत्शास्त्र निर्देशों से बिलकुल ही अनजान हैं। और अनजान इसलिए नहीं हैं कि इन्हें भान नहीं है, प्रत्युत जानबूझकर मुँह मोड़े हुए हैं इस सद्विज्ञान से। इसे समझने, जानने, मानने को उत्सुक नहीं हैं, राज़ी नहीं है। क्यों कि ठीक से मान लेने पर आधुनिकता में कहीं बट्टा न लग जाए—भय समाया हुआ है। कैसी विडम्बनापूर्ण - चिन्ताजनक स्थिति है आज की—प्राकृतिक नियमों को तिलाँजलि देकर, जीवन के मध्य पड़ाव पर ऐन-केन-प्रकारेण वैवाहिक बन्धन में बँध जाना या आँख मूँदकर गिर पड़ना, ऐन्द्रिक सुख-भोग-बाधा से बँचने के लिए सृष्टि-संरचना में कृत्रिम अवरोध पैदा करना, आधुनिक संसाधन...
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